5 दिसम्बर, 1955 को महज 44 साल की उम्र में मजाज़ इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। मजाज़ को बहुत कम उम्र मिली। यदि उन्हें और उम्र मिलती, तो वे क्या हो सकते थे?, इसके बारे में शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’में लिखा है-
‘बेहद अफसोस है कि मैं यह लिखने को ज़िंदा
हूँ कि मजाज़ मर गया। यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था और क्या हो सकता था। मरते
वक़्त तक उसका महज एक चौथाई दिमाग़ ही खुलने पाया था और उसका सारा कलाम उस एक चौथाई
खुले दिमाग़ की खुलावट का करिश्मा है। अगर वह बुढ़ापे की उम्र तक आता, तो अपने दौर का
सबसे बड़ा शायर होता।’ मजाज़ लखनवी अपनी सरजमीं लखनऊ की ही एक कब्रिस्तान में दफन हैं
और कब्र पर उनकी ही मशहूर नज़्म ‘लखनऊ का एक शेर लिखा है-
‘अब इसके बाद सुब्ह है और सुब्हे-नौ मजाज़
हम पर है ख़त्म शामे-गरीबाने-लखनऊ।’
एक
दौर था, जब मजाज़ उर्दू अदब में आंधी की तरह छा गए थे। आलम यह था कि जब वह अपनी कोई
नज़्म लिखते, तो वह प्रगतिशील रचनाशीलता की एक बड़ी परिघटना होती। लोग उस नज़्म पर महीनों
चर्चा करते। उर्दू अदब में ऐसा एहतराम बहुत कम शायरों को हासिल हुआ है।
रूमानियत की नज़्में कहना. निजी ज़िंदगी में उसी से महरूम होना. साथ ही अत्यधिक संवेदनशीलता ने मजाज़ को उर्दू शायरी का कीट्स तो बनाया, सीवियर डिप्रेशन का मर्ज़ भी दे दिया. मजाज़ को हिंदुस्तानी शायरी का कीट्स कहा जाता है. क्यों? क्योंकि वह हुस्नो-इश्क़ का शायर था. पर जो बात दीगर है वह यह कि इसी हुस्नो-इश्क़ पर क़सीदे पढ़ते हुए उसने इस पर लगे प्रतिबंधों को भी अपनी शायरी में उठाया.
मशहूर अफ़साना निगार इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा 'कागज़ है पैरहन' में लिखा है, "मजाज़ का काव्य संग्रह आहंग जब प्रकाशित हुआ तो गर्ल्स कॉलेज की लड़कियां इसे अपने सिरहाने तकिए में छिपा कर रखतीं और आपस में बैठकर पर्चियां निकालतीं कि हम में से किसको मजाज़ अपनी दुल्हन बनाएगा।"
मजाज़ लखनवी: 'मजाज़ की किताब को लड़कियां तकिए में छिपा कर रखतीं थीं'
मजाज़ ने एक जिम्मेवार शायर की तरह अपने ज़माने की हर ख़ूबसूरत चीज़ पर ग़ज़ल कहने की कोशिश की। हर ज़ोर ज़ुल्म और संघर्ष के ख़िलाफ़ तराने लिखे इंसान की हर हासिल का उल्लास मनाया और इंसानियत के हार जाने का ग़म भी उसी शिद्दत से व्यक्त किया।
उन्होंने रेल पर नज़्म कही, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए तराना लिखा जो आज भी इस विश्वविद्यालय का तराना है।
उर्दू शायरी ने वह दौर भी देखा है जब शायर इश्क़ की दुनियां में सपनों के राजकुमार की सी हैसियत रखते थे। नौजवान लड़कियां शायरों के चित्र अपने सिरहाने रखती थीं और दीवान अपने सीने से लगाए फिरती थीं। शायरी का यह दौर लाने वालों में सबसे पहला और प्रमुख नाम असरार-उल-हक़ मजाज़ का आता है।
एक बार चुगताई ने ही पूछा कि तुम्हारी ज़िंदगी को ज्यादा लड़की ने बर्बाद किया या शराब ने. इस पर मजाज़ का जवाब था, मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है.
मजाज़ लखनवी के लिए लड़कियों की दीवानगी के किस्से आम हैं. बताने वाले बताते हैं कि उनकी नज़्में गर्ल्स हॉस्टल के तकियों में दबी मिलती थीं. बावजूद इसके वो ताउम्र प्यार के तलबबगार रहे. इसलिए लिखा भी,तरन्नुम से पढ़ने का अंदाज़ और उनके शेर लड़कियां दीवानी हुई जाती थी.
