मुझे, जब उस बार एक मीटिंग में भाग लेने बम्बई जाना पड़ा तब
मेरे सम्मुख मुख्य समस्या आई थी आवास की। कहाँ रहूँगी वहाँ? तब ही अचानक याद आया कि
नीरा भी तो वहीं रहती थी। नीरा मेरे दूर सम्पर्क की चचेरी ननद थी।
पहले उसे यों अचानक अपने आगमन की सूचना देने में संकोच भी
हुआ था। जनसंकुल बम्बई का जीवन कितना कठिन है एवं वहाँ के संकुचित- सीमित आवास में
आतिथ्य निभाने में मेजबान के प्राण कैसे कंठगत हो जाते हैं, यह सब जानकर भी मुझे नीरा
को लिखना ही पड़ा था, क्योंकि किसी होटल में रहने का साहस अन्त तक मैं सँजो नहीं पाई।
नीरा का फ्लैट छोटा होने पर भी बड़ा
सुन्दर था, बत्तीस-बत्तीस फ्लैटों के गुलदस्ते, रात को दूर से देखने पर, किसी बन्दरगाह
पर खड़े सुन्दर जहाजांे-से ही लगते थे।
नीरा को बम्बई का जीवन बहुत पसन्द था, तीन
वर्षों के बम्बई-प्रवास ने उसका कायाकल्प कर दिया था। वैसे भी, वह पिथौरागढ़ के उस अनजाने
ग्राम से बम्बई आई थी, जहाँ उसके विवाह तक, कुमाऊँ मोटर यूनियन की बस भी नहीं पहुँच
पाई थी, उन दिनों मोटर-रोड का निर्माण-कार्य चल ही रहा था।
मुझे आज भी याद है, लग्न का समय बीता जा रहा था और उसकी बारात
नहीं पहुँची थी। बड़ी देर बाद, उसकी बारात के थके-माँदे बराती बिना किसी बैंड-बाजे के
ऐसे चले आए थे जैसे कोई मातमी जुलूस हो। पहाड़ी लद्दू घोड़े में बैठा, उसका सजीला दूल्हा
भी वर्षा की बौछार में भीग-भाग, एकदम ही अनाकर्षक लग रहा था।
उधर नीरा आकर्षक न होने पर भी कामदार लहँगे-दुपट्टे में बड़ी
प्यारी लग रही थी। नए गहने, कपड़े और नवीन जीवनसाथी का उल्लास उसके गदबदे गोल-मटोल चेहरे
पर लज्जा का अंगराग बिखेर, उसकी उजली हँसी को और भी उजली बना गया था।
किन्तु आज की नीरा की न तो वेशभूषा में न वाणी में, वह पहाड़ी
ढीलमढाल लटका था, न आतिथ्य में। उसके मुँह से ‘मैंने बोला,’ ‘तुमको होना क्या?’ आदि
विभिन्न प्रदेशी उच्चारण सुन, मैंने उसे टोका भी था, "यह कैसे बोलने लगी हो, नीरा,
क्या हो गया है तुम्हारी हिन्दी को?"
