Friday, 1 July 2022

देवदास:सदी की सबसे असफल प्रेम कहानी (देव और पारो). अपने कारुणिक अंत में देवदास उसी के द्वार पर जाता है, उसे उम्मीद है कि मृत्यु के बाद ही उसकी आत्मा अपनी पारो से एकाकार हो सकेगी।

"देवदास" एक विफल प्रेम की त्रासद कहानी है जिसका नायक देवदास, ज़मींदार घराने का चंचल चित्तधारी द्वन्द्वात्मक मानसिकता का विचित्र पात्र है।

 

देवदास उपन्यास की रचना शरतचंदर ने सन् 1901 में कर दी थी। यह उपन्यास उन्हें कदाचित प्रिय नहीं था। उनकी दृष्टि से इस उपन्यास में कई दोष थे। देवदास, पात्र के प्रति भी वे बहुत आश्वस्त नहीं थे, क्योंकि इसके नायक (देवदास) में चारित्रिक दृढ़ता का अभाव था और साथ ही यह एक आत्महंता शराबी पात्र था जिसके प्रति पाठक वर्ग की संवेदना का अनुमान लगाना कठिन था।

 

अब तक "देवदास" उपन्यास पर आधारी सोलह फ़िल्में बंगाली और हिंदी ही नहीं असमिया, तेलुगु, तमिल, उर्दू आदि में बन चुकी हैं। यह एक साहित्यिक कृति की शक्ति है जो हर युग के फ़िल्मकारों की पहली पसंद और चुनौती भी रही है।

 

शरतचंदर का नायक देवदास पिछले 100 सालों से हर काल खंड में हर वर्ग को आकर्षित करता रहा है।

 

देवदास:सदी के सबसे असफल प्रेम कहानी (देव और पारो).

देवदास और पारो एक ही गाँव में बचपन से पलकर बड़े हुए थे। देवदास बंगाल के ताल सोनापुर गाँव के ज़मींदार नारायण मुखर्जी का लाड़ला छोटा बेटा था।

 

उसका बड़ा भाई द्विजदास, जिसकी किशोरावस्था में शादी कर दी गई थी। ज़मींदार के पड़ोस में ही नीलकंठ का मध्यवर्गीय परिवार रहता था जिसकी सुंदर बिटिया पार्वती (पारो) देवदास की बालसखी थी।

 

दोनों में बचपन से ही बहुत प्यार और हमजोली थी। देवदास मानो पारो को परोक्ष रूप से अपना ही समझता था, और उस पर अपना पूरा अधिकार जमाता रहता था। खेलकूद, पाठशाला में शरारतें और फिर भागकर पोखर के किनारे वाले झुरमुट में छिपकर बैठ जाना, उसे मनाने के लिए ज़मींदार का विश्वासपात्र नौकर धर्मदास का पारो की मदद से उसे ढूँढकर वापस घर ले जाने का सिलसिला चलता था।

गाँव में देवदास की शरारतों से तंग आकर, एक दिन ज़मींदार नारायण मुखर्जी देवदास को कलकत्ता पढ़ने के भेज देते हैं। कलकत्ता जाकर वह अपनी पढ़ाई में लीन हो गया। गाँव में पारो पीछे छूट गई।

 

छुट्टियों में कभी-कभी देवदास गाँव आता तो पार्वती से उसकी भेंट हो जाती, कभी देवदास पार्वती के घर जाता या दोनों गाँव के बाहर पोखर के निकट पेड़ों के झुरमुट में बैठकर ख़ूब बातें करते। छुट्टियाँ ख़त्म होते ही देवदास कलकत्ता लौट जाता।

 

पारो के मन में देवदास बस गया था। वह मन ही मन उसकी पूजा करने लगी थी। उसके लिए देवदास ही जीवन का सर्वस्व बन चुका था जिसकी ख़बर किसी को हुई। पारो देवदास को अपना ही समझ बैठी थी।

 

देवदास के मन में पारो के लिए प्रेम तो बचपन से ही मौजूद था किन्तु उसे इसका आभास नहीं हुआ था। उसमें प्रेम सहज भाव से अनायास अंकुरित हुआ था जिसे उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया था। उसका कारण था, पार्वती पर उसके एकाधिकार का विश्वास।

पार्वती के तेरहवें वर्ष में प्रवेश करते ही, उसके विवाह के बारे में घर में बातें चलने लगती हैं। उसका सौन्दर्य दिनों-दिन निखरने लगा था। पार्वती के घर वाले बड़े आदमी थे, पर संतोष यही था कि लड़की देखने में बहुत ही सुंदर थी।

 

पार्वती की माँ की धारणा थी कि दुनिया में अगर रूप की मर्यादा और क़दर है, तो पार्वती के लिए फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। चक्रवर्ती परिवार में इसके पहले लड़की के विवाह में रत्ती भर चिंता नहीं करनी पड़ी थी, चिंता लड़के के विवाह में करनी पड़ती थी। उनके परिवार में लड़की के विवाह में दहेज लिया जाता था और लड़के के विवाह में दहेज देकर लड़की लाई जाती थी।

पार्वती के पिता नीलकंठ ने भी बेटी पर दहेज लिया था, लेकिन नीलकंठ ख़ुद इस रिवाज़ से घृणा करते थे। उनकी ज़रा भी इच्छा थी कि पार्वती को बेचकर रुपये कमाएँ। पार्वती की माँ के मन में एक दुराशा पल रही थी कि किसी उपाय से देवदास से पार्वती का ब्याह हो जाए। उसे यह असंभव नहीं लगता था। क्योंकि देवदास और पार्वती, दोनों के परिवार इस सत्य से अनभिज्ञ थे कि पार्वती और देवदास दोनों बचपन से एक दूसरे को चाहते हैं।

