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“श्राप” शिवानी की कहानी: श्राप , फलीभूत हुआ या नहीं किन्तु फ्लैट की दीवार से हल्दी लगी उन हथेलियों की छाप अब एकदम ही विलीन हो चुकी है।

by Engr. Maqbool Akram
January 13, 2024
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आरम्भ में ही स्पष्ट कर दूँ यह कहानी नहीं है। कल, मैंने उसे सपने में न देखा होता तो शायद मेरी लेखनी गतिशील भी न होती।

 

हठात् कल रात वह चुपचाप आकर, मेरे पायताने बैठ गई थी, उसी वधू वेश में, जिसमें उसे आज से दस वर्ष पूर्व, इसी फ्लैट में देखा था। न उसने कुछ कहा, न हिली,
न डुली, फिर अपनी दोनों मेहँदी लगी गोरी हथेलियाँ,
मेरे सामने फैलाकर वह फिक–से हँस दी। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी,
सपना टूट गया, किन्तु सपने का आतंक नहीं गया।

 

दस वर्ष पूर्व भी मैं इसी फ्लैट में रहती थी। नीचे के फ्लैट की गृहस्वामिनी एक दिन अचानक मेरे पास एक छोटी–सी याचना लेकर उपस्थित हुईं। उनकी बड़ी बहन एवं भगिनीपति अपनी पुत्री का विवाह करने उनके फ्लैट में आ रहे थे। क्या मैं उन्हें कुछ दिनों के लिए, अपने दो कमरे दे सकूँगी?

 

वैसे अपने एकाकी जीवन में, मुझे किसी प्रकार का व्याघात अच्छा नहीं लगता, किन्तु प्रतिवेशियों के प्रति सामाजिक कत्र्तव्यबोध ने, साथ–साथ किसी की भी कन्या के विवाह में यह सामान्य–सा सहयोग देने की बलवती इच्छा ने स्वयं मेरी सुविधा, असुविधा को पीछे ढकेल दिया। मैंने स्वीकृति दे दी। विवाह तिथि आसन्न थी, इसी से देखते ही देखते अतिथियों की भीड़ जुटने लगी।

 

मुझे दो अत्यंत निरीह शान्त अतिथियों की मेजबानी निभानी थी, कन्या के सौम्य पिता एवं वृद्ध पितामह! बड़े संकोच से, दोनों ही ने कृतज्ञतापूर्वक मेरा आभार प्रदर्शन किया, ‘‘क्षमा कीजिएगा, आप ही को कष्ट देना पड़ा, पर हम आपको कोई भी कष्ट नहीं होने देंगे, केवल रात सोने के लिए आएँगे।

 

और सचमुच ही मुझे यह पता नहीं लगा कि मेरे यहाँ सर्वथा अपरिचित अतिथि आए हैं। उनके रहने से मुझे रंचमात्र भी असुविधा नहीं हुई। यही नहीं उनके जलपान, भोजन, चाय के साथ–साथ, मेरे लिए भी थाल लगकर आने लगा।

 

शामियाना लग गया था, दरियों पर बीसियों दर्जन बच्चे नये–नये कपड़े पहन गुलाँठें खाने लगे थे। हलवाई ने चूल्हे का विधिवत् पूजन कर कड़ाही चढ़ा दी थी। मैली बनियान को छाती पर चढ़ा, उन्नत उदर खुजाता हृष्ट–पुष्ट हलवाई बमगोले–से बूँदी के लड्डू और ढाल–सी मठरियाँ बनाता, बड़े–से टोकरे में रख रहा था कि सहसा शोर मचा, ”अशर्फी देवी जल गई!’’

मैंने भागकर बरामदे से झाँका कि देखूँ कौन जल गया। हलवाई बड़बड़ा रहा था, ‘‘सब हरामखोर हैं, अब देखिए भाई साहब, दो मिनट के लिए इन्हें कड़ाही सौंपकर सुर्ती–खैनी खाने गया कि जलाकर राख कर दी।“

 

फिर उसने एक जली स्याह मठरी को निकालकर पास खड़े कारीगर को डाँटा, ‘‘अब खड़ा मुँह क्या ताक रहा है, जरा–सी राख ला तो, कोयलों पर डाल, आँच मन्दी करूँ।“

 

“कौन अशर्फी देवी जली कृष्णा?’’ मैं अपना कौतूहल रोक नहीं पाई और मैंने गृहस्वामिनी से पूछ लिया।

 

