लाहौर के बाज़ार शेखूपुरियां से बारूदखाने के बीच पड़ने वाला हीरा मंडी नाम का इलाका अपने कोठों के लिए जाना जाता था. ये कोठे ठुमरी और ग़ज़ल जैसी भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनन्य विधाओं के पालने माने जा सकते हैं.
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में एचएमवी और कोलंबिया जैसी रेकॉर्डिंग कम्पनियाँ भारत में कदम रख रही थीं. इन कंपनियों की बदौलत लाहौर के इन कोठों से अनेक ऐसी आवाजें संसार के सामने आ सकीं जिन्होंने अन्यथा अपनी पुरखिन गायिकाओं की तरह गुमनाम रह जाना था.
शौक़ीन और रईस ग्राहकों की फरमाइशों को पूरा करने और बाज़ार-ए-हुस्न कहे जाने वाले हीरामंडी के ऐसे ही एक कोठे में साल
1918 में सरदार बेगम के घर गुलज़ार बेगम नाम की बच्ची का जन्म हुआ.
सरदार बेगम के कोठे में शास्त्रीय गायकी को नृत्य के ऊपर तरजीह दी जाती थी और अपने चाहने वाले चन्द संपन्न लोगों की कृपा के चलते कुछ पीढ़ियों से वह लाहौर के इस इलाके में एलीट का दर्जा रखता था. सरदार बेगम के बड़े बेटे हाजी उमर नामी बांसुरी वादक थे.
सात
साल की उम्र में गुलज़ार को उस्ताद फ़िदा हुसैन की शागिर्दी में भरती कराया गया. अगले नौ साल तक शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखने के बाद साल 1934 में उसने अपनी माँ की महफ़िल में पहली पब्लिक परफॉरमेंस दी.
इस परफॉरमेंस से एक दिलचस्प बात जुड़ी हुई है. उस ज़माने में गुलज़ार नाम की दो नामचीन्ह गायिकाएं पहले से ही लाहौर के कोठों में गा रही थीं - नूरजहाँ की बड़ी बहन गुलज़ार बीबी और लाहौर में बनी मूक फिल्मों की पहली हीरोइन मिस गुलज़ार. हमें नहीं पता किस अक्लमंद ने सोलह साल की इस अतीव प्रतिभावान गायिका को तमंचा जान का नाम दे दिया.
Tamancha Jaan (Gulzar Begum) |
यह वो समय भी था जब भारतीय सिनेमा में एस्थर विक्टोरिया अब्राहम,
फीरोज़ा बेगम, देविका रानी, नसीम बानो और जद्दन बाई जैसी बोल्ड अभिनेत्रियों का डंका बजता था. इन सबकी महारानी थी ऑस्ट्रेलिया में जन्मी मेरी ऐन इवांस जिन्हें वाडिया मूवीटोन ने फीयरलेस नाडिया के नाम से पेश किया था.
‘हंटरवाली’ रिलीज होते ही चमड़े के बूट पहने, चाबुक फटकारती इस गोरी अभिनेत्री का कल्ट स्थापित हो गया था. हो सकता है उस दौर की हवा पहचानते हुए किसी रईस और रसूखदार ग्राहक ने उसका नाम तमंचा जान रखवा दिया हो.
इस नाम को जस्टीफाई करने के लिए कुछ समय बाद उन्होंने गाते समय अपनी कमर पर एक छोटी पिस्तौल बाँधना शुरू कर दिया. दीगर है कि गायन और नृत्य में प्रवीण होने के बावजूद इन स्त्रियों को तमंचा ही नहीं छप्पन छुरी और सोलह साल जैसे अश्लील नामों से भी नवाज़ा जाता था.
बहरहाल लाहौर के संगीत-रसिकों के बीच तमंचा जान को अपना नाम पैदा करना था. उन्हें उस समय की मशहूर गानेवालियों इनायती सुनियारी, शमशाद अलीपुरवाली और अनवरी सियालकोटन को टक्कर देनी थी क्योंकि हीरामंडी में आने वाले लोगों की संगीत की समझ बहुत ही उच्चकोटि की थी. लिहाजा तमंचा जान ने अपनी तालीम जारी रखी और अपने संगीत को तराशने में लगी रहीं.
तमंचा जान के तीखे नैन नक्श और गाते समय उनके चेहरे, आँखों, हाथों और उँगलियों की अदाओं ने लाहौर को अपना दीवाना बना लिया. उस दौर के नामचीन्ह स्त्री-स्वरों की तरह उनकी आवाज़ में भी एक मजबूती और सुर की गहरी पकड़ और रेंज देखने को मिलती है.
