अलस्सुबह-- सूरज उगने से पहले-- झाड़ियों में कबूतरों की गुटर गूँ उसकी खुली खिड़की से सुनायी देने लगी थीं. उनकी यह अटूट और स्थिर आवाज उसको अच्छी लगती थी. चीड़ के ऊँचे दरख्तों की फुनगी को छूती हुई मंद हवा बह रही थी और पहाड़ की ढलानों पर मुर्गे बाँग देने लगे थे.
दूर कहीं एक कुत्ता भौंका… सामने के किसी घर से दूसरे कुत्ते ने उसका जवाब दिया. घडी में अलार्म लगा लेने की सावधानी के बावजूद ओस्नत उस से पहले इन आवाजों से उठ जाती है-- बिस्तर से उठती है, अलार्म बंद करती है, नहाती है और काम पर जाने के अपने कपड़े बदन पर डाल लेती है.
साढ़े पाँच बजते बजते वह किब्बुत्ज़ लौंड्री के अपने काम पर निकल जाती है. बीच रास्ते में बोअज़ और एरिएला का घर पड़ता है-- अँधेरा और खामोश, दरवाजों में ताला लटका हुआ. वह मन ही मन सोचती है, अभी दोनों सो रहे होंगे ….
पर मन में यह ख़याल आने पर भी उसको न जलन होती न पीड़ा…. बस एक अस्पष्ट सा अविश्वास ज़रुर पैदा होता, जैसे यह सब जो हुआ उसके साथ नहीं बल्कि किसी अजनबी के साथ हो गया …उसको यह भी लगता कि इस घटना को घटे हुए बरसों बीत गए, जबकि बात महज दो महीने पुरानी ही तो थी.
लौंड्री पहुँचते ही वो बत्तियाँ जला देती, तब तक दिन का उजाला देखने लायक जो नहीं हुआ होता. इसके बाद वह झुक कर गंदे कपड़ों के ढेर को हाथ लगाती और सफ़ेद कपड़ों को रंगीन कपड़ों से तथा सूती कपड़ों को सिन्थेटिक कपड़ों से चुन-चुन कर अलग करती.
गंदे कपड़ों से तेज पसीने की गंध उठती जो साबुन की गंध के साथ मिलकर और भी तीखी हो जाती. ओस्नत लौंड्री में काम करने वाली इकलौती इन्सान थी, सो अपना अकेलापन दूर करने के लिए दिनभर अपना रेडियो चलाये रखती -- हाँलाकि वाशिंग मशीन की घर्र-घर्र और गूँज इतनी थी कि संगीत और शब्द दोनों दफ़्न हो जाते.
साढ़े सात बजते बजते उसके काम का पहला हिस्सा निबट जाता, मशीन से वह धुले हुए कपडे निकालती और फिर नयी खेप भरती. दुबारा काम शुरू करने से पहले वह डाइनिंग हॉल में जाकर नाश्ता करती. ओस्नत की आदत थी कि वह बड़ी धीरे-धीरे कदम बढ़ाती जैसे वह कहाँ जाने को निकली है उसको खुद नहीं पता, या फिर उसके कदम कहीं भी पहुँच जायें उसकी बला से. यहाँ हमारी किब्बुत्ज़ में ओस्नत की छवि एक बेहद शान्त रहने वाली औरत की थी.
गर्मियाँ शुरू होते ही एक दिन बोअज़ ने उसे बता दिया कि पिछले आठ महीनों से उसके सम्बन्ध एरिएला के साथ हैं … और यह भी कि एक झूठ के साथ अब तीनों के लिए रह पाना सम्भव नहीं है सो वह ओस्नत को छोड़ कर अब अपना साजो सामान उठा कर एरिएला के साथ रहने चला जायेगा.
"तुम अब कोई छोटी बच्ची थोड़े ही हो",
उसने ओस्नत से कहा,"
इसमें कोई ऐसा अजूबा नहीं है ओस्नत, हर दिन ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं -- यहाँ वहाँ, पूरी दुनिया में … यहाँ तक कि हमारे किब्बुत्ज़ में भी. यह किस्मत मनाओ कि हमारे बच्चे नहीं हुए, नहीं तो यह काम बेहद मुश्किल हो जाता."वह साथ अपना सबकुछ लेकर जायेगा, पर रेडियो उसके लिए छोड़ देगा.
