Friday, 2 February 2024

सरदारनी (भीष्म साहनी): देवियाँ और क्या होती होंगी-मास्टर सोच रहा था-यह गुरु महाराज की तलवार है-किसी आततायी को नहीं छोड़ेगी। हट जाओ सामने से जिसे जान प्यारी है.

स्कूल सहसा बन्द कर दिया गया था और मास्टर करमदीन छाता उठाए घर की ओर जा रहा था। पिछले कुछ दिनों से शहर में तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगी थीं।

 

किसी ने मास्टर करमदीन से कहा था कि शहर के बाहर राजपूत रेजिमेंट की टुकड़ी पहुँच गई है, कि अबकी बार रामनवमी के जुलूस में झाँकीवाली गाड़ी में ही बर्छे और तलवारें भरी रहेंगी, कि कस्बे में बिना लाइसेंस के चालीस पिस्तौल पहुँच गए हैं, और हिन्दुओं के मुहल्ले में मोर्चेबन्दियाँ तेजी से खड़ी की जा रही हैं, कि पाँच-पाँच घरों के पीछे एक-एक बन्दूक का इन्तजाम किया गया है।

 

उधर हिन्दुओं के मुहल्ले में यह बात तेजी से फैल रही थी कि जामा मस्जिद में लाठियों के ढेर लग गए हैं और धड़ाधड़ असला इकट्ठा किया जा रहा है, कि दो दिन पहले नदी पार से एक पीर आया था और रात को वकील के घर में साजिशें पकाई जा रही हैं।

 

इन खबरों को भला कौन झुठला सकता था? देखते-ही-देखते शहर में तनाव बढऩे लगा था। मुसलमानों ने हिन्दुओं के मुहल्ले में जाना छोड़ दिया और हिन्दुओं-सिक्खों ने मुसलमानों के मुहल्लों में। कोई खोमचेवाला या छाबड़ीवाला फेरी पर निकलता तो दिन डूबने से पहले घर लौट जाता। शाम पड़ते पड़ते ही गलियाँ और सड़कें सुनसान पडऩे लगीं।

 

एक-दूसरे से फुसफुसाते दो-दो, चार-चार लोगों की मंडलियाँ किसी सड़क के किनारे या गली के मुहाने पर खड़ी नजर आने लगी थीं। तनाव और दहशत यहाँ तक फैली कि कहीं कोई ताँगा या छकड़ा भी तेजी से भागता नजर आता तो लोगों के कान खड़े हो जाते और दुकानदार अपनी दुकानों के पल्ले गिराने लगते। झरोखों से अधखुले दरवाजों के पीछे घूरती आँखें तैनात हो जातीं।

 

यह ऐसा वक्त था कि अगर किसी घर के चूल्हे से चिंगारी भी उड़ती तो सारा शहर आग की लपेट में सकता था। ऐसा माहौल बन गया था जब आदमी तो घर पर बैठ सकता था, बाहर खुले-बन्दों घूम सकता था।

 

वह केवल अफवाह सुन-सुनकर परेशान हो सकता था।इसी बढ़ते तनाव को देखकर स्कूल वक्त से पहले बन्द कर दिया गया था और बच्चों को दोपहर से पहले ही अपने-अपने घर भेज दिया गया था और मास्टर करमदीन छाता उठाए अपने घर की ओर जा रहा था।

 

स्कूल का मास्टर तो यों भी भीरु स्वभाव दब्बू-सा प्राणी होता है, अपने काम से मतलब रखनेवाला—'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' बस, किताबें और अखबार बाँचने और फलसफे बघारनेवाला। इसमें शक नहीं कि कभी-कभी अन्धविश्वासी, आग उगलनेवाले भी इन्हीं में से निकलते हैं पर आमतौर पर स्कूल का अध्यापक बड़ा शील स्वभाव और गरीबतबह आदमी होता है, जो हर किसी की बात सुन भी लेता है और विश्वास भी कर लेता है।

 

मुहल्ले में दाखिल हुए तो मास्टरजी के कान खड़े हो गए। स्कूल में तरह- तरह की अफवाहें सुनते रहे थे, और जो वारदातें होती हैं, वह अँधेरी गलियों में ही होती हैं। भले ही मास्टरजी का आगे-पीछे कोई नहीं था, ' रन्न, कन्न' पत्नी , परिवार, फिर भी जान तो जान है, कट-कट मरने से तो सभी को डर लगता है।

