Saturday, 27 April 2024

पलाश के फूल: वह बड़ी भोली थी, कुछ न बोलती और मेरी ओर टुकुर-टुकुर देखती रहती (लेखक: अमरकांत)

कई बार हम अपनी ग़लती को इतनी बार जस्टिफ़ाई करने की कोशिश करते हैं कि ख़ुद को सही समझने की ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं. एक अधेड़ आदमी, अपने स्कूल के दोस्त से अपना सबसे अंतरंग क़िस्सा साझा करता है. वह जानता है, वह ग़लत है, पर ख़ुद के सही होने के लिए तमाम तर्क देता है. पर क्या वह सचमुच अपने उन तर्कों से जीत पाएगा?

 

नए मकान के सामने पक्की चहारदीवारी खड़ी करके जो अहाता बनाया गया है, उसमें दोनों ओर पलाश के पेड़ों पर लाल-लाल फूल छा गए थे.

 

राय साहब अहाते का फाटक खोलकर अंदर घुसे और बरामदे में पहुंच गए. धोती-कुर्ता, गांधी टोपी, हाथ में छड़ीहाथों में मोटी-मोटी नसें उभर आई थीं. गाल भुने हुए बासी आलू के समान सिकुड़ चले थे, मूंछ और भौंहों के बालों पर हल्की सफेदी

 

बाबू हृदय नारायण! … ओवरसियर साहब!’ बाहर किसी को पाकर दरवाज़े का पास खड़े होकर उन्होंने आवाज़ दी.

 

कुछ ही देर में लुंगी और कमीज़ में गंजी खोपड़ीवाला एक दुबला-पतला और सांवला व्यक्ति बाहर निकल आया. उसको देखकर राय साहब के मुंह पर आश्चर्य के साथ प्रसन्नता फैल गई. उन्होंने उसको देखकर रहस्यमय ढंग से पूछा,‘मुझको पहचाना?’ और जब हृदय नारायण ने कोई उत्तर देकर संकुचित आंखों से घूरना ही उचित समझा तो वे बोले,‘कभी आप यहां गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ते थे? अरे, मुझे भूल ही गए क्या? मेरा नाम नवलकिशोर राय…’

 

दोनों सहपाठी गले मिले. फिर वहीं बरामदे में कुर्सी पर आमने-सामने बैठे वे नाश्ता करते हुए बातों में खो गए, जो अपने स्कूल के अध्यापकों की विचित्रता से आरंभ होकर बाल-बच्चों, ज़माने और इंसान की चर्चा से गुज़रती हुई आसानी से परमात्मा से संबंधित विषयों पर गई.

 

ब्रदर स्त्री माया है!’ सामने शून्य में एक क्षण खोए-खोए से देखने के बाद राय साहब बोले, उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता और नरक के रास्ते पर ले जाता है. …पर भाई जान, मैं सिर्फ़ एक बात जानता हूं, उसके सामने किसी की नहीं चलती, जो कुछ होता है, उसकी के इशारे से होता है. वह चाहता है, तभी हम चोरी, डकैती, हत्या, जना, बदकारी, सब कुछ करते और जहां उसकी मेहर हुई सब मिनटों में छूट जाता है.’

 

उसकी बड़ी कृपा है, नहीं हम तो कीड़ों-मकोड़ों से भी गए-बीते हैं.’ हृदयनारायण ने भक्ति से गदगद स्वर में कहा.

 

गए-बीते कहते हो, अरे एकदम गए-बीते हैं. मैं तो भई, अपने को जानता हूं. मेरे जैसा झूठा, बेईमान, नीच, घमंडी, बदकार कोई नहीं होगा. परंतु मुझ पापी को भी सरकार ने चरणों में थोड़ी जगह दे दी है.

 

नौकर पान की तश्तरी लिए खड़ा हुआ था. दोनों मित्रों ने दो-दो बीड़े जमाए फिर राय साहब ने कहना आरंभ किया,

 

तुम तो नहीं जानते , बिहार के तराई इलाक़े में सौ बीघा ज़मीन ख़रीदने के बाद ही पिता जी का स्वर्गवास हो गया था, यहां भी डेढ़ सौ बीघा ज़मीन थी. घर-गृहस्थी का सारा बोझ अचानक मेरे कंधों पर पड़ा. लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थीकैसा शरीर था मेरा, याद है तुम्हें ? ताक़त, ज़िद और क्रोध तीनों मुझ में थे.