Amos Oz |
उसकी मंशा थी कि उनका अलगाव भी उतना ही सहज और सहमति के साथ हो जैसा अबतक का उनका विवाहित जीवन रहा है. ओस्नत के मन में इस फैसले को लेकर जो गुस्सा है उसको वह भली भाँति समझता है हाँलाकि इस पूरे मामले में क्रोध की दर असल कोई वजह नहीं होनी चाहिये:
“एरिएला के साथ मेरा जो रिश्ता जुड़ा उसमें तुम्हें दुःख पहुँचाने का मकसद कतई शामिल नहीं था …कई बार एकदम से ऐसा हो जाता है, हमारे साथ भी हो गया बस.”
अब जो कुछ हो गया उसके लिए अफ़सोस करने के सिवा कुछ नहीं हो सकता …वह अभी अपना सामान यहाँ से हटा लेगा और उसके लिए रेडियो के अलावा और भी बहुत सारी चीजें -- एल्बम, तकिये के कसीदाकारी किये खोल और खूबसूरत कॉफ़ी सेट, जो शादी के समय उपहार में मिले थे, छोड़ जायेगा.
"ठीक"…ओस्नत ने कहा.
"ठीक......?
इस से तुम्हारा मतलब क्या है ओस्नत?”
"जाओ" … उसने जवाब दिया…" बस अब चले जाओ."
एरिएला बराश एक लम्बी छरहरी तलाकशुदा स्त्री थी-- पतली गर्दन, घुँघराले केश और खिलखिलाती आँखें, जिनमें से एक थोड़ी तिरछी थी. वह एक चिकेन को ऑपरेटिव में काम करती थी, साथ-साथ किब्बुत्ज़ की कल्चरल कमिटी की प्रमुख भी थी.
इस कमिटी के जिम्मे छुट्टियों में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना, उत्सव मनाना और शादी विवाह का आयोजन करना था. इनके अलावा शुक्रवार की रात की बैठकों के लिए वक्ताओं को आमंत्रित करने और बुधवार की रात में फिल्मों के प्रदर्शन का दायित्व भी उसके ऊपर ही था.
उसके पास एक बूढ़ी बिल्ली और एक नौजवान कुत्ता था जो देखने में बिलकुल पिल्ले जैसा लगता था -- दोनों एक ही घर में बड़े प्यार से साथ साथ रहते थे. कुत्ता बिल्ली से खौफ़ खाता था सो उसपर नजर पड़ते ही खाने पीने का सामान उसके लिए छोड़ कर दूर खड़ा हो जाता.
बूढ़ी बिल्ली भी कम नहीं थी, वह कुत्ते के होने न होने को समान भाव से देखती और उसको देखते हुए भी अनदेखा करके सामने से ऐसे निकला जाती जैसे उसका वजूद हो ही न. पूरा दिन दोनों एरिएला के घर में ऊँघते हुए बिता देते-- बिल्ली सोफ़े पर कब्ज़ा जमाये रहती, कुत्ता फर्श पर बिछे कम्बल के ऊपर … दोनों लगभग एक दूसरे से बेखबर.
एरिएला कोई साल भर तक एक आर्मी अफ़सर इफ़्राइम के साथ शादी के बंधन में रही, पर एक खूबसूरत युवा सैनिक के चक्कर में वह ऐसा उलझा कि एरिएला को छोड़ बैठा.
बोअज़
के साथ उसके रिश्ते की शुरुआत तब हुई जब एकदिन वह एरिएला के अपार्टमेंट में मशीन ऑयल से सने कपड़े पहन कर किसी काम से आया था.उसने एक लीक करते नल को ठीक करने के लिए बोअज़ को
बुलाया था. उसने एक चमड़े की बेल्ट बाँधी हुई थी जिसका बकल चमचमा रहा था.
