Friday, 10 July 2020

Aligarh Wale Ahmad Said Khan Nawab Chhatari: First Indian Governor, Chief Minister of the United Provinces


उत्तर प्रदेश राज्य, जो प्राचीन और मध्ययुगीन काल के दौरान शक्तिशाली साम्राज्यों का निवास रहा है, आज के समय में सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। वास्तव में उत्तर प्रदेश दुनिया में किसी देश का सबसे अधिक आबादी वाला उपखंड है। राज्य में करीब 20 करोड़ निवासी हैं और 18 मंडलों और 75 जिलों में विभाजित है, जिसकी राजधानी लखनऊ है।

देश आजाद होने से पहले, 1 अप्रैल, 1937 को इस राज्य की स्थापना संयुक्त प्रांत के रूप में की गयी थी। इसी में अंग्रेजों ने यूपी को पहला मुख्यमंत्री दे दिया था. नवाब मुहम्मद अहमद सैयद खान छतारी (1888-1982),जो 3 अप्रैल 1937 से 16 जुलाई 1937 तक निर्दलीय मुख्यमंत्री रहे।

Ahmad Said Khan Nawab Of Chhatari (Aligarh)

1920 में राज्य की राजधानी को इलाहाबाद से हटाकर लखनऊ कर दिया गया. हाई कोर्ट इलाहाबाद में ही रह गया. यूपी का रौला हुआ करता था. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और दारुल उलूम देवबंद जैसे संस्थान थे. बिस्मिल और आजाद जैसे क्रांतिकारी निकले थे. जिनसे पूरा देश प्रेरणा लेता था. यहीं से मोतीलाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, मदन मोहन मालवीय और गोविंद बल्लभ पंत जैसे कांग्रेस के नेता निकले थे.
Acting Governor of the United Provinces (7 April 1933 –26 November 1933) Preceded by Sir Alexander Phillips Muddiman and Succeeded by Sir William Malcolm Hailey.


स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद 1950 में इस राज्य का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश रखा गया। स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद से, राज्य कई राजनीतिक दलों द्वारा शासित हुआ है और विभिन्न मुख्यमंत्रियों ने इसका नेतृत्व किया है।

यूपी के बुलंदशहर और अलीगढ़ के बीच एक रियासत छतारी थी. यहां मुस्लिम राजपूत यानी लालखानी कहे जाने वाले नवाब थे. पहले ये रियासत इतनी छोटी थी कि यहां के जमींदार को कुंवर कहा जाता था. 1915 में नवाब कहा गया.

अंग्रेज़ों ने यूपी को पहला मुख्यमंत्री दिया था. नवाब मुहम्मद अहमद सैयद खान ऑफ़ छतारी.

सैयद खान के दादा मुहम्मद अली 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश राज में हिंदुस्तान में नहीं रहना चाहते थे. सऊदी अरब में बस गये थे. पर उनके बेटे-बहू यानी सैयद के अम्मी-अब्बा की मौत सऊदी अरब में ही हो गई. तो अपने पोते सैयद की परवरिश करने के लिए वो इंडिया वापस गये. पर जब सैयद 8 साल के थे तब दादा की भी मौत हो गई. रियासत तो थी ही. काम चलने लगा. किस्मत भी साथ थी.

Nawab Ahmad Said Khan 0f Chhatari in Round Table Conference

ये
हाफिज बन गये थे यानी कुरान याद कर लिये थे. खयालात भी मॉडर्न थे. जिस वक्त जमीन की लड़ाई हुआ करती थी, ये कहा करते थे कि जमीन के बजाय मैं इंडस्ट्री लगाना पसंद करूंगा.

1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों को अपनी व्यवस्था में शामिल करना शुरू किया. जब इलेक्टेड डिस्ट्रिक्ट बोर्ड बने तब सैयद खान पॉलिटिक्स में गये. 1921 में इनके चेयरमैन बने. फिर वहीं से इनको यूपी लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिए जमींदारों ने नॉमिनेट कर दिया.

