जिस तरह लखनऊ और उसकी नवाबी के साथ तमाम रंगभरी बातें और बेनजीर दास्तानें जुड़ी हुई हैं, उसी तरह यहाँ के तथाकथित ख़ज़ानो की हक़ीक़त के बारे में भी बड़ी-बड़ी अफ़वाहें फलती रहीं और बड़े-बड़े हंगामे होते रहे ।सल्तनत और बादशाह के ख़ज़ाने को ढंढ़ना एक' अच्छा' शग़ल कहा जा सकता है। बाक़ी उसे ढूँढ़ पाना एक अलग बात है ।
आसफ़ुदौला, जिन्होंने फ़ैज्ञाबाद को छोड़कर लखनऊ को अपनी राजधानी बनाया था, फ़ैजाबाद से खूद और महज़ कुछ मुसाहिबों की एक टोली लेकर यहाँ आये थे। शुजाउद्दौला की तमाम दौलत में उतना हिस्सा नहीं मिल सका था, जितने के वे हक़दार थे क्योंकि जिस तरह धरती में धंसी माया पर नागिनों का पहरा होता है, उसी प्रकार अवध के फ़ैज्ञाबाद खजाने पर नवाब बेगम और बहु बेगम बैठी हुई थीं।
ये सास-बहु मरते मर गईं मगर उन्होंने आसफ़ुद्दोला से समझौता नहीं किया । यही वजह थी कि उसी मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालने के लिए आसफ़ुद्दौला को बारेन हेस्टिग्स बाज जैसे करतबी इन्सान की भदद लेनी पड़ी थी और यह बात हमेशा-हमेशा के आसफ़ुद्दौला के चरित्र पर कलंक बन कर रह गई।
नवाबी के ज़माने में अवध में कई अकाल पड़े थे। उनमें से एक अकाल के दौरान आसफुद्दौला ने रूपी दरवाजा और बड़ा' इमामबाड़ा बनवाना शुरू किया था | 'लखनऊ की कब्र” में लिखा है, कि नींव कहा जाता है कि दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रँगीले से बंगाल के नवाब ने बड़ी मात्रा में जुमुरुद खरीदना चाहा था ।
इस सौदे के माल (जुमुरुद) से लदे हुए ३२२ हाथी दिल्ली से बंगाल की तरफ़ जा रहे थे। जब यह कुबेर का कारवां अवध की सरहदों में से गुज़र रहा था' तब आसफ़ुद्दोला ने उसमें बारह हाथी तिलेंगों की मदद से लूट लिये। वह सम्पत्ति उस समय दो हज़ार करोड़ रुपये की थी।
खोदते समय एक प्राचीन संस्क्ृति अस्तित्व में आ गई और उनको ज़मीन के नीचे अपार सम्पत्ति गड़ी हुई मिली, उसे 'ख़ज़ानए ग़ैब” कहकर पुकारा गया।
नवाब नसीरुद्दौला को उस 'ख़ज़ाने गेब' का दारोगा बनाया गया। पुरानी आस्थाओं और निजी मान्यताओं के अनुसार उन्होंने इस ज़मींदोज़ दौलत का पूरा-पूरा उपयोग करना पसन्द नहीं किया | उस अतुल धनराशि में से सिफ़ कुल दो अरब रुपयों के मूल्य की सम्पत्ति निकाल ली गई और बाक़ी ज्यों की त्यों दफ्ना दी गई।
इमामबाड़े की इस बावली में है अवध के खजाने की चाभी
उस स्थान की सुरक्षा और महत्त्व को दृष्टि में रख कर वहाँ पर इमामबाड़ा जैसा प्रवित्र स्थल बनवा दिया गया। इस आसफ़ी इमामबाड़े के ऊपर और नीचे भूलभुलया जैसी अजीबोगरीब इमारत का निर्माण हुआ। भूलभूलेया को इमारते ग़ैब भी कहा जाता है और यह स्थान सदा से ही रहस्यपूर्ण माना जाता रहा है।
इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आसफ़ुद्दोला का इमामबाड़ा अपनी कुछ विशेषताओं के कारण संसार की कुछ गिनीचुनी इमारतों में से एक है। इतने बड़े पैमाने पर और अच्छे खासे विस्तार में एसी आलीशान इमारत का बनवाया जाना वड़ा असंगत मालूम पड़ता है जबकि सारा अवध भुखमरी और अकाल का शिकार हो रहा था।
आसफ़ी इमामबाड़े पर अपना तिलस्मी जाल फैलाए जो भूलभूलेया खड़ी है, वह दरअसल और ज़्यादा ख़तरताक भूलभूलेया' की मसनवी ही है जो अब ज़मीन के नीचे दफ़्न हो चुकी है.। ज़मीन में समाई हुई इस भूलभुलैया के रास्ते आज भी मौजूद हैं।