पार्वती की दादी (नीलकंठ की माँ) एक दिन देवदास की माँ से पारू और देवदास के विवाह की चर्चा छेड़ती है। देवदास की माँ इस प्रस्ताव को सुनकर आगबबूला हो उठती है और उसे अपमानित करके भेज देती है।

 

देवदास की माँ वैसे तो मन ही मन पार्वती को बहुत चाहती थी किन्तु उसे "लड़की ख़रीद-बिक्री वाले" घर की बेटी से रिश्ता मंजूर नहीं था। विवाह के प्रस्ताव को ठुकराने का उनका यह तो एक बहाना था। वास्तव में उन्हें अपने उच्च कुल और ज़मींदारी का घमंड थी जिस कारण वे देवदास की माँ को अपमानित कर विदा कर देते हैं।

 

इस संबंध में ज़मींदार मुखर्जी बाबू का भी यही विचार था कि वे कभी बेटी-बेचवा के यहाँ की लड़की को अपने घर की बहू नहीं बना सकते। इससे उनके खानदान की नाक जो कट जाएगी!

 

यह घटना पार्वती के घर में तूल पकड़ लेती है। ज़मींदार नारायण मुखर्जी और उनकी पत्नी के अपमानजनक व्यवहार से क्रोधित होकर नीलकंठ चक्रवर्ती, पार्वती के लिए वर ढूँढने के लिए निकल पड़ते हैं। इन घटनाओं के बीच पार्वती क्षोभ और दुःख से व्याकुल हो उठती है। शरत ने कहानी के इस मोड़ पर पार्वती के अंतर्द्वंद्व को बहुत ही बारीक़ी से उकेरा है।

 

"छुटपन से ही उसका ऐसा ख़याल था कि देवदास पर उसका थोड़ा अधिकार है। ऐसा नहीं कि किसी ने यह अधिकार उसे हाथ से दिया था! अनजाने ही, अशांत मन ने धीरे-धीरे इस अधिकार को ऐसे चुपचाप, लेकिन इतनी दृढ़ता से, जमा लिया कि बाहर से यद्यपि आज तक उसकी कोई शक्ल नज़र नहीं आई, तथापि आज उसे खोने की बात उठते ही उसके सारे हृदय में भयानक आँधी उठने लगी।"

 

नीलकंठ चक्रवर्ती अपनी ज़िद से मिथ्या स्वाभिमान की रक्षा के लिए चालीस वर्ष से अधिक उम्र के हाथीपोता गाँव के विधुर ज़मींदार भुवन चौधरी से पार्वती का रिश्ता निश्चित कर आते हैं। घटनाचक्र बहुत तेज़ी से पार्वती के जीवन को अज्ञात दिशा में धकेलकर ले जाता है।

 

देवदास को इन बातों की ख़बर तक नहीं थी। देवदास इन्हीं दिनों जब गाँव आता है तो उसे उसकी माँ, पार्वती के ब्याह की चर्चा करती है। वह बताती है कि पार्वती के घर वाले उनके ही घर में रिश्ता करना चाहते थे। तब देवदास, माँ की प्रतिक्रिया जानना चाहता है। माँ उसे साफ़ शब्दों में पिता के प्रतिकूल विचारों से उसे अवगत करा देती है। देवदास का मन खिन्नता से भर उठता है।

 

उस रात पार्वती स्त्री सुलभ लाज और शर्म को त्यागकर निर्भीकता के साथ ज़मींदार के भवन में प्रवेश कर, गहरी नींद में सोए हुए देवदास को जगाकर अश्रुपूरित नेत्रों से देवदास के पैरों में सिर रखकर रुँधे स्वर में कहती है


मुझे यहाँ थोड़ा सा स्थान दो, देव भैया!" देवदास अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं था, यही वह पारू को उस रात समझाकर विदा कर देता है। दूसरे दिन देवदास अपने पिता से पारू के संबंध में पूछना चाहता है किन्तु उसके पिता उसे धिक्कार देते हैं।

 

उसी दिन देवदास घर छोड़कर कलकत्ता चला जाता है। कलकत्ता से वह पार्वती को पत्र लिखता है। यह पत्र उपन्यास का वह केंद्र बिन्दु है जो पार्वती और देवदास के विनाश कारण बनाता है। यह पत्र देवदास के आत्मभीरु और पलायनवादी चरित्र को उद्घाटित करता है।

 

यह वह निर्णायक पत्र था जिससे देवदास हमेशा के लिए पारू को खो बैठता है। पत्र में देवदास विवाह के मामले में अपनी अशक्यता को प्रकट करता है। वह लिखता है कि उसके माता-पिता पारू के कुल को नीच मानते हैं और वे बेटी-बेचवा के घर की लड़की को अपने कुल की वधू कभी नहीं बना सकते। पत्र के अंत में वह पारू से निवेदन करता है की वह उसे हमेशा के लिए भूल जाए।

 

पत्र को डाक में डालते ही देवदास को अपनी भूल का अहसास होता है। उसकी अस्थिर मानसिक स्थिति उसे व्याकुल कर देती है। उसे पार्वती की दयनीयता का स्मरण हो आता है। उसकी तर्क बुद्धि एकाएक जाग उठती है और वह आत्मविश्लेषण करने लगता है। 

अंतर्द्वंद्व देवदास की मनोदशा का मुख्य लक्षण है जो इस स्थिति में व्यक्त होती है। "डाकघर से लौटते हुए हर क़दम पर उसे यही याद रहा था। आख़िर यह अच्छा हुआ? वह यह सोच रहा था कि जब पार्वती का अपना कोई क़ुसूर नहीं तो माता-पिता इस विवाह के लिए मना ही क्यों कर रहे हैं?

 

वह यह समझ रहा था की सिर्फ दिखावे की कुल-मर्यादा और छोटे ख़याल के चलते, नाहक़ किसी की जान लेना ठीक नहीं। अगर पार्वती जीना चाहे, अगर जी की जलन छुड़ाने के लिए वह नदी में कूद पड़े, तो विश्वपिता के चरणों पर एक महापातक का दाग़ उस पर नहीं लगेगा क्या?"