1925 में होम मेंबर यानी मिनिस्टर टाइप की पोजीशन पर पहुंचे. बहुत ज्यादा पावर तो नहीं थी फिर भी रिकमेंड करने भर की पावर थी. तो इन्होंने एक बदलाव किया. उस वक्त नौकरियां सिफारिश पर लगती थीं.  तो इनका कहना था कि सिफारिश के बजाए क्लर्कों के लिए परीक्षा करा ली जाए.
With Pandit Jawahar Lal Nehru .Then Prime Minister of India

उस वक्त अहीर और कुर्मी जातियां नौकरियों से बाहर थीं.तो नवाब ने इनको प्रोसेस में शामिल करते हुए ओपन रिक्रूटमेंट की शुरूआत की. अभी ये छोटी बात लगती है. पर उस वक्त ये चीजें मॉडर्न और निष्पक्ष हुआ करती थीं. नवाब 17 मई 1923 से 11 जनवरी 1926 तक यूपी की कैबिनेट में मिनिस्टर रहे. मिनिस्टर ऑफ इंडस्ट्री रहते हुए नवाब को उत्तर प्रदेश में चीनी मिल और आटे की मिलों को बैठाने का श्रेय प्राप्त है.

नवाब छतारी ने पहले राउंड टेबल कांफ्रेंस में हिस्सा लिया था. इंडिया से मुस्लिम डेलिगेशन आगा खान, जिन्ना, मुहम्मद अली, जफरुल्ला के नेतृत्व में गया था. छतारी भी थे इसमें. फिर 1931 में नवाब मिनिस्टर ऑफ एग्रीकल्चर बने. 1933 में जब ये गवर्नर बने तब ये पहली बार हुआ था कि किसी इंडियन को गवर्नर बनाया गया था.


अप्रैल-नवंबर 1933 तक ये इस पद पर रहे. ये किसानों के आंदोलन से भी जुड़े रहे. नेशनल एग्रीकल्चरल पार्टीज के लीडर चुने गए. फिर जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 आया तो नवाब को 1937 में यूपी का चीफ मिनिस्टर बनाया गया. बाद में नवाब ने चीफ मिनिस्टरी छोड़ दी. होम मिनिस्टर बन गये. 1937 में ही चुनाव हुए थे. चुनाव के बाद गोविंद बल्लभ पंत कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री बने थे. फिर दूसरे विश्व-युद्ध के चलते विधानसभा भंग कर दी गई.

विजयलक्ष्मी पंडित को जेल में देखकर रो पड़े  गवर्नर नवाब मुहम्मद अहमदसैयद खान ऑफ़ छतारी.

गवर्नर के तौर पर नवाब एक बार जेल इंसपेक्शन करने गये थे. वहां उन्होंने विजयलक्ष्मी पंडित को देखा. मोतीलाल नेहरू की बेटी को देख रो पड़े थे. हिंदुस्तान के नेताओं की ये बड़ी ही रोचक दास्तान थी. एक साथ दो जिंदगियां जीते थे. कर्म से अंग्रेजों के साथ रहते. मन से हिंदुस्तानियों का दर्द जाता नहीं था.

इस कॉन्फ्लिक्ट ने ही भारत की मॉडर्न राजनीति को जन्म दिया था.जुलाई-अगस्त 1941 के बीच नवाब नेशनल डिफेंस काउंसिल के मेंबर बने.


फिर यहां से छोड़कर वो हैदराबाद एग्जीक्यूटिव काउंसिल के प्रेसिडेंट बन गये.सरल शब्दों में निजाम के वजीर बन गये. 1 नवंबर 1947 तक वहां रहे. निजाम ने इनको सईद-उल-मुल्क का टाइटल दिया था. निजाम ने तो इंडिया से अलग होकर देश बनाने की पूरी कोशिश की थी. पर हो नहीं पाया था.

