Wednesday, 26 June 2019

उसने कहा था “Usne Kaha Tha”:A story of love, loss and sacrifice in World War I.


बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं. जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं.



और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी', 'हटो भाई जी', 'ठहरना भाई जी', 'आने दो लाला जी', 'हटो बाछा'.. कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं.



क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई, यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं,

'हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए.' समष्टि में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा.

ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां. दुकानदार एक परदेसी से गुंथ रहा था. जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था.


"तेरे घर कहां है?"

"मगरे में; और तेरे?"

"मांझे में; यहां कहां रहती है?"

"अतर सिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं"

"मैं भी मामा के यहां आया हूं, उनका घर गुरुबाजार में हैं"


इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले. कुछ दूर जा कर लड़के ने मुस्कराकर पूछा, "तेरी कुड़माई हो गई?" इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुंह देखता रह गया. दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहां, फिर दूधवाले के यहां अकस्मात दोनों मिल जाते.


महीना-भर यही हाल रहा. दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही 'धत्' मिला. एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली-

"हां हो गई"

"कब?"

"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू."


लड़की भाग गई. लड़के ने घर की राह ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया. एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई. एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले पर दूध उड़ेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुंचा.
"राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है. दिन-रात खन्दकों में बैठे हडि्डयां अकड़ गईं. लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ ऊपर से. पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं. जमीन कहीं दिखती नहीं. घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है. इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े.

 नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं. जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है. न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं.'

"लहनासिंह और तीन दिन हैं. चार तो खन्दक में बिता ही दिए. परसों 'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी. अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे. उसी फिरंगी मेम के बाग में..मखमल की सी हरी घास है. फल और दूध की वर्षा कर देती है. लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती. कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो".
"चार दिन तक पलक नहीं झपकी. बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही. मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय. फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूं, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो.


पाजी कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं. यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं. उस दिन धावा किया था. चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."

"नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?" सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कुराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते. बड़े अफसर दूर की सोचते हैं. तीन सौ मील का सामना है. एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?.
"चार दिन तक पलक नहीं झपकी. बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही. मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय. फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूं, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो.


पाजी कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं. यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं. उस दिन धावा किया था. चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."

"नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?" सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कुराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते. बड़े अफसर दूर की सोचते हैं. तीन सौ मील का सामना है. एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?.
'सूबेदार जी, सच है' लहना सिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों में तो जाड़ा धंस गया है. सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं. एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय.'

"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल. वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों. महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले.' यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे.

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था. बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूं. करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए.

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो. ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा". हां, देश क्या है, स्वर्ग है. मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा.'

"लाड़ी होरा को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..."

"चुप कर. यहां वालों को शरम नहीं.'

"देश-देश की चाल है. आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते. वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं.'

"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"

"अच्छा है."


'सूबेदार जी, सच है' लहना सिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों में तो जाड़ा धंस गया है. सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं. एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय.'

"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल. वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों. महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले.' यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे.

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था. बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूं. करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए.

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो. ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा". हां, देश क्या है, स्वर्ग है. मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा.'

"लाड़ी होरा को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..."

"चुप कर. यहां वालों को शरम नहीं.'

"देश-देश की चाल है. आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते. वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं.'

"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"

"अच्छा है."



कौन जानता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे. पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों.

दोपहर, रात गई है. अन्धेरा है. सन्नाटा छाया हुआ है. बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है. लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है. एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर. बोधासिंह कराहा.


"क्यों बोधा भाई, क्या है?"

"पानी पिला दो."

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कंपनी छूट रही है. रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं. दांत बज रहे हैं".

"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"

"और तुम?"

"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है. पसीना आ रहा है."

"ना, मैं नहीं पहनता. चार दिन से तुम मेरे लिए..."
"हां, याद आई. मेरे पास दूसरी गरम जरसी है. आज सबेरे ही आई है. विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें." यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा.


"सच कहते हो?"

"और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ. मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी.

आधा घंटा बीता. इतने में खाई के मुंह से आवाज आई, "सूबेदार हजारासिंह."

"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ.

"देखो, इसी समय धावा करना होगा. मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है. उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं. इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है. तीन-चार घुमाव हैं. जहां मोड़ है, वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूं. तुम यहां दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो. खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा".

"जो हुक्म"
चुपचाप सब तैयार हो गए. बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा. तब लहनासिंह ने उसे रोका. लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया. लहनासिंह समझ कर चुप हो गया. पीछे दस आदमी कौन रहें. इस पर बड़ी हुज्जत हुई.

कोई रहना न चाहता था. समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया. लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे. दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो."

