Wednesday, 8 July 2020

"The Bear" By Anton Chekhov: Played By A M U Drama Club Aligarh


Popova, a beautiful widow with dimpled cheeks, is mourning the death of her late husband. She seems to have been trying to crush the very basic human needs of herself while her servant, Luka, an old and practical man is trying to advise her: "It isn't right, madam.... You're just destroying yourself."

While in a deep sentimental tone she rejects his advice: "My life is already at an end. He is in his grave, and I have buried myself between four walls....We are both dead". He says that she has not been going out. She has confined herself between the four walls of her house.

He advises her to go about and get married because "you're young and beautiful, with roses in your cheek". She rebukes him saying: "when Nicolai Mihailovich died, life lost all its meaning for me. I vowed never to the end of my days to cease to wear mourning".

She seems impractical and childish when she tells Luka that: "I know it's no secret to you that he was often unfair to me, cruel, and... and even unfaithful, but I shall be true till death, and show him how I can love". She wishes to prove her unfaithful husband that she is faithful to him after his death.

She looks at the picture of her husband and vows: "My love will die out with me, only when this poor heart will cease to beat."

A bell rings, and Popova, wondering who could be visiting her, instructs Luka to turn the person away. The guest is Smirnov a retired lieutenant from whom her late husband used to buy oats. He has come to seek his money which is due on her husband. She asks him to come the day after tomorrow as she does not have petty cash with her.
She refuses and he insists on having his amount of one thousand and two hundred roubles the same day. She asks him: "You'll have your money the day after to-morrow." But he would not listen: "I don't want the money the day after tomorrow, I want it to-day."
She leaves the room and Smirnov expresses his anger in a soliloquy in which he goes onto say: "I'd rather sit on a barrel of gunpowder than talk to a woman." Smirnov declares he won't leave the house unless she pays him. Popova comes again and asks him to leave and they argue again.

She calls him: "You're a rude, ill-bred man! Decent people don't talk to a woman like that!".

He says that he has had great number of love affairs in his life and knows women: "all women, great or little, are insincere, crooked, backbiters, envious, liars to the marrow of their bones, vain, trivial, merciless, unreasonable".

He says that no woman is true in the world: "You'll meet a cat with a horn or a white woodcock sooner than a constant woman!" Popova counters him that men are not faithful either.

She says that her husband was probably the best of men she knew and even he deceived her for other women though "I worshiped him as if I were a heathen".

Here Smirnov accuses women of being sentimental and false. He blames her: "You may have buried yourself alive, but you haven't forgotten to powder your face! " She gets infuriated and calls him and abuses him.
Smirnov challenges her for a duel and she agrees to fight a duel with him. She goes away to take the pistols from inside her house. While she is away, Smirnov talks to himself: "She is a woman! That's the sort I can understand! A real woman! Not sour-faced jelly bag, but fire, gunpowder, a rocket!"

Popova come with the pistols and says in the utmost innocent manner: "Here are the pistols.... But before we fight you must show me how to fire. I've never held a pistol in my hands before." Smirnov teaches her how to fire a pistol but then he refuses to fight her.

She asks him why and he says that he is in love with her. She says she hates him and asks him to go away. He stays there and begs her love: "I'm off my head, I'm in love like a boy, like a fool!" He offers her to marry him but she keeps on refusing.

He pleads her love while on his knees and she asks him to go away. Suddenly Popova asks him to stop. Then the couple come near and Smirnov gives her a long kiss.

just as Luka(servant) returns with the gardener, the coachman, and various workmen, all armed with tools. Popova turns to Luka and tells him not to give Toby any oats at all.
Team Members-Kalakars of Play "Bear"
Team Members-Kalakars of Play"Bear"

The End
Note:--Plot Summary has been copied from net ,with thanks.




Friday, 3 July 2020

Brigadier Usman: Lion of Naushera, who rejected Jinnah’s offer as chief of Pakistan's army


भारतीय सेना का वह जांबाज ब्रिगेडियर जिसके सिर पर पाकिस्तान ने रखा था 50 हजार का इनाम।

बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई। चूंकि उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे।

पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिये जायेंगे। इधर, पाक लगातार झनगड़ पर हमले करता रहा। अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे उस्मान। पाक सेना घात में बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने छह बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे - हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये।

ब्रिगेडियर उस्मान का जन्म 15 जुलाई, 1912 को आजमगढ़ में हुआ था। उनके पिता मोहम्मद फारूख पुलिस में आला अधिकारी थे जबकि मां जमीलुन बीबी घरेलू महिला थीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय मरदसे में हुई और आगे की पढ़ाई वाराणसी के हरश्चिंद्र स्कूल तथा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हुई। वह न सिर्फ अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि जबरदस्त वक्ता भी थे। वीरता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। तभी तो महज 12 साल की उम्र में वह अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े थे और उसे बचा भी लिया था।

Brigadier Usman

देश के बंटवारे के समय जिन्ना और लियाकत खान ने मुसलमान होने का वास्ता देकर उनसे पाकिस्तान आने का आग्रह किया। साथ ही पाकिस्तान की सेना का प्रमुख बनाने का ऑफर भी दिया। मगर उन्होंने उस ऑफर को ठुकरा दिया और 1947-48 में पाकिस्तान के साथ पहले युद्ध में वे शहीद हो गए।

उनकी बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिए उनको ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाता है। साल 1932 में मोहम्मद उस्मान की उम्र महज 20 साल थी। उस्मान जिस दौर में पल रहे थे, वो आजादी से काफी पहले का दौर था। उस्मान ने तभी सेना में जाकर देश के लिए कुछ करने का जज्बा दिल में पाल लिया था। यह वो दौर था जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी। उस्मान के अब्बा चाहते थे कि बेटा सिविल सर्विस में जाकर खानदान का नाम ऊंचा करे। लेकिन उस्मान के ख्वाब अब्बा की सोच से अलग थे।

20 की उम्र में उस्मान को आरएम, रॉयल मिलिट्री एकेडमी में दाखिला मिल गया। उस वक्त पूरे भारत में केवल 10 लड़कों को इस मिलिट्री संस्थान में दाखिला मिला था। उस्मान उनमें से एक थे। तब भारत की अपनी मिलिट्री एकेडमी नहीं थी, इसलिए सेना में जाने वाले युवाओं को ब्रिटिश सरकार इंग्लैंड में रॉयल मिलिट्री एकेडमी भेजकर ट्रेनिंग करवाती थी।


हालांकि इंग्लैंड की इस एकेडमी का यह आखिरी बैच था। उसी साल भारत में उत्तराखंड के देहरादून में पहली इंडियन मिलिट्री एकेडमी की स्थापना हो गई। उस्मान अपने अब्बा फारूख की उम्मीदों से उलट आर्मी अफसर बनने के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए। वहां उन्होंने 3 साल तक मिलिट्री की कड़ी ट्रेनिंग ली। इंग्लैंड की रॉयल मिलिट्री एकेडमी में प्रशिक्षण पूरा करने के बाद एक साल उस्मान ने रॉयल मिलिट्री फोर्स में भी अपनी सेवाएं दीं।

जिसके बाद वो भारत लौट आए। साल 1935 में उस्मान को 10वीं बलूच रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में पहली तैनाती मिली। वर्ल्ड वॉर के दौरान मोहम्मद उस्मान को अफगानिस्तान और बर्मा में भी तैनात किया गया। 30 अप्रैल, 1936 को उनको लेफ्टिनेंट की रैंक पर प्रमोशन मिला और 31 अगस्त, 1941 को कैप्टन की रैंक पर।

