Tuesday, 19 October 2021

love Story of A Poet: Daagh Dehlvi and Munni Bai.Ghalib yug ke javan Shayar

 दाग का एक शेर

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं

बाइस--तर्क--मुलाक़ात बताते भी नहीं

"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़ का हीं रंग ग़ालिब था।"

मिर्ज़ादाग़को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिमज़ौक़शाही क़फ़समें पड़े हुएतूतिये-हिन्दकहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा--सुख़नमीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिबऔरआतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही।

 

हकीममोमिन शैख़’, ‘नासिख़अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगरदाग़जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई? जागीर मिलने और उच्च पदवियोंसे विभूषित होनेके अतिरिक्त १५०० रू० मासिक वेतन, राजसी ठाट-बाट और नवाब हैदराबाद के उस्ताद होने का महान् गौरव मिर्जा़दाग को प्राप्त था। सच मानिए तो १९वीं शताब्दीका अन्तिम युगदाग़युग था।

 

दाग़ देहलवी Daagh Dehlvi, (जन्म- 25 मई, 1831, दिल्ली; मृत्यु- 1905, हैदराबाद) को उर्दू जगत् में एक शायर के रूप में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है।

छिले हुए दिल से बहे लहू में भीगकर जब कलम चलती है, तो ऐसा शेर और दाग दहेलवी जैसा शायर पैदा होता है। दाग की शायरी में दर्द और नयेपन का ऐसा मिश्रण देखने को मिलता है कि जिसे पढ़ने के बाद काफी समय तो उनमें खोए रहने का मन करता


दाग़ देहलवी का पारिवारिक परिचय

मुग़ल बादशाह शाहआलम, जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी ज़माने में पठानों का एक ख़ानदान समरकंद से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भारत आया था। यह ख़ानदान कुछ महीने तक ज़मीन-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर दिल्ली के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया।

 

इस ख़ानदान की दूसरी पीढ़ी के एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ ने अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाया, जो राजा की और से भरतपुर के राजा के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ ने अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाई थी। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे फ़िरोजपुर और झरका की जागीरें इनाम में दे देता है।

 

दाग़ देहलवी के पिता अहमद बख़्श ख़ाँ की फाँसी

अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी अलवर की मेवातन बीवी से उत्पन्न हुआ था, उसने जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचने लगा। लेकिन उसकी इस साजिश का पता अंग्रेज़ सरकार को लग गया और उसे 1835 . में फाँसी दे दी गई।

 

दाग़ देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता की फाँसी के समय दाग़ देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग़ देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग़ देहलवी अपनी मौसी के जहाँ रहे।

 

दाग़ देहलवी की शिक्षा-दीक्षा लाल क़िले में

कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम ने आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रू से विवाह कर लिया, तब दाग़ देहलवी भी लाल क़िले में रहने लगे।

Mirza Fakhru
 यहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का अच्छा प्रबन्ध हो गया था। दाग़ देहलवी ने लाल क़िले में बारह वर्ष बिताए, लेकिन यह सब विलासिता मिर्ज़ा फ़ख़रू के देहांत के बाद इनके पास नहीं रही।

Last Mughal Emperror-Bahadur Shah Zafar

बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ज़फर की जवान मलिका जीनतमहल की राजनीति ने लाल क़िले में उन्हें रहने नहीं दिया। इस बार उनके साथ उनकी माता वजीर बेगम और साथ ही माता की कुछ जायज़ और नाजायज़ संताने भी थीं। मिर्ज़ा फ़ख़रू से मिर्ज़ा मोहम्मद खुर्शीद के अतिरिक्त, आगा तुराब अली से, जिनके यहाँ वजीर बेगम शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद कुछ दिन छुपी थीं आगा मिर्ज़ा शगिल और जयपुर के एक अंग्रेज़ से भी एक लड़का अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की बादशाह बेगम शामिल थीं।

Begam Zeenat Mahal

दाग़ देहलवी की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी।

उनका एक 'दीवान' 1857 की लूटमार की भेट चढ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ देहलवी के पाँच दीवान 'गुलजारे दाग़', 'महताबे दाग़', 'आफ़ताबे दाग़', 'यादगारे दाग़', 'यादगारे दाग़- भाग-2', जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें, अनेकों मुक्तक, रुबाईयाँ, सलाम मर्सिये आदि शामिल थे, इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी भी 'फरियादे दाग़' के नाम से प्रकाशित हुई।

 

इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाज़ारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों, कव्वालियों, अय्याशियों, अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं, दाग़ के बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे।

 

इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क़ के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी, जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे।

दाग़ का इश्क़: मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक गायिका और तवायफ़ से दाग़ देहलवी का मशहूर इश्क़

दाग़ देहलवी वर्ष 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में लाशों का नज़ारा उन्होंने देखा था। लाल क़िले से निकलकर तिनका-तिनका जोड़कर जो आशियाना उन्होंने बनवाया था, उसे बिखरते हुए भी देखा। अपने दस-बारह साल के कलाम की बर्बादी के वह मात्र एक मजबूर तमाशाई बनकर रह गये थे।

 

क़िले से निकले अभी मुश्किल से आठ-नो महीने ही हुए थे कि इस तबाही ने उन्हें घेर लिया। दिल्ली के हंगामों से गुजर कर दाग़ देहलवी ने रामपुर में पनाह ली। रामपुर से उनका संबंध उनकी मौसी उम्दा बेगम के पति रामपुर के नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ के समय से था।

 

दिल्ली के उजड़ने के बाद रामपुर उन दिनों असीर, अमीर, जहीर, निज़ाम और जलाला जैसे उस्तादों की आवाजों से आबाद था। नवाब शायरों का कद्रदान था। यहाँ दाग़ देहलवी की शायरी भी खूब फली-फूली और उनकी आशिक़ाना तबियत भी।

 

मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक गायिका और तवायफ़ से दाग़ देहलवी का मशहूर इश्क़ इसी माहौल की देन था। उनका यह इश्क़ आशिक़ाना कम और शायराना अथिक था। दाग़ देहलवी उस वक्त आधी सदी से अधिक उम्र जी चुके थे, जबकि मुन्नीबाई हर महफ़िल में जाने-महफ़िल होने का जश्न मना रही थी।

 

अपने इस इश्क़ की दास्ताँ को उन्होंने 'फरयादे दाग़' में मजे के साथ दोहराया है। मुन्नीबाई से दाग़ का यह लगाव जहाँ रंगीन था, वहीं थोड़ा-सा संगीन भी। दाग़ देहलवी उनके हुस्न पर कुर्बान थे और वह नवाब रामपुर के छोटे भाई हैदरअली की दौलत पर मेहरबान थी।

रामपुर में हैदरअली का रक़ीब बनकर दाग़ देहलवी के लिए मुश्किल था। जब इश्क़ ने दाग़ देहलवी को अधिक सताया तो उन्होंने हैदरअली तक अपना पैगाम भिजवा दिया- "दाग़ हिजाब के तीरे नज़र का घायल है।


आप के दिल बहलाने के और भी सामान हैं, लेकिन दाग़ बेचारा हिजाब को पाए तो कहाँ जाए।" नवाब हैदरअली ने दाग़ की इस गुस्ताख़ी को सिर्फ़ क्षमा कर दिया, बल्कि उनके खत का जवाब खुद मुन्नीबाई उन तक लेकर आई। नवाब हैदरअली का जवाब था कि- "दाग़ साहब, आपकी शायरी से ज़्यादा हमें मुन्नीबाई अजीज़ नहीं है।"

 

हैदराबाद गमन: निजाम महबूब अली खान के दरबारी कवि और शिक्षक

मुन्नीबाई एक डेरेदार तवायफ़ थी। उसके पास अभी उम्र की पूंजी भी थी और रूप का ख़ज़ाना भी था। वह घर की चाहर दीवारी में सिमित होकर पचास से आगे निकलती हुई ग़ज़ल का विषय बनकर नहीं रह सकती थी। वह दाग़ देहलवी के पास आई, लेकिन जल्द ही दाग़ को छोड़कर वापस कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के बाज़ार की ज़ीनत बन गयी।

 

नवाब रामपुर कल्बे अली ख़ाँ के देहांत के बाद दाग़ देहलवी रामपुर में अधिक समय तक नहीं रह सके। समय ने फिर से उनसे छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। लाल क़िले से निकलने के पश्चात् चैन की जो चंद साँसे आसमान ने उनके नाम लिखी थी, वह अब पूरी हो रही थीं। वह बुढ़ापे में नए सिरे से मुनासिब ज़मीं-आसमान की तलाश में कई शहरों की धूल छान कर नवाब महबूब अली ख़ाँ के पास हैदराबाद में चले आए।


हैदराबाद में 450 रुपये के मासिक पारिश्रमिक पर निजाम महबूब अली खान के दरबारी कवि और शिक्षक के रूप में नियुक्त होने के बाद बुलबुल-ए-हिंद कहा जाता था, 