”अरे मट्ठी जल गई,’’ उसने हँसकर कहा, ‘‘हमारे यहाँ लड़की की ससुराल को ऐसे सवा सौ लड्डू और इक्यावन मट्ठियाँ भेजी जाती हैं, हर मट्ठी पर घर की बड़ी–बूढ़ियों का नाम लिखा जाता है, अशर्फी देवी बिट्टी की होनेवाली ददिया सास हैं; उन्हीं की नाम लिखी मट्ठी जल गई।“मुझे हँसी आ गई, अपने पीछे खड़े कन्या के पिता को मैं देख नहीं पाई थी।

 

“अब देखिए ना,’’ वे खिसियाए स्वर में बोले, ‘‘कैसे बेकार के रिवाज हैं पर एक हम हैं कि इन्हें मनाए जा रहे हैं, पर मजबूरी है, न करें तो सोचेंगे हम पैसा बचा रहे हैं।“

 

कन्या के पितामह सारा दिन ही सड़क पर टहलते रहते। मैंने एक दिन देखा, इधर–इधर देखकर उन्होंने एक ठेलेवाले को रोककर चार केले खरीदे और जल्दी–जल्दी खा गए। घर का आँगन तो मिष्टान्न– पकवानों की सुगंध से सुवासित हो रहा था।

 

फिर ये बेचारे भूखे कैसे रह गए? कन्या के पिता को नीचे जाने में जरा भी विलम्ब होता तो नीचे से कर्कश स्वर में कन्या की माँ अधैर्य से पुकारने लगतीं, ‘‘सोते ही रहोगे क्या? अमीनाबाद से रजाई का बक्सा कौन लाएगा, मेरा बाप?’’

 

मैं स्तब्ध रह गई थी, यह जानकर भी कि पति एक सर्वथा अपरिचित गृह का अतिथि है और मेजबान भी बरामदे में खड़ी है, ऐसी औद्धत्यपूर्ण– अशालीन भाषा का प्रयोग!

 

”असल में, अचानक ही विवाह तिथि निश्चित हुई, उस पर वर पक्ष का आग्रह था कि हम लखनऊ आकर ही विवाह करें, इसी से बेचारी कुछ घबड़ा गई है, उस पर हाईब्लड प्रेशर है, आप अन्यथा न लें।“ कन्या के पिता ने पत्नी की अशिष्टता की कैफियत दी तो मैंने हँसकर कहा, ‘‘कन्या के विवाह में किस माँ का पारा नहीं चढ़ता? कौन पत्नी पति पर नहीं बरसती? मैंने भी तीन–तीन कन्यादान किए हैं।“

 

आश्वस्त होकर वे चले गए, किन्तु जिस दिशा को जाते, बेचारे पत्नी के शब्दबेधी वाणों से निरन्तर शरविद्ध होते रहते।

”हद है, सौ बार कह चुकी हूँ कि बैंक से रेजगारी लानी है, नये नोट लाने हैं, अरे आखिर कब नोट आएँगे और कब उनकी माला बनेगी! पर कोई सुने तब ना न अभी तक हलवाई को बयाना दिया गया है, न सकोरे– पत्तलों का इन्तजाम हुआ है, आखिर आप कर क्या रहे थे अब तक?’’ जितना ही कर्कश स्वर पत्नी का था, उतनी ही कोमल स्वर पति का था।

 

गुनगुनाकर न जाने क्या कहते कि उत्तर सुन नहीं पाती। रवीन्द्रनाथ ने नारी के दो रूपों का वैशिष्ट्य बताया है ‘जननी या प्रिया’।
मेरी धारणा है कि पुरुष के भी दो ही रूप हैं स्वामी या सेवक। बेचारे मेरे अतिथि दूसरी श्रेणी में आते थे।

 

लगता था उनका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। उस दबंग स्वर की गरीयसी स्वामिनी को देखने का कौतूहल ही मुझे वहाँ खींच ले गया। उनके दीर्घांगी मेद–बहुल शरीर को देखकर मुझे लगा कि उस व्यक्तित्व के चैखटे में, वह रोबीला कंठ–स्वर एकदम ठीक ही बिठाया है विधाता ने।

 

”आपने बड़ी कृपा की,’’ कन्या की माँ ने बड़े आदर से मुझे बिठाया,

”वहाँ तो हमारी इत्ती बड़ी कोठी है कि सौ मेहमान भी आ जाएँ तो पता न लगे, पर लड़केवालों की जिद थी कि हम यहीं आकर शादी करें। अरी दिव्या, क्या कर रही है, यहाँ आकर देख कौन आया है।“ फिर मेरी ओर देख वे हँसकर बोलीं, ‘‘अजी आपकी किताबों के पीछे तो यह दीवानी है। एक कहानी नहीं छोड़ती।“ बेचारी! तब क्या वह जानती थी कि एक दिन उसे भी मेरी कहानी नहीं छोड़ेगी!