जल्द ही वे मास्टर गुलाम हैदर के साथ मिलकर जेनोफोन कंपनी के लिए पंजाबी लोकगीतों के रिकार्ड्स बना रही थीं. उनकी प्रतिभा का डंका बजना शुरू हुआ तो कोलंबिया रिकार्ड्स ने उनके भक्ति संगीत और ग़ज़लों के अल्बम निकाले.
मास्टर गुलाम हैदर ने ही उनसे ‘गुलबकावली’ फिल्म में एक गीत गवाया जो संभवतः उनका गाया इकलौता फ़िल्मी गीत है. ध्यान रहे इन्हीं गुलाम हैदर साहब ने नूरजहाँ और लता मंगेशकर से उनके पहले गीत गवाए थे.
तमंचा जान को फिल्मों में काम करने के प्रस्तव मिलने लगे लेकिन उन्होंने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि ऐसा करने से उनके कोठे पर आने वाले प्रशंसकों की संख्या पर बुरा असर पड़ेगा.
फिर 1937 में लाहौर रेडियो का ब्रॉडकास्ट शुरू हुआ. इस नए प्रोजेक्ट में करतार सिंह दुग्गल और अमृता प्रीतम जैसे लिखने वाले भी जुड़े और जीनत बेगम, सुरिंदर कौर और तमंचा जान जैसे गाने वाले भी.
तमंचा जान ने रेडियो पर सुनने वालों को अपनी कला और प्रतिभा की हैरतंगेज़ रेन्ज से परिचित करवाया. पंजाबी के अलावा उनकी गायकी में लखनवी और बनारसी अंग के भी दीदार हुए. उनकी गज़ल गायकी में कुंदनलाल सहगल और बेगम अख्तर जैसी पकड़ और परिपक्वता सुनने को मिलती है.
1940 के दशक के शुरू के पांच-छह सालों का दौर उनकी ख्याति के चरम का समय था.
उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि एक-एक महफ़िल में मिलने वाली सलामी की रकम को समेटने के लिए चादरों की ज़रूरत पड़ती थी. फिर बंटवारा हो गया. हिंसा और धार्मिक वैमनस्य के उस दुर्भाग्यशाली अरसे में उनके ज्यादातर संरक्षक या तो मारे गए या वतन छोड़ कर चले गए. 1947 के बाद तमंचा जान ने गाना छोड़ दिया.
अपनी
अनेक अच्छी चीज़ों की तरह संसार ने तमंचा जान को भी भुला दिया.
लेखक प्राण नेविल जिन्होंने अपनी जवानी में तमंचा जान को “दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे” गाते हुए सुना था, पचास साल बाद जब लाहौर गए तो गुमनामी में रह रही बूढ़ी हो चुकीं निर्धन तमंचा जान से ख़ास तौर पर मिलने गए. वह कथा उन्होंने अपनी एक किताब में लिखी है.
पंजाब के लोकगीतों में नायक की हैसियत रखने वाले जग्गा जट्ट उर्फ़ जग्गा डाकू की साख अपने इलाके में वैसी ही थी जैसी अपने समय के उत्तर भारत में सुल्ताना डाकू की थी.
जग्गा अंग्रेज़ सरकार की खिलाफत करता था और उनके खजाने लूट कर गरीबों में तकसीम कर दिया करता था. पंजाब का रॉबिनहुड कहे जाने वाले इस बहादुर को अंग्रेजों ने
1931 में धोखे से कत्ल करवा दिया था जब वह कुल 29 साल का था.
जग्गा की मौत के तुरंत बाद उसके जीवन को लेकर अनेक गीत रचे गए जिन्हें आज भी बड़े चाव से सुना जाता है. इन गीतों को गाने वाले बड़े गायकों में शौकत अली, आलम लोहार और बशीर लोहार का नाम लिया जाता है लेकिन जग्गा का गीत सबसे पहले तमंचा जान ने गाया था – “जग्गा जम्मेयाँ ते मिलण वधाईयां.”
जग्गा जट्ट और तमंचा जान तकरीबन समकालीन थे. यह कल्पना करना सुखद लगता है कि जग्गा उसका गाना सुनने उसके कोठे पर पहुंचता और खुश होकर पहले तो उसकी झोली इनामात से भर देता. उसके बाद वह उसका नाम दोबारा से बदल कर गुलज़ार बेगम कर देता कि ऐसे खूबसूरत स्वर की स्वामिनी पर तमंचा जैसा नाम ज़रा भी नहीं फबता.
The
End
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