अप्रैल 1944 में उन्होंने बर्मा में अपनी सेवा दी और 27 सितंबर, 1945 को लंदन गैजेट में कार्यवाहक मेजर के तौर पर उनके नाम का उल्लेख किया गया। बंटवारे से पहले साल 1945 से लेकर साल 1946 तक मोहम्म्द उस्मान ने 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बटालियन का नेतृत्व किया। बलूच रेजीमेंट में तैनाती के दौरान वह युद्ध की हर बारीकियों को सीख रहे थे।

उस्मान शायद अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो रहे थे। जो उन्हें बंटवारे के बाद पाकिस्तानी फौज से लड़नी थी। अपनी काबिलियत के दम पर उन्हें लागातार प्रमोशन मिलता रहा और कम उम्र में ही वो ब्रिगेडियर के पद पर काबिज हो गए।


उस्मान को पता था कि भारत-पाक बंटवारे की सरगर्मियां तेज हो गई हैं। किसी भी समय में देश के बंटवारे का ऐलान हो सकता है और सेना को हर मोर्च पर तैयार रहना होगा। साल 1947 में भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जिसके बाद दोनों देशों से हजारों लोग इस तरफ से उस तरफ गए और वहां से यहां आए। भारत-पाक बंटवारे के बाद हर चीज का बंटवारा हो रहा था।

जमीन के टुकड़े के साथ ही विभागों और सेना की कुछ रेजिमेंट का बंटवारा किया गया। बलूचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा बना। बंटवारे के बाद मोहम्मद उस्मान बड़ी मुश्किल में आ गए। क्योंकि बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई। उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की वजह से ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे।

जानते थे कि उस्मान एक काबिल और दिलेर अफसर हैं, जो पाकिस्तानी सेना के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे। बावजूद इसके उस्मान ने पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया। उसके बाद उस्मान को तोड़ने के लिए पाकिस्तानियों की ओर से काफी प्रलोभन दिए गए। इतना ही नहीं, मोहम्मद अली जिन्ना ने मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तानी सेना का चीफ ऑफ आर्मी बनाने तक का लालच दिया था।

मगर जिन्ना का ये लालच भी उस्मान के ईमान को हिला नहीं पाया। उस्मान ने भारतीय सेना में ही रहने का फैसला किया। जिसके बाद उन्हें डोगरा रेजिमेंट में शिफ्ट कर दिया गया। साल 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद कश्मीर आजाद रहना चाहता था। लेकिन पाकिस्तान ने बेहद चालाकी से वहां घुसपैठ किया। पाकिस्तान की मंशा कश्मीर पर कब्जा करने की थी।

उस दौरान कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद की गुहार लगाई। इसके बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। भारतीय सेना ने कश्मीर को बचाने के लिए अपने सैनिकों को श्रीनगर भेज दिया। भारतीय सेना का पहला लक्ष्य पाकिस्तानियों से कश्मीर घाटी को बचाना था।भारतीय सेना ने कश्मीर के आम इलाकों को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया।

वहीं, पाकिस्तानी घुसपैठ करते हुए नौशेरा तक पहुंच गए थे। पाकिस्तानी फौज कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर चुकी थी। पुंछ में हजारों लोग फंसे हुए थे। जिन्हें निकालने का काम भारतीय सेना कर रही थी। उस समय ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान 77वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे। वहां से उनको 50वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभालने के लिए भेजा गया। इस रेजिमेंट को दिसंबर, 1947 में झांगर में तैनात किया गया था।

25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झांगर पर भी कब्जा कर लिया था। झांगर का पाक के लिए सामरिक महत्व था। मीरपुर और कोटली से सड़कें आकर यहीं मिलती थीं। लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. करिअप्पा तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर बनाया। लक्ष्य था – झांगर और पुंछ पर कब्जा करना।

कई अन्य अधिकारियों के साथ ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भी कश्मीर में अपनी बटालियन का नेतृत्व कर रहे थे। उस्मान के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था। दुश्मन गुफाओं में छिपकर भारतीय सेना पर हमला कर रहे थे। उस्मान ने झांगर क्षेत्र को पाकिस्तानियों के कब्जे से आजाद कराने की कसम खाई थी। जो उन्होंने पूरी भी की।

Brigadier Usman and Pdt. Jawahar lal Nehru (Then Prime Minister of India) 


उसके बाद ऐसी बहादुरी दिखाई कि एक के बाद एक इलाके दुश्मन सेना के कब्जे से छुड़ा लाए। झांगर हासिल करने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा को भी फतह कर लिया था। जिसके बाद से उन्हें ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा।

उस्मान की बहादुरी के आगे पाकिस्तानी सेना चारों खाने चित्त हो गई थी। ब्रिगेडियर उस्मान की काबिलियत और कुशल रणनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके नेतृत्व में भारतीय सेना को काफी कम नुकसान हुआ था।

जहां इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 1000 सैनिक मारे गए, तो वहीं भारतीय सेना के सिर्फ 33 सैनिक शहीद हुए थे। ब्रिगेडियर अपनी बहादुरी के कारण पाकिस्तानी सेना की आंखों की किरकिरी बन चुके थे। पाकिस्तान इतना बौखला गया था कि उसने उस्मान के सिर पर 50 हजार रुपए का इनाम भी रख दिया।

पाक सेना घात लगाकर बैठी थी। 3 जुलाई, 1948 की शाम, पौने 6 बजे होंगे। उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले कि उन पर 25 पाउंड का गोला पाक सेना ने दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे – हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाए। ब्रिगेडियर उस्मान 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले शहीद हो गए। ब्रिगेडियर के पद पर रहते हुए देश के लिए शहीद होने वाले उस्मान इकलौते भारतीय थे।

पाकिस्तान के करीब 50,000 कबायली घुसपैठियों ने एक मस्जिद में शरण ले रखी थी। हमारे सैनिक एक धार्मिक इमारत पर हमला करने से हिचकिचा रहे थे। जब यह बात उनको पता चली तो खुद वहां पहुंचे और हमला करने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि जब घुसपैठियों ने इस पर कब्जा कर लिया तो अब यह इमारत धार्मिक नहीं रह गई।

उन्हीं की कुर्बानी का नतीजा है कि आज भी जम्मू-कश्मीर की घाटियां भारत का अभिन्न अंग हैं। उनके जनाजे में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी शामिल हुए थे। युद्ध में अनन्य वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया।


उस्मान अलग ही मिट्टी के बने थे। वह 12 दिन और जिए होते तो 36वां जन्मदिन मनाते। उन्होंने शादी नहीं की थी। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अफगानिस्तान और बर्मा तक वे गये थे। इसी कारण उन्हें कम उम्र में ही पदोन्नति मिलती गयी और वे ब्रिगेडियर तक बने। अपने वेतन का हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई और जरूरतमंदों पर खर्च करते थे। नौशेरा में 158 अनाथ बच्चे पाये गये थे। उनकी देखभाल करते, उनको पढ़ाते।

जब-जब भारतीय फौज की जवांमर्दी, वतनपरस्ती और पराक्रम का जिक्र होगा, मां भारती के सपूत ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का नाम वरीयता की ऊंचाईयों में बड़े अदब के साथ याद किया जायेगा।
The End
Note:--Story of Brigadier USMAN and photos are copied from sources avaplable on Net with thanks.