 

वह उद्विग्न अवस्था में पुन: पारू से मिलने और अपनी ग़लती को ठीक करने के उद्देश्य से फौरन गाँव लौट जाता है। वह पारू से पोखर किनारे बाग़ में मिलता है और अधिकारपूर्वक पारू को स्वीकार करने की मनोकामना व्यक्त करता है।

 

किन्तु तब तक देर हो चुकी थी, पारू का स्वाभिमान जाग उठा था, वह भी अपने माता-पिता की मान मर्यादा का वास्ता देकर देवदास के अहंकार पर चोट करती है। पार्वती के स्वाभिमान का दर्प देवदास को भस्म कर देता है।

 

"क्यों हो अहंकार! तुम कर सकते हो, मैं नहीं कर सकती? तुमको रूप है, गुण नहीं। मुझमें रूप है, गुण भी। तुम बड़े आदमी हो, मगर मेरे पिता भी भीख नहीं माँगते फिरते। फिर इसके बाद ख़ुद मैं भी किसी प्रकार तुमसे हीन नहीं रहूँगी, पता है?" इस बार पार्वती देवदास को ठुकरा देती है क्योंकि वह निर्णय ले चुकी थी।

अपने माता-पिता के निर्णय को वह स्वीकार कर चुकी थी, क्योंकि देवदास ने उसे ठुकरा दिया था। पारू के स्वाभिमानी तर्क से क्रोधित होकर देवदास हाथ में थामे हुए बंसी की मूठ को ज़ोर से घुमाकर पार्वती के सिर पर मार देता है जिससे पार्वती के माथे पर गहरी चोट लगती है और वह ज़ख़्मी हो जाती है।

 

उसका चेहरा लहू से लाल हो जाता है। देवदास आत्मग्लानि और आवेश भरे स्वर में पार्वती से बोलता है

 

"सुनो पार्वती, इतना रूप भी रहना ठीक नहीं। अहंकार बढ़ जाता है। देखती नहीं, चाँद इतना ख़ूबसूरत है, इसीलिए उसमें कलंक का काला टीका है। कमल कैसा सफ़ेद होता है, इसीलिए उसमें काला भौंरा बैठा रहता है। आओ तुम्हारे पर भी कलंक की कुछ छाप छोड़ दूँ।"

उपन्यास का यह प्रसंग मार्मिक और चिरवेदना की छाप छोड़ जाता है। देवदास शिथिल और पराजित होकर अपने प्रेम के संसार को अनजाने में लुटाकर निराशा और उदासी के अंधकार में खो जाता है। उसकी कायरता और अस्थिर मानसिकता उसे बेसहारा बनाकर छोड़ देती है।

 

पार्वती का विवाह हो जाता है वह अपने ससुराल चली जाती है। भुवन चौधरी के परिवार में उनकी पहली पत्नी की पाँच संताने थीं। पार्वती विवाह से ही पाँच बच्चों की माँ बना गई। अब वह ज़मींदारनी थी। उसका पति की हवेली में उसने बहुत सम्मान पाया।

 

देवदास निराश होकर अंतर्वेदना से व्यथित होकर कलकत्ता चला जाता है। कलकत्ता पहुँचकर वह निश्चेष्ट और अन्यमनस्क स्थिति में दारुण मानसिक क्लेश का शिकार हो जाता है। उसे कुछ भी नहीं सूझता। इसी विषम और व्याकुल मन:स्थिति में उसके वियोग जनित तप्त हृदय को शीतलता पहुँचाने का उपाय सुझाता है उसका मित्र, चुन्नीलाल।

चुन्नीलाल देवदास के ही बसेरे में रहने वाला एक स्वच्छंद स्वभाव का व्यक्ति था जो पढ़ाई के लिए कलकत्ता आया था किन्तु वह इतर दुर्व्यसनों में ही अपना समय बिताया करता था। उससे देवदास की व्यथा नहीं देखी जाती। वह देवदास का हितैषी मित्र होने के नाते उससे उसके दुःख का कारण पूछता है किन्तु देवदास उसे अपने निजी जीवन के संबंध में कुछ नहीं बताता

उसने देवदास की अमिट प्यास बुझाने और मानसिक शांति हासिल करने के लिए शराब लाकर दी। शराब के नशे में देवदास अपनी व्यथा को कुछ देर के लिए भूलने लगा। अपनी बेचैनी और दारुण यंत्रणा से मुक्ति का यह उपाय देवदास को प्रिय हो गया।

इसके बाद वह भी देवदास की असह्य पीड़ा को देखकर चुन्नीलाल उसे चन्द्रमुखी के कोठे पर ले जाता है जहाँ चन्द्रमुखी अपने रूप और यौवन से रसिक जनों को लुभाकर उनका दिल बहलाती थी। चन्द्रमुखी, देवदास का स्वागत करती है लेकिन चन्द्रमुखी के व्यवहार से देवदास क्रोध और आक्रोश से भर उठता है।

 

उसे उस क्षण समस्त नारी जाति से ही मानो नफ़रत सी होने लगती है। वह चन्द्रमुखी को पतित और चरित्रहीन कहकर उसके मुँह पर रुपये फेंककर कोठे से क्रोध से बाहर निकल आता है। देवदास के इस आकस्मिक आवेग से चन्द्रमुखी के हृदय को गहरी चोट लगती है। देवदास उसकी चेतना को एक ही पल में झकझोर देता है।

 

देवदास वापस अपने बसेरे में लौट आता है। उसकी अशांति तीव्र से तीव्रतर होती जाती है। उसके हृदय की आग और वियोग की मर्मांतक वेदना को कुचल डालने का एक मात्र उपाय उसे शराब के नशे में उपलब्ध था। वह नशे को ही व्यथा से मुक्ति का मार्ग मान लेता है और उसी में डूब जाता है।

