Friday, 17 November 2023

लाजवंती (राजिन्दर सिंह बेदी): सुंदरलाल, लाजवंती को अब लाजो के नाम से नहीं पुकारता वो उसे“देवी” कहता और लाजो एक अन-जानी ख़ुशी से पागल हुई जाती थी।

 हथ लायाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे।

( सखि ये लाजवंती के पौधे हैं, हाथ लगाते ही कुम्हला जाते हैं.)

(पंजाबी गीत)

 

बटवारा हुआ और बेशुमार ज़ख़्मी लोगों ने उठ कर अपने बदन पर से ख़ून पोंछ डाला और फिर सब मिलकर उनकी तरफ़ मुतवज्जो हो गए, जिनके बदन सही सालिम थे, लेकिन दिल ज़ख़्मी

 

गली गली, मोहल्ले मोहल्ले मैंफिर बसाओकमेटियाँ बन गई थीं और शुरू शुरू में बड़ी तुन्दही के साथकारोबार में बसाओ”, “ज़मीन पर बसाओऔरघरों में बसाओप्रोग्राम शुरू कर दिया गया था।

लेकिन एक प्रोग्राम ऐसा था, जिसकी तरफ़ किसी ने तवज्जो दी थी। वो प्रोग्राम मग़्विया औरतों के सिलसिले में था, जिसका स्लोगन थादिल में बसाओऔर इस प्रोग्राम की नारायण बावा के मंदिर और इस के आस-पास बसने वाले क़दामत पसंद तबक़े की तरफ़ से बड़ी मुख़ालिफ़त होती थी

 

इस प्रोग्राम को हरकत में लाने के लिए मंदिर के पास मोहल्लेमुल्ला शुकूर में एक कमेटी क़ाएम हो गई और ग्यारह वोटों की अक्सरिय्यत से सुंदरलाल बाबू को इस का सेक्रेटरी चुन लिया गया। वकील साहिब सदर, चौकी कलाँ का बूढ़ा मुहर्रिर और मोहल्ले के दूसरे मोतबर लोगों का ख़याल था कि सुंदर लाल से ज़्यादा जाँ-फ़िशानी के साथ इस काम को कोई और कर सकेगा। शायद इसलिए कि सुंदरलाल की अपनी बीवी अग़वा हो चुकी थी और इस का नाम था भी लाजोलाजवंती।

 

चुनांचे प्रभात फेरी निकालते हुए जब सुंदर लाल बाबू, उस का साथी रसालू और नेकी राम वग़ैरा मिलकर गाते— “हथ लाइयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे तो सुंदर लाल की आवाज़ एक दम बंद हो जाती और वो ख़ामोशी के साथ चलते चलते लाजवंती की बाबत सोचताजाने वो कहाँ होगी, किस हाल में होगी, हमारी बाबत क्या सोच रही होगी, वो कभी आएगी भी या नहीं?— और पथरीले फ़र्श पर चलते चलते उस के क़दम लड़खड़ाने लगते।

 

और अब तो यहाँ तक नौबत गई थी कि उसने लाजवंती के बारे में सोचना ही छोड़ दिया था। इस का ग़म अब दुनिया का गुम हो चुका था। उसने अपने दुख से बचने के लिए लोक सेवा में अपने आपको ग़र्क़ कर दिया। इस के बावजूद दूसरे साथियों की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए उसे ये ख़याल ज़रूर आताइन्सानी दिल कितना नाज़ुक होता है।

 

ज़रा सी बात पर उसे ठेस लग सकती है। वो लाजवंती के पौधे की तरह है, जिसकी तरफ़ हाथ भी बढ़ाओ तो कुम्हला जाता है, लेकिन उसने अपनी लाजवंती के साथ बदसुलूकी करने में कोई भी कसर उठा रक्खी थी। वो उसे जगह बे-जगह उठने बैठने, खाने की तरफ़ बे-तवज्जही बरतने और ऐसी ही मामूली मामूली बातों पर पीट दिया करता था।

और लाजो एक पतली शहतूत की डाली की तरह, नाज़ुक सी देहाती लड़की थी। ज़्यादा धूप देखने की वजह से उस का रंग सांवला हो चुका था। तबीअत में एक अजीब तरह की बेक़रारी थी। उस का इज़तिराब शबनम के उस क़तरे की तरह था, जो पारा कर उस के बड़े से पत्ते पर कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है।

 

उस का दुबलापन उस की सेहत के ख़राब होने की दलील थी, एक सेहत मंदी की निशानी थी, जिसे देख कर भारी भरकम सुंदर लाल पहले तो घबराया, लेकिन जब उसने देखा कि लाजो हर क़िस्म का बोझ, हर क़िस्म का सदमा, हत्ता कि मारपीट तक सह गुज़रती है, तो वो अपनी बद-सुलूकी को -तदरीज बढ़ाता गया और उसने इन हदों का ख़याल ही किया, जहाँ पहुँच जाने के बाद किसी भी इन्सान का सब्र टूट सकता है।

 

उन हदों को धुंधला देने में लाजवंती ख़ुद भी तो मुम्मिद साबित हुई थी। चूँकि वो देर तक उदास बैठ सकती थी, इसलिए बड़ी से बड़ी लड़ाई के बाद भी सुंदर लाल के सिर्फ एक बार मुस्कुरा देने पर वो अपनी हंसी रोक सकती और लपक कर उस के पास चली आती और गले में बाँहें डालते हुए कह उठती— “फिर मारा तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगी—” साफ़ पता चलता था, वो एक दम सारी मारपीट भूल चुकी है।

 

गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह वो भी जानती थी कि मर्द ऐसा ही सुलूक किया करते हैं, बल्कि औरतों में कोई भी सरकशी करती तो लड़कीयाँ ख़ुद ही नाक पर उंगली रख के कहतीं— “ले वो भी कोई मर्द है भला, औरत जिसके क़ाबू में नहीं आती….” और ये मार पीट उनके गीतों में चली गई थी। ख़ुद लाजो गाया करती थी। मैं शहर के लड़के से शादी करूँगी। वो बूट पहनता है और मेरी कमर बड़ी पतली है।

 

लेकिन पहली ही फ़ुर्सत में लाजो ने शहर ही के एक लड़के से लौ लगा ली और उस का नाम था सुंदर लाल, जो एक बारात के साथ लाजवंती के गाँव चला आया था और जिसने दूल्हा के कान में सिर्फ इतना सा कहा था— “तेरी साली तो बड़ी नमकीन है यार। बीवी भी चटपटी होगी।लाजवंती ने सुंदर लाल की इस बात को सुन लिया था, मगर वो भूल ही गई कि सुंदर लाल कितने बड़े बड़े और भद्दे से बूट पहने हुए है और उस की अपनी कमर कितनी पतली है!

