(1)‘दबदबा नवाब बेगम' का जिन्की तीन पीढ़ियों ने अवध की नवाबी की शान पायी.
अवध की नवाबी ने अठारहवीं सदी के मध्य से उन्नीसवी सदी के मध्य तक ऐसीः धूम मचाई कि 'नवाबी' शब्द सिर्फ़ एक शब्द ही नहीं रह गया, किसी अदब, किसी: अन्दाज़ की परिभाषा भी बन गया।नवाबी की शानदार पालकी हमेशा तहज़ीब के कन्धों पर चली है।
अवध के दर्जन भर नवाबों मे से दूसरे नवाब अबुल मंसूर खाँ उफ़ सफ़दरजंग ही ऐसे थे जिन्होंने सिर्फ़ एक शादी की थी । इस तरह सारी नवाबी में वो अपने आप में अकेली मिसाल कहे जा सकते है।
Bahu Begum |
नवाब सफ़्दरजंग की उस इकलौ बीवी का नाम सदरुन्तिसा था और जो नवाब सआदत खाँ बुरहानुल मुल्क की बेटी थी। ससुराल में उन्हें नवाब सफ़दरजहाँ बेगम का खिताब मिला था और फिर वो नवाब बेगम के नाम से मशहूर हुईं ।
नवाब बेगम को अवध की सबसे ख़ूशनसीब और अकेली मिसाल बेगम कहना चाहिए जिसकी तीनों पीढ़ियों ने नवाबी की शान पायी थी | उनके बाप नवाब थे ही फिर उनके शौहर हाकिमे सल्तवत हुए जिनके बाद उनके बेटे तख्तो मसनद पर तशरीफ़ लाए। अपनी ज़िन्दगी के तीनों पहर शानो-शौकत से गुज़ा रने वाली नवाब बेगम बड़ी अक्लमन्द और दानिशमन्द महिला थी ।
जिस वक्त शाहें दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वो अपनी फ़ौज के लश्कर और अपने घायल शौहर को लेकर फ़ैजाबाद से जा रही थी, सुल्तानपुर के पास नवाब सफ़दरजंगः का इन्तक़ाल हो गया | इस तरह रास्ते में सुहाग लुट जाने पर भी इस औरत ने बड़े सब्र और बेहद होशियारी से काम लिया और इस राज को राज ही रखा ।
Nawab Safdar Jung |
फ़ैजाबाद मे जब अपने महल की ड्योढ़ी में हाथी की पीठ पर कसे सुखपाल में सफ़दरजंग की लाश लेकर उतरी तो उन्होंने पहले अपने बेटे शुजाउद्दौला से सलाह करके फ़ौज और क़िले की कमान मजबूत कर ली तब जाकर महल में से रोने- पीटने की आवाज़ें उठीं।
Gate of Lal Bagh-Faizabad |
नवाब बेगम अगर अपने सूबे का बन्दोबस्त इस ख़बसूरती से न संभाल लेतीं तो शहर में बग़ावत हो जाती और तख्त हाथ-बेहाथ हो जाता। ये सन् १७५४ की बात थी ।
जब नवाब सफ़दरजंग नहीं रहे तो उनके बेटे शुजाउद्दौला ने तख्ते अवध की' मसनद सँभाली । नवाब बेगम बड़ी जेहनमन्द थी लेकिन अक्सर ग़रीबों और दुखियों की मदद के मौक़े पर मासूम हो जाया करती थीं।
उनकी एक लौंडी के पास ख़ज़ाने की चाबियाँ रहती थीं।उस नेकबख्त को जब कभी रुपये-पैसों की ज़रूरत होती तो वो बेगम से सिक्कों को धूप दिखाने की बात करती---“मलिकए आलिया, हर चीज को रखे-रखे सील खा जाती है तो फिर सिक्के भी सदमा जरूर उठाएँगे, इसलिए बेहतर है कि उन्हें वक््त-वकत पर धूप दिखा दी जाए ![”
फिर क्या था, फ़ैजाबाद के महल की छत पर चाँदी-सोने के सिक्के बिछा दिए जाते और उसके बाद वो बाँदी रुपयों के तोड़े (ग्रतती की अलग-अलग थैलियाँ) लगाती तो कुछ ज़रूर ही कम निकलते और इस पर उस कनीज़ का जवाब ये होता कि हर चीज़ धूप पाकर कुछ न कुछ सूख जाती है तो इनमे से कुछ रुपये अगर धूप में ख़ूशक हो गये तो क्या अजब [ नवाब बेग्रम सब समझ्ते हुए भी इस बात का कुछ बुरा नही मानती थीं, सिर्फ़ हेंसकर टाल देती थीं ।