यहीं से देवदास के अध: पतन का अध्याय प्रारम्भ होता है। उसे नशे में ही चैन मिलता था। वह एक पल के लिए भी होश में नहीं रहना चाहता क्योंकि होश में आते ही उसे पार्वती की याद आती, पार्वती के साथ हुए अन्याय की याद उसे असह्य पीड़ा देती थी।

 

इन्हीं स्थितियों में चुन्नीलाल एक बार फिर देवदास को चन्द्रमुखी से भेंट कराने के लिए लेकर जाता है। इस बार उसे चन्द्रमुखी बहुत बदली हुई सी उसे दिखाई देती है। वह अपने वैभव और विलास को त्याग चुकी थी। बहुत सादगी के साथ वह देवदास को उसके नारीत्व के स्वाभिमान को जागृत करने के लिए कृतज्ञता का भाव प्रकट करती है। 

चन्द्रमुखी देवदास से शराब छोड़ने की प्रार्थना करती है और उसकी पीड़ा कारण जानना चाहती है। चन्द्रमुखी में देवदास के प्रति प्रेम का भाव जागता है। देवदास और चन्द्रमुखी के संबंध इस उपन्यास की कहानी को नई दिशा देते हैं। देवदास के ही मुख से नशे की हालत में चन्द्रमुखी को पार्वती के बारे में पता चलता है।

 

उसे प्रतीत होता है की देवदास ने बहुत गहरी चोट खाई है। वह इसका कारण जानने का प्रयत्न करती है। चन्द्रमुखी का संवेदनशील मन देवदास के हृदय की अशांति को पहचान लेती है। वह स्वयं देवदास से प्रेम करती है किन्तु उसे मालूम था कि देवदास उससे नफ़रत करता है।

 

देवदास उसे एक नीच और गिरी हुई औरत मानता है। वह पार्वती को, जिसे वह अपनी ही चंचल चित्त वृत्ति और कायरता के कारण खो बैठा है, उसे वह उच्च कोटि की कुलवधू मानता है।

 

चन्द्रमुखी कहती है - "सच बताऊँ, तुमको दुःख होता है तो मुझे भी पीड़ा पहुँचती है। फिर मैं शायद बहुत बातें जानती हूँ। जब तुम नशे में होते थे, तुम्हारे मुँह से मैं बहुत कुछ सुनती रही हूँ। लेकिन तो भी मुझे यह विश्वास नहीं होता कि पार्वती ने तुम्हें ठगा है, बल्कि मेरा ख़याल है, तुमने ही अपने को ठगा है।

 

देवदास! उम्र में मैं तुमसे बड़ी हूँ, दुनिया में बहुत कुछ देखा है। मुझे क्या लगता है, बताऊँ? लगता है तुमसे ही ग़लती हुई है। लगता है, चंचल और अस्थिर चित्त के नाम से स्त्रियों की जितनी बदनामी है, हक़ीक़त में उतनी वे होती नहीं। बदनाम करने वाले भी तुम्हीं लोग हो, सुनाम करने वाले भी तुम्हीं लोग हो।"

"देवदास, जो प्यार करती है, सब कुछ बर्दाश्त करती है। जिसे यह पता है कि केवल हृदय से प्यार करने में कितना सुख कितनी शांति है, वह नाहक़ दुःख और अशांति को खींचकर नहीं लाना चाहती। लेकिन मैं जो कहना चाहती थी, दरअसल पार्वती ने तुम्हें रत्ती भर भी दग़ा नहीं दिया, तुमने ख़ुद अपने आपको दग़ा दिया है। जानती हूँ, आज बात समझने की ज़रूरत नहीं है मगर जब समय आयेगा तो समझोगे कि मैंने सच ही कहा था।"

 

देवदास के संग उसका विश्वासपात्र सेवक धर्मदास सदा उसके साथ उसकी देखभाल करने के लिए रहता था। जब भी देवदास को रुपयों की ज़रूरत होती तो वह गाँव जाकर रुपये ले आता। देवदास को रुपयों की ज़रूरत केवल शराब के लिए ही पड़ती थी। शहर में रहते हुए देवदास शराब में इस क़दर डूब जाता है कि उसका स्वास्थ्य पूरी तरह नष्ट होकर वह केवल हड्डियों का ढाँचा भर रह जाता है।

 

उसके पिता ज़मींदार नारायण मुखर्जी की मृत्यु हो जाती है। वह गाँव जाता है। अपने भाई द्विजदास और माँ के साथ कुछ समय गुज़ारता है। ज़मींदार मुखर्जी की मृत्यु की ख़बर पाकर पार्वती देवदास से मिलने ताल सोनापुर आती है। वह देवदास की हालत देखकर व्यथित हो जाती है। धर्मदास से वह सच्चाई जानना चाहती है। धर्मदास पार्वती से देवदास से शराब छुड़ाने का आग्रह करता है।

 

पार्वती, देवदास से विवाह के बाद पहली बार मिलती है। एक शाम वह देवदास से मिलने जाती है। देवदास, पार्वती को अपने पास बैठाकर उसका हालचाल पूछता है। बचपन की बातों को वे दोनों याद करते हैं और भावुक हो उठते हैं। देवदास बहुत बदल गया था।

उसकी क्षीण काया पार्वती को किसी अशुभ का संकेत दे रही थी। वह देवदास के चरणों में झुककर उसकी सेवा का अवसर उसे प्रदान करने की प्रार्थना करती है। पार्वती को बचपन से देवदास की सेवा करने की उत्कट अभिलाषा थी जिसे वह इस जनम में पूरा करना चाहती थी।

 

वह उससे शराब छोड़ने के लिए कहती है लेकिन वह पार्वती की इस विनती को स्वीकार नहीं करता। वह कहता है कि पार्वती के लिए जितना उसे भुला देना असंभव है उसके लिए भी शराब छोड़ना उतना ही कठिन है, क्योंकि शराब ही उसे जीवित रखे हुए है।