 

और प्रभात फेरी के समय ऐसी ही बातें सुंदर लाल को याद आईं और वो यही सोचता। एक-बार सिर्फ एक-बार लाजो मिल जाए, तो मैं उसे सच-मुच ही दिल में बसा लूँ और लोगों को बता दूँउन बे-चारी औरतों के इग़्वा हो जाने में उनका कोई क़ुसूर नहीं। फ़सादियों की हवस क्यूँ का शिकार हो जाने में उनकी कोई ग़लती नहीं।

 

वो समाज जो उन मासूम और बे-क़सूर औरतों को क़ुबूल नहीं करता, उन्हें अपना नहीं लेताएक गला सड़ा समाज है और इसे ख़त्म कर देना चाहिएवो उन औरतों को घरों में आबाद करने की तलक़ीन किया करता और उन्हें ऐसा मर्तबा देने की प्रेरणा करता,जो घर में किसी भी औरत, किसी भी माँ, बेटी, बहन या बीवी को दिया जाता है। फिर वो कहताउन्हें इशारे और कनाए से भी ऐसी बातों की याद नहीं दिलानी चाहिए जो उनके साथ हुईंक्यूँ कि उनके दिल ज़ख़्मी हैं। वो नाज़ुक हैं, छुई-मुई की तरहहाथ भी लगाओ तो कुम्हला जाएंगे

 

गोयादिल में बसाओप्रोग्राम को अमली जामा पहनाने के लिए मोहल्लामुल्ला शकूरकी इस कमेटी ने कई प्रभात फेरीयाँ निकालीं। सुबह चार पाँच बजे का वक़्त उनके लिए मौज़ूँ तरीन वक़्त होता था। लोगों का शोर, ट्रैफ़िक की उलझन। रात-भर चौकीदारी करने वाले कुत्ते तक बुझे हुए तन्नूरों में सर देकर पड़े होते थे। अपने अपने बिस्तरों में दुबके हुए लोग प्रभात फेरी वालों की आवाज़ सुन कर सिर्फ इतना कहते— “! वही मंडली है! ” और फिर कभी सब्र और कभी तुनक-मिज़ाजी से वो बाबू सुंदर लाल का प्रोपगेंडा सुना करते।

 

वो औरतें जो बड़ी महफ़ूज़ उस पार पहुंच गई थीं, गोभी के फूलों की तरह फैली पड़ी रहतीं और उनके ख़ावंद उनके पहलू में डंठलों की तरह अकड़े पड़े पड़े प्रभात फेरी के शोर पर एहतिजाज करते हुए मुंह में कुछ मिनमिनाते चले जाते। या कहीं कोई बच्चा थोड़ी देर के लिए आँखें खोलता औरदिल में बसाओके फ़र्यादी और अनदोहगीन प्रोपैगंडे को सिर्फ एक गाना समझ कर फिर सो जाता।

 

लेकिन सुबह के समय कान में पड़ा हुआ शब्द बेकार नहीं जाता। वो सारा दिन एक तकरार के साथ दिमाग़ में चक्कर लगाता रहता है और बाज़ वक़्त तो इन्सान उस के मअनी को भी नहीं समझता। पर गुनगुनाता चला जाता है। इसी आवाज़ के घर कर जाने की बदौलत ही था कि उन्हीं दिनों, जब कि मिस मरदूला सारा बाई, हिंद और पाकिस्तान के दर्मियान इग़वा-शुदा औरतें तबादले में लाईं, तो मोहल्ला मुल्ला शकूर के कुछ आदमी उन्हें फिर से बसाने के लिए तय्यार हो गए।

 

उनके वारिस शहर से बाहर चौकी कलाँ पर उन्हें मिलने के लिए गए। मग़्विया औरतें और उनके लवाहिक़ीन कुछ देर एक दूसरे को देखते रहे और फिर सर झुकाए अपने अपने बर्बाद घरों को फिर से आबाद करने के काम पर चल दिए। रसालू और नेकी राम और सुंदरलाल बाबू कभी महिन्द्र सिंह ज़िंदाबाद और कभीसोहन लाल ज़िंदाबादके नारे लगाते…………और वो नारे लगाते रहे, हत्ता कि उनके गले सूख गए……………………….

 

लेकिन मग़्विया औरतों में ऐसी भी थीं जिनके शौहरों, जिनके माँ बाप, बहन और भाईयों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था। आख़िर वो मर क्यूँ गईं? अपनी इफ़्फ़त और इस्मत को बचाने के लिए उन्होंने ज़हर क्यूँ ख़ालिया? कुएं में छलाँग क्यूँ लगा दी? वो बुज़-दिल थीं जो इस तरह ज़िंदगी से चिम्टी हुई थीं। सैंकड़ों हज़ारों औरतों ने अपनी इस्मत लुट जाने से पहले अपनी जान दे दी लेकिन उन्हें क्या पता कि वो ज़िंदा रह कर किस बहादुरी से काम ले रही हैं। कैसे पथराई हुई आँखें से मौत को घूर रही हैं।

 

ऐसी दुनिया में जहाँ उनके शौहर तक उन्हें नहीं पहचानते। फिर उनमें से कोई जी ही जी में अपना नाम दोहरातीसुहाग वंतीसुहाग वाली…. और अपने भाई को इस जम-ग़फी़र में देख कर आख़िरी बार इतना कहतीतू भी मुझे नहीं पहचानता बिहारी? मैं ने तुझे गोदी खिलाया था रेऔर बिहारी चिल्ला देना चाहता।

 