हैदराबाद के नवाब के उस्ताद

दाग़ देहलवी अब ढलती उम्र से निकलकर बुढ़ापे की सीमा में दाखिल हो चुके थे। उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। हैदराबाद में दाग़ को पाँव जमाने में साढ़े तीन साल से ज़्यादा का समय लगा। उस जमाने के हैदराबाद के रईस राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी, महाराज किशन प्रसाद शाद ने उनके लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दाग़ देहलवी को रोज़गार की फ़ौरी ज़रुरत थी और नवाब को कोई क़दम उठाने से पहले लंबी छानबीन करने की आदत थी।

यह समय दाग़ देहलवी पर बड़ा भरी पड़ा। वह अपने घर से अलग बुढ़ापे में जवानों की तरह रोज़गार की तलाश में हाथ-पैर मार रहे थे। नवाब और उनके मित्रों की शान में क़सीदे लिख रहे थे। मज़ारों की चौखटों पर दुआएँ मांग रहे थे। दोस्तों की मदद के सहारे उनका समय कट रहा था। जब वक्त ने कई बार परीक्षा लेकर भी उन्हें मायूस होते नहीं देखा तो मजबूरी ने उन्हें नवाब के महल तक पहुँचा दिया और अब वे नवाब के उस्ताद नियुक्त हो गए।

 

हैदराबाद में मुन्नीबाई की वापसी 

दाग़ देहलवी के इस सम्मान की शोहरत ने मुन्नीबाई के दिल में उस ज़माने की यादों को फिर से जगा जगा दिया, जिनको भुलाकर वह अपने किसी साज़िंदे के निकाह में चुकी थी। वह अपने पति से तलाक़ लेकर दाग़ देहलवी के पास हैदराबाद चली आई। 

वह जिस समय हैदराबाद आई थी, उस समय दाग़ देहलवी 72 वर्ष के हो चुके थे और मुन्नीबाई बालों में ख़िज़ाब और मुँह में नकली डाट लगाने लगी थी। लेकिन दाग़ देहलवी की मुँह बोली बेटी और उनके पति साएल देहलवी की अंदरूनी राजनीति के कारण ये मिलन जल्दी ही शको-सुबह का शिकार होकर हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

 

आखरी उम्र में तवायफ़ों का साथ 

दाग़ देहलवी का बुढ़ापा आर्थिक संपन्नता के होते हुए भी आराम से व्यतीत नहीं हुआ। बीवी के देहांत ने उनके अकेलेपन को अधिक गहरा कर दिया था, जिसे बहलाने के लिए वह एक साथ कई तवायफ़ों को नौकर रखे हुए थे।

 

इनमें सहिब्जान, उम्दजान, इलाहिजान, जद्दनबाई, सूरत की अख्तर जान ख़ास थीं। ये सब दाग़ देहलवी के दरबार की मुलाजिम थीं। दाग़ देहलवी से इन तवायफ़ों का रिश्ता शाम की महफ़िलों तक ही था। उनको शायरी के साथ संगीत का भी शौक़ था। ये सब तवायफ़ें अपने दौर की प्रसिद्ध गायिकाएँ भी थीं। दाग़ देहलवी की गज़लों की शौहरत में इन सुरीली आवाज़ों का भी बड़ा योगदान था।

 

निधन

दाग़ देहलवी की अपनी कोई संतान नहीं थी। पत्नी के देहांत के बाद दूर-पास के रिश्तेदार, जिनको दाग़ देहलवी पाल रहे थे, वे उनके घर को आपसी मतभेद का महाभारत बनाये हुए थे। सबकी नज़रें केवल मौत की और बढ़ते हुए दाग़ देहलवी के बुढ़ापे पर थी। हैदराबाद में ही 71-72 वर्ष की उम्र में उनका वर्ष 1905 में निधन हो गया। 

इश्क़ के हर रंग को शायरी से रंगने वाले दाग़ देहलवी के ये हैं 10 मशहूर शेर

(1)कोई नामो-निशां पूछे तो क़ासिद बता देना

  तख़ल्लुस दाग़ है और आशिकों के दिल में रहते हैं

 

(2)तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को

  दूसरा कोई तो अपना सा दिखा दो मुझ को

 

(3)तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

   न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

 

(4)उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं

  बाएसे तर्के मुलाक़ात, बताते भी नहीं

 

(5)खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं

  साफ छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं

 

(6)देख के मुझको महफिल में ये इरशाद हुआ

   कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं

 

(7)गश खाके दाग़ यार के कदमों पर गिर पड़ा

   बेहोश ने भी काम किया होशियार का

 

(8)ज़ीस्त से तंग हो दाग़ तो जीते क्युं हो

  जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

 

(9)रुखे रोशन के आगे शमअ़ रख वोह यह कहते हैं

  ‘उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है? `

 

(10)तुम्हारा दिल मेरे दिल जैसा हो नहीं सकता,

     ये पत्थर हो नहीं सकता, वो शीशा हो नहीं सकता.