"क्या
करूँ भाभी, मेरी पड़ोसिन हैदराबाद की है ना, इसी से बोली में उसकी छाप लग गई है। आज
तुमसे मिलाऊँगी, बहुत ही प्यारी लड़की है।"
नीरा की प्रतिवेशिनी
राज्यम बम्बई के एक प्रसिद्ध होटल में रिसेप्शनिस्ट थी। उसके पति मद्रास में ही किसी
दवाओं की विदेशी फर्म में काम करते थे। दोनों का वेतन खासा-अच्छा था। उस पर उनकी एकमात्र
पुत्री ननिहाल में पल रही थी। राज्यम स्वयं ऊटी के कान्वेन्ट से पढ़ी थी, इसी से अंगे्रजी
का उच्चारण, उठने-बैठने का सलीका, सबकुछ खाँटी मेमसाहबी था।
वेशभूषा में भारतीय संस्कृति का लवलेश भी नहीं था। टखनियों
तक झूल रही मैक्सी। बायाँ भाग, किसी समृद्ध थिएटर के रेशमी पर्दे की भाँति, बीचोंबीच,
उन्मुक्त औदार्य से खुली परतों को समेट लेती, किन्तु उस कौशल में भी, उसकी सधी पूर्वाभ्यास
से की गई उदासीनता, मैंने कनखियों ही में पकड़ ली थी।
गुलाबी रेशम की खुली भाँज के बीच, रह-रहकर उसकी गुलाबी रेशमी
जंघा की क्षणिक छटा, बिजली-सी कौंध जाती।
किन्तु उसके चेहरे पर, वही स्वाभाविक सौम्य स्मित खेलता रहता,
जैसा उन सर्कस सुन्दरियों के चेहरे पर रहता है, जो बालिश्त-भर की रेशमी कोपीन पहने
टैªपीज़
के झूलों पर ऐसी ही उदासीनता से, सर्र से निकल जाती हैं।
उसकी
मैक्सी का गला भी इसी औदार्य से खुला, किसी उत्तुंग पर्वतश्रेणी पर फिसल रहे पहाड़ी
झरने के वेग से ही, झरझराता नीचे उतर गया था।
पतली ग्रीवा में थी सुवर्णमंडित रुद्राक्ष की माला, गेरुए
रंग की शाट सिल्क की मैक्सी और कंठ की रुद्राक्ष कंठी से मेल खाता ही, उसका केशविन्यास
भी था। संसारत्यागी अवधूत के से उस जटाजूट में भी एक रुद्राक्ष की माला लपेटी गई थी,
हाथ में वैसा ही मेल खाता रुद्राक्ष का कंकण था।
बाद में नीरा ने बताया था कि वह जूड़े की लेटेस्ट
स्टाइल है, ‘फारीदाबा हेयर स्टाइल है, भाभी,’ उसने बड़े गर्व से अपनी शृंगारपटु सहेली
की उपस्थिति में ही फिर उसका प्रशस्तिपत्र पढ़ दिया था, ‘पर हम-तुम पर थोड़े ही ना अच्छी
लग सकती है, यह तो राज्यम ही है कि कैसी ही बनकर क्यों न निकल पड़े, लोग मुड़-मुड़कर देखते
रहते हैं।’
बात ठीक ही कही थी नीरा ने। लड़की वास्तव में व्यक्तित्वसम्पन्ना
थी, कुर्गी थी, इसी से रंग था एकदम चिट्टा सुर्ख, उस पर कुछ ‘ब्लेशऔन’ की
महिमा थी, कुछ ‘प्लग कलर्ड’ लिपस्टिक की। उसे देखकर, मुझे वाजिदअली शाह की जोगिया बेगम,
सिकन्दर महल का स्मरण हो आया। वयस होगी कोई तेईस-चैबीस के लगभग, किन्तु व्यवहार अल्हड़
षोडशी का था।
होटल की रिसेप्शनिस्ट थी, इसी से
छल्लेदार बातें बनाने में पारंगत थी। मेरा परिचय पाते ही, वह मेरे पास अपना मोढ़ा खिसका
लाई, ‘सो यू आर ए राइटर हाउ वेरी-वेरी इंटरे¯स्टग, क्या लिखती हैं आप, उपन्यास, कहानी या नाटक?’ जी में
तो आया कह दूँ, तुम्हें देखकर तो अभी एक नाटक ही लिखने को मन कर रहा है, पर तब क्या
जानती थी कि एक दिन उसे ही नायिका बनाकर लेखनी स्वयं ही मुखरा बन उठेगी।
रात का खाना राज्यम नित्य नीरा के साथ ही खाती थी। मैं नीरा