सच कहता हूं, जब अपने बंगले के सामने खड़ा हो जाता, तो लगता किसी क़िले के सामने खड़ा हूं, ऊंचाई दो पोरसा अधिक बढ़ गई है, सिर में पकका दस सेर लोहा भर गया हैकिसी को अपने पैरों की धूल के बराबर तो समझता नहीं था. लोग मुझसे डरते और उनसे मुझे बेहद क्रोध और नफ़रत होती. मारने-पीटने, तंग, परेशान करने, जब इच्छा हो वसूली तहसीली करने में ही तबीयत लगती.

 

मामूली रौब नहीं था अपनामेज़-कुर्सी लगी है, अफ़सरान रहे हैं. गप्पें लड़ रही हैं, दावतें उड़ रही हैं, नौकर-चाकर दौड़-दौड़कर हुक़्म बजा रहे हैं…’ आवाज़ अचानक धीमी पड़ , ‘और वह शैतान वाली बात कही ! बिरादर, क़सम खाकर कहता हूं पता नहीं क्या हो गया था जहां किसी जवान स्त्री को देखा नहीं पागलपन सवार हुआ.

 

ख़ास तरह से इसका मज़ा बिहारवाले इलाक़े में ख़ूब था. वहां के लोग बहुत ग़रीब और पिछड़े हुए थे. मैं साल में आठ-नौ महीने तो वहीं रहता और ऐश करता. बीच में वैसे कभी कुछ दिनों के लिए आकर बाल-बच्चों और यहां की गृहस्थी की खोज-ख़बर ले जाता. एक तो मैं ख़ुद ख़ासा जवान था, इस पर पैसा और शक्ति मालूम कितनी ही

 

लेकिन बाबू हृदयनारायण, ठीक बयालीस वर्ष की उम्र में शैतान की चपेट में इस तरह गया कि क्या बताऊं! जानते हो, कौन था? पंद्रह-सोलह वर्ष की एक लड़की!’ 

लड़की?’ हृदयनारायण चौंक पड़े जैसे उनको ऐसी उम्मीद हो.

हां, लड़की!’ राय साहब हास्यपूर्ण मुंह बनाकर इस तरह बोले जैसे बहुत साधारण बात हो,‘वह भी एक मामूली किसान की! फसल की कटाई के समय मैं अपने बिहार के इलाक़े में पहुंचा था. वहां मेरा बंगला एक छोटे मैदान में है, जिसके दक्षिण में ख़ास गांव है और उत्तर में ग्वालों का टोला.

 

वह लड़की इसी टोले की थी. …उधर ही मेरा बग़ीचा पड़ता है. वहीं उस लड़की को देखा. वह दो और लड़कियों के साथ टिकोरे बीन रही थी. मुझको देखकर पहले तीनों भागीं. फिर वही लड़की पेड़ के नीचे छूटी खंचोली को लेने वापस आई, तो एक क्षण ठिठककर शंकित आंखों से उसने मुझे देखा, जैसे पक्षी दाना चुगने के पहले बहेलिए को देखता है और आख़िर में खंचोली लेकर भाग गई.

 

मैं तो दंग रह गया था. यह कैसी हैरत की बात थी कि इस गांव में ऐसी ख़ूबसूरत लड़की बढ़कर तैयार होती है और मैं जानता तक नहीं.’ और जैसे वह अपने मन के भाव ठीक से व्यक्त कर पा रहे हों, इस तरह होंठों पर अंगुली रखकर कुछ देर तक सोचते से रहे,‘क्या बताऊं?…

 

शाम को वक़ीलों के डेरों के सामने मुवक्किल लोग बाटी बनाने के लिए उपलों का जो अंगार तैयार करते हैं, उसको तो देखा है तुमने, उसी तरह वह दमक रही थी. कहीं खोट नहीं. भरी-पूरी. क़ुदरत ने जैसे पीठ और कमर पर हाथ रखकर उसके शरीर को पहले तोड़ा, ऐंठा और ताना, फिर किसी जादू के बल से बड़ा और जवान कर दिया था. बड़ी-बड़ी रसीली आंखें, छोटा मुंहबड़ा भोलापन था उसमें.’