जब वह नीचे झुक कर नल्के को ठीक कर रहा था, एरिएला ने उसकी धूप से झुलस कर काली पड़ गयी पीठ कुछ न कुछ कहने के बहाने कई बार छुयी…. और इस घटना से वह इतना हतप्रभ हो गया कि अपना स्क्रू ड्राइवर और रिंच वहीँ नीचे छोड़ कर चला गया. वह इसके बाद से हमेशा इस मौके की तलाश में रहता कि एरिएला की खिड़की से अन्दर झाँकने को कब मिल जाए …
और जब मौका मिलता वह इत्मीनान से घर के अन्दर आँखें गड़ाए रहता. पर यह सिलसिला लोगों की नज़रों से छुपा नहीं रहा और कुछ दिनों में कानों कान उनके प्रेम प्रसंग की शोहरत किब्बुत्ज़ में और उसके बाहर भी फ़ैल गयी.
लोग कहने लगे: कैसा अजीबो गरीब जोड़ा है….उसकी जुबान से एक शब्द नहीं निकलता, और एरिएला है की उसकी बड़ बड़ एक पल को रूकती नहीं.
हमेशा मसखरी करने वाले रोनी शिंडलिन ने फिकरा कसा: कैसा ज़माना आ गया, यहाँ तो शहद ही भालू को चट किये जा रहा है.
इन बातों के बारे में ओस्नत को किसी ने कुछ नहीं बताया, पर बिन कहे ही उसकी सखियों सहेलियों ने ढ़ेर सारा प्यार उड़ेल कर उस तक अपना सन्देश पहुँचा दिया कि वह अकेली बिल्कुल नहीं हैं ---
उसको जब भी कोई दरकार हो, चाहे मामूली ही क्यों न हो, सब उसके साथ कंधे से कन्धा मिला कर खड़े हैं …उसको सिर्फ एक इशारा करने की जरुरत पड़ेगी, बस.
बोअज़ ने अपने कपड़े लत्ते साइकिल की टोकरी में रखे और सीधा एरिएला के घर आ गया. दिन का काम पूरा करके वह ओस्नत के पास नहीं बल्कि एरिएला के घर आया --- काम वाले कपड़े बदले और नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया. उसकी ऊँची आवाज में बाथरूम से ही पूछने की आदत पड़ी हुई थी कि आज हुआ नया कुछ?
एरिएला चौंक कर जवाब देती: आज ऐसा नया होना क्या था… कुछ नहीं हुआ, अब नहा कर निकलो फिर हम साथ बैठ कर कॉफ़ी पियेंगे.
किब्बुत्ज़ के डाइनिंग हॉल के दरवाजे पर बाँयीं तरफ सभी लोगों के नाम के डाक वाले खाने बने हुए थे. एकदिन वहाँ अपने खाने में एरिएला को हाथ से लिखा हुआ एक पुर्जा मिला, उसने खोल कर देखा तो ओस्नत की लिखावट पहचान गयी.
बगैर किसी हड़बड़ी में लिखे हुए अक्षर थे:-
"बोअज़ ब्लड प्रेशर की अपनी गोलियाँ खाना अक्सर भूल जाता है-- सुबह और रात में सोने से पहले उनको खाना होता है. सुबह इस गोली के साथ साथ उसको कोलेस्ट्राल के लिए भी आधी गोली खाने को डॉक्टर ने बोला हुआ है.
यह ध्यान रखना कि वह अपने सलाद पर काली मिर्च या नमक ज्यादा न डाल ले …. यदि चीज़ खानी ही है तो लो फैट वाली चीज़ खाने देना, और उसमें भी मसाला तेज नहीं होना चाहिये.
उसको मिठाइयों पर टूट पड़ने की आदत है, पूरी कोशिश करना वह ऐसा न करने पाये …… ओस्नत. एक बात और: ब्लैक कॉफ़ी पीने पर लगाम लगाना,
कम से कम पिए तो अच्छा."
एरिएला बराश ने ओस्नत को थोड़ी घबराहट और हड़बड़ी में एक ओर झुके हुए मोटे अक्षरों में जवाब लिखा, और उसके नाम के खाने में रख दिया:
"शुक्रिया, यह तुम्हारा बड़प्पन था कि तुमने मुझे ख़त लिखा.