 

एक गोरी दुबली–पतली किशोरी, लज्जावनता मेरे सम्मुख खड़ी थी। चेहरे पर वही अद्भुत लुनाई आ गई थी, जो विवाह–तिथि निश्चित होने पर साधारण नैन–नक्शवाले चेहरे को भी असाधारण बना देती है। जिसने भी उसका नाम रक्खा था वह निश्चय ही साहित्य–रसिक रहा होगा।

 

मेरा अनुमान ठीक था। ‘‘एक बार सुमित्रानन्दन पन्तजी हमारे यहाँ आए थे, तब यह तीन साल की ही थी, हम इसे टुँइया कहकर पुकारते थे, बोले, ‘‘यह भी भला कोई नाम है, दिव्या कहकर पुकारो’, बस तभी से यह दिव्या हो गई।“

 

”यह तो अभी बहुत छोटी है, आप अभी से इसकी शादी किए दे रही हैं।’’ मैंने कहा।

 

”अजी छोटी काहे की, अठारहवें में पड़ेगी, देखने की है बजरबौनी। इसकी उमर में तो हमारी दो बेटियाँ हो गई थीं।“

 

उसी दिन दिव्या के पिता ने मुझे बताया कि उनकी भी इच्छा अभी दिव्या का विवाह करने की नहीं थी, पर लड़का अच्छा मिल गया, उनकी इस साली ने ही रिश्ता पक्का किया था।

 

”आप तो जानती हैं, हम लोगों में अच्छे लड़के के लिए अच्छी–खासी रकम देनी पड़ती है। दुर्भाग्य से हम कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं, हमारे यहाँ एक प्रकार से रेट बँधे हैं, आई.ए.एस. लड़का है तो सवा लाख, आई.पी.एस. तो एक लाख, इंजीनियर है तो अस्सी हजार और फिर साधारण नौकरीवाले के लिए भी कम–से–कम बीस हजार, उस पर दहेज अलग, डॉक्टर लड़के तो कन्धे पर हाथ नहीं धरने देते।

 

यानी जैसा दाम खर्च कर सको वैसी ही चीज लो। कभी–कभी तो सोचता हूँ बहनजी, बिहार में जो कन्या के पिता, सुपात्रों का अपहरण कर जबरन दामाद बना रहे हैं उसमें भी उनकी मजबूरी ही रहती होगी…’’

”तो आपको इस रिश्ते में भी रकम भरनी होगी?’’ मैंने पूछा।

 

”और नहीं तो क्या? पर ये लोग शरीफ हैं, इन्हें लड़की पसन्द है, कहा है कुछ नहीं माँगेंगे, हम अपनी बिटिया को जो देना चाहें दे दें।“बड़े गर्वजन्य सन्तोष से उनका शान्त चेहरा दमक उठा। बेचारे शायद इस कटु सत्य से अनभिज्ञ थे कि मुँह से कुछ न माँगनेवाले ही कभी–कभी मुँह खोलकर सब कुछ माँगनेवालों से भी अधिक खतरनाक होते हैं!

 

लड़का चार्टर्ड एकाउंटैंट था। अपनी दो–दो कोठियाँ थीं, बड़ा भाई पुलिस का ऊँचा अफसर था, छोटा डॉक्टर। जैसे–जैसे विवाह–तिथि निकट आ रही थी, छोटे–से फ्लैट में रौनक की गहमागहमी बढ़ती जा रही थी। कभी ठेलों से सोफासेट, पलँगों का जोड़ा उतारा जा रहा था, कभी स्टील की अलमारी और फ्रिज।

 

उधर घरातियों के बीसियों नखरे, कोई ठंडाई की फरमाइश कर रहा था, कोई लस्सी की, आँगन में पड़े कुर्सियों के स्तूप का शिखर, मेरे फ्लैट की सरहद से सट गया था। बच्चों की चें–चें, पें–पें, स्त्रिायों का कलरव, सन्ध्या होते ही और घनीभूत हो उठता।

 

उधर कन्या के ताऊ–ताई बुलन्दशहर से अचानक उस समय आ टपके थे जब उनके आने की आशा त्याग दी गई थी। कभी–कभी नीचे चल रहे दो बहनों के वार्तालाप का स्वर बड़े दुःसाहस से मेरे कमरे की दीवालों को भेदकर चला आता। स्पष्ट था कि कन्या की जननी एवं ताई के सम्बन्ध बहुत सुविधाजनक नहीं थे।

 