 

सूरज डूब गया था. आंगनों से उठनेवाले धुएं और सड़क की धूल से चारों और कुहासा-सा छा गया था. सामने से कभी कोई एक्का या रिक्शा गुज़र जाता. कभी घर के अंदर से छोटे बच्चों का गिरोह पास आता, उनको कौतुक से देखता, चीख़-चिल्लाकर खेलता और चला जाता. और वे हर चीज़ से बेख़बर बात करने में इस तरह मशगूल थे, जैसे कई दिनों का भूखा सब सुध-बुध खोकर खाने पर टूट पड़े.

 

समझे, भाई हृदयनारायण, उस लड़की की सूरत ध्यान पर क्या चढ़ी कि खाना-पीना सब कुछ हराम हो गया.’ राय साहब का कथन जारी था, ‘इतनी उम्र हो गई थी, लेकिन किसी स्त्री के लिए ऐसी बेक़रारी कभी महसूस नहीं हुई थी. उसको पाने के लिए मैं क्या नहीं कर सकता था! उसका बाप भुलई मेरा ही आसामी था, सीधा-सादा किसान, जिसे पेट भरने के लिए खेती के अलावा इधर-उधर मज़दूरी भी करनी पड़ती.

 

मैंने अंजोरिया को-लड़की का यही नाम था-अकेले में पाकर एक दो बार छेड़ा भी, पर वह नई घोड़ी की तरह बिदककर भाग जाती. मुझ में अब इंतज़ार और बर्दाश्त की शक्ति नहीं रह गई थी. हारकर एक दिन मैंने चार आदमियों को लगाकर रात के अंधेरे में भुलई को ख़ूब अच्छी तरह पिटवा दिया….’

 

भुलई को पिटवा दिया? क्यों?’

नहीं जानते? अरे हमारे देहातों में यह आम रिवाज़ था. जब बाबू लोगों को किसी ग़रीब की बहू-बेटी पसंद जाती, तो वे उसको तंग-परेशान करते, मारते-पीटते, खेतों से बेदख़ल कर देते, और सफलता मिलने पर बुरी तरह पिटवा देते.

 

फिर रात में उसके घर में घुसकर या किसी दूसरे तरीके से उल्लू सीधा करते. यह बहुत ही कारगर तरीक़ा समझा जाता. मैंने भी सभी फ़न इस्तेमाल किए. भुलई के हाथ-पैर बेकाम हो गए थे, सिर फट गयाशरीर में और भीतर घाव थे सो अलग. …अब भी नहीं समझे?… फिर मैं ही उसके आड़े वक़्त में काम आया.

 

 उसकी दवा-दारू के लिए मैंने ही पैसे उधार दिए, खाने के लिए गल्ला भिजवा दिया. भुलई की स्त्री हाल ही में मरी थी, एक लड़की ओर छोटे-छोटे दो बच्चों को छोड़कर, कोई नहीं था घर में. वह भारी मुसीबत में था और मुझे वह देवता समझने लगा.

 

मैंने उसको राज़ी करवा लिया कि वह अंजोरिया को मेरे यहां भेज दिया करे, वह घास या चारा काट दिया करेगीखाने भर को निकल आएगा.’

फिर लड़की आने लगी होगी,’ जैसे कोई उत्सुकता हो, इस तरह हृदयनारायण ने प्रश्न किया.

 

आती नहीं तो जाती कहां?’ राय साहब बोले,‘बस सुनते जाओ! हां, तो वह आकर काम करने लगी. मैं बेवकूफ़ नहीं था, ज़िंदगी भर यही किया था, जल्दीबाज़ी से मामला बिगड़ जाता. …चिड़िया को मैंने परचने दिया. रोज़ मौक़ा देखकर उससे बात करता, उसके बाप की तक़लीफ़ के लिए सहानुभूति प्रकट करता, मुझ से दूसरों का कष्ट देखा नहीं जाता इसकी चर्चा करता और उसके हाथ पर मजूरी से अधिक पैसे रख देता.