फिर वो माँ बाप की तरफ़ देखता और माँ बाप अपने जिगर पर हाथ रख के नारायण बाबा की तरफ़ देखते और निहायत बे-बसी के आलम में नारायण बाबा आसमान की तरफ़ देखता, जो दर-अस्ल कोई हक़ीक़त नहीं रखता और जो सिर्फ हमारी नज़र का धोका है। जो सिर्फ एक हद है जिसके पार हमारी निगाहें काम नहीं करतीं।

 

लेकिन फ़ौजी ट्रक में मिस साराबाई तबादले में जो औरतें लाईं, उनमें लाजो थी।

सुंदरलाल ने उम्मीद--बीम से आख़िरी लड़की को ट्रक से नीचे उतरते देखा और फिर उसने बड़ी ख़ामोशी और बड़े अज़म से अपनी कमेटी की सरगर्मियों को दो चंद कर दिया।

अब वो सिर्फ़ सुबह के समय ही प्रभात फेरी के लिए निकलते थे, बल्कि शाम को भी जुलूस निकालने लगे, और कभी कभी एक आध छोटा मोटा जलसा भी करने लगे जिसमें कमेटी का बूढ़ा सदर वकील कालका प्रशाद सूफ़ी खनकारों से मिली जुली एक तक़रीर कर दिया करता और रसालू एक पीकदान लिए ड्यूटी पर हमेशा मौजूद रहता।

 

लाऊड स्पीकर से अजीब तरह की आवाज़ें आतीं। फिर कहीं नेकी राम, मुहर्रिर चौकी कुछ कहने के लिए उठते। लेकिन वो जितनी भी बातें कहते और जितने भी शास्त्रों और पुराणों का हवाला देते, उतना ही अपने मक़सद के ख़िलाफ़ बातें करते और यूँ मैदान हाथ से जाते देख कर सुंदर लाल बाबू उठता, लेकिन वो दो फ़िरक़ों के अलावा कुछ भी कह पाता। उस का गला रुक जाता।

 

उस की आँखों से आँसू बहने लगते और रोंहासा होने के कारण वो तक़रीर कर पाता। आख़िर बैठ जाता। लेकिन मजमे पर एक अजीब तरह की ख़ामोशी छा जाती और सुंदर लाल बाबू की उन दो बातों का असर, जो कि उस के दिल की गहराइयों से चली आतीं, वकील कालका प्रशाद सूफ़ी की सारी नासीहाना फ़साहत पर भारी होता। लेकिन लोग वहीं रो देते। अपने जज़बात को आसूदा कर लेते और फिर ख़ाली-उज़्ज़हन घर लौट जाते——

 

एक रोज़ कमेटी वाले साँझ के समय भी परचार करने चले आए और होते होते क़दामत पसंदों के गढ़ में पहुँच गए। मंदिर के बाहर पीपल के एक पेड़ के इर्द-गिर्द सीमेंट के थड़े पर कई श्रद्धालू बैठे थे और रामायण की कथा हो रही थी।

 

नारायण बावा रामायण का वो हिस्सा सुना रहे थे जहाँ एक धोबी ने अपनी धोबिन को घर से निकाल दिया था और उस से कह दियामैं राजा राम चन्द्र नहीं, जो इतने साल रावण के साथ रह आने पर भी सीता को बसा लेगा और राम चन्द्र जी ने महा सतवंती सीता को घर से निकाल दियाऐसी हालत में जब कि वो गर्भवती थी। क्या उस से भी बढ़कर राम राज का कोई सबूत मिल सकता है?—— नारायण बावा ने कहा—— “ये है राम राज! जिसमें एक धोबी की बात को भी उतनी ही क़द्र की निगाह से देखा जाता है।

 

कमेटी का जुलूस मंदिर के पास रुक चुका था और लोग रामायण की कथा और श्लोक का वर्णन सुनने के लिए ठहर चुके थे। सुंदर लाल आख़िरी फ़िक़रे सुनते हुए कह उठा

 

हमें ऐसा राम राज नहीं चाहिए बाबा!”

 

चुप रहो जीतुम कौन होते हो?——“ख़ामोश!” मजमे से आवाज़ें आईं और सुंदर लाल ने बढ़कर कहा— “मुझे बोलने से कोई नहीं रोक सकता।

 

फिर मिली जुली आवाज़ें आईं— “ख़ामोश!— हम नहीं बोलने देंगे और एक कोने में से ये भी आवाज़ आईमार देंगे।

नारायण बाबा ने बड़ी मीठी आवाज़ में कहा— “तुम शास्त्रों की मान मरजादा को नहीं समझते सुंदर लाल!”

 

सुंदर लाल ने कहा— “मैं एक बात तो समझता हूँ बाबाराम राज में धोबी की आवाज़ तो सुनी जाती है, लेकिन सुंदर लाल की नहीं।

 

उन्ही लोगों ने जो अभी मारने पे तुले थे, अपने नीचे से पीपल की गूलरें हटा दीं, और फिर से बैठते हुए बोल उठे।सुनो, सुनो, सुनो—”

 

रसालू और नेकी राम ने सुंदर लाल बाबू को ठोका दिया और सुंदर लाल बोले— “श्री राम नेता थे हमारे। पर ये क्या बात है बाबा-जी! इन्होंने धोबी की बात को सत्य समझ लिया, मगर इतनी बड़ी महारानी के सत्य पर विश्वास कर पाए?”

 

नारायण बाबा ने अपनी दाढ़ी की खिचड़ी पकाते हुए कहा— “इस लिए कि सीता उनकी अपनी पत्नी थी। सुंदर लाल! तुम इस बात की महानता को नहीं जानते।

 

हाँ बाबासुंदर लाल बाबू ने कहा— “इस संसार में बहुत सी बातें हैं जो मेरी समझ में नहीं आतीं। पर मैं सच्चा राम राज उसे समझता हूँ जिसमें इन्सान अपने आप पर भी ज़ुल्म नहीं कर सकता।अपने आपसे बे-इंसाफ़ी करना उतना ही बड़ा पाप है, जितना किसी दूसरे से बे-इंसाफ़ी करना——

 

आज भी भगवान राम ने सीता को घर से निकाल दिया है इसलिए कि वो रावण के पास रह आई है—— इस में क्या क़सूर था सीता का? क्या वो भी हमारी बहुत सीमाओं बहनों की तरह एक छल और कपट की शिकार थी? इस में सीता के सत्य और असत्य की बात है या राक्षश रावण के वहशीपन की, जिसके दस सर इन्सान के थे लेकिन एक और सबसे बड़ा सर गधे का?”