मास्टरजी चले जा रहे थे और हर आहट पर ठिठक-ठिठक जाते थे। कहीं कोई पीछे से छुरा उठाए तो नहीं रहा! किसी दरवाजे के पीछे कोई घात लगाए तो नहीं बैठा! हर दरवाजे के पीछे उन्हें डोलते साये और घूरती आँखें नजर रही थीं। मन में खौफ तो था ही, सबसे ज्यादा खौफ इस कारण था कि हिन्दुओं-सिक्खों की गली में वही अकेले मुसलमान रहते थे।

 

वर्षों की दुआ-सलाम तो हमसायों के साथ थी, पर किसी के साथ उठना-बैठना, आना-जाना नहीं था। अकेला आदमी किसी परिवारवाले के साथ कैसे हिल-मिल सकता है? यहाँ किसी ने पीठ में छुरा भोंक दिया तो पता भी नहीं चलेगा कि मास्टर कभी था भी या नहीं था।

 

वह घर के अन्दर जाने लगे तो पड़ोसवाले घर के बाहर बैठी सरदारनी पर उनकी नजर पड़ी। उन्हें लगा, जैसे पड़ोसिन सरदारनी उनकी ओर अजीब-सी नजर से देख रही है। यह मन का गुमान रहा हो, या सचमुच ऐसा ही था, उनका मन हुआ कि झट से अपनी कोठरी के अन्दर घुस जाएँ। एक बार मन में यह भी आया कि रोज की तरह आदाब अर्ज कर दें, पर अकेली बैठी औरत से दुआ-सलाम करने का गलत मतलब भी निकाला जा सकता है और फिर आज के दिन।

 

वह अपनी कोठरी का ताला खोल ही रहे थे कि पीछे से आवाज आई, ‘‘सलाम मास्टर।''


सरदारनी की आवाज थी और सुनते ही मास्टर के मन का तनाव कुछ-कुछ ढीला पड़ गया।

 

सरदारनी बड़ी हँसमुख पंजाबिन थी। अनपढ़, मुँहफट, सारा वक्त बतियानेवाली, चौड़ी हड्डी की काया, बाल उलझे रहते, छातियाँ उघड़ी रहतीं, घर के बाहर ही कपड़े धोती, घर के बाहर ही चौका करती, और पौ फटने के पहले, कई बार गली के नल पर नहाने भी बैठ जाती थी। मास्टर इससे खम भी खाता था, और इसे पसन्द भी करता था। इसके पास से गुजरते हुए ही उसे झेंप होने लगती थी।

 

सरदारनी को पल्ले-दुपट्टे का ध्यान रहता, इस बात की परवाह कि कौन सुन रहा है, कौन देख रहा है। दिन-भर बतियाती थी। मास्टर अपने कमरे में बैठा किताब तक नहीं पढ़ सकता था।


उसकी आवाज सुनकर मास्टर करमदीन के मन का तनाव कुछ ढीला पड़ा। अगर यह औरत इतनी निश्चिन्त हो सकती है, तो शहर में कोई तनाव नहीं होगा, सब मनगढ़ंत अफवाहें होंगी। आराम से बैठी घर के बाहर बर्तन मल रही है। पर फिर, मुहल्ला भी तो हिन्दुओं-सिक्खों का है, इसे क्यों किसी बात की चिन्ता होने लगी!

 

मास्टर, क्या शहर में रौला है?''

मास्टर करमदीन ठिठक गया, वहीं खड़े-खड़े बोला, ‘‘हाँ, रौला है, तालाब के पास किसी की लाश मिलने की बात सुनने में आई है। शहर में तनाव पाया जाता है।''

इस पर सरदारनी हँस पड़ी।

 

इसीलिए दुबककर घर में घुस रहा है? फिकर नहीं करो, मास्टर, हमारे रहते तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं करेगा।'' फिर हँसकर बोली, ‘‘अच्छा किया जो शादी-ब्याह नहीं किया। अकेली जान पर ही तेरा दम सूख रहा है, घर में बीवी-बच्चे होते तो तेरा तो हार्ट ही फेल हो जाता!''और खुद ही ठहाका मारकर हँसने लगी।

 