”अरी आज तक कोई जिठानी देवरानी का सुख देख सुखी हुई जो हमारी महारानी होगी?’’ कन्या की माँ एक दिन कह रही थी, ‘‘बोलेंगी तो लगेगा शहद घोल रही हैं, पर बस चले तो हमारा कलेजा निकाल चबाय डारे।“

 

मैं सोचती हूँ नारी स्वभाव की जितनी अभिज्ञता विवाहादि अनुष्ठानों में बटोरी जा सकती है उतनी शायद जीवन–भर इधर–उधर विभिन्न गृहों के अन्तरंग कक्षों में झाँक–झूँककर नहीं बटोरी जा सकती।

 

मैं देख रही थी कि जहाँ आमोद–प्रमोद, खिलाने–पिलाने, नाचने–गाने की भूमिका सँजोई जाती, झट से मुँह लटकाकर कन्या की ताई छत की मुँडेर पकड़ ऐसे खड़ी हो जाती जैसे वह किसी अपरिचित परिवार की भूल से न्योती गई अतिथि हो।

 

कोई भी देखकर बता सकता था कि गृह की वह साज–सज्जा, बृहत् सुनियोजित आयोजन, बिजली की जगमगाहट कन्या के चढ़ावे में आनेवाले गहनों का सुना–सुनाया लेखा–जोखा ताई की छाती पर बीसियों विषधरों को लोटा रहा है।

 

उधर कन्या की माँ कमर में आँचल खोंसे विवाह के कर्मक्षेत्र में अकेली डटी थी। कभी पति पर चिंघाड़तीं, कभी हलवाइयों पर और सन्ध्या होते ही ढोलक लेकर बैठ जातीं, यही नहीं, एक बार नाचने को कहा गया तो चट घुँघरू बाँध ऐसा थिरकीं कि क्या कोई बाईजी नाचेगी:

 

कहना तो मेरा मान ले,

मेरे शहज़ादे।

 

विवाह का एक ही दिन रह गया था, अचानक मेरे लिए नीचे से बुलौआ आ गया, मैं जल्दी नीचे चली आऊँ, वरपक्ष के अतिथि दहेज सामग्री का अवलोकन करने आ रहे हैं। यह भी उनके यहाँ की एक विशिष्ट अनिवार्यता थी। देखकर, यदि कुछ फेरबदल करना हो तो कन्या के पिता को वही करना होगा।

 

मैं नीचे गई और करीने से सजे विभिन्न उपकरणों को देखती ही रह गई। कौन–सी ऐसी वस्तु थी जो बेचारे निरीह पिता ने नहीं जुटाई थी। साड़ियों का स्तूप, टेलीविजन, फ्रिज, इस्तरी, बत्र्तन, रेशमी रजाइयाँ, लट्ठे– मलमल के थान, गैस का चूल्हा, सिलिंडर, बिजली के पंखे, आदि।

 

 इतने ही में अचानक स्त्रिायों की भीड़ में भगदड़ मच गई। ‘आ गए, आ गए’ कहती कन्या की माँ सिर पर आँचल खींच, द्वारपाल की मुद्रा में सतर्क खड़ी हो गई। कहाँ गई वह तेजस्वी मुखमुद्रा और थानेदार का–सा वह रौबीला कंठस्वर!

 

”वह है नीली कमीजवाला।“

”अरे नहीं वह तो छोटा भाई है।’’

”तब कौन?’’

”अजी वह है चेचकरू दागवाला…’’

 

”हाय राम, यह तो दो बच्चों का बाप लग रहा है?’’ विभिन्न फुसफुसाहटों के सूत्र से मैंने भी दूल्हे को पहचान लिया। तब क्या सचमुच इसी अन्धे के हाथ बटेर लगी थी? कहाँ दिव्या और कहाँ यह! किसी मांसहीन कंकाल को ही जैसे किसी ने पहना–ओढ़ा के भेज दिया था। हाथ में छड़ी लिये, पगड़ी बाँधे ससुर, ऐसे चले आ रहे थे जैसे कोई राजप्रमुख प्रजा के बीच से गुजर रहा हो।

 

”देखिए समधीजी,’’ साड़ियों के स्तूप की ओर वर के पिता ने छड़ी घुमाई, हमारे घर की रुचि जरा सोफियानी है, वे ये सब तड़क–भड़क की बनारसी कभी नहीं पहनेंगी ये सब हटाकर कांजीवरम् और चंदेरी गढ़वाल रखवा दें। यही फरमाइश मेरी लड़कियों ने भी की है।“

 