                                                      The End 

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Thursday, 14 October 2021

Sip Hot Tea in Graveyard- Café on Qabristan-Lucky Tea Stall in Ahmadabad

Sip a cup of tea sitting around graves, some 25 of them.

If you think the idea is too weird to be realized, enter in “New Lecky’s Tea Stall”, located opposite the Sidi Saiyyad masjid in the crowded Lal Darwaza area of Ahmadabad. People have been enjoying tea in the company of graves for well over 60 years.

 

The world’s first café made around the cemetery “Lucky restaurant” of Ahmedabad is a small café build around graves and coffins but the speedy service will not make you wait long. The café was even showcased in one of the episodes of “OMG-Yeh Mera India”, a TV show on the history tv18 channel. This innovative theme of dining with the dead is appreciated worldwide.

One has to be lucky to find an empty table at this restaurant as it’s always crowded with people from all walks of life. Iconic tea shop has become a humble citadel linking Ahmedabad’s past and future. A tree growing through a restaurant – another attraction.

Sipping a cup of tea or coffee with maska bun (a butter bun with the option of fruit jam) that we would have sitting amidst graves? You might want to follow it up with some sumptuous south Indian cuisine, or maybe some ice cream, shakes or plain fruit juice.

The New Lucky Restaurant features 25 graves, and has been a popular local hangout for over 60 years, many of them hundreds of years old. Every morning, the graves are cleaned, and fresh flowers are offered as a mark of tribute to them.

Instead of moving the graves, the owner decided to simply build his restaurant around them, scattering tables next to graves. The graves are separated from diners by white metal fences, and are cleaned and adorned with fresh flowers daily.

History of “New Lucky restaurant”

Following India’s independence, when unoccupied plots were merged with the city for the development, an ancient graveyard was bought by two young men—K.H Mohammad and Krishnan Kutti Nair.

They started a tea stall as a handcart under a neem tree next to the graveyard. Besides tea, they also sold creamy buns commonly known as ‘maska buns‘.

Even undergoing renovation in 1992. The stall currently runs two units one for their famous chai and bun maska, and the other selling both south and north Indian dishes like idlis and dosa, and an array of sandwiches, pulaos and parathas.

The graves are believed to be of the immediate family members of Pir Saiyyed Sultan Kabir Uddin Sahib, a Sufi saint whose small shrine is right next to the shop.

 

The graves are well-maintained; covered with glossy shawls (chadar), they are enclosed in steel cases, to protect them from the many customers who flock to the restaurant.

 

K.H Mohammed is no longer alive to explain his choice of the restaurants bewildering location a “Graveyard”.

 

Famous painter MF Husain frequented the restaurant during his stay in Ahmedabad

The restaurant’s most famous customer was late artist MF Husain, who also gifted a painting to Mohammed. He had reportedly made a painting frame 3 x 3 Ft, while having tea and maska bun at the restaurant in 1994 and gifted it to the restaurant owner. M F Husain was a dear friend of the owner and would always stop by for chai and bun maska whenever he was in town.

The painting still adorns the restaurant and is hung on its wall. The painting depicts two camels and a castle-like construction in the foreground and a desert in the backdrop. It says: “There is only one God, and he is Allah, and Mohammad is his prophet.” I think Husain must have found Lucky Tea Stall like an oasis of peace."

 

Who would have thought that such an ordinary tea shop could hold such mystery?  Oh yes, this is Incredible India!

The End

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Thursday, 7 October 2021

Logo of IIM(A):Inspired By Latticework of Sidi Saiyyad Masjid of Ahmadabad.

The famous ‘Logo of IIM-Ahmadabad’ is inspired by Jaali (Lattice works) on window of Sidi Sayyad Masjid of Ahmadabad.

Lattice work (Jaali's of Sidi Sayyad Masjid of Ahmadabad

This write up is a part of my travelogue of Ahmadabad. We were staying in  a hotel near Laldarwaza.It was first day, while roaming on streets of Ahmadabad, suddenly my ears catched  a call of Azaan (call for prayer) ”Hayya‘alas-Salah,Hayya ‘alal-Falah”, (Come to Prayer, Come to success).