Wednesday, 1 July 2020

Twenty-Six Men And a Girl By Maxim Gorky: A Short Story From Russia With love


हम छब्बीस थेछब्बीस जीती-जागती मशीनें; गीले तहखानों में बंद, जहां हम क्रेंडल और सुशका बनाने के लिए आटा गूंधते थे. हमारे तहखाने की खिड़की नमी के कारण हरे और कीचड़ भरी ईंटों के क्षेत्र में खुलती थी. खिड़की को बाहर से लोहे की सलाखों से रक्षित किया गया था.

आटे की धूल से सने शीशों से धूप नहीं आ सकती थी. हमारे मालिक ने खिड़की में लोहे की सलाखें इसलिए लगवाई थीं कि हम बाहर के भिखारियों को या अपने उन साथियों को रोटी न दे सकें, जो बेकार थे और भूखों मर रहे थे.

हमारा मालिक हमें कपटी कहता था और खाने में मांस की जगह जानवरों की सड़ी आंतें देता था. वह हमारे लिए भाप और मकड़ी के जालों से भरी, नीची एवं छत के तले और धूल तथा गोरुई रोग से ग्रसित मोटी दीवारों के बीच, गला घोंटनेवाला बंद पत्थर का बक्सा था, जहां हम रखे गए थे.

हम प्रातः पांच बजे जागते थे और सोते समय हमारे साथियों द्वारा गूंधे गए आटे से क्रेंडल और सुशका बनाने के लिए, भोथरे और उदासीन, छह बजे तक अपनी मेजों पर बैठ जाते थे. सारा दिन- प्रातः से लेकर रात दस बजे तक- हममें से कुछ साथी मेजों पर गूंधे आटे को हाथों से गोल करते थे और बाकी दूसरे आटे को पानी में गूंधते थे.

सारा दिन उस बरतन में धीमी और शोकपूर्ण आवाज में खौलता पानी गाता रहता, जिसमें क्रेंडल पकाते थे और नानबाई अपने बेलचे से सख्ती तथा जोर से भट्ठी को रगड़ता था, जब उबाले गए आटे को गरम ईंटों पर रखता था. सारा दिन अंगीठी की लकड़ियां जलती रहती थीं और ज्वाला का लाल प्रतिबिंब उस काले घर की दीवारों पर नाचता था, मानों हमारा मजाक उड़ा रहा हो.

किसी परियों की कहानी के दैत्य के सिर की तरह, महाकाय भट्ठी का आकार भी भद्दा था. जीवित आग भरे अपने जबड़े को खोले, हम पर गरम सांसें छोड़ता और भट्ठी पर लगे दो रोशनदानों से अनंत रूप से हमारे काम को देखता, अपने आपको भूमि से ऊपर को धक्का देता हुआ प्रतीत होता था-

ये दो रोशनदान आंखों की तरह थे- दैत्य की शांत और निर्दयी आंखें! वे हमेशा हमारी तरफ उसी काली नजर से देखतीं, मानों वे सनातन गुलामों को देखते-देखते थक गई हों और हमसे किसी मानव वस्तु की अपेक्षा न करके बुद्धिमानी की ठंडी घृणा से हमारा तिरस्कार कर रही हों.

दिन-प्रतिदिन, आटे की धूल और अपने पैरों से लाए गए कीचड़ में, उस अत्यन्त गरम वातावरण में, हम गूंधे हुए आटे को अपनी पसीने से तर करते क्रेंडलों के लिए गोले बनाते थे. हम अपने काम से तीव्र घणा करते थे और अपने हाथ बनाए क्रेंडल कभी नहीं खाते थे.

हम चरी से बनाए क्रेंडलों को मान्यता देते थे. लंबी मेज पर एक-दूसरे के सामने बैठते थे. लंबे समय तक मशीन की तरह हाथों और अंगुलियों को चलाते थे कि हमें अपनी गति को देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हम एक-दूसरे को तब तक देखते रहते थे, जब तक हर कोई यह नहीं देख लेता था कि उसके साथी के चेहरे पर कितनी झुर्रियां थीं. हमारे पास बात करने के लिए कुछ नहीं था.

बातचीत का हर विषय समाप्त हो चुका था और हम अधिक समय तक चुप रहते थे, जब तक एक-दूसरे को गाली नहीं देते थे. एक व्यक्ति हम एक को गाली दे सकता था, विशेषकर जब वह व्यक्ति उसका साथी हो, परन्तु ऐसा बहुत कम होता था.

एक आदमी तुम्हें बुरा-भला कैसे कह सकता है जब वह स्वयं ही अधमरा हो, यदि वह स्वयं पत्थर हो, यदि उसकी भावनाओं को उसके परिश्रम ने कुचल दिया हो, परन्तु हमारे जैसे आदमियों के लिए मौन रहना अत्यन्त कष्टकर था.

Maxim Gorky

उनके लिए, जिन्होंने सब कुछ कह दिया हो, जो वे कह सकते थे- मौन केवल उनके लिए सादा और सरल है, लेकिन जिन्होंने अभी तक बोलना शुरू नहीं किया...परन्तु कभी-कभी हम गाते थे और हमारा गाना इस प्रकार शुरू होता था- काम करते-करते हममें से एक थके हुए घोड़े की तरह लंबी आह भरता, फिर नरम स्वर में गुनगुनाता था, जिसका मधुर किंतु शोकाकुल उद्देश्य हमेशा गायक के दिल को हलका कर देना था.

हममें से एक गाता और बाकी चुप रहकर उसे सुनते. गाना कांपता और हमारे तहखाने की छत के नीचे मर जाता था; जैसे सर्दियों की गीली रात में आग. उसके साथ दूसरी आवाज जुड़ जाती और दोनों आवाजें, तब हमारे घनी भीड़ वाले गढ़े के मोटे वातावरण में नरम और शोकाकुल रूप से तैरने लगतीं. एकाएक कई आवाजें जुड़ जातीं और गाना लहरों की तरह उठता तथा ऊंचा और ऊंचा होता जाता, लगता कि पथरीली जेल की दीवारें हिल जाएंगी.

छब्बीस-के-छब्बीस आदमी अपनी शक्तिशाली आवाजों में गाकर नानबाई खाने को भर देते थे जब तक यह महसूस नहीं होता था कि तहखाना हमारे गाने के लिए छोटा पड़ रहा है. गाना पथरीली दीवारों से टकराता था, विलाप करता था और कराहता था. वह दिल को मधुर उत्तेजित पीड़ा से भर देता था, पुराने घावों को खोलता था और निराशाओं को जाग्रत करता था.

Maxim Gorky

गाने वाले गहरी और भारी आह भरते. एक आदमी एकाएक अपना गाना बंद करके कुछ देर के लिए साथियों का गाना सुनने बैठ जाता था. फिर उस आवाज को पुनः सामान्य लहर मिल जाती अथवा कोई निराशा में चिल्लाता- 'आह!' और फिर आंखें बंद करके गाने लगता था. परिपूर्ण लहर संभवतः उसे कहीं दूर का रास्ता मालूम होती- खुली धूप से चमकता रास्ता, जिस पर वह स्वयं चल रहा था.