 

वह बड़ी भोली थी, कुछ बोलती और मेरी ओर टुकुर-टुकुर देखती रहती. ख़ैर, धीरे-धीरे उसकी भटक खुलने लगी. एक दिन दोपहर में जब लू चल रही थी और चारों तरफ़ सुनसान था मैंने उसे अपने कमरे में बंद कर दिया….’ उन्होंने मित्र के आश्चर्य विमुग्ध मुख को एक क्षण ग़ौर से देखा और बात का प्रभाव पड़ रहा है, इससे आश्वस्त और संतुष्ट होकर आगे कह

 

तो ब्रदर, किवाड़ बंद करते ही उसका मुंह सूख गया. रोनी शक़्ल बनाकर वह बाहर जाने की ज़िद करने लगी. जब मैंने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिए तो सचमुच रोने लगी. मेरे शरीर में अजीब झनझनाहट और सनसनाहट हो रही थी, मैं बेकाबू होने लगा.

 

मैंने उसको बहुत पुचकारा और समझाया. क़समें खाईं कि मेरा प्रेम सच्चा है और उसके लिए अपनी ज़मीन जायदाद, जान, सब कुछ क़ुर्बान कर सकता हूं. आख़िर मैं इतना उतावला हो गया कि नीचे झुककर उसके पैर पकड़ लिए. यह मेरे लिए अजीब बात थी, क्यों कि औरत से इस तरह विनती करने का मैं आदी नहीं था, परंतु पता नहीं क्या हो गया था. वह रोती और सुबकती रही

 

अंधेरा फैलने लगा था. सड़क की बिजली और बाईं ओर कुछ ही दूरी पर हलवाई की दुकान की गैसबत्ती जल चुकी थी. राय साहब कभी ऊंची आवाज़ में और कभी फुसफुसाकर बोलते और अक्सर कनखी से चौखट अहाते की ओर देख लेते.

 

भैया अब देखिए, क्या होता है! … वह रोज़ आने लगी.’ राय साहब कुछ देर तक अपने दाहिने हाथ को विचार पूर्ण दृष्टि से देखने के बाद बोले,‘शुरू-शुरू वह बहुत उदास और दुखी रहती, पर मुझे होश-हवास नहीं था. लगता, इसको जितना प्यार करने लगा हूं, उतना कभी किसी को नहीं करता था. देर तक उसके बालों पर हाथ फेरता, अपने प्रेम की सच्चाई की दुहाई देता. कभी-कभी पाग़ल की तरह उसके पैरों को चूमने लगता.

 

उसको हमेशा देखता रहूं यही इच्छा बनी रहती. वह ख़ुश रहे, ऐसी हमेशा कोशिश करता. अपने हाथ से रोज़ मिठाई खिलाना, अच्छी-अच्छी साड़ियां, साबुन, कंघी, इत्र फुलेल, रुपए-पैसे देताधीरे-धीरे उसकी तबीयत बदलने लगी. कुछ दिनों बाद चहकने लगी. और मेरे देखते ही देखते वह भोली-भाली लड़की इतराना, नखरे करना और रूठना-मचलना सीख गई.

 

मुझे देखते ही उसकी आंखें चमक उठतींदौड़कर मुझसे चिपट जाती. उसे मज़ाक करना भी गया था, मेरी पकड़ से छिटक-छिटक जाती और ख़ूब हंसती. पर उसका भोलापन कहीं नहीं गया. उसे मैं जब और जहां बुलाता वह बिना हिचक जाती.

 

उसकी ख़ुशी का अंत नहीं था और वह कहती कि मेरे यहां छोड़कर उसकी कहीं तबीयत नहीं लगती. ख़ास तरह से उस समय उसकी हालत देखने लायक होती, जब मैं कुछ दिनों के लिए बाहर चला जाता और वापस लौटता. मुझे देखते ही वह बहुत उत्तेजित हो जाती और सिसक-सिसक कर रोने लगती.