सन् १७६४ में शुजाउद्दोला को बक्सर की लड़ाई में मीर क़ासिम की तरफ़ से लड़ने जाना था। इस मुक़ाबले में अंग्रेजों से मोर्चा लेना कोई आसान बात नहीं थी लेकिन तवाब बेगम की नवाबी का क्या कहना ! उन्होंने अपने बेटे की ख ब- ख़ ब होसला अफ़ज़ाई की।
उन्होंने पहले भी अपने शौहर के जमाने में फ़र्ख्ाबाद की ज़मीं के लिए अपने खर्चे से ११ लाख ४ हज़ार अर्शाफ़ियाँ दी थीं। शुजाउद्दौला अपनी माँ का बहुत अधिक आदर करते थे । बिहार की तरफ़ जंग के लिए रवाना होते समय नवाब जिस्म पर हथियार बाँधकर अपनी माँ की ड्थोढ़ी में इजाजत माँगने के लिए तशरीफ़ लाए।
महल की दहलीज़ में सर पर बगुले के पंखों का-साः 'रुपहले सित का ताज पहने माँ खड़ी थीं। ववाब बेगम ने बेटे के बाजू पर इमाम जामिन बाँधने के बाद ख शबूदार गिलौरियों से मह॒कते हुए सुर्ख होंठों से अपने बेटे का माथा चूमा और बड़े तम्कनत से कहा, “जाओ बेठा, हजरत अली तुम्हारे निगहबान होंगे।मेरे
लाल, चुन-चुन कर गोरे दुश्मनों को मारता, गिन-गिनकर उन बिदेशी अंग्रेजों को ख़त्म कर देना मगर खदा के वास्ते मेरी पीनस उठाने के लिए बारह फ़िरंगी जरूर बचा लेना ।”
हुआ ये कि बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों ने बुरी तरह शिकस्त दी, यही क्या “कम हुआ कि आखिरी लड़ाई के एक दिन पहले नवाब को एक लँगडी हथिनी पर बिठा कर भगा दिया गया था | खैर, जान बच गईं, मगर लेने के देने तो पड ही गए ।अंग्रेज़ सरकार ने नवाब शुजाउदौला से ५० लाख रुपये तावाने जग वसूल किया ।
Battle of Baxar |
इस हरजाने में फ़ैजाबाद का खज़ाना लूट लिया । २० लाख की रकम तो 'शुजाउद्दौला की ब्याहता बीवी बहु बेगम ने अपने जेवर उतार कर पूरी की, यहाँ तक कि अपनी सुहाग की नथ' तक उतारकर नवाब के आगे रख दी थी और इसी से शुजाउद्दौला जिंदगी-भर बहू बेगम के एहसानमन्द रहे ।
बाक़ी भुगतान के लिए नवाब को इलाहाबाद का इलाक़ा और चुनारगढ़ का क़िला कम्पनी सर- कार के हवाले करना पड़ा और फिर तो कम्पनी सरकार का पाँव अवध सल्त- नत में ऐसा पड़ा कि अंगद का पाँव बन गया ।
नवाब बेगम ने जो सख्त बात अंग्रेजों के खिलाफ़ कही थी वो हवा के पर लगाकर अंग्रेज हाकिमों के कात तक जा पहुँची और फ़ैजाबाद की बेगमों से उनकी “दिलशिकनी हो गई। इसी बात का बदला वारेन हेस्टिग्ज ने लिया और क्षासफ़ुदौला पर दबाव डालकर उसने नवाब बेगम और बहू बेगम से जबरदस्ती "करोड़ों रुपया वसूल लिया ।
आसफ़ुद्दौला ने, लखनऊ से अपने ख़ास नायब मुर्तेज़ा खाँ उफ़ मुख्तारुहौला को इन सास-बहू से रुपया ऐंठने के लिए फ़ौज समेत फ़ैज़ा- बाद भेज दिया।
मुख्तारद्दौला ने अपनी चालों से बहू बेगम से तो लाखों रुपये वसूल लिए लेकिन जब नवाब की दादी हज़रत पर हाथ साफ़ करने चला तो दादी ने अपने इलाक़े के सारे ज़मींदार और राजाओं को अपने महल के क़रीब इकट्ठा करके उनकी मौजूदगी में कहा--“मुल्क़ अवध मेरे बाप--प्रथम नवाब का है, ये आसफ़ुहौला के बाप का नहीं !”