लेकिन अब उनमें उत्तरकर जाना कंभी मुमकिन नहीं हो सकता क्योकि उन रास्तों के प्रवेश-मार्ग, एक जमाना हुआ, हमेशा-हमेशा के लिए बन्द कर दिये गये । इमामबाड़े के पाश्वे में बनी हुई जो एक प्राचीन बावली है।
ब्रिटिश काल में भी इस बाबड़ी को ही ख़ज़ानए ग़ैब तक पहुँचने का रास्ता माना जाता रहा और यह बात हमेशा से मशहूर ही है कि लखनऊ का सबसे बड़ा खज़ाना उसी के अन्दर छिपा है। कहते हैं कि खज़ाने की चाबियों का गुच्छा उसी' बावली में फेंक दिया गया था। जिसके साथ तांबे पर बना हुआ ख़ज़ाने का नक्शा 'भी संलग्न था।
ब्रिटिश शासनकाल में इमामबाड़े के नीचे उतरने और डुबकी लगाने के कई प्रयास किये गये और उसमें बराबर लोगों की जानें जाती रहीं । इन दुर्घटनाओं के बाद से ही बावली में लोहे का तवा डाल दिया गया और सुरंग का मुँहे चुन दिया गया। अब' तो उस ख़ज़ानए गैब के ऊपर नवाब आसफ़ुदौला और उनके प्रिय वास्तुकार क्लिफ़ायतुल्ला की क़नब्रें बनी हैं। ये भी कहा जाता है कि दूसरी क़ब्र बेगम शम्सुन्निंसा की है। उन्हीं दोनों को उस मायापुरी का अदृश्य पेहरेदार कहा जा सकता
आसफ़ुदोला के समकालीन लोगों ने उनके निःसंतान' होने को भी पराये धन के हरण से जोड़ा है । लखनऊ के नवाबों की आठ गदियों में 'खज़ानए अवध' तरह-तरह की करवट बदलता रहा । नवाब सआदत अली खां जैसे कंजूस हाकिम ने अपनी ज़िन्दगी में ख़ज़ाने की माँग को मोतियों से ख़ब सँवारा तो उनके अय्याश पोते नसीरुद्दीत हैदर ने अवध के खजाने की इस दौलत को आतिशबाजी की तरह उड़ाकर खाक क्र दिया |
अगर बादशाह गाज़ीउद्दीन हैदर ने खज़ाने की रक़म से अंग्रेजों की 'मुंदियाँ गर्म कीं तो मुहम्मर अली शाह उसी सम्पदा से सैयदों और मोमिनों के दामन भरते रहे । जब अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह का जमाना आया, तब "सल्तनत के हालात अच्छे नहीं थे, अवध के खजाने की दौलत बँट-बँटकर क़ैसर बाग के महलों में आने लगी थी |
बादशाह बचपन से ही चंचल-चित्त थे। उनके बुजुर्म “वज़ीर इमदाद हुसन खां उफ़े अमीनुह्ौला साहब उनकी नस-नस से वाक़िफ़ थे । चकि बादशाह हर घड़ी रास-विलास में डूबे रहते थे, इसलिए वज्ञीरे आला उनके बाप के खजाने को उनकी नजर से हर कोशिश दूर रखते थे।
कहते हैं कि जाने आलम एक बार इस बात पर मचल गये कि वह अपने बाप-दादों का खज़ाना देखेंगे। उनकी इस अभिलाषा पर वजीरे आजम बादशाह की आँखों में पट्टी बाँध- कर उन्हें जमीन के अन्दर बने हुए उन तहखानों में ले गए जहाँ सात पीढियों की जमा-पूँजी और माल-असबाब के अंबार लगे हुए थे। सुनते हैं, दिन के ठीक बारह बजे छतर मज़िल के सुनहरे छत्र की परछाईं दरिया में जिस जगह पड़ती थी, उसी जगह में गोमती के नीचे से होकर ख़जाने' तक पहुँचने का रास्ता बना हुआ था।
वाजिद अली शाह के वक्त में शाही खजाने के ख़ज़ांची (की आफ़ वेल्थ) महमूद अली खां उफ़े मिप्तुद्दोला साहब रहे हैं। ये फ़तह अली खां के पोते थे, जो किसी जमाने में हिन्दू खत्री से मुसलमान हो गये थे। इस खानदान ने कई पीढ़ियों तक नवाबी ख़ज़ाने की ख़िदमत और देखभाल की है।
मिफ्तुद्दोला के जैसा स्वामि भक्त और वफ़ादार ख़ज़ांची नवाबी के इतिहास में दूसरा नहीं हुआ। इनका कुनबा जिस महलसरा और बारादरी में रहता था, उसके खेंडहर की बुनियाद पर आज लखनऊ का क्वीन्स कालेज खड़ा हुआ है। इन इमारतों के साथ ही उस ज़माने की एक मस्जिद आज भी सड़क के किनारे बाक़ी है।