मास्टर को अच्छा लगा। दिन-भर जो बातें सुनता रहा, उनसे ये मुख्तलिफ थीं। इसकी आवाज में दहशत नहीं थी, खौफ, डर नहीं था, खुशदिली थी और एक तरह का हमसायापन जिसकी कोई पहचान नहीं, परिभाषा नहीं, पर जो दिलों को बाँध लेता है। उसे सचमुच लगा, जैसे इस औरत के रहते उसे किसी बात का डर नहीं है।

 

मैं सोचता हूँ, मैं इस मुहल्ले से चला जाऊँ। मुसलमानों के मुहल्ले में जा रहा हूँ।''

 

क्यों? हमारे मुँह पर कालख पोतकर जाएगा? अब कहा है, फिर यह बात मुँह पर नहीं लाना।''

मास्टर को यह भी अच्छा लगा। इसमें अपनापन था। उसकी डाँट-भरी तिरस्कारपूर्ण आवाज में भी आत्मीयता थी।

फिसाद भड़क उठा तो मैं कहीं नहीं जा पाऊँगा। अभी से निकल जाऊँ।''

 

आराम से बैठा रह, फिसाद-विसाद कुछ नहीं होगा। अगर हुआ तो मैं सरदारजी से कहूँगी, तुम्हें मुसलमानों के मुहल्ले में छोड़ आएँगे।''

 

मास्टर के मन का डर जाता रहा, पर केवल कुछ देर के लिए ही। अपने कमरे के अन्दर जाने की देर थी कि फिर पहले-सी उधेड़-बुन शुरू हो गई। इसका घरवाला मुझे काट डाले तो मैं क्या कर सकता हूँ? बातें बड़ी मीठी-मीठी करती है, हँस-हँसकर, पर इन पंजाबियों का क्या एतबार! जिन्दा आदमियों को भी जलती आग में झोंक सकते हैं।

 

यह भी हमला करे, पड़ोस में कितने ही लोग भरे पड़े हैं जो इश्तआल में आकर मेरा गला काट सकते हैं। मैं तो जैसे पिंजरे में बन्द हो गया हूँ। अभी भी निकल जाऊँ तो शायद बच जाऊँ, यहीं पर पड़ा रहा तो मेरी लाश का भी पता नहीं चलेगा।

 

मास्टर फिर परेशान हो उठा।

 

उस रात वह अभी बिस्तर पर करवटें ही बदल रहा था कि दंगे की आवाजें आने लगीं। गहरे अँधेरे को चीर-चीरकर आती हुई नारों की आवाजें, 'हर-हर-हर महादेव!' और दूर, बहुत दूर, शायद मस्जिद शरीफ के पास से, 'अल्लाह- अकबर!' की आवाजें। और भागते कदमों की और छतों पर खड़े लोगों की। मास्टर का तन-बदन पसीने से तर हो गया। अब वह निकलकर कहाँ जा सकता है, केवल मौत के मुँह में ही जा सकता है।

 

उसे लगा, जैसे किसी बाजार में आग लगी है और जैसे उसके अपने कमरे की दीवार पर उस आग की अस्थिर-सी लौ नाचने लगी है। हर बार कोई शोर सुनाई देता तो उसे लगता, जैसे आवाज उसी के घर की ओर बढ़ती रही है। रात-भर, त्रास और घृणा में भागते कदमों और चिंघाड़ते दानवों की आवाजें उसके कानों में पड़ती रहीं।

 

मास्टर ने रात बैठकर काटी। उसे डर था कि अभी किसी कुल्हाड़ी का वार उसके दरवाजे पर पड़ेगा और उसका काम तमाम कर दिया जाएगा। कल शाम उस पंजाबिन की बातों में गया, वरना निकल जाता तो बच जाता।

 

आखिर किसी जन्तु-जैसी अँधियारी रात का हाँफना बन्द हुआ और प्रभात का झुटपुटा खिड़की-रौशनदान में से झाँकने लगा। तब कहीं मास्टर को झपकी आई और बैठे-बैठे ही बिस्तर पर लुढ़क गया।

 

पर कुछ ही देर बाद वह हड़बड़ाकर जागा। नींद की झोंक में उसे लगा था, जैसे मुहल्ले के कुछ लोग चलते हुए उसके घर के सामने से गुजरे हैं और एक ने कहा है, 'यहाँ रहता है एक मुसला!' जवाब में किसी ने कहा है, 'नोट कर लो,' और फिर आगे बढ़कर दरवाजा तोडऩे लगा है।