आंख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया. मुंह का भाव छिपा कर बोला, "लाओ साहब." हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुंह देखा. बाल देखे. तब उसका माथा ठनका.

लपटन साहब के पटि्टयों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहां से आ गए?" शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जांचना चाहा. लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे.

"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?"
"लड़ाई ख़त्म होने पर. क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"

"नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहां कहां? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे-
हां.. हां, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का. सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं.

और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली. ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है. क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएंगे. हां पर मैंने वह विलायत भेज दिया. ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?"

"हां, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे. तुमने सिगरेट नहीं पिया?"

"पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं," कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा. अब उसे संदेह नहीं रहा था. उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए. अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया.

"कौन? वजीरसिंह?"
"हां, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आंख लगने दी होती?"

"होश में आओ. कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है."

"क्या?"

"लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं. उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है. सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा. मैंने देखा और बातें कीहै. सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
 "तो अब!"

"अब मारे गए. धोखा है. सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा. उठो, एक काम करो. पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गए होंगे. सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें. खन्दक की बात झूठ है. चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ. पत्ता तक न खड़के. देर मत करो.

"हुकुम तो यह है कि यहीं"

"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहां सब से बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है. मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूं"

"पर यहां तो तुम आठ हो."

"आठ नहीं, दस लाख. एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है. चले जाओ."

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले. तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया. 

तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने...

बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा. धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आंख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए.

लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबों की तलाशी ली. तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया.

साहब की मूर्छा हटी. लहनासिंह हंस कर बोला, "क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं. यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं. और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहां से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पांच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे."

लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी. साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले.

लहनासिंह कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है. उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए. तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गांव आया था. औरतों को बच्चे होने के ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था. चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं.
वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं. गौ को नहीं मारते. हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे. मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो. सरकार का राज्य जानेवाला है. डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था. मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूड़ दी थी और गांव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो..."


साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जांघ में गोली लगी. इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी. धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए.

बोधा चिल्लाया, "क्या है?"

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया. सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गए. लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पटि्टयां कस कर बांधी. घाव मांस में ही था. पटि्टयों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया.

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े. सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका. पर यहां थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था, वह खड़ा था और बाकी लेटे हुए थे) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे. थोड़े से मिनिटों में वे...
अचानक आवाज आई 'वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खालसा!!' और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे. ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए. पीछे से सूबेदार हजारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया.


एक किलकारी और... 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!!' और लड़ाई ख़तम हो गई. तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे.

सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई. लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी. उसने घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया. किसी को ख़बर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है.

लड़ाई के समय चांद निकल आया था. ऐसा चांद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दन्तवीणोपदेशाचार्य' कहलाती. 

वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते.
इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी. उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था. वहां से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियां चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अंदर-अंदर आ पहुंची. फील्ड अस्पताल नज़दीक था. सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे. इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं.

सूबेदार ने लहनासिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही. पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सबेरे देखा जायेगा. बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था. वह गाड़ी में लिटाया गया. लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे. यह देख लहना ने कहा, "तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ".

"और तुम?"

"मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुर्दों के लिए भी तो गाड़ियां आती होंगी. मेरा हाल बुरा नहीं है. देखते नहीं, मैं खड़ा हूं? वजीरासिंह मेरे पास है ही."

"अच्छा, पर..."

"बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला. आप भी चढ़ जाओ. सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना. और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया".

गाड़ियां चल पड़ी थीं. सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा, "तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं. लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना. उसने क्या कहा था?"

"अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ. मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना".

गाड़ी के जाते लहना लेट गया. "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा है.
 


पचीस वर्ष बीत गए. अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा. न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं. सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया. वहां रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ.

साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं. लौटते हुए हमारे घर होते जाना. साथ ही चलेंगे. सूबेदार का गांव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था. लहनासिंह सूबेदार के यहां पहुंचा.

जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया. बोला, "लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं. जा मिल आ. लहनासिंह भीतर पहुंचा. सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं. दरवाज़े पर जा कर 'मत्था टेकना' कहा. असीस सुनी. लहनासिंह चुप.

"मुझे पहचाना?"

"नहीं"

''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में.''

भावों की टकराहट से मूर्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.

''वजीरा, पानी पिला'' 'उसने कहा था.'

स्वप्न चल रहा है. सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूं. मेरे तो भाग फूट गए. सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है.

पर सरकार ने हम तीमियों की एक घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है. फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ. उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया.' सूबेदारनी रोने लगी.
''अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूं.''

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई. लहना भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया. ''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था.'
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है. जब मांगता है, तब पानी पिला देता है. आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"

वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हां."