बादशाह के कलकत्ता-प्रवास के बाद महमूद अली खां लखनऊ में १८५७: तक रहे। वह बेगम हजरत महल के साथ नेपाल की सरहद तक उन्हें छोड़ते भी गये थे। मिफ़्तुद्दौला के अनुसार बादशाह की सम्पत्ति में लखनऊ शहर के बावत' महल ओर छप्पन बाग़ थे। सोने की पचास लाख मोहरें खजाने में थीं और इस प्रकार वाजिद अली शाह ५४ करोड़ रुपये की दौलत के मालिक थे ।
लखनऊ में १८५७ के बाद बेतहाशा लूट हो रही थी, जिसे देखकर मिफ्तु--
दोला ने ख़ज़ाने के बारे में अपने मुंह पर ताले डाल दिये थे । क़ैसरबाग़ को लूट कर आठ हज़ार बैलगाड़ियों में रनिवास का बेशक्रीमती सामान भरा गया था, जिसमें से तीत हजार गाड़ियाँ महाराजा नेपाल को भेज दी गयी थीं और पाँच" हज़ार बेलगाड़ियों का माल-असबाब पानी के रास्ते बरतानिया रवाना कर दिया गया ।
क़ैसरबाग़ की जुमुरद में जड़ी हुई संग मरमर की बारादरी बनारसीबार पहुँचा दी गईं। जिसमें से जुमुरुद निकालकर अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपत्ती जेबें' भरी और बारादरी के फूल-बूटों में रंगीन मसाले भर दिए गए । मिफ्तुद्दौला अंग्रेज़ों से शाही खजाने को बचाने के लिए सारे शहर में आँख-- मिचोली खेलते रहे।
शहजादा बिरजीसक़द्र के मददगारों में होने के कारण फिरंगियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और गोंडा में क़ैद रखा था। बाद में जब यह ज़ाहिर हुआ कि मिफ़्तुद्ौला कोई मामूली हस्ती नहीं है, बल्कि वही खज़ानए अवध की असली चाबी है, तो उसे अंग्रेज़ अफ़सर रिहा करके अपने साथ लखनऊ ले आये ।
वक्त के ये आसार देखकर मिफ्तुदौला को कुछ और न सूझा, उसने खजाने की चाबियों को लक्ष्मण टीले के पास एक कुण्ड में फेंक दिया जिसमे गोमती का पानी आता-जाता था ।
अग्नेज़ों ने उसे हर तरफ़ से रिझाने-मनाने की कोशिशें कीं । लाखों की जागीर उसके नाम लिख देने का वायदा किया। जब वह किसी तरह क़बूलते को राजी न हुआ, तब उसे किश्ती में बिठा कर नदी पर ले गये और तमाम तरह की यात- नाएँ देकर उससे खजाने का पता पूछने की कोशिश करते रहे। लेकिन कुछ हासिल न हुआ।
ब्रिटिश अधिकारी मिफ्तुद्दोला को अभी मार डालना कुछ अक्लमन्द न समझते थे, इसलिए बराबर उसे समझा लेने की कोशिशें करते रहे। इधर मिफ़्तुद्दौला उस दबी दौलत का पता देने को राजी नहीं होता था।
उसका अनु-मान था कि लखनऊ के छोटे खज़ानों में भी २२ करोड़ रुपये हैं जिसका रास्ता मूसाबाग़ की बारादरी से है। इसी तरह का एक खज़ाना बुनियाद मंजिल के पास भी बताया गया है | बड़े खजाने के बारे में तो उसका कहना था कि उसमें सोने की इतनी मोहरें हैं कि अगर उन्हें क्रतार से बिछा दिया जाय' तो लखनऊ से कल- कत्ते तक का ८०० मील लम्बा रास्ता नापा जा सकता है।
जब तमाम तरकीबों से भी कुछ नतीजा न निकला, तब ब्रिटिश अफ़सरों ने उसकी ३ लाख बकाया पेंशन जब्त कर ली। उसके परिवार की परवरिश के लिए जो सरकार की तरफ़ से ३०० रुपये माहवार बंधे थे वह बन्द कर दिए गए और फिर रेजीडेंसी में तोप के मुँह पर बाँधकर उसे उड़ा विया गया।
सन्
१९३६ में अंग्रेज़ों ने अवध का खज़ाना ढूँढ़ निकालने के लिए कमर कस ली। बावली में पम्प लगाकर पानी खींचा जाने लगा। बड़ी बावली पातालतोड़ कुएँ से भरी होते के कारण किसी सूरत ख़ाली न की जा सकी और इस तरह अंग्रेजों के इरादे पर पावी फिर गया।
The End
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