Thursday, 8 August 2024

पड़ोसिन (कहानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) अब छिपाना बेकार है वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है मैंने पूछा, सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?'

मेरी पड़ोसिन बालविधवा है। मानो वह जाड़ों की ओसभीगी पतझड़ी हरसिंगार हो। सुहागरात की फूलों की सेज के लिए नहीं, वह केवल देवपूजा के लिए समर्पित थी।

 

मैं उसकी पूजा मनहीमन किया करता था। उसके प्रति मेरा मनोभाव कैसा था, उसे मैं पूजा के अतिरिक्त किसी अन्य सुबोध शब्दों में प्रकट नहीं करना चाहता, दूसरों के सामने कभी नहीं, अपने प्रति भी नहीं।

 

नवीन माधव मेरा बहुत ही घनिष्ठ एवं प्रिय मित्र है। उसे भी इस बारे में कुछ नहीं मालूम। इस प्रकार मैंने अपने अन्तरतम में जिस आवेश को छुपाकर साफसुथरा बना रखा था उसके लिए भीतरहीभीतर गर्व का अनुभव भी करता था। 

परन्तु पहाड़ी नदी की तरह मन का वेग अपने जन्मशिखर से बंधा नहीं रहना चाहता। किसी भी रास्ते को अपनाकर वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। इसमें अगर वह सफल नहीं हो पाता, तो भीतरहीभीतर कसक उत्पन्न करता है। इसलिए मैं यह सोच रहा था कि कविता में मैं अपने भाव प्रकट करूंगा, लेकिन कुंथा की मारी लेखनी ने किसी तरह भी आगे बढ़ना ना चाहा।

 

बड़े आश्चर्य का बिषय तो यह है कि ठीक इसी समय हमारे मित्र नवीन माधव को अचानका बड़े ही प्रबल वेग से कविता लिखने का शौक बढ़ने लगा, मानो अचानक भूचाल गया हो।

 

उस बेचारे पर ऐसी दैवी विपत्ति पहले कभी आई थी, इस कारण वह इस नईनवेली हलचल के लिए बिल्कुल तैयार था। उसके पास छन्द, तुक आदि की पूंजी नहीं थी, फिर भी उसका दिल छोटा हुआ, यह देखकर मैं दंग रह गया। कविता मानो बुढ़ापे की नई दुल्हन की तरह उस पर हावी हो गई। नवीन माधव को छन्द, तुक आदि की सहायता और संशोधन के लिए मेरी शरण लेनी पड़ी।

 

कविता के बिषय नये नहीं थे, लेकिन पुराने भी नहीं थे। यानी उन्हें बिल्कुल नवीन भी कहा जा सकता है और काफी पुरातन भी। प्रेम की कविताएं थी, प्रियतमा के उद्देश्य में। मैंने उसे एक धक्का लगाते हुए पूछा, ''आखिर है कौन, बताओ भी।''

 

नवीन ने हंसकर कहा, ''अब भी उनका पता नहीं लगा पाया हूं।''

 

नये लेखक को सहयोग देने में मुझे बड़ा सन्तोष मिला। नवीन की काल्पनिक प्रियतमा के प्रति मैंने अपने रूके आवेग का प्रयोग किया। बिना बच्चे की मुर्गी जिस तरह बत्तख का अंडा पा जाने पर भी उसे छाती के नीचे रखकर सेने लगती है, मैं अभागा भी उसी तरह नवीन माधव के भावो को अपने ह्रदय का सारा ताप देकर सेने लगा। अनाड़ी की रचनाओ का मैं ऐसे जोशखरोश से संशोधन करने लगा कि वे करीबकरीब पन्द्रह आने मेरी ही रचनाएं बन गईं।

 

नवीन आश्चर्य से कहता, ''ठीक यही बात तो मैं कहना चाहता था, पर कह नहीं पाता था, लेकिन तुममें यह सब भाव कहां से जाती है?''

 

मैं भी कवि की तरह जवाब देता,''कल्पना से। इसका कारण यह है कि सत्य नीरव होता है और कल्पना वाचाल। सत्य घटनाएं भाव स्त्रोत को पत्थर की दबाए रखती हैं, कल्पना की उसका मार्ग मुक्त करती है।''

 

नवीन गम्भीर चेहरा लिए कुछ देर सोचता, फिर कहता, ''देख रहा हूं बात कुछ ऐसी ही है। ठीक कहते हो।'' थोड़ी देर सोचने के बाद फिर कहा, ''ठीक ही कहते हो। सही बात है।''

 

पहले ही बता चुका हूं कि मेरे प्रेम में एक प्रकार का कातर संकोच है, इसीलिए मैं अपनी बात कुछ भी लिख नहीं सका। नवीन को पर्दे की तरह बीच में रखने के बाद ही मेरी लेखनी अपना मुंह खोल सकी। रचनाएं मानो रस से पूर्ण हो ताप से फटने लगी।