मास्टर हड़बड़ाकर उठ बैठा। सचमुच कोई दरवाजा पीट रहा था। जागने पर, पहले तो उसकी समझ में कुछ नहीं आया। उसने सोचा, ग्वाला दूध लाया होगा, पर वह तो कभी-कभी साँकल खटखटाता है, इस तरह किवाड़ तो नहीं पीटता।

 

तभी बाहर से आवाज आई।

मास्टर, मास्टर! खोल दरवाजा।'' सरदारनी की आवाज थी।

 

मास्टर इस वक्त तक इतनी यातना भोग चुका था कि उसका मस्तिष्क जड़ हो चुका था। चेतना का कहीं कोई स्फुरण शेष नहीं रह गया था। यह आवाज दोस्त की भी हो सकती थी, खून के प्यासे दुश्मन की भी।

खोल दरवाजा मास्टर, निकल बाहर।''

 

मास्टर ने अल्लाह का नाम लिया और दरवाजा खोल दिया।

सामने सचमुच सरदारनी पड़ोसिन खड़ी थी और उसके हाथ में चमचमाती कटार थी। लम्बे चमचमाते फलवाली कटार जिस पर से अभी लाल-लाल खून नहीं चू रहा था।

 

मास्टर को काटो तो खून नहीं। उसका चेहरा पीला पड़ गया और माथे पर ठंडे पसीने की परत गई।

 

क्या हुक्म है बहिन?'' उसने धीमी-सी आवाज में कहा।

कल आओ बाहर।''

 

मास्टर को यकीन नहीं हुआ कि यह वही औरत थी जो कल शाम हँस-हँसकर बातें कर रही थी और अपने कमरे में आराम से पड़े रहने का आश्वासन दे रही थी। जिन्दगी में वही लोग सबसे ज्यादा धोखा दे जाते हैं, जिन पर इनसान सबसे ज्यादा विश्वास करता है। मास्टर अपने दो कपड़ों में ही नंगे पाँव बाहर निकल आया।

चलो मेरे साथ।''

 

मास्टर चुप रहा, कहाँ चलूँ इसके साथ! शायद किसी दीवार के पीछे जैसे लोग, दीवार की ओट में मुर्गी काटते हैं, या बकरा जबह करते हैं।चलो मेरे साथ,'' उसने कहा और मुड़ पड़ी।

 

मास्टर नंगे पाँव उसके पीछे हो लिया। अनजाने में ही उसके हाथ पीठ-पीछे बँध गए, जैसे सूली पर चढ़ाए जानेवाले लोगों के बँध जाते हैं।

 

सरदारनी चौड़ी काठ की थी। उसकी सलवार के चौड़े-चौड़े पायँचे जमीन पर सदा घिसटते रहते थे और इस समय भी घिसट रहे थे। बालों की लटें कन्धों पर झूल रही थीं। तीस और चालीस के बीच की रही होगी सरदारनी।

 

उसने कुछ नहीं बताया कि वह कहाँ जा रही है, मास्टर ने नहीं पूछा कि वह उसे कहाँ ले जा रही है, नंगे पाँव वह उसके पीछे चलता जा रहा था। ढीलम-ढालम औरत सड़क के बीचोबीच चलती हुई मुहल्ले के बाहर पहुँच गई।

 

तभी सहसा सामने, उसे गली के सिरे पर डोलते साये नजर आए। कुछ आदमी मुश्कें बाँधे, हाथों में बर्छे और लाठियाँ उठाए खड़े थे।

'मेरा वक्त गया है,' मास्टर ने मन-ही-मन कहा और उसके मन में स्थिरता-सी गई, 'अब कुछ नहीं हो सकता। मैं धोखा खा गया हूँ, अब कुछ नहीं हो सकता। मुझे पनाह की जरूरत थी, यह मुझे घर के बाहर घसीट लाई है, अब कुछ नहीं हो सकता।' मास्टर के जेहन में ये शब्द बार-बार कौंध रहे थे, और उसके शरीर में बहता खून पानी में बदल रहा था। पाँव बार-बार लरज जाते थे।

 

आदमियों की गाँठ आगे को सरक आई थी। मुश्कों के पीछे आँखों की जोडिय़ाँ, हाथों में बर्छे, उन्होंने मास्टर की दाढ़ी से ही अपना शिकार पहचान लिया था और आगे बढ़ आए थे।

 

सरदारनी खड़ी हो गई। अपनी कटार अपने सामने करके ऊँची आवाज में बोली, ‘‘यह गुरुगोविन्द सिंह की तलवार है। तुम्हें जान प्यारी है तो सामने से हट जाओ!''