का व्यवहार, फुर्ती और पाक-कौशल देखकर मुग्ध हो गई थी। एक बालिश्त के, अपने उस गुफा-से
सँकरे चैके में उसने इतनी चीजें कब बना दीं, और कैसे? न उसके पास कोई नौकर था न महरी,
फिर भी मैं जितनी देर मीटिंग में रही, उसने न जाने क्या-क्या बना लिया था।
पूड़ी-कचैड़ी, तीन तरह की सूखी, रसेदार सब्जियाँ,
ठेठ पहाड़ी रायता और मीठी चटनी। बम्बई में भी उसने उत्तराखंड के स्वादिष्ट पकवानों की
महिमा को पूर्ण रूप से साकार कर दिया, तो मैं अवाक् रह गई। कुमाऊँ के पकवान देखने में
जितने ही आडम्बरहीन और अनाकर्षक होते हैं, खाने में उतने ही सुस्वादु और मौलिक।
उन सरल पकवानों की भूमिका कितनी दुरूह होती है, यह मैं जानती
थी। "अरी, ऐसे कुरकुरे सिंगल तो पहाड़ की बड़ी- बूढ़ियाँ भी नहीं बना पाती होंगी
और यह करड़ी ककड़ी कहाँ मिल गई तुझे?" पहाड़ी करड़ी ककड़ी के पीले गंडे-से कलेवर को
मैंने ठीक ही पहचाना था।
"बाबूजी अल्मोड़े से लाए थे, ठीक उसी दिन मुझे तुम्हारा
तार मिला तो मैंने उठाकर फ्रिज में रख दी, सोचा तुम आओगी तो ठेठ पहाड़ी दावत करूँगी,
ये रायता राज्यम को भी बहुत पसन्द है, क्यों है ना, राज्यम?"
पर उसकी भोजनप्रिया प्रतिवेशिनी को उत्तर देने का अवकाश ही
कहाँ था? रायते का डोंगा, लगभग साफ कर, वह अब किसी क्षुधाकातर भिक्षु की भाँति कचैड़ियों
के अम्बार पर टूटी।
मुझे अपनी लोलुपता को रँगे हाथों पकड़ लिया गया देख, वह बड़ी
ही मोहक हँसी से घायल कर कहने लगी, "क्या गजब का खाना बनाती हो नीरा, इसी से आज
इतना खा रही हूँ, अपने होटल का खाना तो एकदम चरी-भूसा है इसके सामने!"
पर, मैंने प्रायः ही देखा है कि डाइटिंग के चक्कर में बँधी
ये छरहरी आधुनिकाएँ दावतों में, स्वेच्छा से ही जिह्ना पर लगे संयम अंकुश को दूर पटक,
भूखे कंगलों की भाँति खाने पर टूट पड़ती हैं।
"क्यों, तुम्हारे सुख्यात होटलों में तो सुना, चित्र-जगत
के सितारों का नित्य मेला ही जुटा रहता है और वहाँ उनके नाम कई कमरे स्थायी रूप से
आरक्षित रहते हंै," मेरा स्वर, शायद कुछ अधिक व्यंग्यात्मक हो उठा था।
"अजी, उनकी बात छोड़िए," वह अब दो कचैड़ियों को रोल
कर आलूदम के एक भीम आलू से पेट फुला, बड़ी नजाकत से कुतरती कहने लगी, "वे क्या
वहाँ खाना खाने आते हैं?" फिर वह कुटिल रहस्यमयी कनखियों से मेरे ननदोई को देखकर
मुस्कराई, वह मुझे अच्छा नहीं लगा।
अपने कहानी- उपन्यासों में, ऐसी असंख्य प्रेमासिक्त कुटिल
कनखियों का वर्णन करते-करते अब किसी भी स्वयं-दूती नारी के अन्तर्मन के छायाचित्र को
मैं, न चाहने पर भी किसी एक्स-रे प्लेट में उभरे, भग्न अस्थिकोटर-सा स्पष्ट देख लेती
हूँ। उस दिन दावत लगभग तीन घंटे चली थी।
इस बीच उस चपला सुन्दरी प्रतिवेशिनी की उपस्थिति ने, मुझे
अपनी सरल ननद के अदृष्ट के प्रति आशंकित ही किया था। खाने के बाद अचानक याद आया कि
मीठी खीर के पश्चात वह अत्यन्त अनिवार्य भारतीय मुखशुद्धि का प्रबन्ध करना भूल गई थी।
"हाय राम, मैं तो भूल ही गई थी कि आप पान खाती हैं
वैसे तो चैपाटी दूर नहीं है पर..."
