Friday, 27 August 2021

Kitne Pakistan. A Story By Kamleshwar… कितने पाकिस्तान:--कमलेश्वर की एक कहानी

कितना लम्बा सफर है! और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हंसती है...पर मैं जानता हूं, तेरी इस हंसी में जहर बुझे तीर हैं। यह मेहंदी के फूल नहीं हैं सलीमा, जो सिर्फ हवा के साथ महकते हैं।


हवा ! हंसी आती है इस हवा को सोचकर। तूने ही तो कहा था कि मुझे हवा लग गयी है। याद है उन दिनों की?

तुम्हें सब याद है। औरतें कुछ नहीं भूलतीं, सिर्फ जाहिर करती हैं कि भूल गयी हैं। वे ऐसा करें तो जीना मुश्किल हो जाए। तुम्हें औरत या सलीमा कहते भी मुझे अटपटा लगता है।

 


बन्नो कहने को दिल करता है। वही बन्नो जो मेहंदी के फूलों की खुशबू मिली रहती थी। जब मेरी नाक के पास मेहंदी के फूल लाकर तुम मुंह से उन्हें फूंका करती थीं कि महक उड़ने लगे और कहा करती थीं''इनकी महक तभी उड़ती है जब हवा चलती है...''

 

सच पूछो तो मुझे वही हवा लग गयी। वही हवा, बन्नो! पर अब तुम्हें बन्नो कहते मन झिझकता है। पता नहीं खुद तुम्हें यह नाम बर्दाश्त होगा या नहीं। और अब इस नाम में रखा भी क्या है।

 

मेरा मन हुआ था कि उस रात मैं सीढ़ियों से फिर ऊपर चढ़ जाऊं और तुमसे कुछ पूछूं ,कुछ याद दिलाऊं। पर ऐसा क्या था जो तुम्हें याद नहीं होगा!

 

ओफ! मालूम नहीं कितने पाकिस्तान बन गये एक पाकिस्तान बनने के साथ-साथ। कहां-कहां, कैसे-कैसे, सब बातें उलझकर रह गयी। सुलझा तो कुछ भी नहीं।

 

वह रात भी वैसी ही थी। पता नहीं पिछवाड़े का पीपल बोला था या बदरू मियां''कादिर मिया/!...बन गया साला पाकिस्तान...भैयन, अब बन गया पूरा पाकिस्तान...''

 

कितनी डरावनी थी वह चांदनी रात नीचे आंगन में तुम्हीं पड़ी थीं बन्नो...चांदनी में दूध-नहायी और पिछवाड़े पीपल खड़खड़ा रहा था और बदरू मियां की आवांज जैसे पाताल से रही थी''कादिर मियां!...बन गया साला पाकिस्तान...''

 

दोस्त! इस लम्बे सफर के तीन पड़ाव हैं पहला, जब मुझे बन्नो के मेहंदी के फूलों की हवा लग गयी थी, दूसरा जब इस चांदनी रात में मैंने पहली बार बन्नो को नंगा देखा था और तीसरा तब, जब उस कमरे की चौखट पर बन्नो हाथ रखे खड़ी थी और पूछ रही थी''और है कोई?''

हां था। कोई और भी था।...कोई।

 

बन्नो, एक थरथराते अन्धे क्षण के बाद हंसी क्यों थीं? मैंने क्या बिगाड़ा था तेरा ! तू किससे बदला ले रही थी? मुझसे? मुनीर से? या पाकिस्तान से? या किसे जलील कर रही थी मुझे, अपने को, मुनीर को या...


पाकिस्तान हमारे बीच बार-बार जाता है। यह हमारे या तुम्हारे लिए कोई मुल्क नहीं है, एक दुखद सचाई का नाम है। वह चीज या वजह जो हमें ज्यादा दूर करती है, जो हमारी बातों के बीच एक सन्नाटे की तरह जाती है। जो तुम्हारे घरवालों, रिश्तेदारों या धर्मवालों के प्रति दूसरों के एहसास की गहराई को उथला कर देती है।

 

तब उन दूसरों को उनके इस कोई के दुख उतने बड़े नहीं लगते जितने वे होते हैं, उनकी खुशी उतनी खुशी नहीं लगती जितनी वह होती है। कहीं कुछ कम हो जाता है। एहसास की कुछ ऐसी ही गयी कमी का नाम शायद पाकिस्तान है यानी मेहंदी के फूल हों, पर हवा चले, या कोई फूँक मारकर उनमें गन्ध पैदा करे। जैसे कि फूल हों, रंग हो। रंग हो गन्ध हो। गन्ध हो, हवा हो। यानी एहसास की रुकी हुई हवा ही पाकिस्तान हो।

 

सुनो, अगर ऐसा होता तो मुझे चुनार छोड़कर दरवेश क्यों बनना पड़ता? वही चुनार जहां मेहंदी फूलती थी। मिशन स्कूल के अहाते के पास जहां से हम गंगा घाट के पीपल तले आते थे और राजा भरथरी के किले की टूटी दीवार पर बैठकर इमलियां खाया करते थे।

 

वह शाम मुझे अच्छी तरह याद है जब कम्पाउंडर जामिन अली ने आकर दादा से कहा था''और तो कुछ नहीं है, पर लोग मानेंगे नहीं। मंगल को कुछ दिनों के लिए कहीं बांजार भेज दीजिए। यहां रहेगा तो बन्नो वाली बात बार-बार उखड़ेगी। शादी तो नहीं हो पाएगी, दंगा हो जाएगा।''

 

तुम नहीं सोच सकते कि सुनकर मुझपर क्या बीती थी! चुनार छोड़ दूं ,फिर छूट ही गया...कैसी होती थीं चुनार की रातें...गंगा का पानी। काशी जाती नावें। भरथरी के किले की सूनी दीवारें और गंगा के किनारे चुंगी की वह कोठरी जिसमें छप्पर में बैठकर मैं बन्नो के आने-जाने का अन्दांज लगाया करता था।

 

नालियों की धार से फटी जमीन वाली वे गलियां जिनसे बन्नो बार-बार गंगा-किनारे आने की कोशिश करती थी और नहीं पाती थी। इन्तंजार...इन्तंजार...

 

हमें तो यह भी पता नहीं चला था कि कब हम बड़े मान लिये गये थे। कब हमारा सहज मिलना-जुलना एकाएक बड़ी-बड़ी बातों को बायस बन गया था।बस्ती में तनाव पैदा हो जाएगा, इसका तो अन्दाज तक नहीं था। यह कैसे और क्यों हुआ, बन्नो? पर तुम्हें भी क्या मालूम होगा। फिर हमने बात ही कहां की?

 

तीनों पड़ाव ऐसे ही गुजर गये कहीं रुककर हम बात भी नहीं कर पाए। तब, जब मेहंदी के फूलों की हवा लगी थी; तब, जब उस चांदनी रात में तुम्हें पहली बार नंगा देखा था; और तब, जब चौखट पर हाथ रखे तुम पूछ रही थींऔर है कोई!