 
परन्तु भट्ठी में ज्वाला अभी तक झिलमिला रही थी. नानबाई अब तक अपने बेलचे से रगड़ रहा था. पानी अभी तक बरतनों में खौल रहा था और आग का प्रतिबंब अब भी दीवारों पर तिरस्कार से नाच रहा था. दूसरे आदमियों के शब्दों में हमने अपने भौथरे शोक को गाया- और गाया उन व्यक्तियों की व्यथा को, जो धूप से वंचित थे और जिनको गुलामों जैसी भारी निराशा थी.


तो पत्थरों से बने उस बड़े तहखाने में हम छब्बीस आदमी इस प्रकार रहते थे. हमारे ऊपर काम का बोझ इतना था मानो उस मकान की तीनों मंजिलों का सारा बोझ हमारे कंधों पर हो. गाने के अतिरिक्त हमारे पास और भी अच्छी चीज थी, ऐसी चीज, जिसको हम प्यार करते थे और जिसने धूप का स्थान ले लिया था- धूप, जिसकी कमी हमें थी.


हमारे मकान की दूसरी मंजिल पर सुनहरी कशीदाकारी की दुकान थी और उसमें काम करने वाली लड़कियों के साथ एक टानिया भी थी- सोलह वर्ष की घरेलू सेविका. प्रतिदिन प्रातः वह अपनी चमकती आंखें और गुलाबी चेहरा लिये, दरवाजे में लगी खिड़की से झांकती और दुलार दिखाने वाली तथा ठनठनाती आवाज में हमें बुलाकर पूछती, ''कैदियों! क्या मेरे लिए कोई क्रेंडली है?''

हम सभी इस साफ, प्रसन्न और जानी-पहचानी आवाज पर मुड़ते और प्रसन्नतापूर्वक उस छोटे से मुसकराते सुकुमार चेहरे को देखते थे. हम शीशे से दबी छोटी नाक और गुलाबी होंठों के बीच छोटे एवं सफेद दांतों को चमकते देखना चाहते थे- गुलाबी होंठ, जो मुसकराहट से फैल जाते थे. हम एक-दूसरे पर गिरते हुए उसके लिए दरवाजा खोलने जाते थे.

वह आंनदचित अंदर आती और हमारे सामने एप्रेन थामे और मुसकराते हुए खड़ी हो जाती थी. एप्रेन के लम्बे प्लेट, जो कंधों पर खिसक जाते थे, उसके सीने के आर-पार तक आते थे और हम काले, गंदे, भद्दे उसकी तरफ देखते थे- (भूमि से दहलीज कई सीढ़ियां ऊंची थीं) केवल उसके लिए रटे गए विशेष शब्दों में हम उसे शुभ प्रभात कहते थे.

जब उससे बात करते तो हमारी आवाजें नरम हो जातीं और मजाक भी आसानी से होते थे. जो कुछ भी हम उसके लिए करते, उनमें कुछ-न-कुछ विशेषता होती थी. नानबाई अपना बेलचा धकेलता और अत्यन्त भारी क्रेंडल, जो भी वह ढूंढ़ सकता था, निकालता और टानिया के एप्रेन में डाल देता था.

''ध्यान रखना कि मालिक तुम्हें पकड़ न ले!'' हम हमेशा उसे चेताया करते थे. वह गंवारू हंसी हंसती और प्रसन्नता से कहती- ''अलविदा, कैदियों!'' और चूहे की तरह भाग जाती थी.

यह सब कुछ होता था. जब वह चली जाती तो उसकी बात हम एक-दूसरे से करते. हम वही कहते जो पिछले दिन या उसके पिछले दिन कहा था; क्योंकि वह और हम तथा हमारे आसपास की चीजें वही होती थीं, जो पिछले या उससे पिछले दिन होती थीं. यह किसी भी व्यक्ति के लिए कठिन और दुःखदायी होता है, जिसके इर्द-गिर्द कुछ भी परिवर्तन नहीं होता. यदि इसमें आत्मा को पूरी तरह नष्ट करने का प्रभाव नहीं होता तो जितना अधिक समय वह जीता है, उसके आसपास का वातावरण उतना ही दुःखदायी और थकान वाला हो जाता है.

औरतों के बारे में बात करते हुए हमारे अशिष्ट और लज्जाहीन शब्द कभी-कभी हमें भी घृणित प्रतीत होते हैं. यह हो सकता है कि जिन औरतों को हम जानते थे, वे दूसरे प्रकार के शब्दों के योग्य न हों, परन्तु हमने कभी भी टानिया के बारे में बुरा नहीं कहा था. हममें से किसी आदमी का साहस नहीं होता था कि उसे हाथ से छुए.

हमने कभी भी खुला मजाक उसके सामने नहीं किया था. संभवतः यह यह कारण था कि वह हमारे पास अधिक समय तक नहीं रुकती थी; टूटे तारे की तरह एक क्षण चमककर लुप्त हो जाती थी, या फिर वह इतनी छोटी, प्यारी और सुंदर थी कि अशिष्टतम व्यक्तियों तक के दिलों में अपने लिए आदर जाग्रत कर सकती थी.

भले ही कठोर परिश्रम ने हमे आत्मशक्ति से वंचित कर दिया था, हम फिर भी पुरुष और पूजा के लिए कुछ-न-कुछ चाहते थे, टानिया से बढ़कर हमारे पास और कोई वस्तु नहीं थी. टानिया के अतिरिक्त और किसी ने भी हम तहखाने के निवासियों की ओर ध्यान नहीं दिया था, भले ही मकान में बीसियों व्यक्ति और रहते थे.

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हम सभी उसको अपना मानते थे- एक प्राणी, जो हमारे क्रेंडलों पर जी रहा था. हमने उसको गरम-गरम क्रेंडल देना अपना कर्तव्य मान लिया था. क्रेंडल हमारे देवता के लिए दैनिक भेंट बन गई- लगभग धार्मिक रीति, जो हमारे संबंधों को दिन-प्रतिदिन और पास लाती गई.

क्रेंडलों के साथ हम उसे परामर्श भी देते थे; जैसे- उसे गरम कपड़े पहनने चाहिए, उसे सीढ़ियों पर दौड़कर चढ़ना नहीं चाहिए और न ही लकड़ी के भारी गट्ठर उठाने चाहिए. वह हमारे परामर्शों को सुनकर मुसकराती और हमारी बातों का जवाब हंसकर देती थी. कभी-कभी वह हमारे परामर्शों पर ध्यान नहीं देती थी, परन्तु इससे हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था. हमें तो केवल इतना ही दिखाने की चिंता थी कि हम उसका ध्यान रखते हैं.

वह कोई-न-कोई प्रार्थना लेकर हमारे पास बारंबार आती थी; जैसे- तहखाने का भारी दरवाजा खोलना या कुछ लकड़ी चीरना; और हम गर्व से खुशी से वह सब कुछ करते थे जो वह कहती थी.

जब कोई उससे कहता कि मेरी एकमात्र कमीज की मरम्मत कर दो तो वह नाक सिकोड़कर तिरस्कार पूर्वक कहती- ''कैसा विचार है यह! जैसे मैं इसे कर सकती हूं.''

हम उस साहसी लड़की पर हंसे और फिर कभी ऐसी मांग नहीं की. हम उसे प्यार करते थे. बस इतना कहना ही पर्याप्त है. एक आदमी अपना प्यार अन्य व्यक्ति पर प्रतिपादित करना चाहता है, भले ही वह कभी-कभी इसके प्यार को बिगाड़ देता है, दूषित कर देता है; भले ही इससे दूसरे का जीवन नष्ट हो जाए, क्योंकि वह प्रेमिका का आदर किए बिना उसे प्यार करता है. हम टानिया को प्यार किए बिना नहीं रह सकते थे, क्योंकि हमारे पास दूसरा कुछ करने के लिए था ही नहीं!