गर्ल्स हॉस्टल में उनके नाम की पर्ची निकलती कि किस खुशक़िस्मत लड़की के तकिये को आज रात 'आहंग'(मजाज़ का काव्य संग्रह) का स्पर्श मिलेगा.
अहमद 'फ़राज़' की शोहरत में मांओं ने बच्चों के नाम उन जैसे रखे. लेकिन मजाज़ का नाम तो कुंवारी लड़कियों ने क़सम खा-खा भविष्य में होने वाली औलादों पर मुक़र्रर कर दिया. इस्मत चुगताई ने छेड़ते हुए कहा कि लड़कियां तो मजाज़ पर मर मिटती हैं. मजाज़ ने झट्ट से कहा, और शादी पैसे वाले से कर लेती हैं.
आख़िर मजाज़ की शायरी में ऐसा क्या था जिसने अपने दौर को इतना महत्वपूर्ण बनाया और अपनी शख़्सियत को और बुलंद बनाया। हालांकि मजाज़ जिस दौर में शायरी कर रहे थे वह तक़्क़ीपसंद शायरी का युग था और तमाम तरक़्क़ी पसंदों की तरह मजाज़ की शायरी में भी इश्क़ और क्रांति एक दूसरे में घुल मिल गए थे। लेकिन सिर्फ़ यही उनकी का रंग नहीं था। कुछ तो था जो मजाज़ का बिल्कुल अपना था और बहुत गहरे रूमान का था।
ये मजाज़ जैसे शायर ही थे, जो नामुक़म्मल चीज़ों के साथ दिलनवाज़ी की चिप्पी चिपका गए और हमें अधूरेपन से भी इश्क़ हो गया. मजाज़ लखनवी 19 अक्टूबर, 1911 को जन्मे और 5 दिसंबर 1955 के दिन दुनिया से रुखसत हुए.
छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा
छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा
महकें तेरे आरिज़ के गुलाब और ज़ियादा
अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़ियादा
जी हां आपने ठीक पहचाना, यह नग़मा थोड़े अलग तरीके से आरज़ू फ़िल्म में सुनाई देता है। हसरत जयपुरी के नाम से लेकिन इस नग़मे का उन्स मजाज़ की शायरी में ही है। अपने मिज़ाज का पता तो मजाज़ ने अपनी शुरुआती रचनाओं में ही दे दिया था तआरुफ़ नाम से। उनकी एक शुरुआती ग़ज़ज है जिसमें वे अपना परिचय देते हुए कहते हैं –
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं
ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं
हां, यही पैसा उनकी मंगेतर छीन ले गया
वजह वही रिवायती दौलत. मंगेतर के वालिद अपनी हैसियत से बेहतर दामाद के ख्वाहिश्मंद थे. गृहस्थी के लिये गुणा भाग करने वाले अब्बुओं ने इश्क़ से नाज़ुक एहसासों की कब क़द्र की थी भला! मजाज़ देर रात तक तक मुशायरे पढ़ते. दाद लूटते. शराब पीते. दफ्तर अक्सर देर से आते. ब्रिटिश हुकुमत की नौकरी करते और नज़्में लिखते इन्क़लाबिया. अंग्रेजों को बगावत कब पसंद आनी थी!
दिल्ली आकाशवाणी रेडियो की पहली पत्रिका 'आवाज़' में बतौर संपादक की नौकरी साल भर में ही छूट गयी और टूट गयी सगाई भी. मजाज़ के लिये यह झटका था. कला पर रूपए को तरजीह मिली थी. मुल्क़ का ताज़ा बटवारा हुआ था. परिवार बिखर रहा था. छूट रहे थे दोस्त एहबाब. उसी वक़्त गांधी की हत्या… मेन्टल बैलेंस बिगड़ गया. शराब बढ़ गयी.