बोअज़ को अक्सर सीने में जलन की शिकायत भी होती है, पर पूछने पर कहता है “ये कोई ख़ास बात नहीं है." मैं उसके लिए वह सब करुँगी जिनके लिए तुमने मुझे आगाह किया है, पर उसको सँभालना इतना आसान भी नहीं है … अपनी सेहत पर उसका ध्यान कतई नहीं जाता, हाँलाकि बहुतेरी बातें हैं जिनकी उसको जरुरत से ज्यादा फ़िक्र रहती है … तुम्हें तो बोअज़ के स्वभाव का पता है ही …एरिएला बी."
ओस्नत ने जवाब दिया:
"यदि तुम उसके तले हुए, खट्टे और मसालेदार खाने पर काबू कर सको तो उसके सीने की जलन रुक जायेगी …. ओस्नत." एरिएला बराश ने जवाब दिया, कई दिनों के बाद:
मैं अक्सर अपने आप से पूछती हूँ, हमने ये किया क्या? बोअज़ अपनी भावनाओं को दबा लेता है और मैं हूँ कि इस छोर से उस छोर तक भटकती रहती हूँ. उसको मेरी बिल्ली तो बर्दाश्त हो जाती है पर कुत्ता बिलकुल नहीं सुहाता.
शाम को अपना काम पूरा कर के जब वो घर लौटता है, मुझसे आदतन पूछता है: तो आज नया क्या हुआ? इसके बाद वह नहाने बाथरूम में घुस जाता है, निकलता है तो कपड़े पहन कर ब्लैक कॉफ़ी पीता है …
फिर मेरी हत्थे वाली कुर्सी पर बैठ कर पेपर पढने लगता है. जब जब मैंने कॉफ़ी के बदले उसको चाय का प्याला थमाया है, वह आपे से बाहर हो गया है….ऐसे समय वह हर बार गुर्रा कर यही बोलता:
"मेरी माँ बनने की कोशिश मत करो, ये बात कान खोल कर सुन लो." अक्सर वह कुर्सी पर बैठे बैठे खर्राटे लेने लगता है, उसके हाथ से अखबार छूट कर नीचे बिखर जाता है …. फिर शाम सात बजे वह रेडियो पर खबरें सुनने के लिए जगता है. रेडियो सुनते हुए वह कुत्ते को हौले हौले सहलाता रहता है, उसको फुसलाने के लिए मुँह से जाने क्या क्या कुछ अस्पष्ट से शब्द निकालता है.
पर जब कभी बिल्ली कूद कर उसकी गोद कब्जाने के लिए आ जाए तो वह कुत्ते को इस कदर झटक देता है कि मेरी तो रुलाई छूट जाती है. एक बार जब मैंने अलमारी के एक खाने को उसको ठीक कर देने को कहा तो उसने फ़ौरन न सिर्फ वह ठीक कर दिया बल्कि बिन कहे ही अलमारी के आवाज निकालते दरवाजों को भी ठीक कर दिया … इसके बाद हँसते हुए चुहल करने लगा,
" तुम कहो तो अलमारी क्या मैं घर की फर्श और छत तक ठीक कर दूँ."
मैं कई बार उन वजहों के बारे में सोचती हूँ जिनसे मैं बोअज़ की ओर आकर्षित हुई थी उसके पास खींच ले जाने वाला प्यार तो अब भी आता है …पर साफ़ साफ़ जवाब नहीं मिलता. घर लौटने के बाद नहा धो लेने पर भी उसके नाखूनों में काला मशीन ऑइल जमा रहता है, उसके हाथ रूखे और फटे फटे रहते हैं….शेव वह हर रोज करता है पर उसके बाद भी उसके गालों पर दाढ़ी के बालों की नन्ही खूँटियाँ निकली रहती हैं.
हो सकता है घर आने के बाद लगातार ऊँघते सोते रहने की वजह से हो, पर जितनी देर वह जगा भी रहता है उसकी आँखें निरंतर ऊँघती हुई सी दिखायी देती हैं ….
यही कारण है कि उसको झकझोड़ कर उठाना पड़ता है. मैं उसको उठाती तो हूँ पर बहुत थोड़ी देर के लिए ही … कैसे जगाती हूँगी, अब तुम्हें क्या बताना….फिर भी मुझे भरोसा नहीं होता कि उसको जगाने का मेरा यत्न कामयाब हुआ या नहीं.