 

कभी मेरी तबीयत ढीली होती तो वह बहुत चिंतित और परेशान हो जातीसच कहता हूं, वह मेरे पीछे पाग़ल हो गई थी, उसे किसी बात का ग़म नहीं था, जान देने के लिए भी कहता, तो वह ख़ुशी-ख़ुशी दे देती. उसे क्या हो गया था? मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी होगालेकिन जानते हो, सीधी गाय ही खेत चरती हैऔर इस तरह पूरे तीन वर्ष बीत गए.’

 

माया का चक्कर था!’ बहुत देर हृदयनारायण अपने को ज़ब्त किए हुए थे, मौक़ा पाकर उन्होंने अपनी सम्मति प्रकट कर दी.

 

मामूली चक्कर था? मुझे घर-गृहस्थी, बाल-बच्चों, किसी की कुछ परवाह नहीं थी. जानता था, गांव वाले खुसुर-पुसुर करते, पर मुझसे सभी कांपते, मेरी प्रजा जो थे. रुपए के बल से भुलई का मुंह बंद था. फिर अंजोरिया किसी की नहीं सुनती.

 

उसकी शादी हो गई थी, उसका पति अभी बच्चा ही था और एक बार ससुराल जाकर दो ही दिन में वह भाग आई थी. उसका यौवन गदरा गया था. …ये तीन वर्ष नशे में बीत गए थेऔर एक दिन उसने क्या कहा जानते हो?’ प्रश्न-सूचक दृष्टि से उन्होंने हृदय नारायण की ओर देखा और बोले,‘बरसात की काली अंधेरी रात थी. वह आई. बहुत दुखी और उदास दिखाई दे रही थी. मैंने कारण पूछा. उसने मिन्नत भरे स्वर में कहा,‘मुझे लेकर कहीं भाग चलो!’ उसकी लंबी, काली आंखें मेरी आंखों में खो गईं थीं.

 

क्या बात है?’ मैंने पूछा.

नहीं, मैं यहां नहीं रहूंगी.’ उसने मचलते हुए से कहा,‘लोग मालूम कैसी-कैसी बातें कहते हैं. …कोई ठीक से नहीं बोलतामुझे काशी ले चलो, वहां कोई मकान ले लेना, मैं उसी में रहा करूंगी.’

 

उसने गांव के बालकृष्ण मिश्र का उदाहरण दिया, जिन्होंने अपनी प्रेमिका के लिए बनारस में एक मकान ख़रीद दिया था और ख़ुद अक्सर वहीं रहते थे. उसकी बात से मैं चौंका और घबरा गया.

 

मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि जब तक मैं ज़िंदा हूं उसको डरने की ज़रूरत नहीं, उसका कोई बाल-बांका नहीं कर सकता, वह लोगों के नाम बताए, मैं उनकी खाल खिंचवा लूंगा. पर वह कुछ बोली नहीं और रोने लगी

 

कुछ दिनों बाद उसे कहा, मुझे रखैल रख लो, मैं कहीं नहीं जाऊंगी, तुमको छोड़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगेगा.’…मैं बहुत हैरत में था. आख़िर वह क्या चाहती थी? तीन वर्ष तक उसने कोई ऐसा सवाल नहीं उठाया, अब कौन सी ऐसी बात हो गई थी?

 

जब वह चली गई, तो मैं देर तक सोचता रहा. अब देखिए, अचानक मुझ में क्या परिवर्तन होता है!…भैया, ऐसा लगा कि मेरे दिमाग़ में एक रौशनी जल उठी है. सब कुछ साफ़ होता गया. मेरे अंदर कोई कह रहा था, नवल किशोर, तुम आज तक शैतान के चक्कर में रहे, वही शैतान तुम्हारी इज़्ज़त, ज़मीन जायदाद, बाल बच्चे सभी कुछ छीनकर तुम्हें बरबाद करना चाहता है…. और बात सच थी.

 

तुम्ही बताओ, हृदयनारायण, एक फ़ाहशा औरत में ऐसी ईमानदारी और लगाव का कारण क्या हो सकता है? अपने रूप के जादू से मुझे वश में किया, फिर अपना प्यार जताकर मुझे उल्लू बनाती रहीमाया का असली रूप यहीं देख सकते होतो मैं ज्यों-ज्यों सोचता गया, मुझ में उस औरत के लिए नफ़रत-सी भरती गई. मैं देर तक पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रोता रहा…’

 

यही भगवान है!’ हृदयनारायण का मुख उत्तेजना से चमक रहा था.