 

नवीन बोला, ''यह तो तुम्हारी ही रचना है। इसे तुम्हारे ही नाम से प्रकाशित करें।''

 

मैंने कहा, ''भाई तुमने भी खूब कहा। मूल रचना तो तुम्हारी ही है, मैंने तो उसमें सिर्फ थोड़ासा रद्दोबदल कर दिया है।''

धीरेधीरे नवीन भी ऐसा ही समझने लगा।

 

ज्योतिर्विद जिस प्रकार नक्षत्र के उदय की प्रतीक्षा में आकाश की ओर निहारा करता है, मैं भी उसी तरह कभीकभी अपने बगल के मकान की खिड़की की ओर देखा करता था, इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता। कभीकभी भक्त का वह बेचैनी से देखना सार्थक भी हो जाता।उस कर्मयोग में डूबी ब्रह्मचारिणी की सौम्य मुखश्री से शान्त शीतल ज्योति झिलमिलाकर क्षण भर में मेरे मन की सारी बेचैनी दूर कर देती थी।

 

किन्तु उस दिन सहसा मैंने यह क्या देखा! मेरे चन्द्रलोक में क्या अब भी ज्वालामुखी जाग रहा है, वहां की सुनसान समाधि में डूबी पहाड़ी गुफा सा सारा अग्निदाह क्या अभी तरह पूरी तरह बुझा नहीं है?

 

उस दिन वैशाख के तिपहर को पूर्वोतर दिशा में बादल घिर रहे थे। उस घिरी हुई आंधी की बादलोभरी तेज चमक में मेरी पड़ोसन खिड़की के पास अकेली खड़ी थी। उस दिन उसकी शून्य डूबी घनी काली आंखो में मैंने दूर तक फैली हुई एक कसक देखी।

 

तो है, मेरे उस चन्द्रलोक में अब भी ताप है। अब भी वहां गर्म सांसो की हवा बहती है। वह देवताओं के लिए नहीं, मनुष्य के लिए ही है।

 

उस दिन उस आंधी के प्रकाश में उसकी दोनो आंखों की तेज छटपटाहट उतावले पक्षी की तरह उड़ी चली ता रही थी,स्वर्ग की ओर नहीं, मानवह्रदय के घोसले की ओर।

 

उत्सुक आकांक्षा से चमकती उस दृष्टि को देखने के बाद मेरे लिए अपने बेचैन मन को काबू करना मुश्किल हो गया। तब केवल दूसरे की कच्ची अनगढ़ कविताओं के संसोधन से मन नहीं भरा, मेरे अन्दर भी किसी प्रकार का काम करने की चंचलता पैदा हो गई।

 

तब मैंने यह निश्चय कर लिया कि बंगाल में भी विधवाविवाह प्रचलित करने के लिए मैं अपनी सारी चेष्टा का प्रयोग करूंगा। केवल व्याखायान और लेख लिखकर नहीं, आर्थिक सहायता देने के लिए भी मैं आगे बढ़ा।

 

नवीन मेरे साथ बहस करने लगा। उसने कहा,''चिर वैधव्य में एक पवित्र शान्ति है, एकादशी की धुंधली चांदनी से प्रकाशित समाधिभूमि की तरह उसमें एक महान सौन्दर्य है। क्या वह विवाह की सम्भावना मात्र से नष्ट नहीं हो जाएगा?''

 

ऐसे कवित्व की बातें सुनते ही मुझे गुस्सा जाता है। अकाल में खाने के अभाव में जो व्यक्ति घुलघुलकर मर रहा हो, उसके पास हट्टाकट्टा कोई व्यक्ति आकर यदि भोजन की भौतिकता के प्रति घृणा प्रकट करते हुए फूल की सुगन्ध और पक्षियों के गीत से मरते हुए का पेट भरना चाहे, तो वह कैसा लगता है?

Rabendra Nath Tagore

मैंने गुस्से में आकर कहा,''सुनो नवीन, कलाकार कहते हैं कि खंडहर का भी एक सौन्दर्य होता है, लेकिन किसी घर को सिर्फ चित्र के रूप में देखने से ही काम नहीं चलता चूंकि उस घर में रहना पड़ता है।

 

कलाकार कुछ भी कहता रहे, उस घर की मरम्मत जरूरी है। वैधव्य के बारे में, दूर बैठकर तुम चाहे कितनी कविताएं लिखना चाहो, किन्तु यह तुम्हे याद रखना चाहिए कि उसमें आकांक्षाओं से भरा एक मानवह्रदय अपनी विचत्र वेदना के साथ वास करता है।''

 

मेरा ख्याल था कि नवीन को मैं किसी भी तरह अपने दल में नहीं खींच सकूंगा, इसीलिए मैं उस दिन ज्यादा गर्मी से बातें कर रहा था, लेकिन सहसा मैंने देखा कि मेरे भाषण के अन्त में उसने एक गहरी सांस ली और मेरी सारी बाते मान लीं। मुझे और भी बहुतसी अच्छीअच्छी बातें करनी थीं, पर उसने उसका मौका ही नहीं दिया।