 

सरदारनी ने ललकारकर कहा था। उसकी पीठ-पीछे खड़ा मास्टर पहले तो समझ नहीं पाया, फिर स्तब्ध-सा खड़ा रह गया।

 

मुश्कें बाँधे आदमियों का टोला दुनवार चट्टान की तरह सामने खड़ा था। मास्टर को मानो मालूम हुआ, जैसे वह निर्णायक क्षण पहुँचा हैवही निर्णायक क्षण, जब जीवन की गति थम जाती है, और सारा संसार चित्रवत् नजर आने लगता है। शताब्दियों लम्बा क्षणऐसा क्षण, जब सब-कुछ सपने-जैसा लगने लगता है। पर यह सपना नहीं था, जीवन का दारुण सत्य था।

 

सरदारनी चिल्ला रही थी, ‘‘आगे से हट जाओ, यह गुरु महाराज की तलवार है!''

आदमियों की गाँठ में से पीछे से आवाज आई, ‘‘यह मुसल्ला तेरा क्या लगता है? इसे कहाँ ले जा रही है?''

 

पर मास्टर ने देखा, जैसे किसी दीवार में सहसा दरार पड़ जाए, ऊपर से नीचे तक, वैसे ही बर्छे-भालेवालों की चट्टान बीच में से फट गई। काले-काले-से जैसे दो टुकड़े हो गए और बीच में से रास्ता खुल गया।

 

दूसरे क्षण सरदारनी, अपनी उस छोटी-सी कटार को अपने सामने उठाए हुए, पहले की ही तरह आगे बढ़ रही थी।

 

उसके बाद मास्टर को कुछ मालूम नहीं रहा कि वे कहाँ गए, किस गली में घुसे, किस-किस रास्ते से आगे बढऩे लगे। उनकी टाँगों में ताकत गई थी, और सिर अपने-आप झुक गया था, और सरदारनी के पीछे वह चुपचाप आगे बढ़ता जा रहा था।

 

वे जिस गली में घुसे, वह गली लम्बी थी, हवा में संशय था, और दिन का उजाला होकर प्रभात का झुटपुटा था, पर मास्टर के सीने में उसका धड़कता दिल मानो बल्लियों उछल रहा था।

 

गली पार करके वे फिर सड़क पर गए थे, और सड़क पर से फिर किसी गली में पहुँच गए थे। गली कहीं टेढ़ी हो गई, कहीं पर मुड़ गई थी। अगर यह औरत मेरे सीने में अपनी कटार घोंप दे, तो मुझे मंजूर होगा, मैं इसे एहसान मानकर कबूल कर लूँगा। मास्टर मन-ही-मन कह रहा था।

 

मुसलमानों के मुहल्ले तक पहुँचना आसान नहीं था। बीच में कितने ही और मुहल्ले पड़ते थे, कितनी ही गलियाँ, कितने ही टेढ़े-मेढ़े रास्ते, और हर मुहाने पर, सड़क के हर नाके पर बर्छे-भाले उठाए हुए शिकारी रास्ता रोक लेते थे, और एक नहीं, तीन जगह पर सरदारनी घिर गई थी।

 

एक घर पर से तो किसी ने पत्थर भी फेंका था। कई बार माँ-बहन की गालियाँ और भयानक धमकियाँ भी सुनने को मिली थीं। पर गुरु महाराज की कटार, जो वास्तव में लम्बे फलवाले चाकू से ज्यादा नहीं थी, वह सचमुच उस सरदारनी के हाथ में निहत्थों की रक्षा करनेवाली, नि:सहाय लोगों का त्राण, अन्याय के विरुद्ध सहस्रों बर्छों-भालों को काट गिराने की क्षमता रखनेवाली कटार, जैसे वह चलेगी तो उसमें से बिजलियाँ फूटेंगी और आततायियों के हाथ से उनके बर्छे-भाले गिर पड़ेंगे।

 

देवियाँ और क्या होती होंगी, मास्टर सोच रहा था।

यह गुरु महाराज की तलवार है, किसी आततायी को नहीं छोड़ेगी। हट जाओ सामने से, जिसे जान प्यारी है!''