छड़ी से उन्होंने साड़ियों को ऐसे उथल–पुथल दिया जैसे कोई स्वास्थ्य निरीक्षक, सड़क की पटरी पर सड़ी–गली सब्जी या खुले–कटे तरबूज का ठेला उलट देता है। मुझे बहुत बुरा लगा, यह भी कोई तरीका है। कन्या पक्ष के इतने अतिथियों के सामने कन्या के पिता का ऐसा अपमान! अलग ले जाकर भी तो कह सकते थे।

 

कन्या के पिता अन्त तक हाथ जोड़े, ऐसी व्यर्थ कृतज्ञ मुस्कानें बिखेरते रहे जैसे कह रहे हों, आपकी जूती मेरा सिर! चलते–चलते सहसा वर के पिता मुड़े, ‘‘हमने तो आपसे कह ही दिया है, हम कुछ नहीं लेंगे। द्वाराचार में हमारा और हमारे अतिथियों का स्वागत ठीकठाक रहे, बस इसी का ध्यान रखिएगा।’’

 

बस, इसी आदेश के गूढ़ार्थ को बेचारा कन्या का पिता ग्रहण नहीं कर पाया। स्वागत तो अच्छा ही किया, अतिथियों के कंठ में अजगर–से पृथुल फूलों के हार भी पड़े। गुलाबजल का छिड़काव भी हुआ। वर के लिए कहीं से मर्सिडीज भी माँगकर फूलों से भरपूर सजाई गई।

 

आमिश, निरामिष व्यंजन, विदेशी सुरा के क्रेट के क्रेट, क्या नहीं किया बेचारे ने। लड़की विदा होने लगी तो माँ और मौसी को रोते–रोते गश आ गया, पर पिता हाथ बाँधे समधी के सामने ऐसे खड़े हो गए जैसे दीनहीन चोबदार हों।

 

एक ही रात में उनका दमकता चेहरा स्याह पड़ गया था। ‘‘आप लोगों के स्वागत में कोई त्रुटि हुई तो क्षमा करें” उन्होंने धीमे स्वर में कहा। समधी की आँखों से अभी तक रात की खुमारी नहीं उतरी थी। काले चेहरे पर आरक्त आँखें, इंजन के अग्नि स्तूप–सी चमक रही थीं।

 

एक ही आनन को, दशानन की अहंकारी मुद्रा में हिलाते वे बोले, ‘‘क्या त्रुटि रह गई है, यह भला हम अपने मुँह से क्या कहें, हम तो आपके मेहमान हैं।

 

पर
हाँ, यह जो 500 आपने द्वाराचार में रखे हैं, यह लीजिए, इन्हें आप हमारी ओर से नाई, धोबी, महरी और सालियों को बाँट दें।’’

 

अपमान से कन्या के पिता का चेहरा स्याह पड़ गया। मैं वहीं खड़ी थी, एक क्षण को उस निरीह व्यक्ति का अपमान स्वयं मेरा अपमान बन गया। जी में आया, नोटों की गड्डी, जिसे वर के पिता बरबस उनके हाथों में ठूँस रहे थे, छीनकर उन्हीं के मुँह पर दे मारूँ! पर मुझे किसी के व्यक्तिगत कर्मक्षेत्र में कूदने का अधिकार ही क्या था!

 

रात को वे नित्य की भाँति, चुपचाप अपने कमरे का ताला खोल रहे थे कि मैं टेलीफोन की घंटी सुनने आई, उन्होंने निरीह दृष्टि से मुझे देखा और सिर झुका दिया जैसे दोपहर की उस भद्दी घटना का समग्र उत्तरदायित्व उन्हीं का हो।

 

”चलिए सबकुछ निर्विघ्न सम्पन्न हो गया आपको बधाई भी नहीं दे पाई।“

 

वे एक पल को चुप खड़े रहे फिर रुँधे गले से बोले, ‘‘आप तो सब सुन ही रही थीं। कैसे विचित्र लोग हैं, पहले स्वयं कहा कि कुछ नहीं लेंगे, केवल कन्या के हाथ पीले कर, उन्हें सौंप दें। अब चलते–चलते पैंतरा बदल लिया। मुँह खोलकर कहते तो हम उनकी वह माँग भी पूरी कर देते। अब दिव्या की चिन्ता लगी रहेगी बहुत भोली है।

 

“आज पिताजी ने वह सब नाटक देखा तो नाराज होकर कानपुर लौट गए, बोले कसाई को गाय थमाना हमने नहीं सीखा तुम और बहू ही यह लेन–देन निभाते रहो, हम चले।“

 

”आप चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा, ऐसी सुन्दर लड़की है आपकी, गुण–रूप देखकर अपनी सब माँगें भूल जाएँगे।“