 

अंत में देवदास से विदा लेते हुए वह देवदास को एक बार उसके पास उसके गाँव हाथीपोता आने की प्रार्थना करती है। वह पार्वती को वचन देता है कि एक बार (देह छोड़ने से पहले) वह अवश्य पार्वती के घर आएगा।

 

कलकत्ता पहुँचकर वह चन्द्रमुखी के पास जाता है। उसे पता चलता है कि चुन्नीलाल कलकत्ता छोड़कर कहीं चला गया। चन्द्रमुखी भी किसी छोटे से गाँव में रहते हुए परोपकार में अपना शेष जीवन बिताने के लिए शहर छोड़ने की तैयारी कर रही थी।

 

देवदास उसके पास कुछ दिन ठहरता है और उसे कुछ रुपये देकर विदा करता है। चन्द्रमुखी अश्वथझूरी नामक गाँव में दो साल तक निवास करती हुई ग्रामवासियों में मग्न हो जाती है।

 

कलकत्ता में रहते हुए देवदास का स्वास्थ्य गिरने लगता है। बीच-बीच में वह रुपयों के लिए अकसर गाँव जाया करता था। एक बार पार्वती की सहेली मनोरमा उसे नशे की हालत में गाँव में भटकते हुए देखकर, पार्वती को पत्र लिखती है जिसमें वह देवदास की दुर्दशा का वर्णन करती है।

 

मनोरमा का पत्र पाते ही, पार्वती फौरन देवदास को अपने साथ लिवा ले जाने के लिए ताल सोनापुर पहुँचती है लेकिन उससे पहले ही देवदास वहाँ से शहर जा चुका था। दुःखी मन से पार्वती अपने घर लौट आती है।

 

इधर चन्द्रमुखी निकट के गाँव में रहते हुए एक बार देवदास से भेंट करने ताल सोनापुर आती है किन्तु उसे भी देवदास के दर्शन नहीं होते, तब वह देवदास की खोज में दुबारा कलकत्ता जाती है। देवदास को ढूँढने के लिए ही वह कलकत्ते में फिर से एक घर किराये पर लेकर रहने लगती है।

 

उसे आशा थी कि एक एक दिन देवदास उसके पास अवश्य आयेगा। वह देवदास को ढूँढना शुरू करती है। उसे कलकत्ता आए डेढ़ महीना बीत जाता है। एक रात जब वह हताश होकर घर वापस लौट रही थी कि उसने देखा, एक घर के सामने कोई आप ही आप कुछ बोल रहा था।

 

चन्द्रमुखी के लिए यह पहचानी आवाज़ थी। करोड़ों में भी वह उस स्वर को पहचान लेती थी। जगह अँधेरी थी, फिर नशे में चूर वह आदमी औंधा पड़ा था। वह देवदास ही था। चन्द्रमुखी की आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। देवदास कुछ गा रहा आता। चन्द्रमुखी ने एक गाड़ी रोक कर उस पर देवदास को किसी तरह चढ़ाकर अपने घर ले आई।

 

उसी समय धर्मदास गाँव से रुपए लेकर देवदास को ढूँढता हुआ चंद्रमुखी के पास आता है। चन्द्रमुखी, देवदास के शरीर पर पट्टी बँधी हुई पाती है जो ऑपरेशन की निशानी थी। उसे देखकर वह घबरा जाती है। सुबह जब देवदास होश में आता है तो वह अपने को चन्द्रमुखी के पास पाकर आश्वस्त हो जाता है।

 

वह अपने मन में चन्द्रमुखी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त कर देता है। वह उससे पूछता है कि क्यों वह उसकी इतनी सेवा करती है? उसका क्या रिश्ता है उसके साथ? क्यों उसे वह इतनी आत्मीय लगती है। उसके साथ कितने जन्मों का बंधन है यह?

 

वह चन्द्रमुखी से विदा लेकर चला जाना चाहता है। वह भी देवदास के साथ उसकी सेवा के लिए जाने की इच्छा व्यक्त करती है। देवदास उसे मना कर देता है। वह कहता है कि यदि यह पार्वती को मालूम होगी तो वह क्या सोचेगी? और फिर यह उचित भी नहीं है। वह चंद्रमुखी से कहता है -

 

"पार्वती और तुममें कितना फ़र्क है, फिर भी कितनी समानतना! एक है स्वाभिमानिनी, उद्धत, दूसरी कितनी शांत, कितनी संयमी। वह कुछ भी बर्दाश्त नहीं कर सकती, और तुम्हारी सहनशक्ति की हद! उसका कितना नाम है, कितनी बड़ाई, और तुम्हारी कितनी बदनामी!

 

उसे सब प्यार करते हैं, तुम्हें कोई नहीं। मगर मैं करता हूँ, बेशक़ करता हूँ प्यार!" देवदास ने भारी निश्वास छोड़कर फिर कहा, "पाप-पुण्य का विचार करने वाले जाने तुम्हारा क्या फ़ैसला करेंगे, लेकिन मृत्यु के बाद फिर कहीं मिलना हुआ तो मैं तुमसे दूर हर्गिज रह सकूँगा।"

इस अवसर पर चन्द्रमुखी विह्वल होकर मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि "कभी किसी जन्म में अगर इस पापिन का प्रायश्चित्त हो तो हे भगवान मुझे यही पुरस्कार देना।"

 

देवदास को आभास हो चुका था कि वह कुछ ही दिनों का मेहमान है, उसकी हालत गिरती जा रही थी। शराब ने उसे खोखला कर दिया है, उसे कई तरह के रोगों ने जकड़ लिया है, ऐसी स्थिति में वह चन्द्रमुखी से अंतिम बार विदा हो रहा था।

 

चन्द्रमुखी के यह पूछने पर कि "फिर कब भेंट होगी?" देवदास ने कहा, "यह तो नहीं कह सकता, मगर जीते जी तुमको भूलूँगा नहीं, तुमको देखने की प्यास मिटेगी नहीं।" प्रणाम करके चन्द्रमुखी हट गई। मन ही मन बोली– "मेरे लिए यही बहुत है। इससे ज़्यादा की आशा नहीं करती।"

 

जाते समय देवदास, चन्द्रमुखी को और दो हज़ार रुपये देकर कहता है, "इन्हें रख लो। मनुष्य के शरीर का क्या ठिकाना! आख़िर को मझधार में डूबोगी?"

