फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज़ शुक्ला
की शून्य नज़रें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी
पर पटकते हुए कहा “कहिए, कैसी तबीयत रही आज?”
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके
शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं “ठीक ही रही! सरीन नहीं आई?”
“मेरे
दोनो पीरियड्स ख़ाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।”
दोनों
कोहनियों पर ज़ोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए
के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके जर्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको
आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा “कैसा लग रहा है कॉलेज? मन लग जाएगा ना?”
“हाँ..
मन तो लग ही जाएगा। मुझे तो यह जगह ही बहुत पसन्द है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह शहर
और एकान्त में बसा यह कॉलेज। जिधर नज़र दौड़ाओ हर तरफ हरा-भरा दिखाई देता है।”
तभी
मेरी नज़र सामने की जेल की दीवारों से टकरा गई।
मैंने
पूछा “पर एक बात समझ में नहीं आई। यह कॉलेज जेल के सामने क्यों बनाया? फाटक से निकलते
ही जेल के दर्शन होते हैं तो लगता है, सवेरे-सवेरे मानो ख़ाली घड़ा देख लिया हो; मन
जाने कैसा-कैसा हो उठता है।”
रूख़े केशों की लटों को अपने
शिथिल हाथों से पीछे करते हुए मिसेज़ शुक्ला की कान्तिहीन आँखें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों
पर टिकीं। बोलीं “सरीन जब आई थी तो उसने भी यही बात पूछी थी।’’
पता नहीं क्यों कॉलेज के
लिए जगह चुनी गई।” फिर
उनकी खोई-खोई दृष्टि दीवारों में जाने क्या खोजने लगी पैरों को कुछ फैलाकर उन्होंने
एक बार फिर अपनी स्थिति को ठीक किया, और बोलीं “तुम लोग जब कॉलेज चली जाती हो तो मैं
लेटी-लेटी इन दीवारों को ही देखा करती हूँ, तब मन में लालसा उठती है कि काश! ये दीवारें
किसी तरह हट जातीं या पारदर्शी ही हो जातीं और मैं देख पाती कि उस पार क्या है!
सवेरे शाम इन दीवारों को बेधकर आती हुई कैदियों के पैरों की
बेड़ियों की झनकार मेरे मन को मथती रहती है और अनायास ही मन उन कैदियों के जीवन की
विचित्रा-विचित्रा कल्पनाओं से भर जाया करता है। इस अनन्त आकाश के नीचे और विशाल भूमि
के ऊपर रहकर भी कितनी सीमित, कितना घुटा-घुटा रहता होगा उनका जीवन! चाँद और सितारों
से सजी इस निहायत ही ख़ूबसूरत दुनिया का सौंदर्य, परिवार वालों का स्नेह और प्यार,
ज़िन्दगी में मस्ती और बहारों के अरमान क्या इन्हीं दीवारों से टकराकर चूर-चूर न हो
जाया करते होंगे?
इन सबसे वंचित कितना उबा
देने वाला होता होगा इनका जीवन न आंनद, न उल्लास, न रस।”
और
एक गहरी निःश्वास छोड़कर वे फिर बोलीं “जाने क्या अपराध किए होंगे इन बेचारों ने, और
न जाने कि न परिस्थितियों में वे अपराध किए होंगे कि यूँ सब सुखों से वंचित जेल की
सीलन भरी अँधेरी कोठरियों में जीवित रहने का नाटक करना पड़ रहा है...।”
तभी दूधवाली के कर्कश स्वर
ने मिसेज शुक्ला के भावना-स्त्रोत को रोक दिया। मैं उठी और दूध का बर्तन लाकर दूध लिया।
मिसेज शुक्ला बोली “अब चाय का पानी भी रख ही दो, सरीन आएगी तब तक उबल जाएगा।”
मैं पानी चढ़ाकर फिर अपनी
कुर्सी पर आ बैठी। बोली “मदर ने आपको पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है। आपकी जगह जिन्हें
रखा गया है, वे कल से काम पर आने लगेंगी। आज शाम को शायद मदर खुद आपको देखने आएँ।”
“मदर यहाँ की बहुत अच्छी हैं रत्ना! जब मैं यहाँ आई थी तब जानती हो, सारा स्टाफ नन्स
का ही था।
मेरे लिए तो यही समस्या थी
कि इन नन्स के बीच में रहूँगी कैसे। पर मदर के स्वभाव ने आगा-पीछा सोचने का अवसर ही
नहीं दिया, बस यहाँ बाँधकर ही रख लिया। फिर तो सरीन और मिश्रा भी आ गई थीं। मिश्रा
गई तो तुम आ गईं।”
“मुझे
तो सिस्टर ऐनी और सिस्टर जेन भी बड़ी अच्छी लगीं। हमेशा हँसती रहती हैं। कुछ भी पूछो
तो इतने प्यार से समझाती हैं कि बस! बड़ी अफेक्शनेट हैं। हाँ, ये लूसी और मेरी जाने
कैसी हैं? जब देखो चेहरे पर मुर्दनी छाई रहती है, न किसी से बोलती हैं, न हँसती हैं।”
मिसेज
शुक्ला ने पीछे से एक तकिया निकालकर गोद में रख लिया और दोनों कोहनियाँ उस पर गड़ाकर
बोली “ऐनी और जेन तो अपनी इच्छा से ही सब कुछ छोड़-छाड़कर नन बनी थीं, पर इन बेचारियों
ने ज़िन्दगी में चर्च और कॉलेज के सिवाय कुछ देखा ही नहीं। कॉलेज में काम करती हैं,
बस यही है इनका जीवन! अब तुम्हीं बताओ, कहाँ से आए मस्ती और शोखी।”
“वाह, यह भी कोई बात हुई।
Manu Bhandari (1931- 15 November 2021) |
“वह
अभी नई-नई आई है यहाँ, थोड़े दिन रह लेने दो, फिर देखना, वह भी लूसी और मेरी जैसी ही
हो जाएगी।” और
एक गहरी साँस छोड़कर उन्होंने आँखें मूंद ली। तभी सरीन हड़बड़ाती-सी आई और बोली “गजब
हो गया शुक्ला आज तो! अब जूली का पता नहीं क्या होगा?”