और किसको भगवान कहा जाता है,’ रायसाहब छूटते ही बोले,‘तुमने देखा, मेरे जैसा नीच कोई नहीं होगा, पर उनकी कृपा से सारी नीचता छूमंतर कर के भाग गई. अब मेरा हृदय एकदम पवित्र था. मैं चाहता था कि उस लड़की से किसी तरह छुटकारा मिले.

पर उसके सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी. और एक रोज़, भैया, मैंने सोचा कि अभी तक मुझ पर शैतान की असर है. जब तक मैं यहां से टलता नही वह ख़त्म नहीं होने का….तुम समझ रहे हो ? सब भगवान सोचवा रहा थाअब देखिए कि मैं एक रोज़ वहां से चुपके से घर के लिए रवाना हो जाता हूं! …फिर मैं वहां कभी नहीं गया.

 

अपने भाई और लड़कों को भेजता रहा,’ कुछ देर तक वे चुप रहे जैसे कोई मंज़िल तय कर ली हो. फिर गहरी सांस छोड़कर बोले,‘तब से मेरा जीवन ही बदल गया. …अब सारा जीवन सरकार के चरणों में अर्पित है. मैं अच्छी तरह समझ गया कि सब उन्हीं की लीला थी.

 

वह चाहते थे कि मैं शैतान के चक्कर में फंसूं, जिससे मेरी आंखें खुलें. अब मैं सवेरे नहा-धोकर चौकी पर पूजा करने बैठ जाता हूं तो घंटों सुध-बुध नहीं रहती. शाम को भी ऐसा ही चलता है. चौबीसों घंटे मन उन्हीं में रमा रहता है.’

 

उनकी आंखें चमक रही थीं,‘और तब से उसकी बड़ी कृपा रही. जानते हो, जब मैं बिहार से भाग आया, उसके कुछ ही दिनों बाद ज़मीदारी टूटी थी. मैंने दौड़-धूप की, रुपए ख़र्च किए और किसी तरह क़रीब पचहत्तर बीघे ज़मीन ख़ुदकाश्त करवा ली.

 

बताओ, अगर उसकी दया होती, तो सारी ज़मीन चली जाती? कहां तक गिनाऊं? छोटा लड़का आवारा निकला जा रहा था, मैंने मिल-मिलाकर दो-तीन ठेके दिलवा दिएअब हज़ारों में पीटता है. बड़ा लड़का बनारस कमिश्नरी में वक़ील है.

गांव में आटा-चक्की और चीनी का कारख़ाना खुल गया है. पिछले साल से पंचायत का सभापति भी हो गया हूंसच पूछो तो रोब-दाब में कमी नहीं आई है. और यह किसकी बदौलत? सब सरकार की कृपा का फल है.’ वे कुछ उदास से हो गए,‘तुम्हारी दुआ से मुझे किसी बात की कमी नहीं, ज़मीन-जायदाद, बाग़-बगीचे, इज़्ज़त-आबरू, बाल-बच्चे सब कुछ हैपर सच कहता हूं मुझे किसी से कोई मतलब नहीं. भैया, इस जीवन में कोई सार नहीं…’

वह सहसा चुप हो गए और उनकी दृष्टि शून्य में खो गई.

अंधेरे में पलाश के फूल विहंस रहे थे.

The End























































 

 

Monday, 22 April 2024

Story Caliph Harun al Rashid & Sufi Bahlul Dana who was Selling Palace in Paradise at a Dinar.Queen Zubaidah purched

Harun al Rashid (766809) was a great Caliph. His domains extended from China to Spain. From east to west, north to south, no monarch could boast a kingdom as magnificent, as extant or as powerful as that of Harun. He was a patron of learning and the arts.

 

He invited scholars from far-away lands, from China, India and Greece to come to Baghdad and work at the House of Wisdom which his father had established.

 

The fabled Arabian Nights celebrate the dazzling brilliance of his times. The emperors of China and France considered it an honor to send emissaries to the court of Harun and seek peace and trade relations with his vast empire.