"भइया, मुझे और ऊंचा कर ले. अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले". वजीरा ने वैसे ही किया.

"हां, अब ठीक है. पानी पिला दे. बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा. चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है. जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था."

वजीरासिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे.


कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा... फ्रान्स और बेलजियम... 68 वीं सूची... मैदान में घावों से मरा... नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह.

Friday, 21 June 2019

WhatsApp’s: Inspiring Success Story of Jan Koum Founder of WhatsApp’s From Rags To Riches.

WhatsApp story is live example of innovation in true terms. This is Jan Koum’s Story “Rising from Rags to Riches”, the Co-founder and CEO of globally famous mobile messaging application–WhatsApp.

Can we imagine a world without WhatsApp, can we keep our smart mobiles without WhatsApp? Obviously, answer is great “No”.

WhatsApp was acquired by Facebook in February 2014 for a huge US $19.3 Billion.

 Story of Struggles, sufferings and desolations
Jon Koum co-founder of WhatsApp was born in Kiev, Ukraine in a Jewish family. He faced a life of true hardship. He knew the meaning of living in the throes of deprivation. Koum was so poor that his house did not even have electricity.

His mother moved with him and grandmother to California in 1992, where a social support program helped the family to get a small two-bedroom apartment, at the age of 16. 

His father had intended to join the family later, but he never left Ukraine, and died in 1997. Koum and his mother remained in touch with his father until his death.

At first Koum's mother worked as a babysitter, while he himself worked as a cleaner at a grocery store. His mother died in 2000 after a long battle with cancer.

The great American dream did not make its way to Jan’s life as quickly as he hoped. Everything in the United States was expensive.

By 18, Jan knew he wanted to learn to program. He knew this was his destiny. Jan studied by buying second hand books and stationary and returning them after he was done.

He was hit with a major blow when his mother was diagnosed with cancer in 2000 and Koum was left to fend for himself in a strange and unknown country.

But life’s adversities only made Jan Koum stronger and resilient. By 18, he learnt computer networking all by himself with the help of manuals from a used book stores.
Little did he realize that this was the beginning of an illustrious career. Meeting Brian Acton was a turning point in his life.

Along with that, he also began working with Ernst & Young as a Security Tester.

Jon Koum and Yahoo

After working there for roughly six months, Jon Koum got the biggest opportunity of his life. He was selected to work at Yahoo as an Infrastructure Engineer. Now this was when he was still studying at San Jose State University. Soon he dropped out of college. 

However, Koum did not stay on the job for long. In 2007, Koum and Acton bid farewell to Yahoo and decided to unwind and travel around.

In 2007 after giving nine years of his life to Yahoo, Koum and Acton left Yahoo and took a year off. And this is when it all began! But they weren’t sure what to do next. They took a year off traveling around South America to refresh their minds.
Origins of WhatsApp

In 2009, after purchasing an iPhone, Koum had the vision to see that an entire industry was about to form based around mobile apps.

The app store was just a few months old, but Koum saw it starting an entire new industry. He started thinking about building an app.

At the time, Koum was living off of his savings from Yahoo!, with little direction as to where his next career path would take him. 
Looking to capitalize on this up-and-coming industry, Koum began to explore the possibility of creating an app that would let mobile users better interact and engage with their friends, family, and business contacts without ads.

Koum almost immediately chose the name WhatsApp because it sounded like "what's up", and a week later on his birthday, February 24, 2009, he incorporated WhatsApp Inc. in California.

WhatsApp was initially unpopular, but its fortunes began to turn after Apple added push notification ability to apps in June 2009.
Koum changed WhatsApp to "ping" users when they received a message, and soon afterwards he and Fishman's Russian friends in the area began to use WhatsApp as a messaging tool, in place of SMS.

The app gained a large user base, and Koum convinced Acton, who was then still unemployed, to join the company. Koum granted Acton co-founder status after Acton managed to bring in $250,000 in seed funding.

It was a bit of a rocky start for WhatsApp, though. After numerous crashes and failures, Koum grew frustrated with the app’s development and reportedly considered giving it up entirely.

Luckily for the both of them, the duo did indeed stick it out and saw the app through to its eventual success. By February of 2013, WhatsApp boasted 50 staff members and 200 million users.

Shortly thereafter, the app was bought out by Facebook for a staggering $19 billion—a number that stands as the largest acquisition in the world to date.

Another fascinating aspect is; WhatsApp runs lean with just 32 engineers. One WhatsApp developer supports 14 million active users, a ratio unheard of in the industry. 

The most remarkable aspect of the company is that, “It doesn’t even employ a marketer or PR person. Yet like the world’s greatest brands, it’s created a strong emotional connection with consumers.

Written by Engr Maqbool Akram with help of Wikipedia and other write-ups available on net. Photos are from sources with thanks.