मेरा यकीन करना, एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ जिस दिन मेरे मन में तुम्हारा ख़याल न आया हो ओस्नत …. और मैंने खुद को अपनी निगाह में ही गिरते न देखा हो ….सोचती हूँ, मैंने तुम्हारे साथ जो किया उसको क्या कभी माफ़ किया जा सकेगा?
मुझे कई बार यह भी लगता है कि ओस्नत अपने आपको ठीक ठाक और सुघड़ ढंग से सजा सँवार कर नहीं रखती थी. बोअज़ का उसे प्यार न करने की कहीं यही वजह तो नहीं रही? इन बातों की असल गहरायी तक पहुँच कर थाह पा लेना आसान नहीं.
तुम सोचती होगी मैंने जो कुछ भी किया बहुत सोच समझ कर योजनाबद्ध तरीके से किया --- सच मानो, हमारे पास इसके सिवा कोई और रास्ता बचा ही नहीं था. मर्द और औरत के बीच के आकर्षण का सारा मामला इतना अचानक और अनूठा होता है कि उसपर हैरानी भी होती है --
बिलकुल बेतुका और हास्यास्पद. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता ओस्नत? गनीमत है तुम्हारे बच्चे नहीं थे, नहीं तो तुम्हें -- और साथ साथ मुझे भी -- भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ता … बोअज़ का क्या? मालूम नहीं वह क्या सोचता या महसूस करता है?
यह बात उसके सिवा और कौन बता सकता है? तुमसे ज्यादा और कौन जानता है कि उसको क्या खाना चाहिए और क्या नहीं….पर क्या तुम्हें भी यह मालूम है कि उसके मन के अन्दर क्या चल रहा है?…क्या उसके मन के अन्दर किसी प्रकार के भावावेग उमड़ते भी हैं या नहीं?
एक दफा मैंने उस से पूछा भी कि अपने किये किसी काम का किसी ढंग का पछतावा उसके मन में है? तो उसने जवाब दिया:"देखो, तुम्हें क्या यह दिखाई नहीं देता कि यहाँ मैं तुम्हारे साथ रह रहा हूँ ….उसके साथ तो नहीं रह रहा."
मुझे लगता है यह बात तुमसे साझा करूँ ओस्नत कि कोई रात ऐसी नहीं बीतती जब उसके खर्राटे लेकर सो जाने के बाद मैं देर तक बिस्तर पर नींद से खाली आँखें खोले हुए करवटें न बदलती रहूँ ---
खिडकियों पर लगे पर्दों के बीच सुराख़ करके चाँदनी दबे पाँव हमारे कमरें में दाखिल होती ---
और मेरे मनमें यह ख़याल आता कि इस जगह मेरे बदले तुम होतीं तो क्या होता, तुम्हें कैसा लगता?
उन मौकों पर मेरा ध्यान अक्सर तुम्हारे जीवन के ठण्डेपन और ठहराव की ओर चला जाता है. बहुत बार ऐसा होता कि मैं बिस्तर से उठ जाती , कपडे बदलती और दरवाज़ा खोल कर बाहर छत पर आ जाती ---
लगता अभी इसी वक्त, चाहे आधी रात क्यों हो, चलती हुई तुम्हारे पास आ जाऊँ और तुम्हें सारा माजरा समझाऊँ ….पर क्या है ऐसा मेरे पास समझाने को?
छत पर दस मिनट खड़ी रहती हूँ, बिलकुल साफ़ आसमान की ओर टकटकी लगा कर ताकती हूँ ….सितारों को निहारती रहती हूँ … फिर कमरे के अन्दर आती हूँ, कपड़े उतारती हूँ और बिस्तर में दुबारा से घुस जाती हूँ …. पर आँखें बिलकुल खुली, नींद का कहीं नामो निशान नहीं.
बोअज़ के खर्राटे अपनी शांत रफ़्तार से जारी हैं …. मैं एकदम से तड़प जाती हूँ, इस वक्त मुझे यहाँ क्यों होना चाहिये. …कहीं और किसी दूसरी अनजान जगह पर क्यों नहीं?