 

A call of prayer ,mean there is a masjid near by. I enquired off “is there is any Masjid nearby”. A streat vendor told me the location of masjid.   

This Latticework of Sidi Saiyyad Masjid is Logo of IIM-Ahmadabad

Located on a very busy street in the Lal Darwaza area of Ahmedabad, Amidst honking buses, speeding scooters and screeching cars, it stands still and calm at the eastern end of the Nehru Bridge.  the Sidi Saiyyad Masjid a small masjid that, at first glance, does not seem to offer anything extraordinary. If you look closely, though, you will notice the fine lattice windows of the masjid.

A busy road of Ahmadabad

Sidi Saiyyad Masjid is perhaps one of the most well-known Masjid of Ahmedabad, and it's famous ‘Tree of Life Jaali’ or latticework done on the semi-circular arch-windows has come to symbolize the city and its grandeur.

 

Entrance is from the front of Busy road side. This entrance opens in a forecourt, which consists of a wazoo khana (a small pond for ablutions) on the left, a few graves by the sides, and straight past it, two steps lead to the main prayer hall.

Lattice works of Sidi Saiyyad Masjid-Ahmadabad

The prayer hall is characterized by high arcuated arches supporting a flat roof on top. The jaalis on either side of the central aisle appear on the Qibla wall (the western  wall facing Mecca) and are single-stone slabs carved in floral designs of intertwined trees and foliage and a Date tree keynote.

 

The famous ‘Tree of life Jali’ or the latticework Done the Semi-Circular Arch.

Of the 10 lattice windows, the one with the ‘Tree of Life’ is the most popular and is known as ‘Sidi Saiyyad ni jaali‘.

Latticework beauty from inside of Sidi Saiyyad Masjid

It is this design that has come to be recognized as symbolizing Ahmedabad, what you will find on tourism brochures and websites about the city. The logo of the Indian Institute of Ahmedabad (IIM-A), one of the country’s premier management institutions, has been inspired by this particular lattice window.

 

Who Was Sidi Saiyyad?

The masjid was built in 1572-73 AD by a learned Abyssinian called Sidi Saiyyad. Sidi is what Guajarati's called Abyssinian slaves.They came from all over Africa. Different countries like, Yemen, Eritrea, Ethiopia, Somalia, Egypt, Kenya, Sudan, Tanzania, Malawi and more). Saiyyad is an Arabic honorific title. So this was probably not his real name.

 

Sidi Saiyyad was in the service of Rumi Khan, the second son of Khudavand Khan Khwaja Safar Salmani, the governor of Surat in the reign of the 10th Sultan of Gujarat Sultan Nassir-ud-Din Mahmud III.

Sidi Saiyyad Masjid from inside 

The Mughals under Akbar ended the Gujarat Sultanate. They added this territory to their massive footprint in India.

 

Sidi Saiyyad later joined the personal aides of Bilal Jhujhar Khan, the famous Abyssinian general in the army of the last Sultan of Gujarat.

 

He was also a learned man with a valuable library. Sidi Saiyyad is known as a hero in the history of the Sidi's.   He helped the poor by providing them with food and shelter. He died in 1576 and his tomb lies near the north wall of the compound.

The famous Jaali's or the latticework on window of Sidi Saiyyad Masjid

The masjid is entirely arcuate and is known for its ten intricately carved stone latticework windows (jalis) on the side and rear arches. The rear wall is filled with square stone pierced panels in geometrical designs. 

Indian Institute of Management -Ahmadabad

They make for a breathtaking sight when the sunlight filters through the lattice, with the foliage of trees in the background.

The two bays flanking the central aisle have reticulated stone slabs carved in designs of intertwined trees and foliage and a palm theme.

 

This intricately carved lattice stone window is the Sidi Saiyyad Jali, the unofficial symbol of city of Ahmedabad and the inspiration for the design of the logo of the Indian Institute of Management Ahmedabad.

 

Today one of Jaali depicting the Tree of Life has become a distinguished symbol of the city of Ahmedabad. The same Jali has also been abstracted for the logo to IIM Ahmedabad. 

The central window arch of the masjid, where one would expect to see another intricate jaali, is instead walled with stone. This is possibly because the masjid was not completed according to plan before the Mughals invaded Gujarat.

 

The Sidi Saiyyad Masjid is built with yellow sandstone in Indo-Islamic style of architecture.

The End