 

मास्टर मुसलमानों के मुहल्ले में पहुँच चुका था जब सरदारनी का दमकता हुआ चेहरा मास्टर को देखने को मिला। गम्भीर कठोर, जैसे चट्टान में से तराशा गया हो!

जाओ मास्टर!'' उसने कहा और उन्हीं कदमों अपने मुहल्ले की ओर लौट पड़ी।

 

फसाद की आग धू-धू करके बहुत दिनों तक जलती रही। बसा-बसाया नगर मसान-जैसा बन गया। बुनकरों के करघे जल गए, मंडी जल गई, अनगिनत दुकानें लूटी गईं, आग के शोले आसमान को छूते थे, कितने ही लोग मारे गए।

पर धीरे-धीरे लोगों को होश आया, दु:स्वप्न टूटा। कुछ जनून उतरा, पर अभी तक लोगों को मालूम नहीं हो पाया था कि यह क्यों हुआ और किसने करवाया। तभी नेता लोग भी पहुँच गए। बरसात के बाद जैसे कुकुरमुत्ते उग आते हैं, हर फसाद के बाद लीडर लोग पहुँच जाते हैं।

 

लीडर पहुँचे, अखबारनवीस पहुँचे, फोटोग्राफर पहुँचे। तभी इनसानियत से प्रेम करनेवाले कुछ लोगों को सरदारनी की भी याद आई। मास्टर करमदीन अपने कुछ साथियों को लेकर, साथियों को ही नहीं, बहुत-से बुजुर्गों, अमनपसन्द लोगों को लेकर अपने मुहल्ले में आया।

 

गली का मोड़ मुडऩे पर उसने देखा कि सरदारनी अपने घर के बाहर चूल्हा जला रही थी।

 

सरदारनी ने बहुत-से लोगों को आते देखा तो उठ खड़ी हुई, और दरवाजे की ओट में हो गई। उसकी समझ में नहीं आया कि कौन लोग हैं, कहाँ से आए हैं, क्यों आए हैं। मास्टर करमदीन भीड़ में पीछे कहीं खड़ा था।

 

पर उम्ररसीदा लोगों की मंडली उसके घर के सामने आकर रुक गई थी। सरदारनी के कारनामे को सुनकर उसके सामने प्रशंसा के दो शब्द, अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करने चले आए थे।

 

पर सरदारनी दरवाजे की ओट से बाहर नहीं आई। वहीं खड़े-खड़े बोली, ‘‘हमारे सरदारजी घर में नहीं हैं। मिलना है तो हमारे सरदारजी से मिलो। वह शाम को आएँगे। काम पर गए हैं।''

 

(यह घटना सच्ची है। श्रीमती सुभद्रा जोशी के मुँह से सुनी है।- भीष्म साहनी)

 

The End

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Monday, 22 January 2024

Dhanushkodi Beach: Lord Ram destroy Ram Setu with arrows from his bow after evacuating Sita ji? Now Ghost Town The Last land of India.


Dhanushkodi means ‘Bow’s end’. The gently shaped shoreline here does indeed suggest a bow.


Very interesting to know that: this is native place of APJ Abdul Kalam former President of India.

 

His father was a boat owner and imam of a local Masjid, Who owned a ferry that, took Hindu pilgrims back and forth between Rameswaram and the now uninhabited Dhanushkodi.

Arichal Munai, the starting point of the Ram Setu is virtually the land’s end for India.

 

It is a place where the waters of Bay of Bengal and the Gulf of Mannar meet. Just 35 km away across the turbulent waters of Palk Strait is the Sri Lankan port town of Talaimannar.

 

Dhanushkodi Beach lies on the tip of the Rameswaram Island. In this beach, the Bay of Bengal and Gulf of Mannar Sea of Indian Ocean merge which is known as Arichal Munai in Tamil. Before 1964, Dhanushkodi was a busy, crowded city. The Dhanushkodi Beach attracted thousands of tourists each day.

Lord Ram demolish a part of Rama Setu himself

Before the battle between Shriram and Ravana, Ravana’s brother Vibhishan had surrendered to Shri Ram in Dhanushkodi town. After the war of Lanka ended, Prabhu Ramchandra crowned Vibhishan as the King of Lanka.

 

Vibhishan, the King of Lanka said to Prabhu Ramchandra that brave and valiant kings from India would always use Rama-setu to attack Sri Lanka and Sri Lanka would lose her independence; requesting Shriram to destroy the setu.