 

आज हमारी सीता निर्दोश घर से निकाल दी गई है—— सीता—— लाजवंती—— और सुंदर लाल बाबू ने रोना शुरू कर दिया।

 

रसालू और नेकी राम ने तमाम वो सुर्ख़ झंडे उठा लिए जिन पर आज ही स्कूल के छोकरों ने बड़ी सफ़ाई से नारे काट के चिपका दिए थे और फिर वो सबसुंदरलाल बाबू ज़िंदाबादके नारे लगाते हुए चल दिए। जलूस में से एक ने कहा— “महासती सीता ज़िंदाबाद एक तरफ़ से आवाज़ आई—— श्री राम चन्द्र——”

 

और फिर बहुत सी आवाज़ें आईं— “ख़ामोश! ख़ामोश! और नारायण बावा की महीनों की कथा अकारत चली गई। बहुत से लोग जुलूस में शामिल हो गए, जिसके आगे आगे वकील कालका प्रशाद और हुक्म सिंह मुहर्रिर चौकी कलाँ, जा रहे थे, अपनी बूढ़ी छड़ियों को ज़मीन पर मारते और एक फ़ातिहाना सी आवाज़ पैदा करते हुए—— और उनके दर्मियान कहीं सुंदरलाल जा रहा था। उस की आँखों से अभी तक आँसू बह रहे थे।

 

आज उस के दिल को बड़ी ठेस लगी थी और लोग बड़े जोश के साथ एक दूसरे के साथ मिलकर गा रहे।

हथ लाईयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे——!”

 

अभी गीत की आवाज़ लोगों के कानों में गूंज रही थी। अभी सुबह भी नहीं हो पाई थी और मोहल्ला मुल्ला शकूर के मकान 414 की बिधवा अभी तक अपने बिस्तर में कर्बनाक सी अंगड़ाइयाँ ले रही थी कि सुंदर लाल कागिराएँलाल चंद, जिसे अपना असर--रसूख़ इस्तेमाल कर के सुंदर लाल और ख़लीफ़ा कालका प्रशाद ने राशन डपवे दिया था, दौड़ा दौड़ा आया और अपनी गाड़े की चादर से हाथ फैलाए हुए बोलाः

 

बधाई हो सुंदर लाल।

सुंदर लाल ने मीठा गुड़ चिलम में रखते हुए कहा— “किस बात की बधाई लाल चंद?”

मैं ने लाजो भाबी को देखा है।

 

सुंदर लाल के हाथ से चिलम गिर गई और मीठा तंबाकू फ़र्श पर गिर गया— “कहाँ देखा है?” उसने लाल चंद को कंधों से पकड़ते हुए पूछा और जल्द जवाब पाने पर झिंझोड़ दिया।

 

वाघा की सरहद पर।

सुंदर लाल ने लाल चंद को छोड़ दिया और इतना सा बोलाकोई और होगी।

लाल चंद ने यक़ीन दिलाते हुए कहा— “नहीं भय्या, वो लाजो ही थी, लाजो

तुम उसे पहचानते भी हो?” सुंदर लाल ने फिर से मीठे तंबाकू को फ़र्श पर से उठाते और हथेली पर मसलते हुए पूछा, और ऐसा करते हुए उसने रसालू की चिलम हुक़्क़े पर से उठाली और बोला— “भला क्या पहचान है उस की?”

 

एक तेंदूला ठोढ़ी पर है, दूसरा गाल पर——”

 

हाँ हाँ हाँ और सुंदर लाल ने ख़ुद ही कह दिया तीसरा माथे पर।वो नहीं चाहता था, अब कोई ख़दशा रह जाए और एक दम उसे लाजवंती के जाने-पहचाने जिस्म के सारे तेंदूले याद गए, जो उसने बचपने में अपने जिस्म पर बनवा लिए थे, जो उन हल्के हल्के सब्ज़ दानों की मानिंद थे जो छुई-मुई के पौदे के बदन पर होते हैं और जिसकी तरफ़ इशारा करते ही वो कुम्हलाने लगता है।

बिलकुल उसी तरह उन तेंदूलों की तरफ़ उंगली करते ही लाजवंती शर्मा जाती थीऔर गुम हो जाती थी, अपने आप में सिमट जाती थी। गोया उस के सब राज़ किसी को मालूम हो गए हों और किसी ना-मालूम खज़ाने के लुट जाने से वो मुफ़लिस हो गई हो—— सुंदरलाल का सारा जिस्म एक अन जाने ख़ौफ़, एक अन जानी मोहब्बत और उस की मुक़द्दस आग में फुंकने लगा। उसने फिर से लाल चंद को पकड़ लिया और पूछा

 

लाजो वाघा कैसे पहुँच गई?”

लाल चंद ने कहा— “हिंद और पाकिस्तान में औरतों का तबादला हो रहा था ना।

फिर क्या हुआ—?” सुंदर लाल ने उकड़ूं बैठते हुए कहा।क्या हुआ फिर?”

 

रसालू भी अपनी चारपाई पर उठ बैठा और तंबाकू नोशों की मख़सूस खांसी खांसते हुए बोला— “सच-मुच गई है लाजवंती भाबी?”