 

मेहंदी के फूल

चुनार! मेरा घर, तुम्हारा घर! मेरे घर से गुजरती थी ईंटोंवाली गली जो शहर-बांजार को जाती थी। जो गंगा के किनारे-किनारे चलकर भरथरी महाराज के किले के बड़े फाटक तक पहुँचती थी।


जहां से सड़क किले की ओर मुड़ती थी, वहीं थी चुंगी। गंगा-घाट पर लगने वाली नावों से उतरे सामान पर महसूल लगता था। मछली, केंकड़े, कछुए आते थे, मौसम में उस पार से आम भी आते थे। चुंगी वाले मुंशीजी दिन-भर रामनाम जपते और महसूल के बदले में जिंस लेते रहते थे। वे दिन में दस बार पीपल तले के महादेव को गंगाजल चढ़ाते थे और छप्पर में बैठकर तीन-चार लड़कों को पढ़ाया करते थे।

 

चुंगी के पास कोहनी जैसा मोड़ था, बाई तरफ खरंजों की सड़क किले को जाती थी, दाई तरफ से आकर जो सड़क मिलती थी, वह कच्ची थी। उस कच्ची सड़क पर नालियों ने रास्ते बना लिए थे, जिनका पानी गंगाघाट की रेत में सूखता रहता। इसी कच्ची सड़क पर कई गलियां नालियों के साथ-साथ उतरती थींबहते पानी से कटी-फटी गलियां! यही गलियां बन्नो की गलियां थीं।

 

जहां बन्नो की गलियां खत्म होती थीं, वहां से पथरीली सड़क मिशन स्कूल तक जाती थी जो अंग्रेजों की पुरानी कोठी थी। यहीं पर थी मेहंदी की बाड़ और धतूरों का मैदान।

 

इस धतूरे के मैदान ने मुझे बड़ा दुख दिया था। जब बस्ती में मुझे और बन्नो को लेकर तनाव पैदा हो गया था तो एक बार बन्नो जैसे-तैसे चुंगी तक आयी और बोली थी''मौलवी साहब के साथ वाले अगर ज्यादा बदमाशी देंगे मंगल, तो मैं धतूरे खाकर सो जाऊंगी। तुम शहर छोड़कर मत जाना .तुमने शहर छोड़ा तो गंगाजी यहां हैं, सोच लेना...''

 

ज्यादा बात नहीं हो पाई थी। वह चली गयी थी। मैं कुछ बता भी नहीं पाया था कि मेरे घर में क्या कोहराम मचा हुआ है, कि कैसे रोज बांजार में दादा जी को वे लोग धमकियां दे रहे थे जिन्हें वे पहचानते तक नहीं थे। सभी को डर था कि कहीं किसी दिन मेरी हत्या कर दी जाए या रात-बिरात कहीं मुसलमान घर में घुस पड़ें।

 

पाकिस्तान तो बन चुका था बन्नो, उसके बाद भी तुम्हारे अब्बा भरथरीनामा लिख रहे थे

माता जी पिछले तप से नृप बना, अब नृप से बनूं फकीर।

आंखिर वंक्त वंफात के, हर होंगे दिलगीर॥

तेरे अपनी खल्क सुपुर्द करी उनके सिर पर सर गरदान किया।

बर्बाद सब सल्तनत करी बन जोगी मुल्क वीरान किया।

 

लोग कहते थे ड्रिल मास्टर का दिमांग बिगड़ गया है जो भरथरी-नामा लिख रहे हैं। यह तुरक नहीं है, यहीं का कोई काछी-कहार है। तभी हमें पता चला था कि मुसलमान वही है जो ईरानी-तूरानी है, यहां का मुसलमान भी मुसलमान नहीं है...ड्रिल मास्टर साहब को सबने अलग-सा कर दिया था, पर उन्हीं की बन्नो की बात लेकर सब खड़े हो गये थे। जैसे वे ज्यादा बड़े सरपरस्त थे।

 

तुम्हें नहीं मालूम, पर मुझे मालूम है बन्नो, ड्रिल मास्टर साहब ने कुछ भी नहीं कहा था, इसके सिवा कि जो मौलवी साहब और बाकी लोग ठीक समझें, वही ठीक होगा। वे खुद कुछ सोच ही नहीं पा रहे थे। एक दिन छिपकर आये थे और दादाजी के पास रो पडे थे।

Kamleshwar

उस दिन के बाद वे भरथरीनामा तो लिखते रहे थे पर किसी को सुनाने की हिम्मत नहीं करते थे। वे लिखते रहे, इसका पता मुझे वक्त मिला था जब घरवालों की घबराहट और खुद कुछ समझे पाने, तय कर पाने के कारण मैं शहर छोड़ रहा था और चुंगी वाले मुंशीजी ने मुझे चुपचाप विदाई देते-देते एक पुरजा मेरे पसीने से तर हाथ में थमा दिया था।

 

वह रात बहुत डरावनी थी। बस्ती पर काल मंडरा रहा था। सब दहशत के मारे हुए थे। पता नहीं कब क्या हो जाए। कब 'या अली, या अली' की आवांजें उठने लगें और खूनंखराबा हो जाए। गंगा भी उस दिन घहरा रही थी। तट का पीपल भी अशान्त था। बहुत तेज हवा थी।

 

किला सायं-सायं कर रहा था और पांच-सात हिन्दुओं के साथ हां, कहना पड़ता है बन्नो, हिन्दुओं के साथदादा मुझे स्टेशन छोड़ने रहे थे ताकि मैं जिऊं-जागूं...कहीं भी परदेस में रहकर। पहले सोचा गया कि मामा के यहां जौनपुर चला जाऊं और वहां रेलवे वर्कशाप, कुर्ला, में काम कर रहे मौसा के पास रहूं वहीं नौकरी ढूंढ़ लूं।

 

कैसी थी वह रात, बन्नो ! और कितना बेइंज्जत होकर मैं निकल रहा था। दिमांग में हजारों हथौड़े बज रहे थे। एक मन करता था कि लौट पडूं, घर से गंडासा उठाऊं और तुम्हारे 'उन मुसलमानों' पर टूट पडूं। खून की होली खेलकर तुम्हें जीतूं और जीत पाऊं तो तुम्हें भी मारकर गंगा में जल-समाधि ले लूं।

 

पर कहीं दहशत भी होता था और यह खयाल भी आता था कि ड्रिल मास्टर साहब ने तो कुछ भी नहीं कहा है। मुंखालंफत भी नहीं कि है...सिवा इसके कि वे चुप रह गये हैं, उन्हें भरथरीनामा लिखना है। अब लगता है कि वे भरथरीनामा लिख रहे होते तो शायद इतना विरोध होता...

 

शहर को साँप सूंघ गया था। दादा को बता दिया था कि अगली सुबह मेरी शक्ल दिखाई दे। आधी रात तक सोचना-विचारना चलता रहा, फिर आखिरी गाड़ी रह गयी थी पार्सल, जो मुगलराय जाती थी।

 

हां, पांच-सात हिन्दुओं के साथ मुझे स्टेशन तक पहुंचाया गया। हम बांजार वाली सड़क से भी नहीं आये। किले वाले सुनसान रास्ते से स्टेशन की सड़क पकड़ी थी। मुंशी जी लालटेन लिए पक्की सड़क तक आये थे। और तभी वह पुरजा उन्होंने पसीजी हथेली में थमा दिया था।

 

वहां तो रोशनी थी नहीं। स्टेशन पर सब साथ थे। पार्सल ढाई बजे रात को छूटी थी। दादा जी कितने परेशान-बेहाल थे। सब बहुत डरे हुए, अपमानित, और शायद इसीलिए बहुत खूंख्वार भी हो रहे थे। लग रहा था कि मुझे शहर से हटा देने के बाद दंगा जरूर होगा। अब ये लौटकर जाने वाले हिन्दू दंगा करेंगे। ढलती रात में ये सोते हुए मुसलमानों को चीर-फाड़ डालेंगे। हिन्दू का हिन्दू होना भी कितना तकलींफदेह हैं बन्नो...यह होते ही कुछ कीमती घट जाता है।

 

बहुत तकलींफदेह थी वह विदाई। उतरती रात की हवा में खुनकी थी और स्टेशन पर पत्थर का फर्श काफी ठंडा था। सामने विंध्या की पहाड़ियां और ताड़ के पेड़ चुपचाप खड़े थे।

 

अब तुम्हें क्या बताऊं...क्या कभी सोचा था कि इस तरह मेरा घर छूट जाएगा? अपने शहर से बेइज्जत होकर कोई कहीं भी चैन नहीं पाता। मुझे वे गलियां याद रही थीं जिनमें बन्नो आने की कोशिश करती थी। मैं चुंगी पर बैठकर कितनी प्रतीक्षा करता था और जहां मेहंदी के फूल पड़े दिखाई देते थे, समझ लेता था कि बन्नो यहां तक पायी है। आगे नहीं बढ़ पायी। किसीने देख लिया होगा, टोका होगा या रोका होगा।

 