 

Prabhu Ramchandra bestowed His grace on His devotee, shot an arrow and the bridge was submerged 2-3 feet below water level. Even today, if anyone stands on this bridge, he finds water upto his waist level.

 

The name of the place became ‘Dhanushkodi’, meaning ‘end of bow’.

As per mythology, Dhanushkodi was the spot where Lord Rama and his army built Ram Setu, otherwise known as Adam’s Bridge across the sea connecting Rameshwaram Island (Tamil Nadu) and Mannar Island (Sri Lanka), to rescue his wife Sita from the clutches of the demon king Ravana.

 

After rescuing his wife, Lord Ram destroyed the bridge with arrows from his bow, on request of Vibhishan (new Lanka King), thus the name of the town became ‘Dhanushkodi’, meaning ‘end of bow’.


It is also said that Rama marked this spot for Setu with one end of his famous bow. Bath in holy Sethu at the junction of the two seas normally precedes the pilgrimage to Rameswaram. A series of rocks and islets found in a line are shown as remnants of the ancient Setu also called as Rama’s Bridge.

 

Haunting Story of Dhanushkodi: When Train No.653, Pamban-Dhanushkodi Passenger was washed away by Tsunami on Night of 1964 December 22.

 

It all started when a super cyclone with a wind velocity of 270 km/hr hit Dhanushkodi on the night of 22nd December 1964. The tidal waves are said to have gone up to 20 feet.


While entering Dhanushkodi railway station, train No.653, Pamban-Dhanushkodi Passenger, a daily regular service which left Pamban with 110 passengers and 5 railway staff, was only few hundred yards before Dhanushkodi Railway station when it was hit by a massive tidal wave.


The entire train was washed away killing all 115 on board. A few meters ahead of Dhanushkodi, the signal failed. With pitch darkness around and no indication of the signal being restored, the driver blew a long whistle and decided to take the risk.


Minutes later, a huge tidal wave submerged all the six coaches in deep water. The tragedy that left no survivors also destroyed the Pamban Bridge, which connected the mainland of India to Rameshwaram Island. The bridge has now been rebuilt.

Wahed away Rail track during  Tusami on 22 December 1964

Information has been received that a portion of the engine is visible six inches above water. With communication virtually cut off, the impact of the cyclone could reach Chennai only after several hours.

 

There was no Internet connection and the Pamban Bridge was the only way to reach Dhanushkodi other than waterways.

 

As a result, the little town which was once a tourist spot with several pilgrims and fishermen, was reduced to ruins.

Before the cyclone hit Dhanushkodi, it had a railway station and jetty service to transport travelers to Talaimannar in Sri Lanka. It was a busy port town with a working post office, a temple visited regularly by devotees and a church attended by locals and visitors alike. The cyclone devastated Dhanushkodi causing irreparable loss to life and property.


Pamban Bridge

Pamban Bridge was also washed away by the high tidal waves in this disaster. Eyewitness accounts recollected of how the surging waters stopped just short of the main temple at Rameshwaram where hundreds of people had taken refuge from the fury of the storm.

Following this disaster, the Government of Madras declared the town as Ghost town and unfit for living after the storm. Only few fisherfolks now live there.

The route, which once linked India and Sri Lanka on the ‘Boat Mail,’ was never restored, though the remains of the cyclone still stand muted at Dhanushkodi, reminding one of the scale of the destruction wrought by nature that day.

Today, with no place to stay in Dhanoskodi bus loads of tourist make a day trip to the former flourishing international port town every day during the tourist session.

How to reach: My Travelogue to Dhanushkodi Beach

There are no direct transport services to Dhanushkodi. You can reach there by bus or cab from Rameshwaram, the nearest town.

 

The nearest railway station is Rameshwaram. Being a major town, Rameshwaram sees trains coming in from nearly every corner of Tamil Nadu and even far off places. The station is about 18 km away and getting a ride is very easy.

 

I hired a Taxi for Dhanusukodi beach from Rameshram @ Rs 1500/.

Journey started, the roads became quite spooky, and my heart started pounding faster when Taxi moved to secluded area leaving the town behind.

 

running just parallel to road.As we drove nearer to Dhanusukodi, this lining of Bay of Bengal was coming closer and closer to road.It was life time ride,I was seeing Indian Ocean on other side of road.wow…..now the road was in between two seas.