अब कभी–कभी सोचती हूँ, नारी होकर भी मैं उन्हें एक नारी के प्रति हो रहे अन्याय का विरोध करने को क्यों नहीं उकसा पाई। क्यों नहीं कह सकी कि जो सगाई में ही ऐसे नीच लोलुप स्वभाव का परिचय दे गया, उसे क्यों अपनी कन्या सौंप रहे हैं आप? अभी क्या बिगड़ा है, तोड़ दीजिए यह सगाई।

 

विवाह हुआ था और बड़ी धूम से हुआ था, इसी से थकान उतारने में भी कन्या पक्ष को तीन–चार दिन लगे, फिर अचानक एक दिन कन्या के पिता मुझसे विदा लेने आए। उसी दिन, साली के यहाँ से डेरा–डंडा उखाड़ वह प्रवासी परिवार चला गया। मैं उन्हें पहुँचाने बाहर तक जाकर लौट रही थी कि देखा, उनकी दीवार पर, दो दुबली–पतली हल्दी सनी हथेलियों की छाप बनी है।

 

”हमारे यहाँ ससुराल जाने से पहले लड़की यही छाप मायके की दीवाल पर लगा जाती है,’’ दिव्या की मौसी ने कहा। मन न जाने कैसा हो गया क्या पुत्री का यह स्मृति–चिद्द सदा अम्लान रह पाएगा?

Gaura Pant “Shivani”—Writer of this Story ” Shraap”.

धीरे–धीरे, प्रत्येक वर्ष की पुताई के साथ–साथ वह छाप धुँधली पड़ती– पड़ती, रेखा मात्र रह गई थी। दिव्या के मौसा की बदली हुई, वहाँ दूसरा परिवार आ गया, उन्होंने दीवाल पर डिस्टैम्पर करवाया और पूरे फ्लैट का नक्शा ही बदल दिया।

 

एक दिन दिव्या की मौसी मिल गई, ‘‘दिव्या कैसी है?’’ मैंने पूछा, उस मासूम चेहरे को मैं भूल नहीं पाई थी।

”वह अब कहाँ है!’’ एक लम्बा साँस खींचकर उन्होंने कहा।

”क्या?’’

”विवाह के चार ही महीने बाद गैस पर खाना बना रही थी, नायलॉन की साड़ी पहने थी, आँचल में आग लगी मिनटों में ही झुलस गई, दूसरे ही दिन खतम हो गई।“ भारी मन से मैं घर लौटी, दीवार देखते ही वे धूमिल हथेलियाँ जैसे वह खोलकर मेरे सामने खड़ी हो गई। 

पर क्या सचमुच ही उसका आँचल अनजाने में आग पकड़ बैठा था।

उसकी विदा के क्षण, उसके ससुर का उग्र कंठस्वर, फिर कानों में गूँज उठा, ‘क्या त्रुटि रह गई है, यह भला हम क्या बताएँ’ उसी त्रुटि को बताने तो कहीं उस दशानन ने उस फूल–सी सुकुमार लड़की की हल्दी लगी हथेलियों की छाप सदा–सदा के लिए मायके की दीवार से नहीं मिटा दी?

 

पर ऐसा कुछ हुआ होता तो उसकी मौसी कुछ तो बताती। पर जो मौसी नहीं कह पाई वह स्वयं उसकी माँ आकर बता गई। किसी वकील की राय लेने लखनऊ आई थी, मुझसे मिलने भी चली आई। मुझे देखते ही रोने लगीं, ‘‘आपके आॅटोग्राफ लेगी, कहती रही, शादी के भभ्भड़ में सब भूल गई। मार डाला कसाइयों ने, मैं भी नहीं छोड़ँईगी।

 

मेरी कोख बलबला रही है बहन। खबर पाते ही मैं अस्पताल भागी, लड़की तड़प रही थी। बहन ने कहा, ‘जीजी, तुम मत जाओ, देखा नहीं जा रहा है। “पर मैंने उसे धकेल दिया। ओफ, मेरी सोने की छड़ी जलकर कोयला बन गई थी। थोड़ा–थोड़ा होश था। मैंने पूछा, ‘बेटी, कैसे हुआ यह?’ बोली ‘अम्मा हुआ नहीं, किया गया,’ बस, आँखें पलट दीं।

 

”न वहाँ उस बयान का साक्षी था, न नर्स, न डॉक्टर हाँ, एक साक्षी थी, स्वयं मेरी सगी बहन, वह मुकर गई।

 

”मैंने चीख–चीखकर कहा, ‘मेरी बेटी जली नहीं, उसे जलाया गया है, मुझसे स्वयं कह रही है।“

 

”पर मेरी ही सगी बहन ने मेरा मुँह दाब दिया, ‘क्या कह रही हो जीजी! दिव्या खाना बनाने में जली है, उसे किसी ने नहीं जलाया।’