सच कहता हूं तुमसे, उसी दिन से एक पाकिस्तान मेरे सीने में शमशीर की तरह उतर गया था। लोगों के नाम बदल या अधूरे रह गये थे। बस्ती में हवा का बहना बन्द हो गया था। और लगा था कि बन्नो घिर गयी है। शर्म, डर, गुस्सा, आंसू, खून, बदहवासी, पागलपन, प्यारक्या-क्या उबल-धधक रहा था मेरे भीतर। सच कहूं तो यह सब होने के बाद अगर बन्नो मिल भी जाती तो कुछ नहीं होता। जो होना था, हो चुका था।

 

पार्सल गाड़ी में बैठकर वह पुरजा पढ़ा था। तुम्हारे पास वही कहने को था जो मास्टर साहब के पास था। उसी पुरजे से पता चला कि मास्टर साहब भरथरीनामा लिखते जा रहे हैं।

क्यों बनता दरवेश छोड़ दल लश्कर फौज रिसाले को।

क्यों बनखंड में रहता है तज गुल नरगिस गुललाले को॥

क्यों भगवा वेष बनाता है तज अतलस शाल दुशाले को।

क्यों दर-दर अलख जगाता है तज कामरु ढाके बंगाले को॥

क्यों हुआ सैदाई! छोड़ सब बादशाही॥

 

हां...सैदाई ही कह लो...अतलस शाल-दुशाले और नरगिस गुले लाला सब कुछ तो था सचमुच। नीम, आक, मेहंदी और धतूरे के फूल किस नरगिस से कम थे, बन्नो? पर उस पाकिस्तान का हम क्या करते?

 

गाड़ी चली आयी और मैं सचमुच दरवेश हो गया। फिर कभी घर लौटने का मोह नहीं हुआ।

 

मैं जानता था कि मास्टर साहब की सांस भी चुनार में घुट रही होगी। बन्नो की सांसों का कुछ पता नहीं था। बस, इतना-भर लगता था कि उसने गंगा में डूबकर जान नहीं दी होगी। वह होगी। रातों में किसी का बिस्तरा गर्म करती होगी। प्यार करती होगी।

 

मार खाती होगी। जिनह को बर्दाश्त करती होगी। बीबी की तरह पूरी ईमानदारी से मन्नतें मानती होगी, मेहंदी रचाती होगी। बच्चों का गू-मूत करती होगी। सुखी होगी, पछताती होगी। सब भूल गयी होगी। जो नहीं भूल पायी होगीवह रुका हुआ वक्त उसका पाकिस्तान बन गया होगा। उसे सताने के लिए...

 

खैर बन्नो...जो हुआ सो हो गया। मैं मुगलसराय से इलाहाबाद आया और इलाहाबाद से बम्बई। कुर्ला की रेलवे वर्कशाप में मौसा ने कुछ काम दिला दिया। कुछ दिन वहीं गुजारे...फिर मै पूना चला गया। अस्पताल की लिंब फैक्टरी में, जहां लकड़ी के हाथ-पैर बनते हैं। मुझे मालूम था कि अब कोई भी चुनार नाम की जगह में जी नहीं पाएगा मेरा घर, तुम्हारा घर। पर यह पता नहीं था कि दादा इतनी दूर चले आएंगे और साथ में कई घरों को लेते आएंगे।

 

सच पूछो तो चुनार में रह ही क्या गया था? जब पाकिस्तान बन जाता है तो आदमी आधा रह जाता है। फसलें तबाह हो जाती हैं। गलियां सिकुड़ जाती हैं और आसमान कट-फट जाता है। बादल रीत जाते हैं और हवाएं नहीं चलतीं, वे कैद हो जाती हैं।

 

दादा के खत से मालूम हुआ था, कई वर्ष बाद, कि कुछ घर जुलाहों-बढ़ई के साथ लेकर वे फसलों, गलियों, आसमान, बादल और हवा की तलाश में निकल पड़े थे और भिवंडी गये थे। यह नहीं मालूम था कि बन्नो का घर भी साथ आया था।

 

ड्रिल मास्टर क्या करते आकर? यह मैंने भी सोचा था। दादा का आना तो ठीक था। वे सूती कपड़े का व्यापार करते थे। आठ घर मुसलमान जुलाहों, दो घर हिन्दू बढ़इयों को लेकर वे भिवंडी गये थे। पता नहीं शुरू-शुरू में उन्हें क्या परेशानी हुई।

 

बन्नो, तुम्हारे बारे में मुझे तब पता चला जब दादा एक बार मुझसे पूना मिलने आये। तब बहुत मामूली तरह से उन्होंने बताया था कि ड्रिल मास्टर साहब का घर भी आया है। उन्हें भिवंडी स्कूल में जगह मिल गयी है और यह भी कि उन्होंने बन्नो की शादी कर दी है। दामाद वहीं उनके साथ वाले मुहल्ले में रहता है, करधे चलाता है। रेशम का बढ़िया कारीगर है।

जिस तरह दादा ने यह खबर दी थी, उससे लग रहा था कि वे जान-बूझकर इसे मामूली बना देने की कोशिश कर रहे थे।

 

लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था बन्नो, कि बाजे मुहल्ले में दादा और तुम्हारा घर एक ही है कि ऊपर वे रहते हैं और तुम लोग नीचे। बाकी लोग बंगालपुरा और नई बस्ती में हैं। शायद मास्टर साहब पिछले पछतावे को भूल सकने के लिए ही ऐसा कर बैठे हों। मन तो बहुत हुआ कि जल्दी से जल्दी चलकर तुम्हें देख आऊं पर सच पूछो तो मन उखड़ा हुआ था।

 

यह सब सुनकर और भी उखड़ गया था कि तुम भी वहीं हो और शादीशुदा हो। और फिर बातों-बातों में दादाजी ने घुमा-फिराकर यह भी कह दिया था कि मैं भिवंडी आऊं तो बेहतर है क्योंकि उन्हें मास्टर साहब का खयाल था। वे जानते थे कि मास्टर साहब ने कुछ नहीं किया था, और दादा जी उन्हें मेरी उपस्थिति से दु:खी या जलील नहीं करना चाहते थे। कितनी अजीब स्थिति थी यह...क्या यह नहीं हो सकता था कि घर ऐसा ही रहता और इसमें रहने को मुझे भी जगह मिलती?

 

मन में तरह-तरह के खयाल आते थे ,दबा हुआ गुस्सा कहीं फूट पड़ा तो?

 

अगर मेरे भीतर का धधकता हुआ पाकिस्तान फट पड़ा तो? अगर मैंने तुम्हारे आदमी को तुम्हारे साथ सोने दिया तो? अगर भिवंडी से उसे भी मैं उसी तरह निकाल सका, जैसे, कि कभी मैं निकाला गया था, तो? किसी रात मैं बर्दाश्त कर पाया और तुम्हारे कमरे में घुस पड़ा तो?

 

मुझे मालूम है, दादा और मास्टर साहब दोनों एक-दूसरे को अपने मासूम होने का भरोसा दे रहे थे। पर मेरे पास क्या भरोसा था? उनका क्या बिगड़ा था ! बिगड़ा तो मेरा था। मैं तभी से एक नकाब लगाये घूम रहा था। हाथों में दस्ताने पहने और कमर में खंजर दबाये।

 

लेकिन बन्नो, भिवंडी में भी दंगा हो गया। मेरी-तुम्हारी वजह से नहीं उसी एहसास की कमी की वजह से। सुना तो मैं सन्न रह गया। पता नहीं अब क्या हुआ होगा? पांच बरस पहले तो मैं वजह हो सकता था, पर अब तो मैं वहां नहीं था। गया तक नहीं था। इसी वजह से कि तुम दिखाई दोगी और मैं दंगा शुरू कर दूंगा।

 

पर तुम मुझे दिखाई दीं तो इस हालत में।

रात चांदनी थी और बन्नो नंगी थी।

 