Our jeep was running rouh and jerky on a land mix with the mud, sand and water.We reached Dhanushkodi old town after one hour travelling.

 

It’s breathtakingly beautiful to see Bay of Bengal on left and Indian Ocean on right.


What a fun adventurous ride that was, although the water is shallow but still you feel the thrill of going inside the sea, the boats on the left  and lot of seagulls flying.


During the bumpy ride, Taxi driver pointed us at the remains of the rail tracks covered with sand, and those of the school, the hospital and office buildings. He also shows us the village that includes some 50 households staying in makeshift thatched houses.

They say that Bay of Bengal is male in Dhanushkodi and female in Rameswaram, where it embraces Indian Ocean, after devastating seven-km sand strip separating them.


Roaming on Dhansukodi Beach

We roamed around in the village and found some of the fishermen with their boats collecting their catch for the day. We also saw a few women washing clothes near a well and wonder where they get their water from. There seem to be a few wells that have salty water that people use for washing clothes and utensils.

Before the 1964 cyclone, Dhanushkodi was a flourishing tourist and pilgrimage town

Since Ceylon (Now Sri Lanka) is just 19 miles (31 km) away, there were many ferry services between Dhanushkodi and Talaimannar of Ceylon, transporting travelers and goods across the sea. There were hotels, textile shops and dharmshalas catering to these pilgrims and travelers.

 

At the “land’s end” terminus of the peninsula to the southeast of Dhanushkodi begins the chain of rocks and islets known as Rama’s Bridge. These lead approximately 19 miles across the Paik Strait to Mannar Island on the northwestern tip of Sri Lanka.

I found there a last Mobile Tower of BSNL, which was getting good signals, by which I was connected with my people.

At Dhanushkodi one can see the deep and rough waters of Indian Ocean meeting the shallow and calm waters of Bay of Bengal. Since the sea is shallow here, one can walk into Bay of Bengal and witness the colorful corals, fishes, seaweeds, star fishes and sea cucumber etc.

 

Entering the ghost town, I was caught in a time warp.

Exploring the ruins along the desolate coastline, I found a roofless, battered edifice, which looked like it must have once been a church. Inside, a pedestal, which could have been the altar, stood intact. A sense of peace overwhelmed me as I stood inside, gazing at the unscathed altar.

 

I could imagine the pews packed with a choral-singing congregation and the church resonating with prayers and the pastor preaching sermons during a Sunday morning mass.

Moving on I found that the sand had gobbled up everything in the course of time except for the crumbling walls of a few scattered buildings with exposed bricks that stand as mute witness to the terrible tragedy in which a storm washed away this hamlet.

I came across the four-pillared structure of a water tank and stumbled upon the Dhanushkodi railway station, a solid stone structure that is a sad reminder of the ferocity of the storm and the havoc created by the raging sea.

Further to the tank are some ruins of the quarters for railwaymen. In some places the meter gauge tracks were discernible half-hidden under the sand. These were the rails that carried the Boat Mail to Dhanushkodi.

There is a big building that was once a school, two-thirds of the insides strangely covered with mounds of sand. It would have housed school kids once, most of who were probably washed away that fateful day in the storm.

 

Strolling among the ruins, I could not believe that the now abandoned village was once a bustling center for travel and trade, connecting India and Sri Lanka with a railway and ferry service.

I just walked on the beach, went little inside the water, to the end of the peninsula where the Bay of Bengal and the Indian Ocean meet. I could gaze upon Adam’s Bridge, the chain of reefs, sandbanks and the islets that almost connect Sri Lanka with India. There was no turbulence, only peaceful blue Bay of Bengal.

 

The winds were so soothing, full of moisture, when it touches; I felt I was never touched by something so pure. The water was clean, the sand was cleaner. 

It was absolutely wonderful! Seeing two oceans meet is a heart-warming sight and the feeling. Water from two oceans was brushing under our feet … amazing. I had been dying to see this place.This point of this tour just made my entire trip-- A golden memory.


If you have the ears to listen the silence too. You may hear the sounds of cries, the recitements of the prayers in the remnants of the Catholic Church, the noises from the broken pieces of busy railway station and the port office. 

Aise veerane mein ek din

Ghut ke mar jayenge hum

Jitna ji chaahe pukaro

Phir nahin aayenge hum.

The End

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