 

लाल चंद ने अपनी बात जारी रखते हुए कहावाघा पर सोला औरतें पाकिस्तान ने दे दीं और इस के इवज़ सोला औरतें ले लींलेकिन एक झगड़ा खड़ा हो गया। हमारे वालंटियर एतिराज़ कर रहे थे कि तुमने जो औरतें दी हैं, उनमें अधेड़, बूढ़ी और बेकार औरतें ज़्यादा हैं। इस तनाज़ो पर लोग जमा हो गए। इस वक़्त उधर के वालंटियरों ने लाजो भाबी को दिखाते हुए कहातुम इसे बूढ़ी कहते हो? देखोदेखोजितनी औरतें तुमने दी हैं, उनमें से एक भी बराबरी करती है इस की ? और वहाँ लाजो भाबी सबकी नज़रों के सामने अपने तेंदूले छुपा रही थी।

 

फिर झगड़ा बढ़ गया। दोनों ने अपना अपनामालवापस ले लेने की ठान ली। मैंने शोर मचायालाजोलाजो भाबीमगर हमारी फ़ौज के सिपाहियों ने हमें ही मार मार के भगा दिया।

 

और लाल चंद अपनी कोहनी दिखाने लगा, जहाँ उसे लाठी पड़ी थी। रसालू और नेकी राम चुप चाप बैठे रहे और सुंदर लाल कहीं दूर देखने लगा। शायद सोचने लगा। लाजो आई भी पर ना आईऔर सुंदर लाल की शक्ल ही से जान पड़ता था, जैसे वो बीकानेर का सहरा फाँद कर आया है और अब कहीं दरख़्त की छाँव में, ज़बान निकाले हांप रहा है। मुंह से इतना भी नहीं निकलता— “पानी दे दो।

 

उसे यूँ महसूस हुआ, बटवारे से पहले बटवारे के बाद का तशद्दुद अभी तक कारफ़र्मा है। सिर्फ उस की शक्ल बदल गई है। अब लोगों में पहला सा दरेग़ भी नहीं रहा। किसी से पूछो, सांभर वाला मैं लहना सिंह रहा करता था और उस की भाबी बिंतोतो वो झूट से कहतामर गएऔर इस के बाद मौत और उस के मफ़हूम से बिलकुल बे-ख़बर बिलकुल आरी आगे चला जाता।

 

उस से भी एक क़दम आगे बढ़ कर बड़े ठंडे दिल से ताजिर, इन्सानी माल, इन्सानी गोश्त और पोस्त की तिजारत और उस का तबादला करने लगे। मवेशी ख़रीदने वाले किसी भैंस या गाय का जबड़ा हटा कर दाँतों से उस की उम्र का अंदाज़ा करते थे।

 

अब वो जवान औरत के रूप, उस के निखार, उस के अज़ीज़ तरीन राज़ों, उस के तेंदूलों की शारा--आम में नुमाइश करने लगे। तशद्दुद अब ताजिरों की नस-नस में बस चुका है।

 

पहले मंडी में माल बिकता था और भाव ताव करने वाले हाथ मिला कर उस पर एक रूमाल डाल लेते और यूँगपतीकर लेते। गोया रूमाल के नीचे उंगलियों के इशारों से सौदा हो जाता था। अबगपतीका रूमाल भी हट चुका था और सामने सौदे हो रहे थे और लोग तिजारत के आदाब भी भूल गए थे।

 

ये सारा लेन-देन ये सारा कारोबार पुराने ज़माने की दास्तान मालूम हो रहा था, जिसमें औरतों की आज़ादाना ख़रीद--फ़रोख़्त का क़िस्सा बयान किया जाता है। अज़-बैक अनगिनत उर्यां औरतों के सामने खड़ा उन के जिस्मों को टोह टोह के देख रहा है और जब वो किसी औरत के जिस्म को उंगली लगाता है तो उस पर एक गुलाबी सा गढ़ा पड़ जाता है और उस के इर्द-गिर्द एक ज़र्द सा हलक़ा और फिर ज़र्दियाँ और सुर्ख़ियाँ एक दूसरे की जगह लेने के लिए दौड़ती हैंअज़-बैक आगे गुज़र जाता है और नाक़ाबिल--क़ुबूल औरत एक एतिराफ़ शिकस्त, एक इन्फ़िआलियत के आलम में एक हाथ से इज़ारबंद थामे और दूसरे से अपने चेहरे को अवाम की नज़रों से छुपाए सिसकियां लेती है——

 

सुंदरलाल अमृतसर (सरहद) जाने की तैयारी कर ही रहा था कि उसे लाजो के आने की ख़बर मिली। एक दम ऐसी ख़बर मिल जाने से सुंदर लाल घबरा गया। उस का एक क़दम फ़ौरन दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा, लेकिन वो पीछे लौट आया। उस का जी चाहता था कि वो रूठ जाए और कमेटी के तमाम पिले कार्डों और झंडियों को बिछा कर बैठ जाए और फिर रोए, लेकिन वहाँ जज़्बात का यूँ मुज़ाहिरा मुम्किन था।

 

उस ने मर्दानावार उस अंदरूनी कशाकश का मुक़ाबला किया और अपने क़दमों को नापते हुए चौकी कलाँ की तरफ़ चल दिया, क्यूँ कि वही जगह थी जहाँ मग़्विया औरतों की डिलेवरी दी जाती थी।

 

अब लाजो सामने खड़ी थी और एक ख़ौफ़ के जज़्बे से काँप रही थी। वही सुंदरलाल को जानती थी, उस के सिवाए कोई जानता था। वो पहले ही उस के साथ ऐसा सुलूक करता था और अब जब कि वो एक ग़ैर मर्द के साथ ज़िंदगी के दिन बिता कर आई थी, जाने क्या करेगा? सुंदरलाल ने लाजो की तरफ़ देखा।

 

वो ख़ालिस इस्लामी तर्ज़ का लाल दुपट्टा ओढ़े थी और बाएं बकुल मारे हुए थीआदतन महिज़ आदतनदूसरी औरतों में घुल मिल जाने और बिल-आख़िर अपने सय्याद के दाम से भाग जाने की आसानी थी और वो सुंदरलाल के बारे में इतना ज़्यादा सोच रही थी कि उसे कपड़े बदलने या दुपट्टा ठीक से ओढ़ने का भी ख़याल रहा। वो हिंदू और मुस्लमान की तहज़ीब के बुनियादी फ़र्क़दाएँ बुकल और बाएँ बुकल में इम्तियाज़ करने से क़ासिर रही थी।

 

अब वो सुंदरलाल के सामने खड़ी थी और काँप रही थी, एक उम्मीद और एक डर के जज़्बे के साथ