मैं जब भिवंडी पहुंचा तो दंगा खत्म हुए दस-बारह दिन हो चुके थे। घुसते ही बस्ती में जगह-जगह काले चकते दिखाई पड़ते थे। कुछ घर, फिर एक काला मैदान, फिर मकानों-घरों का एक सहमा हुआ झुंड और उसके बाद फिर एक काला मैदान। उड़ती हुई राख। आग और अंगारों की महक अब नहीं थी। पर राख की एक अलग महक होती है, बुझे हुए शोरे जैसी। कुछ तेंज खरैंदीजो नथुनों से होकर भीतर तक काट करती है।

 

सुनो, तुमने भी इस महक को जरूर महसूस किया होगा। ऐसा कौन है इस देश में जो राख की महक को पहचानता हो। जब मैं एस. टी. स्टैंड (बस-अड्डे) पर उतरा, शाम हो रही थी। गश्ल से जो दहशत होता है वैसा कुछ नहीं था। वहां, जहां पर सिनेमा के पोस्टर लगे हुए हैं, दो-तीन पुलिसवाले बतियाते खड़े थे। बसें ंज्यादातर खाली थीं। वे चुपचाप खड़ी थीं। संगमनेर, अलीबाग, भीरवाड़ा या सिन्नर जानेवाली बसों की तो बात ही क्या, शिर्डी जाने वाला भी कोई नहीं था।

 


बस-अड्डे की टीन तले चार-पांच पुलिसवाले और दिखाई दिए, खानाबदोशों की तरह छोटी-सी गृहस्थी जमाये हुए। अगर उनकी बन्दूकें गन्नों के ढेर की तरह जमा होतीं तो शायद यह भी नहीं मालूम पड़ता कि वे पुलिसवाले हैं।

 

दोनों सड़कें खाली थीं। डाकबंगले में जहां कलक्टर डेरा डाले पडे थे, कुछेक लोग चल-फिर रहे थे। थाना कल्याण जाने वाली टैक्सियां भी नहीं थीं।

 

दंगाग्रस्त इलाकों से गुजरना कैसा लगता है, शायद इसका भी अन्दांज तुम्हें हो, मुझे बहुत नहीं था। एक खास किस्म का सन्नाटा...या टपकन। वीरान रास्ते और साफ-साफ दिखाई देनेवाले खालीपन। कोई देखकर भी नहीं देखता। देखता है तो गौर से देखता है पर बिना किसी इनसानी रिश्ते के। यह क्यों हो जाता है? एहसास इतना क्यों मर जाता है? या कि भरोसा इतना ज्यादा टूट जाता है।

 

इतने छोटे-से कस्बे में बाजे मोहल्ले का पता पूछना भी दुश्वार हो गया। खैर, जैसे-तैसे मोहल्ला मिला। घर भी मिला पर उसमें सन्नाटा छाया हुआ था। हिन्दुओं ने यह क्या कर डाला थाक्या इतने सन्नाटे में कोई इनसान रह सकता है।

 

मुझे मालूम था बन्नो, ड्रिल मास्टर साहब, तुम्हारा शौहर मुनीर सब यहीं होंगे। मेरे घरवाले भी होंगे। पर ऊपर के खंड में अंधेरा था। चांदनी रात होती तो मैं घबरा ही जाता।सचमुच, एक क्षण के लिए लगा कि अगर मैंने चुनार छोड़ दिया होता, तो उसकी भी यही दशा होती। फिर बन्नो, तुम्हारा खयाल आया। कैसे तुम्हारे सामने पडूंगा। सारा खौलता हुआ खून ठंडा पड़ गया था। मैं जैसे चुनार की उन्हीं गलियों में गया था उसी उम्र के साथ।

 

घर का दरवाजा खुला था। मैंने आहिस्ता से भीतर कदम रखा। एक आंगन-सा। आंगन के एक कोने में दो-एक घड़े रखे थे। उन्हीं के पास दो सुरमई छायाएं थीं। दोनों औरतें थी। एक औरत कमर तक नंगी थी। दूसरी उसी के पास बैठी बार-बार उसके गले तक हाथ ले जाती थी और नंगी छातियों से कमर तक लाती थी। पता नहीं क्या कर रही थी। पर एक औरत की नंगी पीठ दिखाई दे रही थी। वे दोनों औरतें वहां बैठी क्या कर रही थीं, मैं समझ नहीं पाया। सहमकर बाहर गया।

 

बाहर खड़ा था कि ड्रिल मास्टर साहब दिखाई दिये। उन्होंने एक मिनट बाद ही पहचान लिया। लेकिन उन्होंने आव भगत नहीं की। वे सोच ही नहीं पाये कि मुझे किस तरह लें! किस बरस के किस दिन से बात शुरू करें, किस रिश्ते से करें, कहां से करें। वे कुछ कहें इसके पहले ही मैंने उबार लिया, जैसे किसी अजनबी से मैंने पूछा हो, वैसे ही दादा जी के बारे में पूछ दिया।

 

''वो तो चुनार चले गये परसों!'' मास्टर साहब ने कहा।

''परसों...'' मैं और क्या कहता।

''हां, रुके नहीं। बहुत-से लोग वापस चले गये है।'' वे बोले।

 

और मैं उसी क्षण समझ गया कि सब बातों के बावजूद दादाजी शायद फिर भी चुनार लौट सकते थे पर मास्टर साहब नहीं। मास्टर साहब के चुनार छोड़ने का सबब वह नहीं था, जो दादाजी का या मेरा रहा होगा। उनका यहां चले आना वक्त का दिया हुआ वनवास था। और वक्त के दिए हुए वनवास से लौट सकना आसान नहीं होता। मुझे तो सिर्फ कुछ लोगों ने वनवास दिया था।

 

घरवाले वहां नहीं थे, इसलिए कुछ कह भी नहीं पा रहा था। दंगा-ग्रस्त शहरकहां पनाह मिल सकती थी? मास्टर साहब अपने घर टिका लें, यह हो नहीं सकता था।

 

''सब सामान वगैरह भी ले गये है...''

''नहीं, ज्यादा सामान तो यहीं है...'' वे बोले।

''ताला बन्द कर गये है?''

 

''हां, पर एक चाबी मेरे पास है।'' उन्होंने मुझे सकुचाते हुए सहारा दिया।

''मैं एक दिन रुकगा, वैसे भी कल शाम चला जाना है।'' मैंने खामख्वाह कहा, क्योंकि कोई और चारा नहीं था। अजनबी बस्ती में रात पड़े मैं कहां जा सकताथा!

 

मुझे छोड़कर वे घर में घुस गये। एक मिनट बाद वे एक मोमबत्ती और चाबी लेकर आये और बगल के जीने से ऊपर चढ़ा ले गये। ताला खोलकर मुझे पकाड़ाते हुए बोले''खाना-वाना खाया है?''

 

''हां'' मैंने कहा और भीतर चला गया।

''कुछ ंजरूरत हो तो बता देना...'' वे बोले और नीचे चले गये। भरथरीनामा का शायर काफी समझदार था। 'बता देना'! यह नहीं कि मांग लेना।


बन्नो, कितनी विचित्र थी वह रात! तुम्हें मालूम भी नहीं था कि ऊपर मैं ही हूं। मास्टर साहब ने बताया या नहीं बताया, क्या मालूम। कुछ भी कह दिया होगा। सुबह-सुबह पुलिस आती तो तुम्हें जिन्दगी-भर पता चलता कि रात छत पर मंडराने वाली छाया कौन थी।

 

चारों तरफ सन्नाटा...सन्नाटा...

रात चांदनी थी। हवा बन्द थी। मैं सांस लेने या शायद बन्नो को देख सकने के लिए खुली छत पर खाट डालकर लेट गया था। कुछ देर आहट लेता रहा। शायद कोई आहट तुम्हारी हो बन्नो...पर फिर मन डूब गया। चाहे कितनी गर्मी हो पर औरत को तो आदमी के साथ ही लेटना पड़ता है।

 

पिछवाड़े वाला पीपल चांदनी में नहाया हुआ था। मैंने खाट ऐसी जगह डाल ली थी, जहां से आंगन में देख सकूं...पर जो कुछ देखा वह बहुत भयावना था।दो खाटें आंगन में पड़ी थीं। एक पर अम्मी थी, दूसरी पर बन्नो! कितना अजीब लगा था बन्नो को लेटा हुआ देखकर...