वह नयी अनजान जगह तुम्हारा कमरा क्यों नहीं हो सकता ओस्नत? समझने की कोशिश करो, यह सब मेरे साथ तभी होता है जब रात के अँधेरे में नींद न आने पर मैं बिस्तर में करवटें बदलती रहती हूँ
---- खुली आँखों से ऊपर आसमान ताकती हुई … मुझे समझ नहीं आता कि ये सब हो क्या गया, और इसकी वजह असल में क्या रही होगी?…
तब मुझे तुम्हारी बेपनाह याद आती और तुमसे अजीब सा अपनापा महसूस होने लगता. जैसे, मुझे लगता लौंड्री में तन्हा तुम ही क्यों हम दोनों मिलकर साथ काम करें …. और कोई भीड़ भाड़ न हो, सिर्फ हमदोनों मिलकर सारा काम निबटा दें …
तुम्हारी लिखी दोनों चिट्ठियाँ हमेशा मेरी जेब में रहती हैं , और मैं बार बार उनको निकाल कर पढ़ा करती हूँ … मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि तुम्हारे लिखे एक एक शब्द को मैं कितनी इज्जत बख्शती हूँ … सिर्फ उन लिखे शब्दों के लिए इज्जत नहीं, बल्कि जो लिखे जाने से रह गए उन शब्दों के लिए मेरे मन में और भी कदर है.
किब्बुत्ज़ में रहने वाले लोग हमदोनों के बारे में तरह तरह की बातें करते हैं -- बोअज़ को लेकर उनके मन में अचरज का भाव रहता, जाने कैसा बन्दा है? मेरे बारे में उनका ख़याल है कि मैंने बड़े शातिरपने के साथ बोअज़ को तुमसे झटक लिया …. और बोअज़ इतना सीधा सादा है कि उस को इस से कोई फरक नहीं पड़ता कि किस घर में वह काम करने जाता है, और कहाँ रात बिताता है.
रोनी शिंडलिन ने एकदिन कनखी मार कर मुझे ऑफिस में रोक लिया और तंज कसा:
"तो मोना लिसा…. ऊपर से शांत दिखने वाला पानी अन्दर से बहुत गहरा होता है, है न?”
मैने उसके इस जुमले का कोई जवाब नहीं दिया, पर एकबारगी शर्म से गड़ तो गयी ही. पर घर आकर उस घटना को याद कर के मेरी रुलाई छूट गयी. रात में कभी कभी उसके सो जाने के बाद मुझे वैसे भी रुलाई आ जाती है …जानती हो सिर्फ उसके कारण नहीं बल्कि खुद अपने ऊपर रुलाई … और तुम्हारे ऊपर भी बेहिसाब रुलाई आती है ओस्नत.
मुझे लगने लगता हम दोनों के साथ कुछ ऐसी अशुभ अनहोनी हो गयी है कि अब इससे मरते दम तक मुक्ति सम्भव नहीं. उस से पूछती हूँ ये क्या हो रहा है, तो कहता:
"कहाँ? कुछ भी तो नहीं."
जानती हो ओस्नत, मैं उस निहायत खालीपन पर निछावर हो रही हूँ ---
लगता है जैसे बोअज़ के पास कहने को कुछ है ही नहीं…. मानों वह एकांत के रेगिस्तान से चल कर सीधा अभी अभी वहाँ पहुँचा हो. और उसके बाद?? पर मैं भी बावली हो गयी, इतनी सारी राम कहानी तुम्हें आखिर क्यों सुनाती जा रही हूँ? तुम कहो न कहो, बोअज़ के बारे में यह सब सुनना तुम्हें अच्छा तो बिलकुल नहीं लग रहा होगा ….
तुम्हारी पीड़ा को और बढ़ा देने का आखिर मुझे हक़ भी क्या है? बल्कि मेरे मन में तो उल्टे भाव हैं ---
मैं तुम्हारे अकेलेपन को बाँटना चाहती हूँ …वैसे ही जैसे उसको एक पल के लिए छू कर खुद को उसके साथ करना चाहती हूँ.