 

लगभग हफ्ते भर के बाद नवीन ने आकर कहा,''तुम अगर मदद करो, तो मैं खुद विधवाविवाह करने को तैयार हूं।''

 

मेरी समझ में एक बात गई कि उसकी प्रियतमा काल्पनिक नहीं है। कुछ अरसे से वह एक विधवा नारी को दूर से प्यार करता रहा है, पर किसी से उसने यह प्रकट नहीं किया। जिस मासिक पत्र में नवीन की, उर्फ मेरी कविताएं प्रकाशित होती थीं, वे पत्रिकाएं ठीक जगह पर पहुंच जाया करती थीं।

 

वे कविताएं व्यर्थ नहीं गईं। बिना मेलमुलाकात के ही ह्रदय आकर्षित करने का यह उपाय मेरे मित्र ने ढूंढ़ निकाला था।

 

लेकिन नवीन का कहना है कि उसने कोई षड्यन्त्र कर ऐसी तरकीब निकाली हो, सो बात नहीं। यहां तक कि उसका ख्याल था कि वह विधवा पढ़ना भी नहीं जानती थी।

 

मासिक पत्रिका बिना मूल्य विधवा के भाई के मान पर भिजवा देता था। वह केवल मन को तसल्लीभर देने का पागलपन था। उसे ऐसा लगता था कि देवता के लिए पुष्पांजलि चढ़ाई जा रही है। वे जानें या जानें, स्वीकार करें या स्वीकार करें।

 

कई बहानों के जरिए विधवा के भाई से नवीन ने मित्रता का ली थी। नवीन का कहना है कि इसमें भी उसका कोई उद्देश्य था। जिससे प्रेम किया जाए, उसके निकटसम्बन्धियों का संग भी मधुर लगता है।

 

अन्त में भाई सख्त बीमार पड़ा, तो इस सिलसिले में बहिन के साथ उसकी भेंट कैसे हुई, वह एक लम्बी कथा है। कवि के साथ कविता में वर्णित विषय का प्रत्यक्ष परिचय हो जाने के बाद कविता के सम्बन्ध में दोनों में बड़ी चर्चा हो चुकी थी और यह चर्चा छपी कविताओं में ही सीमित थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

 

हाल में मुझसे बहस में हारकर नवीन ने उस विधवा से मिलकर विवाह का प्रस्ताव किया। पहलेपहल उसे किसी प्रकार स्वीकृति मिली। तब नवीन नमे मेरी सारी युक्तियों का प्रयोग कर और उनके साथ अपनी आंखो के दोचार बूंद आंसू मिलाकर उसे सम्पूर्ण रूप से हरा दिया। अब सब कुछ तय है, केवल विधवा के अभिभावक यानी उसके फूफा कुछ रूपया चाहते हैं।

 

मैंने कहा,''अभी लो।''

नवीन बोला, ''इसके अलावा एक बात और है। शादी के बाद पिता जी पांच: महीने तक जरूर खर्चा देना बन्द कर देंगे और तब तक दोनों का खर्च निभाने के लिए तुम्हें इन्तजाम करना होगा।'' मैंने मुंह से कुछ कहकर एक चेक काट दिया और कहा, ''अब उसका नाम बताओ।

 

मेरे साथ जब तुम्हारी कोई प्रतियोगिता नहीं, तो परिचय देने में तुम्हें किस बात का डर है? मैं तूम्हें छूकर सौगन्ध खाता हूं कि उनके नाम कोई कविता नहीं लिखूंगा और अगर लिखूं भी तो उनके भाई के पास भेजकर तुम्हारे पास भेज दिया करूंगां''

 

नवीन ने कहा,''अरे इसके लिए मुझे कोई डर नहीं। विधवाविवाह की लाज से वह गड़ी जा रही है, इसलिए उसने तुम लोगों से इस बारे में कोई चर्चा करने को बारबार मना कर दिया है, पर अब छिपाना बेकार है। वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नम्बर में रहती है।''

 

अगर मेरा ह्रदयपिंड लोहे का बायलर होता, तो उसी क्षण भकसे फट जाता, मैंनेू पूछा,''विधवाविवाह से उसे कोई एतराज नहीं है?''

 

नवीन ने हंसकर कहा, ''फिलहाल तो कोई एतराज नहीं है।''

मैंने पूछा, ''सिर्फ कविताएं पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?''

 

नवीन ने कहा, ''क्यों मेरी वे कविताएं कुछ बुरी तो थी नहीं?''

मैंने मनहीमन कहा, 'धिक्कार है!'

धिक्कार किसे? उन्हें, या मुझे या विधाता को, लेकिन धिक्कार है!

 

The End