"अरे, क्या पर पर करता,"
उसकी मेखलाधारिणी कैबरे नर्तकी-सी प्रतिवेशिनी हँसती उठ गई, "हम अभी लाएगा चलो
तो, महेश, निकालो अपना स्कूटर..."
मैं
स्तब्ध रह गई। इतनी रात को, क्या यह लड़की अपनी इस अधखुली मैक्सी में, महेश की कमर में
हाथ डाल, मेरे लिए पान लेने जाएगी। "नहीं-नहीं मुझे पान की कोई ऐसी आदत नहीं है,"
मैंने कहा, पर मेरी भोली ननद के चेहरे पर, अपनी सखी के प्रति कृतज्ञता की सहश्र किरणें
फूट रही थीं। "प्लीज, राज्यम, पुड़ा-भर लेती आना, फ्रिज में रख दूँगी।"
और फिर मेरी भयत्रस्त आँखों के सामने वह अपनी सखी के सहचर
की कमर में हाथ डाले हवा-सी निकल गई। बड़ी देर बाद दोनों पान लेकर लौटे तो मैंने कठोर
दृष्टि से महेश को घूरा। उसे मैं क्या आज से जानती थी? फटे कोट की बाँह से नाक पोंछता
महेश प्रायः ही तो हमारे यहाँ कभी पिता के लिए शिवपुराण माँगने आता और कभी विष्णुपुराण।
उसके पिता गोविन्दवल्लभ पांडे हमारे कुल-पुरोहित थे और मेरा
ही नहीं, मेरे सब भाई- बहनों का षष्ठी-पूजन उन्होंने किया था। मैं देख रही थी कि महेश
मेरी आँखों से आँखंे नहीं मिला पा रहा है।
जब नीरा की प्रतिवेशिनी विदा हुई तब वह मेरा बिस्तर लगाने
मेरे कमरे में आई। "भाभी, कैसी लगी मेरी सहेली? है ना गजब की लड़की? इसके होटल
में कोई भी वी.आई.पी. अतिथि आएँ, इसकी ड्यूटी न हो तब भी इसे ही बुलाया जाता है।"
"मैं समझ सकती हूँ, तुम्हारी सखी के व्यक्तित्व की सृष्टि
ही विधाता ने पुरुषों का आतिथ्य निभाने के लिए की है," मैंने कहा।
पर भोली नीरा ने मेरे उत्तर के व्यंग्य को, एक कान से सुन,
दूसरे से निकाल दिया। वह फिर उसी उत्साह से कहने लगी, "है तो मद्रासी, पर रंग
हम-तुमसे भी गोरा है।
उस पर कपड़े पहनने में तो इसका जवाब नहीं है, भाभी, चाहे कुछ
भी न पहने तब भी हीरे-सी दमकती है।"
"वह तो देख ही लिया," मेरा रूखा स्वर फिर उस चिकने
घड़े पर तेल-सा ढरक गया।
"अच्छी लगी ना तुम्हें?"