 

जैसे जैसे उपन्यास अंत की ओर बढ़ता जाता है देवदास के जीवन की त्रासदी तीव्र से तीव्रतर होती जाती है। वह अपने मन में चन्द्रमुखी के निश्छल और निस्वार्थ प्रेम के प्रति नतमस्तक हो जाता है।

 

उसे भी चन्द्रमुखी से प्रेम हो जाता है। किन्तु उसे उस पतनोन्मुख मानसिक अवस्था में भी पार्वती के लाज और स्वाभिमान की चिंता बनी रहती है। उसे पार्वती के प्रेम पर विश्वास है। वह परोक्ष रूप से भी पार्वती के प्रेम की रक्षा करना चाहता है, किन्तु उसकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी।

 

देवदास के शरीर को शराब ने क्षत-विक्षत कर दिया था तो उसकी आत्मा को उसकी कायरता, भीरुता और अनिश्चय ने रौंद डाला था। उसने स्वयं अपनी आत्मा का हनन किया था।

 

जीवन के अंतिम क्षणों में वह अपने ही किए हुए का प्रायश्चित्त करना चाहता था किन्तु उसके पास इसका कोई उपाय नहीं था। वह सारा जीवन पार्वती को अपने ही हाथों खो देने के मर्मांतक दुःख और पीड़ा से मुक्त नहीं हो सका और ही पार्वती को भूल सका था।

 

देवदास, चन्द्रमुखी के पास से धर्मदास के साथ चुन्नीलाल का पता लगाकर उससे मिलने लाहौर चला जाता है। वहाँ कुछ समय रहने के उपरांत इलाहाबाद, पटना, काशी आदि शहरों में घोर अशांति और व्याकुलता के बीच भटकने के बाद वह बंबई में धर्मदास के साथ एक साल गुज़ार देता है।

भादों के महीने में एक दिन सवेरे धर्मदास के कंधे का सहारा लेकर देवदास बंबई के अस्पताल से निकलकर गाड़ी पर बैठता है। धर्मदास उसे माँ के पास चलने की विनती करता है। लेकिन देवदास माँ को शर्म से अपना मुँह नहीं दिखाना चाहता।

 

"देवदास की दोनों आँखें छलछला उठीं। इधर कई दिनों से माँ की बेहद याद रही थी। अस्पताल में पड़े पड़े देवदास यही सोचता रहा, दुनिया में उसके सब हैं, मगर कोई नहीं। माँ हैं, बड़े भाई हैं, बहन से भी बढ़कर पार्वती है, चन्द्रमुखी है; उसके सभी हैं पर वह किसी का नहीं।"

 

देवदास की काया स्याह हो गई थी। शरीर में हड्डियाँ ही शेष रह गई थीं, आँखें एकबारगी धँस गई थीं, सिर्फ़ एक अस्वाभाविक चमक चेहरे पर विद्यमान थी। माथे के बाल रूखे और छिछले, चाहे तो गिन लिए जाएँ। हाथ की उँगलियाँ देखकर घृणा होती- एक तो दुबली, फिर घिनौने रोग के दाग पड़े हुए थे।"

 

स्टेशन पहुँचकर धर्मदास ने देवदास से पूछाकहाँ का टिकट कटाऊँ? सोच विचार कर देवदास बोला, "चलो घर चलें, फिर देखा जाएगा।" वे हुगली का टिकट लेकर गाड़ी में सवार हुए। धर्मदास उसके पास ही रहा। देवदास बुखार से बेहोश पड़ा रहा। उसे कहीं भीतर से विश्वास हो गया कि अब उसका अंत निकट गया है।

 

गाड़ी जब पंडुआ स्टेशन पर पहुँची, सवेरा हो रहा था। सारी रात बारिश होती रही। देवदास उठकर खड़ा हुआ। धर्मदास नीचे सो रहा था। देवदास ने हल्के-हल्के उसके ललाट का स्पर्श किया, शर्म से उसे जगा सका। उसके बाद दरवाज़ा खोलकर धीरे-धीरे गाड़ी से उतर पड़ा।

 

गाड़ी सोए हुए धर्मदास को लेकर चली गई। थरथराते हुए वह स्टेशन से बाहर आया। वह पार्वती के गाँव हाथीपोता पहुँचाना चाहता था। उसने एक बग्घीवाले से पूछाभैया हाथीपोता ले चलोगे? बरसात में बग्घी उस रास्ते नहीं जा सकेगी कहकर बग्घी वाले उसे बैलगाड़ी से जाने की सलाह देते हैं।

 

एक बैलगाड़ी वाला उसे हाथीपोता ले जाने के लिए तैयार हो जाता है लेकिन वह कहता है कि दो दिन लगेंगे। रास्ता बहुत दुर्गम और बीहड़ था। देवदास अपने मन में विचारने लगा कि क्या वह दो दिन तक जीवित रह सकेगा? लेकिन उसे किसी हाल पार्वती के पास जाना ही पड़ेगा।

 

उसे अंतिम दिन के लिए पार्वती को दिए वचन को निभाना ही था। चाहे जैसे हो उसे अंतिम दर्शन देना ही था। लेकिन उसे अपने जीवन की लौ बुझती हुई प्रतीत हुई, जिसका उसे डर था।

 