 

‘तू झूठी है, तेरे पति भी पुलिस के अफसर हैं और दिव्या का जेठ भी, तुम्हारी बिरादरी हमेशा अपने पेशेवर को ही बचाती है। तूने ही यह रिश्ता इन कसाइयों से पक्का किया था।’

 

पर बहन, मेरी सगी बहन ही मुझसे नाराज होकर घर चली गई तब से दर–दर भटक रही हूँ, कहीं तो न्याय की भीख मिलेगी। हत्यारा अभी भी मूँछों पर ताव देता घूम रहा है, सुना है दूसरी जगह रिश्ते की बात चल रही है।“

 

मैं स्तब्ध थी। वह आँखें पोंछती उठ गईं, ‘‘इसी से मैं आपके पास आई हूँ कृष्णा के यहाँ नहीं गई, फोन किया तो बोली, ‘जीजी, तुमने पुलिस केस किया तो हम तुम्हारी मदद नहीं कर पाएँगे, जो हुआ उसे भूल जाओ।“

 

भूल जाऊँ? दस महीने जिसे गर्भ में रखा, पाला–पोसा, जिस अनजान खूँटे से बाँधा वहीं गाय–सी जो बँध गई, उसे भूल जाऊँ? मैंने भी श्राप दिया है बहन, जैसे उस कसाई ने मेरी बेटी को जलाया है वैसे ही वह भी तिल–तिलकर जले!’’ उनकी आँखों से जैसे आग की लपटें निकल रही थीं।

 

सच्चे हृदय से निकली बद्दुआ कभी व्यर्थ नहीं जाती। वर्षों पूर्व ऐसे ही श्राप को फलीभूत होते मैंने स्वयं देखा है अल्मोड़ा के ही एक ऐसे सच्चे ब्राह्मण के श्राप ने क्या तत्कालीन जेलर को रात बीतते–न–बीतते चुटकियों में निष्प्राण नहीं कर दिया था?

 

कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्तजी तब स्वतन्त्रता संग्राम में जेल में बंदी थे, क्रूर जेलर के अमानुषिक अत्याचार से क्रुद्ध पांडेयजी ने नहा–धोकर हाथ में जल लेकर कहा था, ‘‘अरे दुष्ट, ले मैं कुमाऊँ का ब्राह्मण तुझे श्राप देता हूँ, जैसे तू हमें मार रहा है, भगवान तुझे मारे।“

और भोर होते ही दिल के दौरे ने उस हृष्ट–पुष्ट जेलर को जेल से ही नहीं संसार से हटा दिया था। फिर तो जहाँ पांडेयजी जल हाथ में लेते, सुना है कि बड़े–से–बड़े अफसर भी उनके चरण पकड़ लेते थे। किन्तु अब कहाँ हैं वैसे सच्चे ब्राह्मण और कहाँ है वह ब्रह्मतेज।

 

इतने वर्ष बीत गए, फिर दिव्या की माँ मुझे कभी नहीं मिली, पता नहीं उनके दग्ध हृदय से निकला वह श्राप, फलीभूत हुआ या नहीं किन्तु मेरे फ्लैट की निचली दीवार से, हल्दी लगी उन हथेलियों की छाप अब एकदम ही विलीन हो चुकी है।

The End




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Engr. Maqbool Akram

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I am, Engineer Maqbool Akram (M.Tech. Mechanical Engineer from AMU ), believe that reading and understanding literature and history is important to increase knowledge and improve life. I am a blog writer. I like to write about the lives and stories of literary and historical greats. My goal is to convey the lives and thoughts of those personalities who have had a profound impact on the world in simple language. I research the lives of poets, writers, and historical heroes and highlight their unheard aspects. Be it the poems of John Keats, the Shayari of Mirza Ghalib, or the struggle-filled story of any historical person—I present it simply and interestingly.

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अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

अलाउद्दीन खिलजी, ने भारत की रक्षा दुनिया के क्रूरतम लड़ाके ‘मंगोलो’ से की। जिन्होंने बगदाद के खलीफा अबू मुस्तसिम बिल्लाह तक को मार दिया था।

May 2, 2025
जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स  की मृत्यु पर शोक मनाया।

जॉन कीट्स ब्रिटेन के महान कवि और फैनी ब्रॉन की असफल प्रेम कहानी- कीट्स की मृत्यु महज 25 साल में हो गई दोनों ने शादी नहीं की उसने विधवा के रूप में कीट्स की मृत्यु पर शोक मनाया।

May 2, 2025
Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

Fall of Constantinople नौजवान सुल्तान मोहम्मद फतेह ने 29 मई 1453 को कुस्तुनतुनिय फतह (इस्तांबूल) किया.रोमन साम्राज्य का अंत. इस के बाद इस्लाम का यूरोप में प्रवेश.