कभी-कभी हममें से एक हमारे इस व्यवहार की आलोचना करता था-''हम लड़की को क्यों बिगाड़ें? आखिर उसमें कौन सी ऐसी बात है? हम उसके लिए काफी कष्ट उठाते हुए प्रतीत होते हैं.''जिस आदमी ने ऐसा कहने का साहस किया, उसको

धष्टतापूर्वक चुप करा दिया गया. हमें किसी से प्यार करना था और हमने किसी को प्यार के लिए ढूंढ़ लिया था. जिस प्राणी को हम छब्बीस लोग प्यार करते थे, वह हर एक के लिए भिन्न और पवित्र होना चाहिए; जो इसका उल्लंघन करते हैं, वे हमारे शत्रु हैं. जिस वस्तु को हम प्यार करते थे, संभवतः वह अच्छी नहीं थी, परन्तु हम छब्बीस थे, इसी कारण हमें ऐसी वस्तु चाहिए थी जो सबको प्यारी होती और जिसको सभी एक-सा आदर देते.

प्यार भी घणा से कम सताने वाला नहीं. संभवतः इसीलिए कुछ चतुर आदमी मानते हैं कि घणा प्यार की अपेक्षा अधिक प्रशंसनीय है, परन्तु यदि वे ऐसा मानते हैं तो हमारे पीछे क्यों भागते हैं?

क्रेंडली बेकरी के अतिरिक्त उसी मकान में हमारे मालिक की डबलरोटी की बेकरी भी थी, जिसको हमारे गड्ढे से एक दीवार जुदा करती थी. वहां रोटी बनाने वाले चार नानबाई थे, परन्तु वे यह सोचकर कि उनका काम हमारे काम से श्रेष्ठ है, हमारी अवहेलना करते थे. वे कभी भी हमसे मिलने नहीं आते थे और जब भी हम सेहन में मिलते, वे हमारा मजाक उड़ाते थे, इसलिए उनसे नहीं मिलते थे.

 कहीं हम मिल्क-रोल न चुरा लें, इसलिए हमारे मालिक ने हमें मना कर दिया था. हम रोटी बनाने वालों को पसंद नहीं करते थे, क्योंकि हम उनसे ईर्ष्या करते थे. उनका काम हमारे काम से आसान था. उनको हमसे अधिक पगार मिलती थी और उनका खान-पान भी अच्छा था. उनका कमरा हमारे कमरे से बड़ा था और उसमें रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था थी.


वे सभी हृष्ट-पुष्ट और साफ-सुथरे व्यक्ति थे, जबकि हम दुःखी एवं त्रस्त जंतु थे. हममें से तीन साथी रोगग्रस्त थे- एक को चर्मरोग था, दूसरा गठिए के कारण पूर्णतया बेढंगा था. खाली समय और छुट्ठियों में रोटी बनाने वाले चुस्त, छोटे-छोटे और आवाज करने वाले जूते पहनते थे.

कुछ के पास हवा से बजने वाले हाथ के बाजे होते थे और वे पार्क में घूमने जाते थे, जबकि हम अपने गंदे चिथड़े और फटे जूते पहनते थे और पुलिस वाले हमें पार्क में जाने से रोकते थे. अतः कोई आश्चर्य नहीं कि हम रोटी बनाने वालों को पसंद नहीं करते थे.

एक दिन हमने सुना कि डबलरोटी बनाने वालों में से एक ने बहुत पी ली थी. मालिक ने उसे निकाल दिया और दूसरे को उसकी जगह काम पर रख लिया. उसकी प्रसिद्धि सिपाही के रूप में थी. वह साटन की वास्कट और सुनहरी घड़ी-चेन पहने घूमता था. हम इस अजूबे को देखने के लिए उत्सुक थे और सेहन में एक-दूसरे के बाद इस आशा से भागते रहे कि उसकी एक झलक मिल जाए.

वह स्वयं हमारे पास आया. उसने एक ठोकर मारकर दरवाजा खोला और दहलीज पर खड़े होकर मुसकराते हुए हमसे कहा, ''परमात्मा आपके साथ हो, शुभ प्रभात, साथियों!''

दरवाजे पर गहरे बादल की तरह आती हुई ठंडी हवा उसकी टांगों से खेल रही थी. वह दहलीज पर खड़ा हमें देख रहा था और बल दी गईं उसकी साफ मूंछों के नीचे उसके पीले दांत चमक रहे थे. वह वास्तव में नीले रंग की अजीब वास्कट पहने हुए था, जिस पर फूलों की चमकदार कशीदाकारी की हुई थी. उसके बटन लाल पत्थर के थे और चेन भी वहां थी.

वह सिपाही सुंदर था- लंबा, तगड़ा, गुलाबी गाल और आंखों में स्पष्ट दयालु आकृति. वह कलफ लगी टोपी पहने हुए था और उसके साफ एप्रेन के नीचे पॉलिश किए हुए चमकदार जूतों की नोक झांक रही थी.

जब हमारे अपने नानबाई ने उससे दरवाजा बंद करने के लिए आदरपूर्वक प्रार्थना की, तब उसने उसे धीरे से बंद कर दिया और फिर मालिक के बारे में प्रश्न करने लगा. एक-दूसरे से होड़ लेते हुए हमने उसे बताया कि हमारा मालिक ऊनी बनियान की तरह है- दुष्ट, दुराचारी अर्थात् सब कुछ.

वास्तव में, मालिक की बाबत जो कुछ भी कहने योग्य होता है, उसको यहां कहनाअसंभव है.अपनी मूंछों पर ताव देते हुए सिपाही सुनता रहा और अपनी बड़ी एवं कोमल आंखों से हमारी तरफ देखता रहा.

''क्या यहां बहुत लड़कियां हैं?'' उसने एकाएक पूछा.हममे से कुछ इस पर हंसने लगे; जबकि दूसरों ने मुंह बनाकर उसे बताया कि कुल मिलाकर नौ लड़कियां थीं.''क्या तुम अपने अवसरों का लाभ उठाते हो?'' सिपाही ने एक आंख झपकाकर पूछा.
हम पुनः हंस दिए- नरम और व्याकुल हंसी. हममें से कई ने चाहा होगा कि सिपाही को विश्वास दिला दें कि हम भी उतने ही चतुर हैं जितना कि वह, परन्तु हममें से कोई भी ऐसा नहीं करता और न ही कोई जानता था कि यह कैसे किया जाए. कुछ ने तो यह कहते हुए नरमी से स्वीकार भी कर लिया-''हम इसे पसंद नहीं करते.''

''हां, यह वस्तुतः तुम्हारे लिए कठिन भी होगा.'' सिपाही ने ऊपर-नीचे देखते हुए विश्वास के साथ कहा, ''यह तुम्हारी श्रेणी में नहीं है, तुम्हारी कोई प्रतिष्ठा नहीं है- शक्ल-सूरत भी नहीं, यहां तक कि तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नहीं है. औरत आदमी की आकृति का विशेष ध्यान रखती है. उसका शरीर अच्छा होना चाहिए और कपड़े भी अच्छी तरह पहने हों; फिर औरत आदमी की शक्ति की प्रशंसा करती है. उसका इस प्रकार का बाजू होना चाहिए, देखा!''