जीवन के शेष क्षणों में एक और स्नेह और आत्मीयता से भरा कोमल मुखड़ा अत्यंत पवित्र सा होकर उसे दिखाई पड़ा, यह मुखड़ा था चन्द्रमुखी का। जिसे पापिन कहकर वह सदा घृणा करता रहा, जो उसके लिए फूटफूटकर कर रोई थी, उसकी याद आते ही उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।

 

शायद बहुत दिनों तक उसे इसकी ख़बर भी मिल सकेगी। रास्ता ठीक नहीं था। कहीं कहीं बरसात का पानी जम गया था, कहीं रास्ता टूट गया था, कीचड़ ही कीचड़ भरा पड़ा था। बैलगाड़ी चली तो कहीं-कहीं उतरकर गाड़ी के पहिये ठेलने की नौबत आई। जैसे भी हो सोलह कोस की दूरी तय करनी थी।

 

रास्ते में बारिश शुरू हो गई। बीच-बीच में बैलगाड़ी दलदल में फँस जाती तो गाड़ीवान के साथ देवदास भी उसी जर्जर अवस्था में उतरकर गाड़ी को दलदल से निकालने में मदद करता।

 

सारा दिन चलने के बाद अँधियारी रात में बारिश और तेज़ हवा के थपेड़ों से गाड़ी में कराहते, खाँसते ख़ून उगलते हुए देवदास की अंतिम आशा किसी भी हाल प्राण रहते पार्वती की शरण में पहुँच जाना चाहता था।

 

रात बढ़ती जाती है, थोड़ी-थोड़ी देर में देवदास क्षीण और करुण स्वर में गाड़ीवान से "और कितनी दूर है भैया" कहकर पूछता रहता। वह गाड़ीवान से मनुहार करता – "जल्दी पहुँचा दो भैया, तुझे काफ़ी रुपए दूँगा। उसके जेब में सौ रुपये का एक नोट था। उसको दिखाकर बोला, एक सौ रुपये दूँगा, पहुँचा दो।"

 

दिन भर गाड़ी चलती रही। बारिश होती रही। देवदास रह-रहकर गाड़ीवान से कराहते हुए डूबती आवाज़ में गाँव की दूरी पूछता जाता है। शाम होते-होते देवदास की नाक से लहू टपकने लगा। जी जान से उसने नाक को दबाया, फिर लगा कि दाँत के बगल से भी ज़हरीला लहू निकल रहा है, साँस लेने छोड़ने में भी कष्ट महसूस हो रहा है। उसने हाँफते हुए पूछा- "और कितनी दूर है भैया?"

The entire sequence from the time he gets off the train and takes the cart to reach Manikpur, is breathlessly poignant. When he says, “Arre bhai Yeh raasta kyat kabhi khatam nahi hoga,” you pray the distance gets covered quickly so that the lover can reach his beloved’s doorstep only to die in front of her.

 

गाड़ीवान बोला, "बस दो कोस और। रात के दस बजे तक पहुँच जाऊँगा। देवदास ने बड़ी मुश्किल से रास्ते की तरफ़ देखते हुए कहा, "भगवान"! गाड़ीवान ने पूछा, "ऐसा क्यों कर रहे हैं बाबूजी?"

 

देवदास इसका जवाब दे सका। गाड़ी चलने लगी, और रात दस की बजाए बारह बजे हाथीपोता के ज़मींदार भुवन चौधरी की हवेली के सामने चौतरा वाली पीपल के नीचे गाड़ी जा लगी। गाड़ीवान ने आवाज़ दी "बाबूजी उतरो।" कोई आवाज़ नहीं।

 

फिर पुकारा, फिर कोई जवाब नहीं। उसे डर लगा। उसने मुँह के पास लालटेन ले जाकर पूछा, "सो गए, क्या बाबूजी?" देवदास देख रहा था। होंठ हिलाकर कुछ बोला। क्या बोला, समझ में नहीं आया। गाड़ीवान ने फिर पुकारा- "बाबूजी।" देवदास ने हाथ उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा सका।

 

आँखों से सिर्फ आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ीं। गाड़ीवान ने अपनी अक़्ल लगाई। पीपल के चौंतरे उसने पुआल का बिछावन लगाया, और बड़ी मुश्किल से देवदास को गाड़ी पर से उतारकर उस पर सुला दिया। बाहर कोई था। ज़मींदार का सारी हवेली सोयी पड़ी थी।

 

देवदास ने किसी तरह से सौ रुपये वाला नोट निकालकर दिया। लालटेन की रोशनी में गाड़ीवान ने देखा कि बाबू ताक रहे हैं, पर बोल नहीं पाते। रात भर गाड़ीवान लालटेन की रोशनी में देवदास के पाँव के पास बैठा रहा।

 

सुबह होते ही उजाले में ज़मींदार के घर से लोग बाहर निकले और पीपल के चौतरे पर पहुँचे तो देखा कि एक भला आदमी जिसके बदन पर कीमती ऊनी चादर, पाँव में कीचड़ से सने महँगे जूते, उँगली में नीले नग की अंगूठी, धारण किए हुए दम तोड़ रहा था।

 

डॉक्टर, ज़मींदार, उनका बेटा महेंद्र और गाँव वाले सभी इकट्ठा हो कर उस बेबस, बेज़ुबान, मरणासन्न व्यक्ति को घेरे खड़े हो जाते हैं। सबके मुँह से आह निकलती है। भीड़ में से कोई दया करके मुँह में बूँद भर पानी डाल देता है।

 

देवदास ने एक बार उसकी ओर करुणा दृष्टि से देखा और आँखें मूँद लीं। कुछ देर और ज़िंदा था, फिर सब कुछ ख़त्म। इस तरह देवदास पार्वती के चौखट पर ही दम तोड़ देता है, वह पार्वती तक पहुँचकर भी उसे नहीं देख पाता। यह उसकी नियति थी।