 

सुंदर लाल को धचका सा लगा। उसने देखा लाजवंती का रंग कुछ निखर गया था और वो पहले की बनिसबत कुछ तंदरुस्त सी नज़र आती थी। नहीं। वो मोटी हो गई थीसुंदर लाल ने जो कुछ लाजो के बारे में सोच रखा था, वो सब ग़लत था। वो समझता था ग़म में घुल जाने के बाद लाजवंती बिलकुल मरियल हो चुकी होगी और आवाज़ उस के मुंह से निकाले निकलती होगी। इस ख़याल से कि वो पाकिस्तान में बड़ी ख़ुश रही है, उसे बड़ा सदमा हुआ,लेकिन वो चुप रहा क्यूँ कि उसने चुप रहने की क़सम खा रक्खी थी।

 

अगर्चे वो जान पाया कि इतनी ख़ुश थी तो फिर चली क्यूँ आई? उसने सोचा शायद हिंद सरकार के दबाव की वजह से उसे अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ यहाँ आना पड़ालेकिन एक चीज़ वो समझ सका कि लाजवंती का संवलाया हुआ चेहरा ज़र्दी लिए हुए था और ग़म, महज़ ग़म से उस के बदन के गोश्त ने हड्डियों को छोड़ दिया था।

 

वो ग़म की कसरत से मोटी हो गई थी और सेहत मंद नज़र आती थी, लेकिन ये ऐसी सेहत मंदी थी जिसमें दो क़दम चलने पर आदमी का सांस फूल जाता हैमग़्विया के चेहरे पर पहली निगाह डालने का तअस्सुर कुछ अजीब सा हुआ।

 

लेकिन उसने सब ख़यालात का एक असबाती मर्दानगी से मुक़ाबला किया और भी बहुत से लोग मौजूद थे। किसी ने कहा— “हम नहीं लेते मसलमरान (मुस्लमान) की झूटी औरत—”

 

और ये आवाज़ रसालू, नेकी राम और चौकी कलाँ के बूढ़े मुहर्रिर के नारों में गुम हो कर रह गई। इन सब आवाज़ों से अलग कालका प्रशाद की फटती और चुलावती आवाज़ रही थी। वो खांस भी लेता और बोलता भी जाता। वो इस नई हक़ीक़त, इस नई शुद्धी का शिद्दत से क़ाएल हो चुका था।यूँ मालूम होता था आज उसने कोई नया वेद, कोई नया प्राण और शास्त्र पढ़ लिया है और अपने इस हुसूल में दूसरों को भी हिस्सेदार बनाना चाहता है

 

इन सब लोगों और उनकी आवाज़ों में घिरे हुए लाजो और सुंदर लाल अपने डेरे को जा रहे थे और ऐसा जान पड़ता था जैसे हज़ारों साल पहले के राम चन्द्र और सीता किसी बहुत लंबे अख़लाक़ी बन-बास के बाद अयोध्या लौट रहे हैं। एक तरफ़ तो लोग ख़ुशी के इज़हार में दीप माला कर रहे हैं, और दूसरी तरफ़ उन्हें इतनी लंबी अज़िय्यत दिए जाने पर तअस्सुफ़ भी।

लाजवंती के चले आने पर भी सुंदर लाल बाबू ने इसी शद--मद सेदिल में बसाओप्रोग्राम को जारी रक्खा। उसने क़ौल और फे़ल दोनों एतिबार से उसे निभा दिया था और वो लोग जिन्हें सुंदरलाल की बातों में ख़ाली खोखली जज़्बातिय्यत नज़र आती थी, क़ाएल होना शुरू हुए। अक्सर लोगों के दिल में ख़ुशी थी और बेश्तर के दिल में अफ़सोस। मकान 414 की बेवा के अलावा मोहल्लामुल्ला शकूरकी बहुत सी औरतें सुंदरलाल बाबू सोशल वर्कर के घर आने से घबराती थीं।

 

लेकिन सुंदरलाल को किसी की इतना या बे-एतिनाई की पर्वा थी। उस के दिल की रानी चुकी थी और उस के दिल का ख़ला पट चुका था। सुंदरलाल ने लाजो की स्वर्ण मूर्ती को अपने दिल के मंदिर में स्थापित कर लिया था और ख़ुद दरवाज़े पर बैठा उस की हिफ़ाज़त करने लगा था। लाजो जो पहले ख़ौफ़ से सहमी रहती थी, सुंदर लाल के ग़ैर मुतवक़्क़े नरम सुलूक को देख कर आहिस्ता-आहिस्ता खुलने लगी।

 

सुंदरलाल, लाजवंती को अब लाजो के नाम से नहीं पुकारता था। वो उसे कहता थादेवी!” और लाजो एक अन-जानी ख़ुशी से पागल हुई जाती थी। वो कितना चाहती थी कि सुंदरलाल को अपनी वारदात कह सुनाए और सुनाते सुनाते इस क़दर रोए कि उस के सब गुनाह धुल जाएँ। लेकिन सुंदरलाल, लाजो की वो बातें सुनने से गुरेज़ करता था और लाजो अपने खुल जाने में भी एक तरह से सिमटी रहती।

 

अलबत्ता जब सुंदरलाल सो जाता तो उसे देखा करती और अपनी इस चोरी में पकड़ी जाती। जब सुंदरलाल उस की वजह पूछता तो वोनहीं” “यूँहऊँहूके सिवा और कुछ कहती और सारे दिन का थका हारा सुंदरलाल फिर ऊँघ जाता—— अलबत्ता शुरू शुरू में एक दफ़ा सुंदरलाल ने लाजवंती के सियाह दिनों के बारे में सिर्फ इतना सा पूछा था

 

कौन था वो?”

लाजवंती ने निगाहें नीची करते हुए कहा— “जुम्माँ”— फिर वो अपनी निगाहें सुंदरलाल के चेहरे पर जमाए कुछ कहना चाहती थी लेकिन सुंदरलाल एक अजीब सी नज़रों से लाजवंती के चेहरे की तरफ़ देख रहा था और उस के बालों को सहला रहा था। लाजवंती ने फिर आँखें नीची कर लीं और सुंदर लाल ने पूछा

 

अच्छा सुलूक करता था वो?”