May 2, 2025
पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

पटना की बेहद हसीन तवायफ और एक पुजारी की लव स्टोरी – यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.

April 24, 2025
बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

बड़ी शर्म की बात: (इस्मत चुग़ताई) औरत मर्द की नाक काटे तो दहल जाती हूं. उफ़ कितनी शर्म की बात

March 22, 2025
नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

नशे की रात के बाद का सवेरा (ख़ुशवंत सिंह) अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगा-जो एक विवाहित आदमी बिना संTकोच के कर सकता है.

March 18, 2025
अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

अंतिम प्यार: ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी. (रबिन्द्रनाथ टैगोर की कहानी )

March 17, 2025
नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

नाच पार्टी के बाद. वन नाइट लव स्टोरी (रूसी कहानी हिंदी में) लियो टॉल्स्टॉय

March 17, 2025
परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

परवीन शाकिर छोटी उम्र बड़ी जिंदगी वो शायरा जिनके शेरों में धड़कता है आधुनिक नारी का दिल- दिल को उस राह पे चलना ही नहीं, जो मुझे तुझ से जुदा करती है

March 17, 2025
आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

आय विल कॉल यू मोबाइल फोन (रूपा सिंह) जैसे ही डाटा ऑन किया खट् खट् कर कई मैसेज दस्तक देते चले आये इतनी तेजी से सबकी खबरें स्क्रीन पर चमक रही थी

March 17, 2025
चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

चार्ल्स डिकेंस: के प्रेम प्रसंग विक्टोरियन इंग्लैंड के महान उपन्यासकार अपने युग के रॉक स्टार गलत जगहों पर प्यार की तलाश

March 18, 2025
पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें  रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

पंच परमेश्वर: फूलो ने घूंघट नहीं खींचा मुंह उठा दिया गेहुंए रंग में दो मांसल आंखें थीं जिनमें रात का खुमार अभी बिल्कुल मिटा नहीं (रांगेय राघव की कहानी)

March 18, 2025
मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

मैं खुदा हूँ Ana’l haqq मंसूर अल-हलाज: जल्लाद ने सिर काटा तो धड़ से खून की धार फूट पड़ी और अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा च्मैं ही सत्य हूं

March 17, 2025
नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है  तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

March 18, 2025
अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

अपरिचित (मोहन राकेश) सामने की सीट ख़ाली थी वह स्त्री किसी स्टेशन पर उतर गई थी इसी स्टेशन पर न उतरी हो यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा.

March 18, 2025
Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

Thakur Ka Kuan (Story Munshi Premchand) कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी इनमें बात हो रही थी खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।

March 17, 2025
सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

सुखांत (आंतोन चेखव): इसमें इतना सोचने वाली कौन सी बात है? तुम एक ऐसी औरत हो जो मेरे दिल को भा सके तुम्हारे अंदर वो सारे गुण हैं जो मेरे लिए सटीक हों।

March 17, 2025
Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

Epic Love Tale Prithaviraj Chohan & Samyukta: Chivalry, Betrayal, Revange. Changed History &Geography of India

March 17, 2025
मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

मेरा नाम राधा है (मंटो) नीलम जिसे स्टूडियो के तमाम लोग मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था।मैंने जब बहुत जोर से भयानक आवाज में नीलम कहा तो वह चौंकी जाते हुए उसने केवल यह कहा, सआदत, मेरा नाम राधा है।

March 17, 2025
Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

Khayzuran: Romance of a Dancing Slave Became Abbasid Caliphate Queen of The Ruler Al-Mahdi

March 18, 2025
Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

Shaghab: Sad end of a dancing concubine who became the dominant Queen of the Abbasid Empire Caliph Ahmad al Mutadid?

March 17, 2025
River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

River Stairs (R Nath Tagore) Story of a young widow Kusum. Jaan lo main saint hun is dunya ka nahin tum mujhe bhul jao.

March 17, 2025
Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

Peshawar Express: Krishen Chander. Narrator is train itself Haunting narrative that captures the brutality and chaos of the partition of India in 1947.

March 18, 2025
पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

पोस्टमास्टर (रवीन्द्रनाथ टैगोर) सवेरे से बादल खूब घिरे हुए थे पोस्टमास्टर की शिष्या बड़ी देर से दरवाजे के पास बैठी प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन और दिनों की तरह जब यथासमय उसकी बुलाहट न हुई.

March 17, 2025
पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?’

March 17, 2025
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