सिपाही ने अपना दायां हाथ जेब से निकाला और कोहनी तक नंगा करके हमें दिखाया. यह सफेद शक्तिशाली बाजू था, जिस पर चमकते हुए सुनहरे बाल थे.''टांग, छाती और हर अंग पुष्ट होना चाहिए और फिर अच्छा बनने के लिए कपड़े भी अच्छी तरह पहने हुए होने चाहिए.

मुझे ही देख लो, सारी औरतें मुझसे प्यार करती हैं. उनको बुलाने के लिए मुझे अंगुली उठानी नहीं पड़ती और एक समय में पांच अपने आपको मेरे सिर पर गिरा देती हैं.''

वह आटे के बोरे पर बैठ गया और हमें सुनाने लगा कि किस तरह औरतें उससे प्यार करती थीं और किस वीरता से वह उनसे व्यवहार करता था. अंततः वह चला गया और जब दरवाजा चीं करके बंद हुआ तो हम सिपाही और उसकी कहानियों को सोचते देर तक मौन बैठे रहे; एकाएक हम सभी बोलने लगे और यह शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि हम सभी उसमें रुचि लेने लगे थे.कितना सीधा आदमी था.

वह आया और हमसे बातचीत की. किसी ने भी आकर हमसे इस प्रकार मित्रतापूर्वक बात नहीं की थी. हमने उसकी बात की और बात की कशीदाकारी करने वाली लड़कियों पर उसकी भावी विजय दर्ज की. वे लड़कियां बाहर निकलतीं तो हमसे आंख बचाकर चली जाती थीं या सीधी निकल जाती थीं;

जैसे हम वहां थे ही नहीं. हमने कभी भी उनकी प्रशंसा करने का साहस नहीं किया, भले ही दरवाजे के बाहर या जब सर्दियों में अजीब कोट और टोपी पहने हमारी खिड़की के सामने से जाती थीं और गर्मियों में कई रंगों के फूल लगे टोप और हाथों में छोटे छाते होते थे.

फिर भी हम आपस में इन लड़कियों के बारे में इस ढंग से बातें करते थे कि यदि वे सुन लेतीं तो मारे शरम और घबराहट के पागल हो जातीं.''मैं आशा करता हूं कि वह हमारी टानिया को गुमराह नहीं करेगा!'' अचानक नानबाई ने चिंतित होते हुए कहा.

उसके शब्दों को सुनकर हममें से कोई नहीं बोला. टानिया के बारे में हम भूल गए थे. सिपाही ने उसे हमसे छिपा लिया था; जैसा कि उसके अपने सुंदर शरीर के बारे में हो. फिर झगड़ा शुरू हो गया.

कुछ साथियों का कहना था कि टानिया अपने आप इतना नहीं गिरेगी, दूसरे कहते कि वह सिपाही को रोक नहीं सकेगी और एक तीसरे वर्ग का विचार था कि यदि सिपाही ने टानिया को तंग करना शुरू किया तो उसकी पसलियां तोड़ देंगे. अंत में हम इस निर्णय पर पहुंचे कि टानिया और सिपाही की ध्यानपूर्वक चौकसी की जाए और लड़की को उसके प्रति सचेत कर दिया जाए. इस निर्णय ने झगड़े को समाप्त कर दिया.

एक महीना व्यतीत हो गया. सिपाही ने डबलरोटी बनाई, कशीदाकारी करने वाली लड़कियों के साथ घूमा, हमसे मिलने आया, परन्तु कभी भी लड़कियों पर अपनी विजय की बात नहीं की, वह केवल अपनी मूंछों को बल देता और होंठों को चाटता था. टानिया हमारे पास हर प्रातः 'छोटे क्रेंडलों' के लिए आती थी और हमारे साथ उसी तरह मधुर, प्रसन्न और मित्रवत् रहती.

हमने उससे सिपाही की बाबत बात करने का प्रयास किया. वह उसे 'रंगीन चश्मा चढ़ा बछड़ा' कहती थी तथा और भी कई नामों से बुलाती थी. इससे हमारा डर दूर हो गया.यह देखकर कि कशीदाकारी करने वाली लड़कियां उसके पीछे कैसे दौड़ती थीं, हमें टानिया पर गर्व था. सिपाही के प्रति टानिया के व्यवहार ने हमारा सिर ऊंचा कर दिया था और हम, जो उसके इस व्यवहार के लिए जिम्मेदार थे, ने सिपाही के साथ अपने

संबंधों को घणा की दष्टि से देखना शुरू कर दिया तथा टानिया को और अधिक प्यार करने लगे; बल्कि और अधिक प्रसन्नता से. अच्छे स्वभाव के साथ प्रातः काल उसका अभिनंदन करने लगे.एक दिन सिपाही खूब शराब पीकर हमारे पास आया और बैठकर हंसने लगा. जब हमने पूछा कि उसकी हंसी का कारण क्या है तो कहने लगा-

''मेरे लिए दो लड़कियां आपस में लड़ने लगीं. वे एक-दूसरी पर कैसे झपटीं...हा, हा...एक ने दूसरी को बालों से पकड़कर रास्ते में पटक दिया और उसके ऊपर बैठ गई...हा, हा, हा! उन्होंने एक-दूसरे को खरोंचा और फाड़ दिया...तुम मर गए होते! वे ठीक ढंग से क्यों नहीं लड़ सकतीं? वे हमेशा खरोंचती और खींचती क्यों हैं?''

वह बेंच पर बैठ गया- पुष्ट, साफ और प्रसन्न. वह वहां बैठा और हंसा. हम चुप थे और उस समय उसे पसंद नहीं कर रहे थे.''विश्वास पाने के लिए औरतें मेरे पीछे किस तरह भागती हैं! यह वस्तुतः खिलवाड़ है, मुझे केवल आंख झपकाना होता है और वे आ जाती हैं- दुष्ट!''

उसने चमकते बालों वाले अपने हाथ ऊपर उठाए और अपने घुटनों पर दे मारे. उसने हमारी तरफ ऐसे आश्चर्यजनक हाव-भाव से देखा जैसे वह स्वयं अपनी उस सफलता की प्रसन्नता पर हैरान हो, जो उसे औरतों से मिली थी. उसके मोटे गुलाबी गाल संतुष्टि से चमक रहे थे और वह अपने होंठों को चाटता रहा.

हमारे नानबाई ने बेलचे को क्रोध से भट्ठी में रगड़ा और एकाएक उपहास करते हुए बोला, ''छोटे पौधे को उखाड़ने में ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, परन्तु जरा देवदार का बड़ा वक्ष काटने का प्रयास करो तो जानें.''

''यह मुझे कह रहे हो?'' सिपाही ने पूछा.
''हां, तुम्हें.''
''तुम्हारा मतलब क्या है?''
''कुछ नहीं, यह मुंह से निकल गया.''
''परन्तु जरा रुको. किसके बारे में कहते हो? कौन-सा देवदार?''

हमारे नानबाई ने उत्तर नहीं दिया और अपना बेलचा शीघ्रता से चलाता रहा. वह उबले हुए क्रेंडलों को अंदर रखता और पके हुए क्रेंडलों को बाहर निकालता तथा जोर से फर्श पर फेंकता था, जहां लड़के उनको रस्सी से आपस में बांधने में व्यस्त थे. ऐसा प्रतीत होता था कि वह सिपाही और उसके साथ हुई बातचीत को भूल गया था. किसी तरह सिपाही एकाएक बेचैन हो गया. वह उठा और भट्ठी के पास गया. दस्ते को नानबाई बेग से हवा में घुमा रहा था. वह (सिपाही) अपने आपको बेलचे की चोट से कठिनाई से बचा पाया.