 

Harun had a brother Behlul. Just as Harun was rich and wealthy and Caliph of vast domains, Behlul was a saint, scornful of the riches of the world and focused on the eternal, timeless riches that accrue to men and women of goodness. 

Harun spent his time in the palace, surrounded by courtiers and sycophants. Behlul spent his time in the desert in seclusion.

Often times, he was observed building castles in the desert sand, only to demolish them after he had built them.

 

One day, Harun was riding in the desert with his comrades when he saw his brother building castles in the sand. The emperor descended from his royal stallion and greeted his brother:

“How are you, my good brother?”, asked the emperor.

“Shukr Allah, Alhamdulillah (thanks be to God, praise be to God), I am well”, replied Behlul.

 

The Price of a Palace in Heaven

      

The Caliph observed that Behlul had built a sand castle. Reaching out to engage his brother, Harun asked:

“I would like to buy that sand castle. How much does it cost?”

 

Behlul usually charged only one dinar (a gold coin) from merchants who were passing by.  He would take the money and distribute it to the poor the following morning.

 

But Harun was a mighty Caliph. He had untold riches. Behlul asked for a price worthy of a king.

 

“One hundred dinars (gold coins)”, came the immediate reply. “And I will distribute the dinars to the poor tomorrow morning at the bazaar.”

 

“One hundred dinars for a sand castle?” rejoined the Caliph. “That is too much for a mere sand castle”.

 

“It is one hundred dinars. It is up to you either to buy it or not to buy it.”

 

The Caliph was not interested. He said salaam to his brother, mounted his horse with its saddle of gold and rubies and departed.

 

So Harun Rashid, one of his wives queen Zabeda, she was in the marketplace. She stopped by, she’s looking, saying, “What is this, Ya Bahlul?”

 

Saying, “It is a house from Paradise, I’m selling it.”

Jannah and she asked, “How much is this one? How much is that one?”

 

 “This one is ten gold, this one is hundred, and this one is thousand.”

 

She said, “I’m taking the best one, for thousand gold.”And she paid the money.

 

That night, as Harun slept in his royal chambers, he had a dream. He dreamed that he was taken up to heaven and was shown places of unspeakable grandeur and beauty.

 

When Harun asked the accompanying angel to whom these palaces belonged, he was told these were the palaces built by his brother Behlul and purchased from him by passing merchants.

 

Those people who reached to that station, they are able to go to check it also. And they can check other’s houses too. Saying, “Fix this one like this, fix this one like this. I like this kind, fix this house this way.” So it works.

 

Anyway, Harun Rashid, he’s walking around in the Paradises and he’s seeing another special Palace that he has never seen before. He tried to enter, there are guards over there saying,

 

“No. You cannot enter here. This is very special.”

 

Harun Rashid asked, “Don’t you know me? I am the Khalifa. There is restriction to me?”

 

They said, “Yes, for this palace there is restriction to you.”

 

He asked, “Whose palace is this?”

“This is your wife’s palace.”

“My wife’s palace and it is restricted to me?”

 

 “Yes.”

He said, “But she didn’t have this palace yesterday. How did it happen?”

 

 “She just bought it from Bahlul Dana.”

 “Ohhh…”

 

So he woke up from the dream, ran to the marketplace right away. Bahlul Dana is looking at him, saying “Yes, Ya Khalifa?”

 

He said, “I came to buy some houses from Paradise.”

 

He says, “There are the cheap ones” He said to Harun Rashid, “This is one gold. For you it is a thousand gold. This one is hundred thousand. This one that your wife bought for a thousand, it costs One million for you.”

Khalifa is saying, “Are you trying to fool me? Yesterday you sold it for a thousand gold. Now you want this much gold from me?”

 

Bahlul Dana replied, “Of course. Because she bought it without seeing.” And he said, “You have seen it, that’s why you came to buy it. For that one million.”

Moral of Story:--- The story of Harun Rashid and Behlul has a moral of understanding the value of reality and the unseen. Behlul offers to sell his entire kingdom to Harun for one sand castle, even though he previously offered to sell it for one hundred dinars. Behlul explains that the previous purchase was based on his belief in the unseen, while the current purchase is based on seeing the value and reality.

The End

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