 

चांदनी भर रही थी और बन्नो अपना ब्लाउज खोले, धोती कमर तक सरकाए नंगी पड़ी थी। उसकी नंगी छातियां पानी भरे गुब्बारे की तरह मचल रही थीं और वह अधमरी मछली की तरह आहिस्ता-आहिस्ता बिछल रही थी।

 

''आये अल्ला...'' यह बन्नो की आवांज थी।

''सो जा, सो जा !'' अम्मी बोली थी।

''ये फटे जा रहे हैं...'' बन्नो ने कहा और उसने अपनी दोनों छातियां कसकर दबा ली थीं जैसे उन्हें निचोड़ रही हो।

 

अम्मी उठकर बैठ गयीं''ला, मैं सूंत दूं!'' कहते हुए उन्होंने बन्नो की भरी छातियों को सूतना शुरू कर दिया था। दूध की छोटी-छोटी फुहारें बन्नो की छातियों से झर रही थी और वह हल्के-हल्के कराहती और सिसकारती थी। दूध की टूटी-टूटी फुहार, जैसे इत्र के फव्वारे में कुछ अटक गया हो। फिर दस-बीस बूंदें एकाएक भलभलाकर टपक पड़ती थीं। दो-चार बूंदें उसके पेट की सलवटों में समाकर पारे की तरह चमकती थीं। उसकी नाभि में भरा दूध बड़े मोती की तरह जगमगा रहा था।

 

अम्मी उसकी छातियों का दूध अपनी ओढ़नी के कोने से सुखाती और चार-: बार के बाद वहीं किनारे की पाली में कोना निचोड़ देती थी। मटमैली नाली में पनीले का दूध का पतला सांप कुछ दूर सरककर कहीं घुस जाता था।

 

ओह बन्नो! यह मैंने क्या देखा था? मैं दहशत के मारे सन्न रह गया था। सारा बदन पसीने से तर था। सिसकारियां और कराहटें और आसमान में लटकते दो डबडबाये स्तन! कुछ दहशत, कुछ उलझन, कुछ बेहद गलत देख लेने को गहरा पछतावा...

 

बहुत रात गये मैं छत पर टहलता रहा। जब नीचे शान्ति हो गयी और मैंने देख लिया कि बन्नो धोती का पल्ला छाती पर डालकर लेट गयी है, तब मैं भी लेट गया। यह कैसा दृश्य था? आसमान में जगह-जगह दूध-भरी छातियां लटकी हुई थीं...इधर-उधर...

 

आंख लगी ही थी कि एकाएक पिछवाडे ख़ड़खड़ाहट हुई। कोई रो रहा था और नाक पोंछते हुए कह रहा था''कादिर मियां! बन गया साला पाकिस्तान ! भैयन, अब बन गया पूरा पाकिस्तान...''

 

फिर रोना रुक गया था। कुछ देर बाद वही आवांज फिर आयी थी''कादिर मियां, अब यहीं इहराम बांधेंगे और तलबिया कहेंगे! अपना हज्ज तो हो गया, समझे कादिर मियां!''

 

अगर पिछवाड़े पीपल होता तो शायद पाताल से आती यह आवांज सुनकर मैं भाग जाता। पर अब तो खुली आंखों को तरह-तरह के दृश्य दिखाई दे रहे थेआसमान से गिरता खून, अंधेरे में भागती हुई लाशें, बीच बांजार खड़े हुए धड़ और कटी गर्दनों से फूटते हुए फव्वारे। लपटों में नंगे नाचते हुए लोग...

 

पीपल खड़खड़ाता तो मैं बहुत डर जाता। उसके पत्तों की आवांज ऐसे रही थी जैसे अस्पताल के दफ्तर में बैठे हुए टाइप बाबू अपनी मशीन पर कुछ छाप रहे हों...बस यही आवांज जानी-पहचानी थी। बाकी सब बहुत भयानक था।

 

सुबह माथा बेतरह भारी था। आंखों में जलन थी। हाथ-पैर सुन्न थे। उठना पड़ा, क्योंकि पुलिस आयी थी। मास्टर साहब ने आकर जगाया था। वे डरे हुए थे। बोले''पुलिस तुम्हें पूछ रही है...''

''क्यों?''

 

''बाहरवाले की तहकीकात करती है। हमसे पूछ रहे थे रात कौन आया है, कहां से आया है, क्यों आया है?''

सुनते ही मेरे आग लग गयी थी। तुम्हीं बताओ, जब मैं घर से उस अंधेरी रात में निकला या निकाला गया था तो कोई पूछने आया था कि इस रात में कौन जा रहा है, कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है?''

 

पूरे आदमी को समझना, सिर्फ उसके एक वक्ती हिस्से को समझना ही तो पाकिस्तान है बन्नो! जब पुलिस मुझे सुबह-सुबह जगाकर थाने ले गयी तो मैं समझ गया कि अब हम और तुम दोनों पाकिस्तान में घिर गये है...पर यह घिर जाना कितना दु:खद था!

 

थाने पर मेरी तहकीकात हुई। मैं यहां क्यों आया हूं? क्या बताता मैं उन्हें? आदमी कहीं क्यों आता-जाता है? पुलिस वाले मुझे बहुत परेशान करते अगर मास्टर साहब वहां खुद पहुंच गये होते। उन्होंने ही सारी तंफसील दी थी। उस वक्त उनका मुसलमान होना कारगर साबित हुआ था। पर मुझे लग रहा था कि उस मौजूदा माहौल में मास्टर साहब फिर तो वही गलती नहीं कर रहे थे जो उन्होंने भरथरीनामा शुरू करके की थी।

 

थाने में सवालों के जवाब देना आसान भी था और टेढ़ा भी। आखिर वहां से निकलकर हम सामने पड़े कटी लकड़ियों के ढ़ेर पर बैठ गये थे। मास्टर साहब चाहते थे कि मैं होश-हवास में जाऊं, क्योंकि मेरा रंग फक हो गया था।

 

वहीं तीन बत्ती के पास दो-तीन लोग और बैठे थे। शायद किसीकी जमानत या तफतीश के लिए आये थे। उनके चेहरे लटके हुए और ंगमंजदा थे। मौलाना की आंखों में खौंफ था। वे साथ बैठे लोगों को बता रहे थे''रसूल ने कहा है कि सूर तीन बार फूंका जाएगा। पहली बार फूंकेंगे तो लोग घबरा जाएंगे, सब पर खौंफ बरपा हो जाएगा। दूसरी बार जब सूर में फूंक मारी जाएंगी तो सब मर जाएंगे। तीसरी आवांज पर लोग जी उठेंगे और अपने रब के सामने पेश होने के लिए निकल आएंगे...यही होना है...सूर में अभी पहली बार फू/ मारी गयी।''

 

''भरथरीनामा लिख रहे है?'' मैंने पूछा।

''हां...भरमता मन मेरा, आज यहां रैन बसेरा!

कहो बात जल्द कटे रात, जल्द हो फंजर सबेरा!!...

 

कहते-कहते मास्टर साहब उधर देखने लगे जहां छत की सूनी मुंडेरों पर घास के पीले फूल खिले थे। घनी घास में से अबाबीलें छोटी मछलियों की तरह उछलती थीं। घास की टहनी से पीले फूल चोंच से तोड़कर उड़ती थीं। चोंच से फूल गिर जाते थे तो उड़ते-उड़ते फिर तोड़ती थीं...अबाबीलों का उड़ते-उड़ते या घनी घास में से उछलकर फूलों तक आना, पीले फूलों का तोड़ना, चकराते हुए फूलों का गिरना और अबाबीलों का दूर आसमान से फिर लौटकर आना...

 

मास्टर साहब खामोशी से यही देख रहे थे। आखिर मैंने उन्हें टोका''कल रात...''