''परन्तु तुम्हें अपना मतलब बताना होगा क्योंकि इससे मुझे चोट पहुंची है. कोई भी अकेली लड़की मेरा प्रतिकार नहीं कर सकती, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं. तुम इतनी अपमानजनक बातें करते हो!''

उसे वास्तव में चोट लगी थी. हो सकता था कि उसके पास केवल औरतों को बहकाने के अतिरिक्त और कोई ऐसा काम न हो जिस पर वह गर्व कर सके. संभवतः उसमें इसी बात के लिए जीवित रहने की क्षमता हो, केवल एक ही वस्तु, जिसके कारण वह अपने आपको आदमी समझता था.

कभी-कभी एक आदमी का जीवन इतना खाली हो जाता है कि वह बुराई को अनैच्छिक महत्त्व देने लग जाता है, उसे ही अपना लेता है और कहता है कि आदमी खालीपन में ही बुरा बनता है.

सिपाही क्रोधित हुआ और पुनः ऊंची आवाज में नानबाई से मांग की-''तुम्हें बताना होगा कि तुम्हारा क्या मतलब है?''''बताऊं क्या?'' नानबाई जल्दी से मुड़ा.''ठीक है, बताओ.''''क्या तुम टानिया का जानते हो?''''हां, तो इससे क्या?''''ठीक है, उस पर प्रयत्न करो. बस, इतना ही.''


''मैं?''
''हां, तुम.''
''फूह, यह तो आंखें झपकाने की तरह आसान काम है.''
''देखेंगे हम.''
''तुम देखोगे? हा, हा, हा!''
''वह तुम्हें वापस भेज देगी.''
''मुझे एक महीना दो.''
''तुम कितने घमंडी हो, सिपाही!''

''तुम मुझे दो सप्ताह दो! मैं तुम्हें दिखा दूंगा; किसी-न-किसी तरह से; यह टानिया है कौन? फूह!''
''एक तरफ हो जाओ, मेरा हाथ रोक रहे हो?''
''दो सप्ताह...बस, हो गया समझो. तुम...''
''एक तरफ हो जाओ, मैं कह रहा हूं.''

हमारे नानबाई को एकाएक तीव्र कोप का दौरा पड़ा और उसने बेलचा हवा में घुमाया. सिपाही विस्मित होकर शीघ्र ही उससे जरा दूर हट गया. उसने क्षण भर के लिए चुप होकर हमें देखा और फिर शांति से ईर्ष्यापूर्वक कहा, ''बहुत अच्छा!'' तत्पश्चात् वह चला गया.किसी ने नानबाई को पुकारा-''यह गंदा काम है, जो तुमने शुरू किया है, पागल!''.''तुम अपना काम करो!'' नानबाई ने गुस्से में उत्तर दिया.


हमने महसूस किया कि सिपाही को बात चुभ गई थी और कि टानिया को भय की धमकी दी गई थी. इसके होते हुए भी हम आनंद से, जलते हुए कौतूहल से यह जानने के लिए जकड़े गए कि क्या होगा! क्या टानिया सिपाही का प्रतिकार करेगी? और सभी भरोसे से बोले, ''टानिया जरूर प्रतिकार करेगी. टानिया को लेने के लिए केवल खाली हाथों से कुछ और ज्यादा की जरूरत होगी.''

हमारे अंदर और देवी की शक्ति को परखने की तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हुई. हमने एक-दूसरे को मनाने की भरसक कोशिश की कि हमारी देवी इस अग्निपरीक्षा में अवश्य अपराजित सिद्ध होगी. अब हमें अनुभव हुआ कि हमने सिपाही को पर्याप्त रूप से नहीं उकसाया था. हमें डर था कि संभवतः वह इस झगड़े को भूल जाएगा और निश्चय किया कि उसके अहंकार को और आघात पहुंचाई जाए. उस दिन विशेषकर हमारा मन खिंचा-खिंचा और उद्विग्न हो गया.


हम सारा दिन एक दूसरे से वाद-विवाद करते रहे. ऐसा प्रतीत होता था कि हमारे मस्तिष्क स्पष्ट हो गए हों और हमारे पास करने के लिए अधिक-से-अधिक बातें हों. ऐसा लगता था कि हम पिशाच से कोई खेल-खेल रहे थे और टानिया हमारे लिए दांव थी.

जब हमने डबलरोटी बनाने वालों से सुना कि सिपाही ने टानिया से मेल-मिलाप शुरू कर दिया है तो हमारे अंदर पीड़ायुक्त मीठी सनसनी दौड़ गई और हमें जीवन इतना रुचिकर लगा कि हमें यह भी पता नहीं चला कि हमारी सामान्य उत्तेजना का लाभ उठाकर हमारे मालिक ने गूंधे आटे के चौदह और पेड़े कब हमारे दिन के काम में जोड़ दिए.

सारे दिन टानिया के नाम ने हमारे होंठों को नहीं छोड़ा और प्रति सुबह हमने अजीब अधीरता से उसकी प्रतीक्षा की. कभी-कभी ऐसा लगता था कि वह सीधी हमारे कमरे में आना चाहती थी- और वह पुरानी टानिया न होकर हमें कोई अजीब और नई लगती थी.

लेकिन हमने अपने नए झगड़े के बारे में उसको नहीं बताया. हमने उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा और पहले की तरह ही उससे दयालुता और गंभीरता से व्यवहार किया, परन्तु उसके बारे में हमारी सोच में कुछ नई और अजीब चीज आ गई थी; और यह नई चीज थी- मर्मभेदी हैरानी-तेज और ठंडी, लोहे के चाकू की तरह.

''समय हो गया, साथियों!'' एक प्रातः काल हमारे नानबाई ने अपने काम को रोकते हुए घोषणा की. उसके याद कराए बिना हम जानते थे, फिर भी हम सबने अपना-अपना काम शुरू कर दिया.

''उसको अच्छी तरह से देखो, वह शीघ्र ही आ रही है!'' हमारे नानबाई ने कहना जारी रखा. तभी किसी ने शोकपूर्ण आवाज में कहा, ''मानो तुम उसे अपनी आंखों से देख रहे हो.''

और एक बार फिर हमने शोर-शराबे वाली बात शुरू कर दी. आज हमें जानना था कि अंततः वह बरतन कितना शुद्ध है जिसमें हमने अपनी सारी अच्छाई उड़ेल दी थी. आज हमने पहली बार महसूस किया कि वस्तुतः हम एक बड़ा खेल खेल रहे थे और शुद्धता की यह परीक्षा हमें अपनी देवी से सर्वथा वंचित करके ही समाप्त होगी.

तुम सुन चुके थे कि सारे पखवाड़े सिपाही किस प्रकार लगातार टानिया का पीछा करता रहा था; परन्तु हममें से किसी ने भी उससे पूछने के लिए नहीं सोचा था कि उसके प्रति उसका व्यवहार कैसा है; वह हर प्रातः काल क्रेंडल लेने के लिए आती रही और हमारे लिए पहले की तरह थी.आज के दिन भी हमने उसकी आवाज शीघ्र सुनी-''कैदियों, मैं आ गई हूं.''