हाँ।

मारता तो नहीं था?”

 

लाजवंती ने अपना सर सुंदर लाल की छाती पर सरकाते हुए कहा— “नहीं”— और फिर बोलीवो मारता नहीं था, पर मुझे उस से ज़्यादा डर आता था। तुम मुझे मारते भी थे पर मैं तुमसे डरती नहीं थीअब तो मारोगे?”

सुंदर लाल की आँखों में आँसू उमड आए और उसने बड़ी निदामत और बड़े तअस्सुफ़ से कहा— “नहीं देवी! अब नहींनहीं मारूँगा—”

 

देवी!” लाजवंती ने सोचा और वो भी आँसू बहाने लगी।और इस के बाद लाजवंती सब कुछ कह देना चाहती थी, लेकिन सुंदरलाल ने कहा

जाने दो बीती बातें। इस में तुम्हारा क्या क़ुसूर है? इस में क़ुसूर है हमारे समाज का जो तुझ ऐसी देवियों को अपने हाँ इज़्ज़त की जगह नहीं देता। वो तुम्हारी हानि नहीं करता, अपनी करता है।

 

और लाजवंती की मन की मन ही में रही। वो कह सकी सारी बात और चुपकी दुबकी पड़ी रही और अपने बदन की तरफ़ देखती रही जो कि बटवारे के बाद अबदेवीका बदन हो चुका था। लाजवंती का था। वो ख़ुश थी बहुत ख़ुश। लेकिन एक ऐसी ख़ुशी में सरशार जिसमें एक शक था और वस्वसे। वो लेटी लेटी अचानक बैठ जाती, जैसे इंतिहाई ख़ुशी के लम्हों में कोई आहट पा कर एका एकी उस की तरफ़ मुतवज्जो हो जाएगी——

 

जब बहुत से दिन बीत गए तो ख़ुशी की जगह पूरे शक ने ले ली। इसलिए नहीं कि सुंदर लाल बाबू ने फिर वही पुरानी बदसुलूकी शुरू कर दी थी, बल्कि इसलिए कि वो लाजो से बहुत ही अच्छा सुलूक करने लगा था। ऐसा सुलूक जिसकी लाजो मुतवक़्क़े थीवो सुंदर लाल की, वो पुरानी लाजो हो जाना चाहती थी जो गाजर से लड़ पड़ती और मूली से मान जाती।

 

लेकिन अब लड़ाई का सवाल ही था। सुंदरलाल ने उसे ये महसूस करा दिया जैसे वोलाजवंती काँच की कोई चीज़ है, जो छूते ही टूट जाएगीऔर लाजो आइने में अपने सरापा की तरफ़ देखती और आख़िर इस नतीजे पर पहुँचती कि वो और तो सब कुछ हो सकती है, पर लाजो नहीं हो सकती।

 

वो बस गई, पर उजड़ गईसुंदरलाल के पास उस के आँसू देखने के लिए आँखें थीं और आहें सुनने के लिए कान! — प्रभात फेरियाँ निकलती रहीं और मोहल्लेमुल्ला शकूरका सुधारक रसालू और नेकी राम के साथ मिलकर उसी आवाज़ में गाता रहा

हथ लायाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे।

The End

 






































Friday, 10 November 2023

World War time goodby kisses: women sent their men to the fears of war. Moments of love and passion

Sometimes it can be difficult to remember that people in photos from bygone eras had the same concerns, hopes, dreams, and loves that we do.

I am sure your eyes will be wet after seeing these classic vintage goodby kisses.


The act of saying goodbye and sharing goodby kisses  is always an emotional one, especially when it’s to love ones who are going to war. The vintage photos of soldiers kissing their girlfriends, wives, or even kids before getting deployed or going to war capture the human side of war.


Love in the time of war was never easy. In Fact it was so intense even that these breath-taking pictures hardly do justify.

The intensified atmosphere of wartime, when couples met with the very real knowledge that they might never see each other again.


 “Love rather than war, flowers rather than bombs.” These touching images remind us that love in wartime can be the worst, as the most comforting feeling.

 

Each goodbye is a drama complete in itself.Sometimes the girl stands with arms around the boys’ waist, hands tightly clasped behind. Another fits her head into the curve of his cheek while tears fall onto his coat.

Now and then the boy will take her face between his hands and speak reassuringly. Or if the wait is long they may just stand quietly, not saying anything.

 

The common denominator of all these goodbyes is sadness and tenderness, and complete oblivion for the moment to anything but their own individual heartaches.

 

Many of them knew they might not make it back home alive. These photos captured the raw emotions of those moments, soldiers hugging their loved ones tightly, looking into their eyes, and kissing them goodbye.

These moments of goodbye display the deep love and commitment that soldiers and their families had for one another, despite the challenges and uncertainty that lay ahead.

 

The old photographs serve as a emotional reminder of the sacrifices that soldiers and their families made during times of war. War is not solely about the soldiers who fight on the front lines; it is also about the families left behind.























The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.







Tuesday, 7 November 2023

A Nostalgia story: The Wilted autumn flowers never see the spring. The unsolved mystry

“Nostalgia is the doorway back to youth.”

Nostalgic memory is a sudden encounter with the thingness of the thing that has been forgotten, not the continuous desire for possessions, whether past, present, or future.”

 

Memories, like threads. So many years, so many days, so many thoughts, so much time. It flows together like a puzzle pieces missing here and there. I still function a mising pieceof puzzle as a person.

“Yaad-e-Mazi Aazab Hai Ya Rab...

Cheen Lay Mujh Say Hafiza Mera..

” The events of the past so torment me,

Lord!! That I want taken away all of my memories”

The most interesting piece of my life is that, every 3 to 4 year a new posting, a new city, new friends.new stories, new memory.

Some memories keep me warm up from inside. Some tear apart. Some memories are like bullets that kill heart, some are like flowers scenting in whole personality.

 

This is a real story, in which I was a silent observer.  I was transferred to a metro city of western Uttar Pradesh, near Delhi.Every city has a unique character, which distinguishes one city from another.This I observed due to my transferable job.