बात बिलकुल सच और सही थी--अवध का सूबा दिल्ली दरवार की तरफ़ से प्रथम नवाब सआदत खाँ बुरहानुल मुल्क को दिया गया था जो उत्तके बाप थे, फिर ये मसनद उनके हक़ से ही उनके शौहर को मिली जो बाद में उनके बेटे 'शुजाउद्दौला यानी आसफ़ुद्दीला के बाप को मिली।
और तो और, जब नवाब आसफ़्दौला ने अपनी दादी के महल की तरफ़ अपनी बदनीयत फ़ौजों का मुँह मोड़ा तो नवाब बेगम घोड़े की रकाब में पैर रखने को तैयार हो चुकी थीं और उनकी फ़ौज का रिसालदार जवाहर अली खाँ ख्वाजासरा नक्क़ारा बजाने को था" और इसमें कोई शक नही कि सारे सिपाही और रियाया उनकी ही तरफ़दारी करते जिससे नवाब को मुंह की खानी पड़ती लेकिन बीच में हमले हो गये।
बहु बेगम की आँख से आँसू बह निकले । आसफ़ुद्दौला नवाब बेगम का इकलौता बेटा था । बेवा बहू की ममता-भरी इस फ़रियाद पर नवाब बेगम को अपना इरादा बदल देना पड़ा।
Gulab Badi -Faizabad |
४ जून, १७६६ को नमाज़ पढ़ते वक्त नवाब बेगम का इन्तक़ाल हुआ और, फिर फ़ैजाबाद में गुलाब बाड़ी में ही उनको उनके बेटे के पहलू में दफ़्ना दिया गया।
(2)दिल्ली की दौलत बहू बेगम: उनकी हुक्म रानी से फ़ैजाबाद क्या लखनऊ के महल भी थरथराते थे। और तो: और, उनके शौहर नवाब शुजाउद्दौला भी इनके मायके की दौलत से दबते थे ।
नवाब बेगम की बहू अर्थात् शुजाउद्दौला की पटरानी का नाम उमत-उल- ज़हरा था | दिल्ली के वज़ीर ख़ानदान की यह लड़की सन् १७४५ में नवाब: शुजाउद्दौला को ब्याही गई थी । यह शादी दिल्ली में दारा शिकोह के महल मे हुई थी। इस बिन बाप की लड़की को शहनशाहे दिल्ली ने अपनी मुँहबोली-बेटी बता-कर इसे अवध के नवाब से ब्याहा था और उस शादी में लाखों रुपये ख़्चें किये थे ।
ससुराल में उमत-उल-ज़हरा को जनाब आलिया बहू बेगम साहिबा का खिताब मिला। बहू बेगम का रुतबा बेगमाते अवध की क़तार में सबसे ऊँचा माना जाता है । इन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी बड़ी शानो-शौकत और तम्कनत से गुज़ारी ।
Nawab Shuja ud daula |
उनकी हुक्म रानी से फ़ैजाबाद क्या लखनऊ के महल भी थरथराते थे। और तो: और, उनके शौहर नवाब शुजाउद्दौला भी इनके मायके की दौलत से दबते थे ।
चूँकि शुजाउद्दौला बड़े रसिक स्वभाव के आदमी थे, इसलिए उनकी औरत परस्ती पर रोक लगाना बहू बेगम के बस के बाहर की बात थी । हाँ, इनका दबदबा: इतना जरूर था कि शुजाउहौला अगर एक रात भी इनके महल के बाहर गुज़ारना चाहते, तो उसके लिए अच्छा-ख़ासा हरजाना वसूल करती थीं ।
बहू बेगम की शर्ते थी कि जो रात उनके महल के बाहर गुजारी जाय उसकी क़ीमत के ५,००० रुपये सुबह तक उनके सरहाने पहुँचा दिए जाये और ज़ाहिर है कि जुर्माने की इस रक़म से उनकी आमदनी उनकी जागी रो से भी ज़्यादह हो गई थी । जब तक नवाब ने अपने चलन पर क़ाबू किया कि तब तक बहू बेगम सोने के चबूतरे चुनवा चुकी थीं। उनकी ड्योढ़ी का दारोगा बहादुर अली खाँ ख्वाजासरा था जो उनकी जागीर की देखभाल भी करता था।
Nawab Shuja ud daula with Nautch girls |
बहु बेगम के पाँव में पद्म था। दिल्ली से वो इतना मालो जेवर लेकर आई कि फ़ैजाबाद की महलसरा भर गई थी। बक्सर की लड़ाई का जो ख़र्च अंग्रेजों से नवाब से वसूला था उसके बहुत बडे हिस्से की अदायगी तो उन्होंने की ही थी, अपने एकमात्र पुत्न आसफ़ुदौला की भी उन्होंने वक्त पड़ने पर मदद की । माँ-बेटे में हमेशा अनबन रहती थी।