 

लाश की शिनाख़्त की जाती है, पुलिस की जाँच-पड़ताल करके उसे ताल सोनापुर का देवदास घोषित कर देती है। महेंद्र और भुवन बाबू दोनों वहाँ मौजूद थे। महेंद्र कहता है कि यह छोटी माँ के मैके का है। वह अपनी माँ पार्वती को बुलाना चाहता है किन्तु भुवन बाबू उसे फटकार कर रोक देते हैं।

 

ब्राह्मण लाश थी, फिर भी गाँव के किसी ने छूना नहीं चाहा। देवदास की लावारिस लाश को गाँव के डोम उठाकर ले गए और किसी सूखे पोखर के किनारे अधजला डाल दिया।

कौए, गिद्ध, सियार लाश को नोच-नोचकर छीना झपटी करने लगे। यही देवदास का करुण और दुर्भाग्यपूर्ण अंत था। एक हारे हुए प्रेमी का अंत। हवेली में पार्वती अपनी नौकरानी से, हवेली के द्वार पर ताल सोनापुर के देवदास नामक व्यक्ति की मृत्यु की ख़बर सुनती है तो वह बेतहाशा दौड़ती हुई हवेली के बाहर दौड़ती हुई मूर्छित होकर गिर पड़ती है।

 

मूर्छा टूटने पर वह उन्माद की अवस्था में सिर्फ़ इतना पूछती है कि "रात में वे आए थे ? सारी रात.... "

 

The End

पार्वती के आगे के हाल के बारे में जानने और बताने की तनिक भी इच्छा लेखक को नहीं है। उपन्यास की अंतिम पंक्तियाँ देवदास को लेखक की करुणापूरित श्रद्धांजलि है।


Disclaimer–Blogger has prepared this short story of Devdas  with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.





























































Saturday, 25 June 2022

Adventurous Hair Raising Train journey on the Pamban Bridge which connects Rameswaram Island to the mainland of India.

I have covered a lot main colorful land of Incredible India. I always preferred train journey. I can never forget a train journey on the Pamban Bridge which connects Rameswaram Island to the mainland of India. IN real that was An Adventurous hair raising train journey, which I enjoyed on way to Rameswaram. 


Imagine you are on a train ride over an old sea-bridge and the sea waves are constantly hitting the iron pillars of the bridge which are all very much old and rusty.

 

The train journey over Pamban Bridge is not only Adventurous it is dangerous too, but it is scenic too! Here, we are going to share our experience of this thrilling train ride on our way from Hyderabad to Rameshwaram. Keep reading.

What will you do? Will your heart stop working for a moment? To be honest, when we tried something like this during our train ride over the dangerous Pamban Bridge, we were much tensed! We were excited too!

 

The Pamban Bridge is a railway bridge on the Palk Strait which connects the town of Rameswaram on Pamban Island to mainland of India. The bridge refers to both the road bridge and the cantilever railway bridge, though primarily it means the latter.

 

Opened on 24 February 1914, it was India's first sea bridge, and was the longest sea bridge in India until the opening of the Bandra-Worli Sea Link in 2010.

 

Bridge opens up to allow ferry movement

This is the main feature that makes Pamban Bridge more interesting and unique. German engineer Scherzer designed the central part of the bridge that opens up to allow ferry movement and closed to pass the train. Approx. 10 to 15 boats and small ships pass beneath the bridge every month.

But what a beauty! You are surrounded by pristine blue waters till as far as your eyes can see. The Pamban Bridge is only 1 meter wide and 2.5 km long.

 

The speed is reduced to 20-30 km/hr while the train is on this vulnerable bridge. The experience was totally a life long hair raising Rail Ride.

 

Our first glimpse of the sea was near Mandapam halt. It was early evening when train halted there for a brief period .Few passengers boarded down and few up.

 

Sea was visible on both sides, as the train moved ahead Mandapam. Road was parallel to the tracks. The landscape changed rapidly and signaled that we were approaching coastal area.

In craziness of excitement, for an uninterrupted viewing, I went to the door.The calm and peaceful Arabian sea was in my full sight.

 

The blue sky was bowed somewhere in horizon to meet sea.There was playing a colorful magic in west of sky.

 

There were less of coconut palms and more of oil palms and fruit (Palmyra) palms. The terrain too changed, and the area had more of dry sand than soil.

 

I took my camera and focused to capture this life time hair raising journey .Soon I realized, better to save the whole scenes in memory chip of my mind my heart that will never fade with time.

This was a prized moment – a moment that I had been waiting for a long time. The train slowly crawled its way towards Rameswaram – over Pamban Bridge.

 

The bay was green in color and very attractive unlike the brackish color seen in the Arabian Sea.

 

Fishing activities were at its peak – Train took about 15 minutes time to cover 2.3 kms long Pamban Bridge.

 

It was late evening time of sunset, Bursts of gold on lavender melting into saffron. It's the time of day when the sky looks like it has been spray-painted by a graffiti artist.

 

The mighty ocean was below my feet; suddenly a fragrant breeze wandered up from the quiet sea, touched me and drifted back to the sea again.

 

After Pamban Bridge, the train passed through an area that closely resembles a desert – its sand dunes all around. The sidings at Pamban station was all mired in sand.

 

The train picked up speed after Pamban. The road still runs parallel to the tracks. We finally reached Rameswaram station at 19.30 – late about 1 hour.

 

Finally we were standing at railway plate form of Rameshvaram. Before exit from here we thought to have hot coffee and some snakes.

 

There were plenty of autos available outside station. Hired an auto for advance booked hotel Agnee teertham (Tamil Nadu Tourism Corporation Hotel).

 

It ends this travelogue on Pamban Bridge: A Hair Raising Train Ride to Rameswaram. Next we will meet in Rameswaram and ghost town of Dhanushkodi beach.

 

Written, Photographed and posted by Engr Maqbool