With Josh Malihabadi (In MID) of group-Majaz standing left in white sherwani |
मशहूर अदाकारा नर्गिस जब लखनऊ आईं तो मजाज़ का ऑटोग्राफ लेने पहुंचीं. नर्गिस के सिर पर उस वक़्त सफेद दुपट्टा था. नर्गिस की डायरी पर दस्तख़त करते हुए मजाज़ ने ये मशहूर शेर लिखा था।
तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
मजाज़ ने अपनी शायरी की ऊंचाई अपनी ज़िंदगी की शर्त पर ही हासिल की। एक बेचैनी, कश्मकश, एक जद्दोजहद और एक निरंतर भटकती हुई बेचैन रूह का नाम शायर मजाज़ है।
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मजाज़ की जिस तरक़्क़ी पसंदगी का ज़िक्र ऊपर किया गया है वह उनकी इस मशहूर नज़्म आवारा में अपने पूरे शबाब पर दिखता है, नहीं तो सिर्फ़ एक रोमेंटिक शायर भला क्या चाँद को इस तरह से भी देख सकता है।
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था
उनके प्रगतिशील तेवर तो आज भी कई मौक़ों पक अक्सर सुनाई दे जाते हैं। कुछ शेर तो नारों की शक्ल ले चुके हैं।
मजाज़ 19 अक्टूबर, 1911 को फ़ैज़ाबाद के रुदौली कस्बे में पैदा हुए. मजाज़ के वालिद चौधरी सिराज उल हक, वकालत की डिग्री लेने वाले अपने इलाके के पहले आदमी थे. सरकारी मुलाज़िम थे, चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बने. उन्होंने असरार को आगरा के सेंट जोंस कॉलेज पढ़ने भेज दिया.
लेकिन वहां असरार को जज़्बी, फानी और मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली और वे ग़ज़लों में रुचि लेने लगे. तख़ल्लुस रखा ‘शहीद.’ ये भी कहते हैं कि उस वक़्त उन्होंने अपनी ग़ज़लों का इस्लाह फानी से करवाया, लेकिन उनके स्टाइल की छाप ख़ुद पर नहीं पड़ने दी.
1931 में बीए करने वह अलीगढ़ चले आए और इसी शहर में उनका राब्ता मंटो, चुगताई, अली सरदार ज़ाफ़री और जां निसार अख़्तर जैसों से हुआ. तब उन्होंने अपनी ग़ज़ल को नई वुसअत बख़्शी और तख़ल्लुस ‘मजाज़’ का अपनाया और फिर बड़ा सितारा बनकर उभरे.
1930-40 का दशक दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था. इसका असर मजाज़ की कलम पर भी पड़ा. इश्किया ग़ज़लों से इतर उन्होंने इंक़लाबी कलाम लिखे. अलीगढ़ शहर से उनकी ख़ूब पटी. यूनिवर्सिटी का तराना भी उनका ही लिखा हुआ है.
मजाज़ की बर्बादी:
उसकी बर्बादी का क़िस्सा दिल्ली में शुरू हुआ था. 1935
में वो ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में असिस्टेंट एडिटर होकर दिल्ली आ गए और इसी शहर ने उन्हें नाकाम इश्क का दर्द दिया, जिसने उन्हें बर्बाद करके ही दम लिया.
ज़ोहरा उनकी न हो सकती, जिसके बाद उन्हें शराब की ऐसी लत लगी कि लोग कहने लगे, मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीए करने के बाद लाखों लड़कियों का दिल तोड़ता हुआ बड़ी-बड़ी आंखों, लंबे कद और ज़हीन शायरी करने वाला मजाज़ दिल्ली में आल इंडिया रेडियो की ओर से प्रकशित होने वाली पत्रिका ‘आवाज़’ का एडिटर बन गया था.
यहां वह एक ऊंचे घर वाली लड़की, जो शादी-शुदा थी, को अपना दिल दे बैठा. उसने दिल तोड़ दिया या कहें कि समाज की बदिशें आड़े आ गईं. जो भी है, इस नाकामी को लेकर जब वह अपने शहर लखनऊ आया तो साथ में शराब की लत ले आया. दिल्ली से रुखसत होते वक़्त उसने कहा था:
दिल्ली से विदा लेते हुए उन्होंने कहा,
रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं
नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं
लगभग शराब छोड़ देने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी के एक प्रोग्राम में मजाज़ ने अपनी नज़्में गाईं. हमेशा की तरह दाद लूटी. महफ़िल खत्म हुई. कुछ दोस्तों के इसरार पर फिर पीने बैठ गये.
उनके कुछ दोस्त उन्हें एक जाम पकड़ाकर नशे की हालत में लखनऊ के एक शराबखाने की छत पर छोड़कर चले आए. सुबह हुई और अस्पताल पहुंचने तक वे जा चुके थे.सुबह लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
लेकिन मजाज़ जैसे लोग मरते कहां हैं? उनकी नज़्में, गज़लें सबसे बढ़कर मजाज़ीफ़े लखनऊ रहने तक शहर की हवा में तैरते रहेंगे.
लखनऊ में मजाज़ की क़ब्र है, जिस पर लिखा है,
‘अब इसके बाद सुबह है और सुबह-ए-नौ
मजाज़, हम पर है ख़्तम शामे ग़रीबाने लखनऊ’
The End