इस समय रात एक बजे का समय हुआ है, वह हाथ पाँव समेट कर गहरी नींद में सो रहा है -- कुत्ता उसके पैताने, और बिल्ली साथ वाली मेज पर सो रही है. बिल्ली की भूरी आँखें मेरे हाथों की हरकतों के साथ साथ घूम रही हैं … मैं सिरहाने रखे लैम्प की रोशनी में यह चिट्ठी लिख रही हूँ. मुझे इस बात का एहसास बखूबी है कि जो मैं कर रही हूँ उसका कोई औचित्य नहीं है …. मुझे चिट्ठी पर समय बिलकुल बर्बाद नहीं करना चाहिये, क्योंकि तुम भला मेरी लिखी चिट्ठी क्यों पढने लगीं…. और वह भी चार पन्ना लम्बा ख़त.
शायद इसका हश्र तुम्हारे हाथों इसका फाड़ा जाना और कूड़ेदान में फेंक दिया जाना ही होना है. तुम्हें यह भी लग सकता है कि मैं बावली हो गयी हूँ… दिमाग खिसक गया है…
यह बात शायद सच भी है. क्या हम कहीं मिल बैठ कर बातें करने का समय निकाल सकते हैं …बोअज़ के खानपान और दवाइयों से परे हट कर अपने अपने मन की बातें एक दूसरे से कहें? (मैं भरपूर कोशिश करती हूँ कि वो सेहत से जुड़ी सावधानियाँ भूले नहीं पर हमेशा कामयाबी मिले ऐसा नहीं होता.
तुम्हें तो उसके जड़ हठीलेपन के बारे अच्छी तरह से मालूम ही है, जो ऊपर से तो हेठी जैसा दीखता है पर असल में है गहरी उदासीनता).
हम मिलेंगे तो तमाम दूसरी और जरूरी बातों पर चर्चा करेंगे…. जैसे साल के अलग अलग मौसम के बारे में ….या फिर आजकल की गर्मियों के सितारों भरे आसमान की. मुझे तो ये सितारे और आकाशगंगा खूब लुभाते हैं … बहुत मुमकिन है तुम्हें भी वैसे ही आकर्षित करते हों.
मैं तुम्हें यह चिट्ठी यह सोचते हुए लिख रही हूँ ओस्नत कि तुम इसे पढ़ कर अपने दिल की बात मेरे साथ बाँटोगी …ढेर सारे शब्दों की दरकार नहीं पड़ेगी, सिर्फ दो शब्द मेरे लिए काफ़ी रहेंगे …… एरिएला बी.
ओस्नत के चिट्ठियों वाले खाने में रखा मिला यह ख़त जवाब के इन्तजार में पड़ा रहा, उसने इसका जवाब न देने का फैसला किया. एक बार …दो बार उसने इसको ऊपर से नीचे तक ध्यान से पढ़ा, फिर मोड़ कर अलमारी के दराज में रख दिया.
उसके बाद अपनी खिड़की के सामने वह निश्चेष्ट और स्थिर खड़ी रही -- बाहर देखती रही. बिल्ली के तीन बच्चे लॉन में झाड़ियों के आस पास चहलकदमी कर रहे थे -- एक अपने पंजे खा रहा था, दूसरा आँखें मूँदे हुए शायद सो रहा था पर उसके कान आस पास किसी भी हरकत से चौकन्ने बिलकुल खड़े थे ….
और तीसरा जो सबसे छोटा था, लगातार अपनी पूँछ हिलाये जा रहा था. मंद मंद बयार चल रही थी, इतनी धीमे कि उस से सिर्फ गर्म चाय का प्याला ठण्डा हो सकता था. ओस्नत देर से खिड़की से सट कर खड़ी थी, अब वहाँ से हट कर सोफे पर जा बैठी … पीठ सीधी तान कर उसने हथेलियाँ घुटनों पर रख दीं… और आँखें मूँदे रही.
थोड़ी देर की ही तो बात है, शाम उतर आयेगी -- तब वह रेडियो पर संगीत सुनते हुए कोई किताब लेकर पढने बैठ जायेगी. फिर वहाँ से उठ कर कपड़े उतारेगी, अपने कपड़ों को करीने से तहा कर रखेगी, कल पहनने वाले कपड़े निकाल कर सामने रखेगी …नहाने जायेगी, फिर बिस्तर में घुस जायेगी
धीरे धीरे नींद के आगोश में समा जायेगी. अब उसको रात में सपने दिखायी नहीं पड़ते…. और भोर में अलार्म बजने से पहले ही वह जाग जाती है…. ओस्नत को अब कबूतर जगाते हैं.
The End
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