 

This unique quality of that city was reflecting in: ---that even after transfer of officers to other places, they were unwilling to vacate their residences, from enginears colony.After a long search, I got a rented residential portion in a posh locality.

My land lord was a local govt employee; living in his parental houses in city.It was a double story building. First floor was in possesion of a Lecturer of local degree college.My was ground floor; two roomed with kitchen facing main road.

 

My story relates with the family living in back portion of this house.They were eight family members. I think it is better to introduce them with readers.

 

Abbu ji

He was eldest member of the family.His family mebers and local people addressed him “Abbu Ji “. I too called him by the same title. A very fair complexion, more than six feet height, small beard with a spiritual and aristocratic out look. Alwas wearing, white kurta, pyjama and a cap, soft spoken with authority.unfortunatly he was a widower.

 

He was chaudhary of his home town. People told me that he has farming lands and garden in his home village.Few years back he was owner of a cottage industry.What happened, it was closed in loss.

 

Now he was in a partner ship in a profitable business. Perhaps he was only earning member of his family.He may be in age of about 70, but very active and puntual towards his business.

 

Khadim Khan

He was elder son, living with his second wife .His first wife was died many yrs before leaving behind her a daughter and a son. Daughter was in class 8th, son in class 7th.With second wife a baby.Khadim was also a tall man, with ordinary and simple personality.I never saw him doing any proper job, and always found him roaming in mohalla.

 

Itrat Khan

He was younger unmarried son. He was a mystic man, always wrapped in a rough blanket or cotton chadar.His daily routine was to leave home in early morning and to come back late after sun set. It was very rare for me to meet him. People say that he liked to live in company of dervshes and spiritual men.

Wajahat Khan

He was fourth adult member of that family, brother in law of Abbu ji, Phupha of Khadim Khan’s children. I never saw Wajahat Khan to do some earning work. Never tried to know about his family.Often, he came in my room, sat there to watch T.V serials and News.He was a gentle man never irritated me.I have all praise for him. During spiritual month of Ramdhan,he was the man to serve me Sehri ,foods and tea from kitchen of Abbu ji.

 

Atia Khanam

Phool to do din bahar-e-jaan fiza dekhla Gaye

Hasrat un ghunchon pe, Jo bin khile murjha gaye.

 

“One meets his destiny often in the road he takes to avoid it.”

She was grand daughter of Abbu Ji, her father, the eldest son of Abbu Ji was no more alive .She lived with her mother under patronage of Abbu Ji. Both mother and daughter lived in silence. I never saw her out side house. I was known about their presence after many moths of my living in same house.

 

Her tragedy not ended here. I am pennig down this tragedy as narrated by Wajahat Khan, who often used to sit in my room.

The three notorious words

She was engaged to her maternal cousin. It was a family decision with mutual consent of her cousin brother too.My eyes are wet in writting that after nikah her ,husband her cousin brother turned her back with all dowary by siple saying three words—Talaqu,Talaqu,Talaqu.

 

Wajahat told me, she was crying, weeping and rolling on road, fainted and fainted.I don’t know more details about their family matters .Allah knows better.

More Tragedies are ahead

My home district was at about 4 hour drive from there.Usually I go to home on Friday evening and back by Monday morning.I don’t remember it was a two or three day leave, I was in my home.

 

Suddenly I received a call of Abbu Ji informing me shocking news that Atia khanam has expired.


Next day I rushed back, met Abbu JI and other male members to Express my  deep pain .Time heals all wounds.life was normal in mohalla.

Atia Khanam's mother died

After few month ,as usual on return from Aligarh  ,an other shocking news for me.Mother of Atia Khanam died.This news acted as a bullet for me that penetrated  deep my heart.Greived I thought ,that widowed ,weak lady could not tolerate the sudden death of her only daughter in this world.This feeling kept me cool down.

 

Few moths later, from return after a holiday, painfull news came to me that Itrat Khan (The younger son of Abbu Ji) has expired.

 

Now it was becoming very  painfull for me to live there.After  few days I noticed that Wajahat Khan ,who was close to me and on free time ,he used to come in my room ,sits and chats me ,is absent . I enquired of him .An other shocking reply that he has gone and will not come back.

 

My mind ignited and blown up like a gun powder.It was difficult for to remain stand, laid down on my bed in depression. The fact that more agonized me was that  all final rituals of all three deaths were held in my small court yard and verandah. (It was my habit to hand over key of entrance when ever I left the city).

 

The mysterios deaths all in my absence, made me half mad and a frightend man. Life in mohalla was quite normal a deep silence. I was living in deep depression.I decided to leave not only house, the city too.

 

Proceeded on medical leave, tried for transfer.Thanks to my higher officers for transfer. Left the city within a year.That city for others was a prised and gifted posting city.

 

Atia khanam is still alive in my memory, who often asked me to hear the casset of a ghazal by Jagjeet singh to play on low pitch:-

“Gulshan ki faqat phoolon se nahin kaaton se bhi zeenat hoti hai,

Jeene ke liye is duniya mein gham ki bhi zaroorat hoti hai.

Karna hi padega zabt-e-alam peene hi padenge ye aansoo,

Fariyaad-o-fugaan se aey naadaan tauheen-e-mohabbat hoti hai.”

Translation:

“The beauty of a garden lies not only in its flowers, but also in the thorns.

To live in this world,it is necessary to suffer pain as well.

This pain will have to be suffered, these tears will have to be shed.

If you complain or make a plea, O naïve one, it will be a disgrace to love”

 

After a decade of this incident, I had been in that city for an official work. While returning back, I thought to meet Abbu Ji.

 

I went to his work place. His partners were sitting on counter.One more shock, they told me Abbu Ji has expired years back, and they are not in touch of Khadem Khan.

I poured my all nostalgia over a puppy, scratching his old wounds, in a corner by kicking. I asked jeep driver to run away fast from this city.

Moral of  this Nostalgia Story

However, it is Allah who, before we are born, decides a person's destiny, who prepares everything that happens to us, and who determines what these events will be and what kind of life we will have. The Qur'an tells us that everything that happens to us is the will of Allah, and has been decided by Him before we experience it:

 The End