सिर्फ़ चन्द महीनों के लिए वो हर साल आसफ़ुहौला की राजधानी लखनऊ में आकर रहती थीं। इस ज़माने में वो गोमती के किनारे अपने खास महल सुनहरा बुर्ज में ठहरती थीं। उनको जब आसफ़ुद्दौला पहली बार मनाकर फ़ैजाबाद से लखनऊ लाए थे तो इस ८० मील के फ़ासले में वो रास्ते-रास्ते अशरफ़ियाँ लुटाते आये थे ।
बेगम के लखनऊ प्रवास के दिनों में दौलतखाना आसफ़ी से उम्दा खाना बनवाकर सुनहरा बुर्ज भेजा जाता था लेकिन बहू बेगम ने कभी उस सफ़ारी खाते को हाथ नहीं लगाया उसे सिफ़ नौकरों में तक्सीम कर दिया जाता था।
ख़ज़ानए अवध से ४०० रुपये रोज्ञ उनके दस्त रख्वान का खर्च बँधा था जो दरबारी मौलवी उन्हें पहुँचाने जाते थे और ये तब जबकि वो सिफ़ दोपहर में हमेशा एक बार खाना खाती थीं।एक बार इसी बावरचीख़ाने का कुल बकाया हिसाब ८४ हजार रुपये हो गया था जो बाद में फ़ैज्ञाबाद उनके महल पर भेजा गया ।
एक“बार जब आसफ़ुहौला तंगदस्त थे बहु बेगम ने दो बरस तक उनकी फ़ौज को अपने 'पास से तनख्वाह बाँठी थी और भज़ा ये कि यह कुल दौलत उनकी गृड़िया की शादी के दहेज में से निकली थी जो उन्होंने बचपन में की थी और जिसके दहेज 'की खिचड़ी (सोने की मोहरें और चॉँदी के सिक्के) बकसों में भरे रखे थे ।
अवध में माफ हो गए थे सारे टैक्स
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साल तक बीमार रहने के बाद 1775 में 45 साल की उम्र में ही नवाब शुजाउद्दौला
की मौत हो गई, लेकिन नवाब ने अपनी मौत से पहले अपनी सारी जायदाद बहू बेगम के नाम कर दी थी. नवाब की बीमारी के दौरान 6 साल तक बहू बेगम अवध की सत्ता को चलाती रही. इस दौरान बहू बेगम ने अंग्रेजी हुकूमत से जमकर संघर्ष किया. सूबे की आवाम को सहूलियत देते हुए सन 1769 के बाद पूरे अवध में सभी तरह के टैक्स और लगान माफ कर दिए थे. उनके इस फैसले ने उन्हें काफी शोहरत दी.
फैजाबाद में बनवाया अपना मकबरा
इस दौरान उन्होंने फैजाबाद में कई मशहूर इमारतें बनवाईं. इनमें बहू बेगम का मकबरा, दिलकुशा महल, मोती महल जैसी इमारतें शामिल हैं. फैजाबाद यानि अयोध्या में बना बहू बेगम का मकबरा आज भी बेहद मशहूर है. दस्तावेजों के मुताबिक इस मकबरे की नींव नवाब शुजाउद्दौला ने की थी. वो अपनी पत्नी बहु बेगम के लिए मकबरा बनवाना चाहते थे. लेकिन बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गयी. उस समय तक मकबरे का कुछ काम ही पूरा हो पाया था. इसके बाद पति की इच्छा पूरी करने के लिए बहू बेगम ने इस मकबरे का निर्माण कराया.
आज भी कायम है बहु बेगम की शोहरत
8 जनवरी सन् 1815 को फैजाबाद के दिलकुशा महल में बहू बेगम का इंतकाल हो गया. लेकिन अपनी मौत से पहले ही उन्होंने अपने बेटे आसिफउद्दौला को अवध का नवाब बना दिया था. इसके अलावा उन्होंने कई ऐसे बड़े काम किए थे, जिसके कारण उनकी शोहरत सिर्फ फैजाबाद और लखनऊ ही नहीं पूरे देश में पहुंच चुकी थी.
Gulab Badi--Faizabad |
इंसाफ पसंद और अपनी आवाम की भलाई सोचने वाली बहू बेगम के दौर में बनवाई गई कई इमारतें आज भी फैजाबाद में मौजूद हैं. जिन्हें केंद्र सरकार के अधीन संस्था भारतीय पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में ले लिया है. भले ही बहू बेगम के इंतकाल को 200 वर्ष से ज्यादा का वक्त बीत गया हो लेकिन आज भी उनकी शोहरत कम नहीं हुई है. आज भी बड़ी इज्जत के साथ फैजाबाद और लखनऊ के नवाबी घरानों में उनका नाम लिया जाता है.
सन् १८१६ में बादशाह गाज़ीउद्दीन हैदर के शासन काल में बहू बेगम जल्नत- नशीन हुई । फ़ैजाबाद
में गुलाब बाड़ी में उनके ही ट्रस्ट किए गए लाखों रुपयों से “उनका आलीशान मक़बरा बनवाया गया ।
The
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