हमने दरवाजा खोल दिया. जब वह अंदर आई तो अपनी सामान्य रीति के विरुद्ध हमने चुप रहकर उसका अभिनंदन किया. हमारी सबकी आंखें उस पर गड़ी थीं. हम नहीं जानते थे कि उससे क्या कहें या क्या पूछें. हम काली, मौन भीड़ के रूप में उसके सामने खड़े थे. वह इस अनजाने स्वागत से स्पष्टतया हैरान हुई. हमने उसे एकाएक पीला पड़ते देखा; वह अशांत हो गई. अपना स्थान बदलते हुए उसने उदास स्वर में पूछा, ''तुम इस तरह क्यों हो?''

''और तुम?'' नानबाई ने बिना आंखें हटाए गंभीरता से पूछा.
''मेरे साथ क्या हुआ?''
''कुछ नहीं.''

''तो ठीक है, जल्दी करो और क्रेंडल दो.''पहले कभी भी उसने हमारे साथ जल्दबाजी नहीं की थी.''तुम्हारे पास काफी समय है!'' बिना अपने स्थान से हिले या अपनी आंखें हटाए नानबाई ने कहा.वह एकाएक मुड़ी और दरवाजे से गायब हो गई.

नानबाई ने अपना बेलचा संभाला और शांत भाव से बोला; जैसे वह भट्ठी से बात कर रहा हो.''मेरा अनुमान है, यह हो गया है! यह दुराचारी सिपाही, दुष्ट व्यक्ति...!''बकरियों के झुंड की तरह, एक-दूसरे को धकेलते, बिना काम किए हम मेज पर चुपचाप बैठ गए. जल्दी ही एक ने कहना शुरू किया, ''यह असंभव है.''

''चुप रहो!'' नानबाई चिल्लाया.हम जानते थे कि वह सामान्य बुद्धि वाला है और हमसे चतुर है. हमने उसके चिल्लाने को सिपाही की विजय का चिह्न समझा. हम दुःखी और अशांत थे.

खाने के समय बारह बजे सिपाही अंदर आया. वह सामान्य रूप से साफ-सुथरा और अच्छी पोशाक पहने हुए था. उसने सामान्य ढंग से हमें देखा, जिसने हमें कष्ट पहुंचाया.''ठीक है, मेरे भद्र पुरुषों, तुम देखना चाहोगे कि एक सिपाही क्या कर सकता है? रास्ते में जाओ और छिद्र से झांको...समझते हो क्या?''


हम एक-दूसरे के ऊपर गिरते गए और अपने चेहरे उस दीवार के छिद्र पर जमा दिए जो बाहरी दालान में जाती थी. हमें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. जल्दी ही तेज कदमों के साथ और चिंतित चेहरा लिये पिघली हुई बर्फ और मिट्टी से बनी पोखरी को लांघकर सेहन में से होती टानिया आई. वह तहखाने के दरवाजे में लुप्त हो गई. उसके तुरन्त बाद धीरे-धीरे गुनगुनाता हुआ सिपाही आया और उसका पीछा किया. उसके हाथ उसकी जेबों में थे और मूंछे कांप रही थीं.

वर्षा हो रही थी. हमने बूंदों को पोखरियों में गिरते और गिरकर गोल चक्र बनाते देखा.यह नमी वाला, भूरा, भोथरा और उदासीन दिन था. छतों पर अभी भी बर्फ जमी हुई थी और भूमि पर कीचड़ के काले टुकड़े पड़े थे. छतों की बर्फ भी नम, भूरी और गंदी थी. वर्षा एक ही आवाज में धीरे-धीरे हो रही थी. प्रतीक्षा ठंडी और थकाने वाली थी.

तहखाने से पहले निकलने वाला सिपाही था. वह सेहन के साथ-साथ धीरे-धीरे चला. उसकी मूंछें कांप रही थीं. और उसके हाथ जेबों में थे जैसे वे हमेशा देखे जाते थे.फिर टानिया बाहर निकली. उसकी आंखें मारे खुशी के चमक रही थीं और उसके होंठ मुसकराहट से फैल गए थे. वह लड़खड़ाते कदमों से इधर-उधर झूमकर ऐसे चली जैसे नींद में चल रही हो.यह हमारी सहनशक्ति से बाहर था.

 हम तुरन्त दरवाजे से सेहन में आए और उस पर बुरी तरह से फुंफकारना और चिल्लाना शुरू कर दिया.जब उसने हमें देखा तो चलने लग गई और फिर इस तरह से रुकी जैसे उस पर बिजली गिर पड़ी हो. उसके पांव के नीचे कीचड़ था. हमने उसे घेर लिया और बिना रुके क्रोध से अपने गंदे और निर्लज्ज शब्दों में गालियां देने लगे.

हमने इसकी बाबत अधिक शोर नहीं मचाया, क्योंकि वह हमसे भाग नहीं सकती थी और हमें भी जल्दी नहीं थी. हमने केवल उसे घेरकर उसकी दिल खोलकर हंसी उड़ाई. मैं नहीं कह सकता कि हमने उसे पीटा क्यों नहीं! वह अपना सिर

इधर-उधर हिलाती और अपमान को सहती हमारे बीच खड़ी रही. हम अपने गंदे और विषैले शब्दों में उसे गालियां देते रहे.उसके गालों का रंग उड़ गया, उसकी नीली आंखें, जो क्षण भर पहले प्रसन्न थीं, फैलकर खुल गईं. उसकी सांस जल्दी-जल्दी और तेज चलने लगी तथा होंठ कांपने लगे.उसे घेरकर हमने इस प्रकार दण्ड दिया जैसे उसने हमें लूट लिया हो.

जो भी हममें अच्छाई थी, हम उस पर लुटा चुके थे, भले ही वह सब एक भिखारी की रोटी से अधिक नहीं था; फिर भी हम छब्बीस थे और वह अकेली थी, इसलिए भी हमने उसके दोष को देखते हुए अधिक यातना के बारे में नहीं सोचा था.

जब वह आंखें फाड़े घूर रही थी और सूखे पत्ते की तरह हिल रही थी तो हमने उसे बुरी तरह से अपमानित किया. हम उस पर हंसे, गरजे और गुर्राए. कहीं से और लोग भी हमारे साथ मिल गए. एक आदमी ने टानिया की कमीज के बाजू को पकड़कर खींचा.

एकाएक उसकी आंखें चमकीं. उसने धीरे से अपने बाजू ऊपर उठाए, बालों को संवारा और फिर धीरे तथा शांत भाव से सीधे हमारे चेहरों को देखते हुए बोली, ''तुम अभागे कैदी.''और सीधी हमारी ओर आई, मानों हम उसे घेरे खड़े न हों. किसी ने भी उसका रास्ता नहीं रोका, क्योंकि उसको जाने देने के लिए हम एक तरफ हट गए थे.

बिना अपना सिर मोड़े हमारे बीच से जाती हुई वह अवर्णनीय घणा से ऊंची आवाज में बोली, ''तुम जंगली जानवर हो...पथ्वी की गंदगी!''और वह चली गई.हम भूरे और बिना धूप के आकाश के तले वर्षा और कीचड़ में सेहत में ही रह गए.

जल्दी ही हम अपने पत्थरों के गड्ढे में लौट आए. सूर्य पहले की तरह खिड़की से कभी नहीं झांका और टानिया फिर कभी हमारे पास नहीं आई.


 The End
NOTE: Story and photos are copied from internet with thanks to original works.