आजादी के बाद नवाब सोशल कामों में बिजी हो गए. ऑल इंडिया बॉय स्काउट्स असोशिएशन के चीफ स्काउट रहे. 1955 से 1982 में अपनी मौत तक. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के चांसलर रहे.


नवाब छतारी ने अंग्रेजों के दरबार से लेकर निजाम और फिर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के चांसलर तक का सफर तय किया. बदलते भारत के हर दौर में रहे थे नवाब. अगर देखा जाए तो एक छोटी सी रियासत से निकलकर इतनी सारी चीजें एक जिंदगी में करना बहुत बड़ी बात थी.


Wednesday, 8 July 2020

"The Bear" By Anton Chekhov: Played By A M U Drama Club Aligarh


Popova, a beautiful widow with dimpled cheeks, is mourning the death of her late husband. She seems to have been trying to crush the very basic human needs of herself while her servant, Luka, an old and practical man is trying to advise her: "It isn't right, madam.... You're just destroying yourself."

While in a deep sentimental tone she rejects his advice: "My life is already at an end. He is in his grave, and I have buried myself between four walls....We are both dead". He says that she has not been going out. She has confined herself between the four walls of her house.

He advises her to go about and get married because "you're young and beautiful, with roses in your cheek". She rebukes him saying: "when Nicolai Mihailovich died, life lost all its meaning for me. I vowed never to the end of my days to cease to wear mourning".

She seems impractical and childish when she tells Luka that: "I know it's no secret to you that he was often unfair to me, cruel, and... and even unfaithful, but I shall be true till death, and show him how I can love". She wishes to prove her unfaithful husband that she is faithful to him after his death.

She looks at the picture of her husband and vows: "My love will die out with me, only when this poor heart will cease to beat."

A bell rings, and Popova, wondering who could be visiting her, instructs Luka to turn the person away. The guest is Smirnov a retired lieutenant from whom her late husband used to buy oats. He has come to seek his money which is due on her husband. She asks him to come the day after tomorrow as she does not have petty cash with her.
She refuses and he insists on having his amount of one thousand and two hundred roubles the same day. She asks him: "You'll have your money the day after to-morrow." But he would not listen: "I don't want the money the day after tomorrow, I want it to-day."
She leaves the room and Smirnov expresses his anger in a soliloquy in which he goes onto say: "I'd rather sit on a barrel of gunpowder than talk to a woman." Smirnov declares he won't leave the house unless she pays him. Popova comes again and asks him to leave and they argue again.

She calls him: "You're a rude, ill-bred man! Decent people don't talk to a woman like that!".

He says that he has had great number of love affairs in his life and knows women: "all women, great or little, are insincere, crooked, backbiters, envious, liars to the marrow of their bones, vain, trivial, merciless, unreasonable".

He says that no woman is true in the world: "You'll meet a cat with a horn or a white woodcock sooner than a constant woman!" Popova counters him that men are not faithful either.

She says that her husband was probably the best of men she knew and even he deceived her for other women though "I worshiped him as if I were a heathen".

Here Smirnov accuses women of being sentimental and false. He blames her: "You may have buried yourself alive, but you haven't forgotten to powder your face! " She gets infuriated and calls him and abuses him.
Smirnov challenges her for a duel and she agrees to fight a duel with him. She goes away to take the pistols from inside her house. While she is away, Smirnov talks to himself: "She is a woman! That's the sort I can understand! A real woman! Not sour-faced jelly bag, but fire, gunpowder, a rocket!"

Popova come with the pistols and says in the utmost innocent manner: "Here are the pistols.... But before we fight you must show me how to fire. I've never held a pistol in my hands before." Smirnov teaches her how to fire a pistol but then he refuses to fight her.

She asks him why and he says that he is in love with her. She says she hates him and asks him to go away. He stays there and begs her love: "I'm off my head, I'm in love like a boy, like a fool!" He offers her to marry him but she keeps on refusing.