"नहीं," न चाहने पर भी मेरे हृदय की बात होंठों
पर फिसल गई।
"क्यों?" चादर की सिलवटें ठीक करते उसके दोनों
हाथ रुक गए।
"इसलिए कि मुझे स्कूल-कॉलेज न जानेवाले
लड़के और ससुराल न जानेवाली लड़कियाँ जरा भी अच्छी नहीं लगतीं..." मैंने हँसकर कहा।
"तो क्या हो गया, उसके पति तो यहाँ आते
रहते हैं, फिर बेचारी करे भी क्या! सास बेहद तेज है।"
मैं तीन दिन तक नीरा की अतिथि बनी रही, और उन दिनों की संक्षिप्त
अवधि में ही, उसकी उस चतुरा प्रतिवेशिनी का व्यवहार मुझे स्तब्ध कर गया।
नित्य-प्रायः वह महेश के आफिस जाने तक नीरा के यहाँ ही डटी
रहती, मैं अपने कमरे से ही देखती, वह महेश के कमरे में बैठी खिलखिला रही है और मेरी
मूर्खा ननद चैके में भाड़ झोंक रही है।
चाय-नाश्ता वहीं से लेकर वह होटल जाती और पाँच बजे लौटती,
फिर अपना ताला खोलने से पहले वह नीरा की ही घंटी बजाती।
रात को भी उसका खाना नीरा के यहाँ
ही रहता। बड़ी रात तक ताश चलता, गिलासों की खनक से ही मैं जान जाती कि ताशों के जोर-जोर
से पटके जाने और असंस्कारी कहकहों के पीछे किसी गहरे जलपान का बहुत बड़ा योगदान है।
स्कटर की घर्र-घर्र सुन, मैंने खिड़की से झाँका था, महाराज
पृथ्वीराज की मुद्रा में महेश पीठ पीछे लिपटी संयुक्ता को लेकर शायद मेरे ही लिए पान
लेने जा रहा था।
जी में आया, उसी क्षण अपनी उस सांसारिक बुद्धिहीना ननद को
कमरे में बुलाकर झापड़ कस दूँ। पर तीन दिन के लिए जिस स्नेही ननद के गृह में अतिथि बनकर
आई थी उसके निर्मल चित्त में सन्देह का व्यर्थ बीजारोपण कर मुझे मिलता भी क्या? हो
सकता था वह सन्देह मेरी आवश्यकता से अधिक, संस्कारग्रस्त देहाती चित्त की, कल्पना-मात्र
हो!
क्या पता? आधुनिक पतिव्रता की मान्यताएँ, अब हमारी मान्यताओं
से भिन्न हों, वह पति को ऐसी स्वतन्त्रता स्वेच्छा से ही दे देती हों। फिर भी चलते-चलते
मैंने उसे सावधान कर ही दिया था, "देखो नीरा, तुम बहुत भोली हो, फ्लैट का जीवन
निश्चय ही कुछ अंशों में मनुष्य के जीवन को अनुभवों से समृद्ध करता है, किन्तु इसके
लिए तुम फ्लैटवासियों को अपनी एक बहुमूल्य धरोहर खोनी भी पड़ती है, वह है तुम लोगों
की प्राइवेसी!
किसी भी परिवार के सुख
के लिए इस प्राइवेसी का अक्षुण्ण रहना अनिवार्य होता है। यहाँ तो तुम्हारी एक छींक,
खाँसी या डकार तक पर तुम्हारा अधिकार नहीं रहता, उसी क्षण वह दूसरे परिवार की छींक-
खाँसी बन जाती है। तुम्हारी सखी से तुम्हारी ऐसी मैत्री देखकर बड़ा आनन्द आया, किन्तु
एक अंग्रेजी की कहावत सुनी है? अन्तरंगता घृणा की जननी होती है, इसे मत भूलना, नीरा!"
"हाय भाभी, तुम्हें क्या लगता है कि मैं किसी से लड़ूँगी?"
मैं फिर कह ही क्या सकती थी?