''हां, वह बदरू है...पगला गया है। उसके चालीस करधे थे, जलकर राख हो गये। पिछवाड़े पीपल के नीचे ही तब से बैठा है। रात-भर रोता है। गालियां बकता है...'' मास्टर साहब बोले।

 

''घर में कुछ...'' मैंने बहुत हिम्मत करके कहा तो जोगी की तरह मास्टर साहब सब बता गये, ''हां...बन्नो को तकलीफ हैं। दंगे से तीन दिन पहले बच्चा हुआ था। डॉ. सारंग के जच्चा-बच्चा घर में थी। दंगाइयों ने वहां भी आग लगा दी। रास्ता रुंध गया तो जान बचाने के लिए दूसरी मंजिल से जच्चाओं को फेंका गया। बच्चों को फेंका गया। नौ जच्चा थीं। दो मर गयी। पांच बच्चे मर गये। बन्नो का बच्चा भी गली में गिरकर मर गया। उस वक्त मारकाट मची हुई थी। सवेरे हम बन्नो को जैसे-तैसे ले आये। अब उसके दूध उतरता है तो तकलीफ होती है...''

 

कुछ देर खामोशी रही। अबाबीलें घास के फूल तोड़ रही थीं। उठने का बहाना खोजते हुए मैंने कहा, ''सोचता हूं, दोपहर ही पूना चला जाऊं...''

 

''जा सको तो चुनार चले जाओ। अपने दादा को देख आओ...'' मास्टर साहब बोले।

''क्यों, उन्हें कुछ हो गया है क्या?''

''हां...उनकी एक बांह कट गयी है। घर के सामने ही मारकाट हुई।वे होते तो शायद हम लोग जिन्दा भी बचते।

 

हमला तो हम पर हुआ था। वे गली में उतर गये। तभी बांह पर वार हुआ। बायीं बांह कटकर अलग गिर पड़ी। लेकिन उनकी हिम्मत...अपनी ही कटी बाह को जमीन से उठाकर वे लड़ते रहे...खून की पिचकारी छूट रही थी।कटी बांह ही उनका हथियार थी...दंगाई तब आग के गोले फेंककर भाग गये। गली में उनकी बांह के चिथड़े पड़े थे। जब उठाया तो बेहोश थे। दाहिने हाथ में कटी बांह की कलाई तब भी जकड़ी हुई थी...पर उस खुदा का लाख-लाख शुक्र। थाना अस्पताल में मरहम-पट्टी हुई। आठ दिन बाद लौटे। दूसरे ही दिन चुनार चले गये...''

 

''तो उनकी बांह का क्या हाल था?...'' मैं सुनकर सन्न रह गया था।

''ठीक था। चल-फिर सकते थे। कहते थे वहीं चुनार अस्पताल में यही करवाते रहेंगे। या खुदा...रहमकर...बेहतर हो देख आओ...'' मास्टर साहब ने कहा और अपने आंखें हथेलियों से ढांप लीं।

 


मेरी चेतना बुझ-सी रही थी। मैं किस जहान में था? ये लोग कौन थे, जिनके बीच मैं था? क्या ये जो कुछ लोग आदमियों की तरह दिखाई पड़ते थे सच थे या कोई खौफनाक सपना? अब तो कटा-फटा आदमी ही सच लगता था। पूरे शरीर का आदमी देखकर दहशत होती थी।

 

...मैं फिर आकर कमरे में लेट गया था। मास्टर साहब भीतर चले गये थे। तभी नीचे से कुछ आवांजें आयी थीं। अम्मी...मास्टर साहब, बन्नो का आदमी मुनीर और बन्नो सभी थे। मुनीर कह रहा था, ''यहां रहने की जिद समझ में नहीं आती...''

 

''तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।'' यह आवांज बन्नो की थी, ''हम तो पहले इसी धरती से अपना बच्चा लेंगे, जिसने खोया है। फिर जब जगह चले जाएंगे। जहां कहोगे...''

 

मैंने झांककर देखा। दुबला-पतला मुनीर गुस्से से कांप रहा था। चीखकर बोला, ''तो ले अपना बच्चा यहीं से...जिसने मन आए, ले।''

 

मैं सकते में गया कहीं कुछ...कहीं इसमें मेरा जिक्र तो नहीं था...पर शायद में गलत समझा था। बन्नो भी बिफरकर बोली थी, ''तू अब क्या देगा बच्चा मुझे... अपना खून बेच-बेचकर शराब पीने से फुर्सत है?...''

 

तड़ाक!...शायद मुनीर ने बन्नो को मारा था। छोटा-सा कोहराम मच गया था।

बाद में बन्नो मुनीर को कोसती रही थी, ''मुझे मालूम नहीं है क्या? जितनी बार बम्बई जाता है, खून बेचकर आता है। फिर रात-भर पड़ा कांपता रहता है...''

यह सब मैं क्या सुन रहा था, बन्नो! तेरे भीतर भी एक और पाकिस्तान रो रहा था। सभी तो अपने-अपने पाकिस्तान लिये हुए तड़प रहे हैं। आधे और अधूरे, कटे-फटे, अंग-भंग।

 

ओफ्फ ! कितना अंधेरा था उस चांदनी रात में...जब मैं भिवंडी से उसी तरह चला जैसे एक दिन चुनार से चला था। अड्डे से एक टैक्सी थाना जा रही थी। उसी में बैठ लिया था। जब तक बस्ती रही, काले मैदान भी बीच-बीच में नंजर आते रहे। राख की तेंज महक भीतर तक उतरती रही। आसमान में डबडबाए स्तन लटकते रहे। चौराहों पर खड़े मुंडहीन धड़ों से खून के फव्वारे छूटते रहे!

 

थाना! थाना से बस पकड़कर बम्बई। बम्बई से गाड़ी पकड़कर पूना और पूना में फिर कई दिन बुखार से तपता पड़ा रहा। मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था बन्नो...सिर्फ अपने में सिमट आना चाहता था। उम्र का यह संफर कितना बेहूदा है कि आदमी कटता-फटता जाता है। लहू-लुहान होकर चलता जाता है।

 

और ऐसे अकेलेपन में अगर कोई यह आवांज सुने कि 'और है कोई?' तो क्या बीत सकती है, इसका अन्दांज किसी को नहीं हो सकता। तुम्हें भी नहीं बन्नो!...और है कोई?

 

चार या पांच महीने हो गये थे। दादाजी का खत मिल गया था कि वे फिर भिवण्डी लौट आए हैं। सिंधियों और मारवाड़ियों के कारण माल ज्यादा नहीं मिल पाता इसलिए बांजार मन्दा है। सब करघे चल भी नहीं रहे हैं। एक बांह रहने के कारण बदन का पासंग बिगड़ गया है। मजाक में उन्होंने यह भी लिखा था कि उनका नाम 'टोंटा' पड़ गया है।

बाकी कोई खबर उन्होंने नहीं दी थी सिवा इसके कि मुनीर बन्नो को लेकर बम्बई चला गया है। पता नहीं वे लोग बम्बई में है या पाकिस्तान चले गये। ड्रिल मास्टर नीम-पागल हो गये हैं। घर में ड्रिल करते हैं, स्कूल में कोई पोथी लिखतेरहतेहैं।

 

...उस दिन मैं बम्बई आता तो तुमसे मुलाकात भी होती, बन्नो ! और कितनी तकलींफदेह थी वह मुलाकात। बाद में मैं पछताता रहा कि काश, मैं ही होता उसकी जगह। तुमने भी क्या सोच होगा कि मैं यही सब करता हूं? पर सच कहूं बन्नो, करता तो मैं भी रहा हूं पर तुम्हारे साथ नहीं। शायद तुम्हारे कारण करता रहा हूं।

 

पूना का दोस्त नहीं था वह। वहीं बम्बई का था। उसका नाम केदार है। कुछ दिन पूना में साथ रहा था, तभी दोस्ती हुई। मैं भिवंडी जाने के लिए बम्बई आया था। बम्बई उतरकर मन उखड़ भी गया था कि क्या करूंगा वहां जाकर।

 