He pleads her love while on his knees and she asks him to go away. Suddenly Popova asks him to stop. Then the couple come near and Smirnov gives her a long kiss.

just as Luka(servant) returns with the gardener, the coachman, and various workmen, all armed with tools. Popova turns to Luka and tells him not to give Toby any oats at all.
Team Members-Kalakars of Play "Bear"
Team Members-Kalakars of Play"Bear"

The End
Note:--Plot Summary has been copied from net ,with thanks.




Friday, 3 July 2020

Brigadier Usman: Lion of Naushera, who rejected Jinnah’s offer as chief of Pakistan's army


भारतीय सेना का वह जांबाज ब्रिगेडियर जिसके सिर पर पाकिस्तान ने रखा था 50 हजार का इनाम।

बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई। चूंकि उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे।

पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे। इधर, पाक लगातार झनगड़ पर हमले करता रहा। अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे उस्मान। पाक सेना घात में बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने छह बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे - हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये।

ब्रिगेडियर उस्मान का जन्म 15 जुलाई, 1912 को आजमगढ़ में हुआ था। उनके पिता मोहम्मद फारूख पुलिस में आला अधिकारी थे जबकि मां जमीलुन बीबी घरेलू महिला थीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय मरदसे में हुई और आगे की पढ़ाई वाराणसी के हरश्चिंद्र स्कूल तथा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हुई। वह न सिर्फ अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि जबरदस्त वक्ता भी थे। वीरता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। तभी तो महज 12 साल की उम्र में वह अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े थे और उसे बचा भी लिया था।

Brigadier Usman

देश के बंटवारे के समय जिन्ना और लियाकत खान ने मुसलमान होने का वास्ता देकर उनसे पाकिस्तान आने का आग्रह किया। साथ ही पाकिस्तान की सेना का प्रमुख बनाने का ऑफर भी दिया। मगर उन्होंने उस ऑफर को ठुकरा दिया और 1947-48 में पाकिस्तान के साथ पहले युद्ध में वे शहीद हो गए।

उनकी बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिए उनको ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाता है। साल 1932 में मोहम्मद उस्मान की उम्र महज 20 साल थी। उस्मान जिस दौर में पल रहे थे, वो आजादी से काफी पहले का दौर था। उस्मान ने तभी सेना में जाकर देश के लिए कुछ करने का जज्बा दिल में पाल लिया था। यह वो दौर था जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी। उस्मान के अब्बा चाहते थे कि बेटा सिविल सर्विस में जाकर खानदान का नाम ऊंचा करे। लेकिन उस्मान के ख्वाब अब्बा की सोच से अलग थे।

20 की उम्र में उस्मान को आरएम, रॉयल मिलिट्री एकेडमी में दाखिला मिल गया। उस वक्त पूरे भारत में केवल 10 लड़कों को इस मिलिट्री संस्थान में दाखिला मिला था। उस्मान उनमें से एक थे। तब भारत की अपनी मिलिट्री एकेडमी नहीं थी, इसलिए सेना में जाने वाले युवाओं को ब्रिटिश सरकार इंग्लैंड में रॉयल मिलिट्री एकेडमी भेजकर ट्रेनिंग करवाती थी।


हालांकि इंग्लैंड की इस एकेडमी का यह आखिरी बैच था। उसी साल भारत में उत्तराखंड के देहरादून में पहली इंडियन मिलिट्री एकेडमी की स्थापना हो गई। उस्मान अपने अब्बा फारूख की उम्मीदों से उलट आर्मी अफसर बनने के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए। वहां उन्होंने 3 साल तक मिलिट्री की कड़ी ट्रेनिंग ली। इंग्लैंड की रॉयल मिलिट्री एकेडमी में प्रशिक्षण पूरा करने के बाद एक साल उस्मान ने रॉयल मिलिट्री फोर्स में भी अपनी सेवाएं दीं।