मैं जब रात की गाड़ी से चलने लगी तब नीरा की प्रतिवेशिनी फिर
मेरे लिए स्कूटर भगाती पान ले आई थी। मैंने पुड़ा बटुए में डाल लिया और जैसे ही स्टेशन
पीछे छूटा, मैंने बँधा पुड़ा खिड़की से बाहर फेंक दिया। फिर एक वर्ष तक मुझे नीरा की
कोई खबर नहीं मिली।
पिछली बार एक शादी
में पहाड़ गई तब उसकी माँ मिल गई। कभी उनकी गाई घोड़ी-बन्ना के बिना कोई भी विवाह-उत्सव
सम्पन्न नहीं होता था। उस दिन एक निर्जन कोने में ऐसी बैठी थीं कि पहले मैं उन्हें
देख भी नहीं पाई। नन्हे-से घूँघट की यवनिका में उनका उतरा, कुम्हलाया चेहरा देख मैं
स्तब्ध रह गई।
क्या हो गया था मेरी इस आनन्दी सास को? अभी दो वर्ष पूर्व
नीरा के भाई की शादी में उन्होंने मेरे ससुर के सूट-बूट में लैस हो, कभी गोरे साहब
और कभी पहाड़ की सरल ब्राह्मणी का अपूर्व अभिनय कर हमें हँसा-हँसाकर मार दिया था।
किसी अनुभवी वैट्रोवयुलिस्ट की गुड़िया की भाँति वह कभी मोटी
मर्दानी आवाज़ में गोरे साहब का प्रणय निवेदन करतीं, फिर तत्काल कंठ का पैंतरा बदल जनानी,
काँपती आवाज़ में थरथराकर गातीं, ‘हाथ जोडूँ गोरा जी, मैं तो बीबी बामणी।’
मैंने उन्हें देखते ही हँसकर ढोलक उनकी ओर लुढ़का दी,
"लो चाची, ये क्या मुँह लटकाए बैठी हो? हो जाए एक कड़कती-सी घोड़ी!"
दुर्बल हाथों से ढोलक को मेरी ही ओर वापसी ढलान में लुढ़का
उन्होंने अपनी डबडबाई आँखें फेर लीं। मेरी देवरानी ने मुझे चिकोटी काटी, "क्या
कर रही हो, दीदी, आज पहली बार तो औरतों में आकर बैठी हैं, नहीं तो अम्माजी ने तो पलँग
ही पकड़ ली थी।"
"क्यों?" मैंने फुसफुसाकर पूछा।
"सुना नहीं तुमने? अभागा महेश नाक कटाकर
अपनी पड़ोसिन के साथ, नौकरी छोड़-छाड़, मद्रास भाग गया है। नीरा का तार पाकर बाबूजी उसे
यहाँ लिवा लाए। पर लाने से क्या होता है? दिन-रात कमरे में गुमसुम पड़ी रहती है। कई
डॉक्टरों को दिखा चुके हैं। कहते हैं दिमाग का मर्ज है, किसी दिमाग के डॉक्टर को दिखाइए।
हृदय पर कोई भारी आघात लगा है।"
इससे बड़ा आघात किसी भी नारी को और लग भी क्या सकता था? मैं
उस आनन्द-उत्सव के बीच सिर लटकाए बैठी चाची के उस वेदनाविधुर चेहरे की ओर दूसरी बार
आँख उठाकर नहीं देख पाई। चलने लगी तो देवरानी चाँदी की तश्तरी में पान ले आई,
"लो भाभी, मैं तो भूल ही गई थी कि तुम पान खाती हो।" ठीक एक वर्ष पहले ये
ही शब्द नीरा ने भी कहे थे।
"नहीं, मैं
अब पान नहीं खाती," कह मैंने तश्तरी खिसका दी और उठ गई। वैसे तो नीरा की सौत मेरे
लिए पान लेने न जाती, तब भी होनी होकर ही रहती, पर मुझे बार-बार यही लगता है कि वह
पृथ्वीराज-संयुक्ता की जोड़ी यदि आधी-आधी रात को मेरे लिए पान लेने न जाती तो शायद नीरा
का उतना बड़ा सर्वनाश भी नहीं होता।
The
End