उस शाम से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है बन्नो! वह शाम मैं और केदार साथ गुजारना चाहते थे। कुलावा के एक शराब घर में हमने थोड़ी-सी पी थी। फिर वहां से टहलते हुए हैंडलूम हाउस तक आये थे।

 

उसी के पास कोई गली थी। अब जाऊं तो पहचान तो लूंगा पर यों याद नहीं है। केदार और मैं दोनों उसी में चले गये। शायद आगे चलकर दाहिने को मुड़े थे। वहीं पर एक सिगरेटवाले की दुकान थी। नीचे कारें खड़ी थीं। लगता था वोहरा मुसलमानों की बस्ती है। बहुत शान्त, साफ-सुथरी।

 

उस बिल्डिग में लिफ्ट था। यों सीढ़ियां भी बहुत साफ-सुथरी थीं। केदार के साथ मैं सीढ़ियों से ही ऊपर गया था। पांच मंजिल तक चढ़ते-चढ़ते मेरी सांस फूल आयी थी। उस वक्त घरों की खिड़कियों से खाना बनाने की गन्ध रही थी। छठी मंजिल एकदम वीरान थी। जिस फ्लैट की घण्टी केदार ने बजायी थी वह उतना साफ-सुथरा नहीं लगा रहा था।

 

दरवांजा खुला और हम हिप्पो की तरह हांफते हुए एक सिंधी के सामने खड़े थे। वह हमें उस कमरे में ले गया जिसमें मामूली तरह के सोफे लगे हुए थे। वह सिंधी अब भी हांफ रहा था। लगता था ज्यादा बात करेगा तो अभी उसकी सांस उखड़ जाएगी और फिर कभी लौटकर नहीं आयेगी।

 

मुझे उलझन हो रही थी। मैं खुली हवा में सांस लेने के लिए खिड़की के पास खड़ा हो गया था। दूर-दूर तक गन्दी छतें नंजर रही थीं। तरह-तरह के आकारों की। मेरे बारे में केदार ने बता दिया था कि मैं वहीं सोफे पर बैठूंगा और इन्तंजार करूंगा।

 

उस हांफते सिंधी ने कोका कोला की एक बोतल मंगवाकर मेरे लिए रख दी और केदार को लेकर अपनी मेज के पास चला गया। वहां वह केदार को एक गुंजला हुआ काला बुर्का दिखा रहा था। कह क्या रहा था, यह वहां से सुनाई नहीं पड़ा।

 

उसके बाद वे दोनों कहां गुम हो गये, कुछ पता नहीं चला। दो-एक मिनट बाद केदार के हंसने की आवांज बगल से आयी थी। फिर केदार तो नहीं आया, वह सिंधी उसी तरह हांफता हुआ आया और जोर-जोर से सांस छोड़ता हुआ बोला, ''बिअर...'' बाकी शब्द उसके हांफने से ही साफ हो रहे थे''पिएंगे, मंगवाऊं?''

 

''पी लूंगा...'' मैंने कहा तो उसने लड़की को हांफकर दिखाया और वह बीयर ले आया। सिंधी ने नहीं पी। मैं ही बैठा पीता रहा।


''आप...'' वह उसी तरह हांफ रहा था, ''बम्बई...'' मतलब था''नहीं रहते...''

''नहीं, पूना रहता हूं।'' मैंने कहा।

''घूमने...'' वह फिर हांफा।

''काम से आया था...'' मैंने उसे बता दिया।

''बिजनेस...'' हांफना बदस्तूर था।

''नहीं पर्सनल काम था। भिवंडी जाऊंगा।''

 

फिर वह बैठा-बैठा तब तक हांफता रहा जब तक केदार सामने आकर नहीं खड़ा हुआ। उसे देखते ही सिंधी हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। मुझे भी उलझन हो रही थी। मैं गिलास खत्म करके फौरन केदार के पास गया। हम तीनों बीच वाले बड़े कमरे में गये थे।

 

केदार मेरी बीयर के पैसे दे ही रहा था कि बगल का दरवांजा खुला। मैंने इतना ही देखा कि एक औरत के हाथ ने केदार को उसका कन्घा और चाबियों का गुच्छा दिया और उस हाँफते हुए सिंधी के साथ मुझे खड़ा देखकर पूछा''और है कोई?''

 

मैंने पलटकर देखादरवाजे की चौखट पर हाथ रखे पेटीकोट और ब्लाउज पहने तुम खड़ी थीं बन्नो! और पूछ रही थीं'और है कोई?'

हां! कोई...कोई और भी था।

 

एक थरथराते अन्धे क्षण के बाद तुमने भी पहचान लिया था और तब कैसी टेढ़ी मुस्काराहट आयी थी, तुम्हारे होठों पर...जहर बुझी मुस्कारहट। या वही घोर तिरस्कार की मुस्कराहट थी? या सहज...कुछ भी नहीं मालूम।

 

पता नहीं यह बदला तुम मुझसे ले रही थीं, अपने से, मुनीर से या पाकिस्तान से? मैं सीढ़ियां उतर आया था। आगे-आगे मैं था, पीछे-पीछे केदार। मन हुआ था सीढ़ियां? चढ़ जाऊं और तुमसे पूछूं''बन्नो! क्या यही होना था? मेरा हश्र यही होना था?''

 

अब कौन-सा शहर है जिसे छोड़कर मैं भाग जाऊं? कहां-कहां भागता रहूं जहां पाकिस्तान हो। जहां मैं पूरा होकर अपनी तमाम हसरतों और एहसासों को लेकर जी सकूं।

 

बन्नो! हर जगह पाकिस्तान है जो मुझे-तुम्हें आहत करता है, पीटता है। लगातार पीटता और जलील करता चला जा रहा है।

The End

Disclaimer–Blogger has shared this story with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers. 








































Saturday, 21 August 2021

Safdarjung Tomb Delhi: The last Twinkle Glory of Mughals Dynasty

Each place has been a theater of actions for centuries. Come, lets discover the ideas that shaped our multiple identities.

 

Delhi may be called capital home of tombs, Drgahs of Sufi Saints  and monuments. Most of the monuments are of the Mughal era. One such monument is “Safdarjung Tomb. “This is one of the few buildings built during the last days of Mughal era.

Tomb of Nawab Safdar Jung 

Despite its central Delhi location, this beautiful monument “Safdarjung Tomb.”  Is less visited by people and is generally less crowded. Moreover, Most of the people living in Delhi don’t even know about this place.

 

Many of us are familiar with the name ‘Safdarjung’. But who was he? And how is his story linked to the decline of the Mughal Empire? At one point of time, Safdarjung was the richest and most powerful man in India.

A view of Entrance to Safdar Jung's  Tomb from road
 

Safdarjung Tomb is sometimes regarded as the poor man’s Taj

Entry Gate of Safdar Jung's Tomb 

Even more interestingly, to the south of Safdarjung Tomb lies the field – now, a defunct airfield! – where the fearsome Central Asian conqueror Timur “the Lame” (ancestor of the Mughals) defeated the much-weakened Tughlaq ruler of Delhi, Nasiruddin Mahmud.

 

Safdarjung Tomb is special in many ways. It is considered to be the last twinkle of glory of Mughal Dynasty, a dynasty which created some of the most impressive monuments still standing, including India’s masterpieces like the Taj Mahal, Red Fort.

 

Inside  visit of of Safdarjung’s Tomb:A Hidden Heritage Gem of Delhi  in Delhi

The monument is built on a raised platform that lies in the center and there are manicured gardens that are well maintained and complete a pretty picture. There are also private pavilions named Moti Mahal, Badshah Pasand and Jangli Mahal.

 

The gardens are designed like a Charbagh – divided into four squares, pathways and tanks which are further divided into smaller squares. Colorful flowers bloom and the monsoon ensures a generous tinge of green on the trees. The effect is almost enchanting, and even surreal at times.

 

It has several smaller pavilions with names like Jangli Mahal, Moti Mahal, and Badshah Pasand. The complex has a Madrasa and a library too over the main gateway. It is maintained by The Archaeological Survey of India.

 

The garden surrounding and the entire tomb complex is a very aesthetic landscape for photography. You can come here with your cameras and click some cool pictures for your Instagram.