जिसके बाद वो भारत लौट आए। साल 1935 में उस्मान को 10वीं बलूच रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में पहली तैनाती मिली। वर्ल्ड वॉर के दौरान मोहम्मद उस्मान को अफगानिस्तान और बर्मा में भी तैनात किया गया। 30 अप्रैल, 1936 को उनको लेफ्टिनेंट की रैंक पर प्रमोशन मिला और 31 अगस्त, 1941 को कैप्टन की रैंक पर।

अप्रैल 1944 में उन्होंने बर्मा में अपनी सेवा दी और 27 सितंबर, 1945 को लंदन गैजेट में कार्यवाहक मेजर के तौर पर उनके नाम का उल्लेख किया गया। बंटवारे से पहले साल 1945 से लेकर साल 1946 तक मोहम्म्द उस्मान ने 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बटालियन का नेतृत्व किया। बलूच रेजीमेंट में तैनाती के दौरान वह युद्ध की हर बारीकियों को सीख रहे थे।

उस्मान शायद अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो रहे थे। जो उन्हें बंटवारे के बाद पाकिस्तानी फौज से लड़नी थी। अपनी काबिलियत के दम पर उन्हें लागातार प्रमोशन मिलता रहा और कम उम्र में ही वो ब्रिगेडियर के पद पर काबिज हो गए।


उस्मान को पता था कि भारत-पाक बंटवारे की सरगर्मियां तेज हो गई हैं। किसी भी समय में देश के बंटवारे का ऐलान हो सकता है और सेना को हर मोर्च पर तैयार रहना होगा। साल 1947 में भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जिसके बाद दोनों देशों से हजारों लोग इस तरफ से उस तरफ गए और वहां से यहां आए। भारत-पाक बंटवारे के बाद हर चीज का बंटवारा हो रहा था।

जमीन के टुकड़े के साथ ही विभागों और सेना की कुछ रेजिमेंट का बंटवारा किया गया। बलूचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा बना। बंटवारे के बाद मोहम्मद उस्मान बड़ी मुश्किल में आ गए। क्योंकि बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई। उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे।

जानते थे कि उस्मान एक काबिल और दिलेर अफसर हैं, जो पाकिस्तानी सेना के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बावजूद इसके उस्मान ने पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया। उसके बाद उस्मान को तोड़ने के लिए पाकिस्तानियों की ओर से काफी प्रलोभन दिए गए। इतना ही नहीं, मोहम्मद अली जिन्ना ने मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तानी सेना का चीफ ऑफ आर्मी बनाने तक का लालच दिया था।

मगर जिन्ना का ये लालच भी उस्मान के ईमान को हिला नहीं पाया। उस्मान ने भारतीय सेना में ही रहने का फैसला किया। जिसके बाद उन्हें डोगरा रेजिमेंट में शिफ्ट कर दिया गया। साल 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद कश्मीर आजाद रहना चाहता था। लेकिन पाकिस्तान ने बेहद चालाकी से वहां घुसपैठ किया। पाकिस्तान की मंशा कश्मीर पर कब्जा करने की थी।

उस दौरान कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद की गुहार लगाई। इसके बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। भारतीय सेना ने कश्मीर को बचाने के लिए अपने सैनिकों को श्रीनगर भेज दिया। भारतीय सेना का पहला लक्ष्य पाकिस्तानियों से कश्मीर घाटी को बचाना था।भारतीय सेना ने कश्मीर के आम इलाकों को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया।

वहीं, पाकिस्तानी घुसपैठ करते हुए नौशेरा तक पहुंच गए थे। पाकिस्तानी फौज कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर चुकी थी। पुंछ में हजारों लोग फंसे हुए थे। जिन्हें निकालने का काम भारतीय सेना कर रही थी। उस समय ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान 77वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे। वहां से उनको 50वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभालने के लिए भेजा गया। इस रेजिमेंट को दिसंबर, 1947 में झांगर में तैनात किया गया था।

25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झांगर पर भी कब्जा कर लिया था। झांगर का पाक के लिए सामरिक महत्व था। मीरपुर और कोटली से सड़कें आकर यहीं मिलती थीं। लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. करिअप्पा तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर बनाया। लक्ष्य था – झांगर और पुंछ पर कब्जा करना।

कई अन्य अधिकारियों के साथ ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भी कश्मीर में अपनी बटालियन का नेतृत्व कर रहे थे। उस्मान के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था। दुश्मन गुफाओं में छिपकर भारतीय सेना पर हमला कर रहे थे। उस्मान ने झांगर क्षेत्र को पाकिस्तानियों के कब्जे से आजाद कराने की कसम खाई थी। जो उन्होंने पूरी भी की।

Brigadier Usman and Pdt. Jawahar lal Nehru (Then Prime Minister of India) 


उसके बाद ऐसी बहादुरी दिखाई कि एक के बाद एक इलाके दुश्मन सेना के कब्जे से छुड़ा लाए। झांगर हासिल करने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा को भी फतह कर लिया था। जिसके बाद से उन्हें ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा।

उस्मान की बहादुरी के आगे पाकिस्तानी सेना चारों खाने चित्त हो गई थी। ब्रिगेडियर उस्मान की काबिलियत और कुशल रणनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके नेतृत्व में भारतीय सेना को काफी कम नुकसान हुआ था।

जहां इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 1000 सैनिक मारे गए, तो वहीं भारतीय सेना के सिर्फ 33 सैनिक शहीद हुए थे। ब्रिगेडियर अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे। पाकिस्तान इतना बौखला गया था कि उसने उस्मान के सिर पर 50 हजार रुपए का इनाम भी रख दिया।

पाक सेना घात लगाकर बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने 6 बजे होंगे। उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे – हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाए। ब्रिगेडियर उस्मान 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले शहीद हो गए। ब्रिगेडियर के पद पर रहते हुए देश के लिए शहीद होने वाले उस्मान इकलौते भारतीय थे।

पाकिस्तान के करीब 50,000 कबायली घुसपैठियों ने एक मस्जिद में शरण ले रखी थी। हमारे सैनिक एक धार्मिक इमारत पर हमला करने से हिचकिचा रहे थे। जब यह बात उनको पता चली तो खुद वहां पहुंचे और हमला करने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि जब घुसपैठियों ने इस पर कब्जा कर लिया तो अब यह इमारत धार्मिक नहीं रह गई।

उन्हीं की कुर्बानी का नतीजा है कि आज भी जम्मू-कश्मीर की घाटियां भारत का अभिन्न अंग हैं। उनके जनाजे में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी शामिल हुए थे। युद्ध में अनन्य वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया।


उस्मान अलग ही मिट्टी के बने थे। वह 12 दिन और जिए होते तो 36वां जन्मदिन मनाते। उन्होंने शादी नहीं की थी। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अफगानिस्तान और बर्मा तक वे गये थे। इसी कारण उन्हें कम उम्र में ही पदोन्नति मिलती गयी और वे ब्रिगेडियर तक बने। अपने वेतन का हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई और जरूरतमंदों पर खर्च करते थे। नौशेरा में 158 अनाथ बच्चे पाये गये थे। उनकी देखभाल करते, उनको पढ़ाते।

जब-जब भारतीय फौज की जवांमर्दी, वतनपरस्ती और पराक्रम का जिक्र होगा, मां भारती के सपूत ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का नाम वरीयता की ऊंचाईयों में बड़े अदब के साथ याद किया जायेगा।
The End
Note:--Story of Brigadier USMAN and photos are copied from sources avaplable on Net with thanks.