 

The chambers inside the tomb are rectangular in shape and the corner chambers are structured octagonal.

 

It follows in the pattern of the great garden tombs, which began with the sandstone mausoleum and geometric garden of the second Mughal emperor, Humayun.

 

Safdar Jung’s Tomb is a strangely appropriate monument. It sums up in stone the decline of the once-great empire. The mausoleum and its Mughal gardens are clearly modeled on Humayun’s.

But the proportions of the main building feel strange, with an over-sized dome and chunky corner-towers, and the decorative marble elements are ostentatious, lacking all the elegance of the Taj Mahal’s exquisite inlaid stone work.

Tomb of Safdar Jung

Like other Mughal monuments, the tomb of Safdarjung is n’t a monument built at the height of the supremacy of the empire. The marble and red sandstone used for this structure is said to have been removed from the tomb of Abdur Rahim Khan-i-Khanan, popularly known as Rahim (of the dohe fame).

 

Much of the stonework is rather shabby, some of the pathways are uneven and overgrown, and all the water channels have long been empty.

 

The garden’s four water courses, one leading from each side of the tomb, also have a rather awkward, and overly-literal feel. It is as if the architect was trying too hard to show off the main features of the design, without understanding the intricacies and balance require to create a great building.

 

The masjid with its three domes stands neglected in a corner. I could not find an entrance to it. It does not seem to be a monument popular with tourists either, I could barely spot a couple of foreigners in the three-four hours that were spent wandering around.

A Masjid in Safdar Jung's Tomb

Deserted monuments in cities are quite popular for young lovers and Safdarjung’s Tomb befits its status as a monument that no one cares about. Canoodling couples occupy quiet corners making it almost a crime to look around for hidden architectural delights.

 

I notice that the inlay work on the marble on the floor has been left unfinished; history suggests that there were little funds available to be spent on costly things like marble and the Tomb was barely completed by materials scavenged from here and there.

 

Among other things, it appears that halfway through the construction of the tomb, the marble ran out. The stone used to build parts of the monument, most visibly the dome, are not even consistent in color. How on earth did the builders of such a magnificent tomb do such a shoddy job?

 

This is also explained by the sudden, sharp decline of the empire. The traditional quarries, that were used to mine stone to build monuments in Delhi, were located near Agra–which was no longer controlled by the Mughals.

As a consequence, the builders of the tomb had to resort to stripping down existing monuments in Delhi to gather stone and other raw material for the construction of the tomb.

 

(The grave of Safdar Jung inside the tomb. He was originally buried in Sultanpur where he died, and his grave was shifted here when his son decided to build him a tomb in Delhi.

 

Who was Safdar Jang?

Safdar Jung (1708 –1754),born Muhammad Muqim was descended from a Turkic tribe tracing its ancestry to the Caucasus region (modern-day Armenia, Azerbaijan, Georgia). He came from Nishapur, Iran to India in 1723 at the age of fifteen on the invitation of Saadat Ali Khan I (Nawab of Awadh-Lucknow).

Nawab Safdar Jung (Second Nawab of Awadh---1739-1754)

He was Saadat Ali Khan’s nephew and his son-in-law, and took the reins as the new Nawab of Awadh in 1739. He was given the title ‘Safdar Jung’ by emperor Muhammad Shah ‘Rangila’.

 

Like his uncle/father-in-law, he too proved to be a good administrator who effectively ran the political affairs of Awadh and also proved to be of valuable assistance to the Emperor Muhammad Shah.

 

All future Nawabs of Oudh were male line descendants of Safdar Jung.

In the mid-18th century, when a much weakened Mughal emperor Mohammad Shah Rangila ruled, Safdar Jang was a very important noble in the Mughal court. It was Mohammad Shah Rangila, who bestowed the title of Safdar Jung on him. At one point of time, Safdarjung was the richest and most powerful man in India.

Mohammad Shah Rangila (1702-1748)

Safdar Jung was also the second ruler, titled Nawab, of the semi-autonomous dynasty (originating from Persia) which ruled Awadh.

 

In 1748 when Emperor Mohammad Shah Rangila died, Safdar Jang managed to install a new emperor of his choice on the Mughal throne, Ahmad Shah Bahadur, acquiring for himself the position of Wazir-ul-Mumalik-i-Hindustan (Prime Minister of Hindustan).

 

With a substantial personal army, he was much embroiled in palace politics and held complete control over the weak new emperor.

 

Palace intrigues and power struggles with other powerful nobles eventually led to Safdar Jang’s ouster from Delhi. Twice attempts were made on his life by his rivals. But he survived. Later he shifted to his fiefdom, Awadh.

 

The story goes that it was Safdarjung who invited the Persian king Nadir Shah to Delhi, so he would depose the Mughal emperor from the throne. A move that cost Delhi dearly, in terms of many lives and innumerable wealth and treasures lost, including the Peacock Throne and the Kohinoor.


Nadir Shah of Persia invaded India in 1739


The tomb was built in 1754 after his death, by his son Shuja-ud-Daula, the next Nawab of Awadh. Although Safdarjung died in Sultanpur, he was buried in Delhi given his political importance.

 

Safdar Jang was an able administrator. He was not only effective in keeping control of Awadh, but also managed to render valuable assistance to the weakened Emperor Muhammad Shah.

 

He was soon given governorship of Kashmir as well, and became a central figure at the Delhi court. During the later years of Muhammad Shah, he gained complete control of administration over the whole Mughal Empire.

 

When Ahmad Shah Bahadur ascended the throne at Delhi in 1748, Safdar Jung became his Wazir-ul-Mumalik-i-Hindustan or Prime Minister of Hindustan. He was also made the governor of Ajmer and became the "Faujdar" of Narnaul.

However, court politics eventually overtook him and he was dismissed in 1753. He returned to Awadh in December 1753 and selected Faizabad as his military headquarter and administrative capital. He died in October 1754 at the age of 46 years in Sultanpur near Faizabad. 


The tomb’s location he chose himself while he was still living: near the holiest Shia site in Delhi known as the Dargah Shah-e-Mardan, in present day Jor Bagh, also popularly known as Karbala.

 

When Safdar Jung arrived from Persia, Delhi was still the richest, most magnificent and most populous city between Istanbul and Edo (Tokyo); with two million inhabitants, it was larger than either London or Paris.

 

By his death, the Mughal empire had been reduced nearly to dust at the hands of the Marathas (who would go on to form a great empire of their own), and Delhi would no longer be the power center it once was – until 1911 when the British government in India would announce that New Delhi was to be their new capital. And more than a hundred years later, it remains the capital of independent India.

Grave of Nawab Safdar Jung (1708-1754)

How to Reach

A major portion of Delhi is now inter-connected by Delhi Metro, which makes it easier for tourists to reach destinations within a short amount of time. So if you are planning to visit this Safdarjung tomb then there are many different ways to reach here.

 

The very first option is to take a Metro and get off at the Jor Bagh metro station. The tomb is at a short distance from here, you can walk straight from here or you can take an auto to reach the monument.

 

So if you love historical places and love finding more about the beauty of Mughal architecture just like me then add Safdarjung tomb to your bucket list and plan your visit.

 

Entrance ticket

Entry Ticket cost is Rs 25.00. Still camera photography is free of charge, and Rs 25.00 is charged for each video camera but if you are capturing videos from your mobile phones then it’s okay.

Did you know?

In 2013 American American biographical drama film based on the life of Steve Jobs, from 1974 while a student at Reed College to the introduction of the iPod in 2001. It is directed by Joshua Michael Stern, written by Matt Whiteley, and produced by Stern and Mark Hulme. This Movie was  filmed here in this Safdarjung Tomb.

 

Many smaller tombs and buildings of even less architectural worth have got more love than this compact complex, ironically so near the abodes of some of modern India’s most powerful rulers. Will we have to wait until foreign entities “sell” our forgotten monuments to us?

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up with of Safdar jung’s Tomb with  help of Wikipedia  and materials available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The copyright of these materials are with the respective owners. Blogger is thankful to original writers.