“क्यों, क्या हुआ?” सरीन की घबराहट से एकदम चैंककर शुक्ला ने
पूछा। “जूली फोर्थ इयर का क्लास ले रही थी। कीट्स की कोई कविता समझाते- समझाते जाने
क्या हुआ कि उसने एक लड़की को बाँहो मे भरकर चूम लिया। सारी क्लास में हल्ला मच गया
और पाँच मिनिट बीतते-न-बीतते बात सारे कॉलेज मैं फैल गई।
मदर बड़ी नाराज़ भी हुईं और चिंतित भी। जूली को उसी समय चर्च भेज दिया
और वे सीधी फादर के पास गईं।” और फिर बड़े ही रहस्यात्मक ढंग से इन्होंने शुक्ला की ओर देखा। “लगता
है, अब जूली के भी दिन पूरे हुए!” बहुत ही निर्जीव स्वर में शुक्ला बोलीं।
मुझे
सारी बात ही बड़ी विचित्रा लग रही थी। लड़की-लड़की को किस कर ले! जूली के दिन पूरे
हो गए कैसे दिन? दोनों के चेहरों की रहस्यमयी मुद्रा...मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी।
पूछा “फादर क्या करेंगे, कुछ सज़ा देंगे?” मेरा मन जूली के भविष्य की आशंका से जाने
कैसा-कैसा हो उठा।
“अभी-अभी
तो रत्ना, जूली की ही बात कर रही थी और अभी तुम यह खबर ले आईं। सुनते हैं, जूली पहले
जिस मिशनरी में थी, वहाँ भी इसने ऐसा ही कुछ किया था, तभी तो उसे यहाँ भेजा गया कि
फिर कभी कोई ऐसी-वैसी हरकत करे तो फादर का जादू का डंडा घुमवा दिया जाए।”
और शुक्ला के पपड़ी जमे शुष्क अधरों पर फीकी-सी मुस्कराहट फैल
गई।“जादू का डंडा? बताइए न क्या बात है? आप लोग तो जैसे पहेलियाँ बुझा
रही हैं।” बेताब होकर मैंने पूछा।
“अरे, क्यों इतनी उत्सुक हो रही हो?” थोड़े दिन यहां रहोगी तो सब
समझ जाओगी। यहाँ के फादर एक अलौकिक पुरूष हैं, एकदम दिव्य! कोई कैसा भी पतित हो या
किसी का मन जरा भी विकार-ग्रस्त हो, इनके सम्पर्क में आने से ही उसकी आत्मा की शुद्धि
हो जाती है। दूर-दूर तक बड़ा नाम है इन फादर का। बाहर की मिशनरीज़ से कितने ही लोग
आते है। फादर के पास आत्म-शुद्धि के लिए।”
“चलिए,
मैं नहीं मानती। मन के विकार भी कोई ठोस चीज़ हैं कि फादर ने निकाल दिए और आत्म शुद्धि
हो गई।” मैंने
अविश्वास से कहा। कमरे से चाय के प्याले बनाकर लाती हुई सरीन से शुक्ला बोलीं
“लो,
इन्हें फादर की अलौकिक शक्ति पर विश्वास ही नहीं हो रहा है।”
“इसमें अविश्वास की क्या बात है? हमारे देश में तो एक-से-एक पहुँचे हुए महात्मा हैं,
तुमने कभी नहीं सुना ऐसी महान आत्माओं के बारे में?”
“सुनने
को तो बहुत कुछ सुना है पर मैंने कभी विश्वास नही किया।”
“अच्छा,
अब जूली को देख लेना, अपने आप विश्वास हो जाएगा। लूसी, जो आज इतनी मनहूस लगती है, यहाँ
आई थी तब क्या जूली से कम चपल थी? फिर देखो! फादर ने तीन दिन में ही उसका काया पलट
कर दिया या नहीं?” शुक्ला ने सरीन की ओर देखते हुए जैसे चुनौती के स्वर में पूछा।
तभी डॉक्टर साहब आए। मिसेज़
शुक्ला ने इंजेक्शन लगाया और पूछताछ करने लगे। सरीन मुझे गरम पानी की थैली का पानी
बदल देने का आदेश देकर नहाने चली गई। इंजेक्शन लगाने के बाद करीब घंटे-भर तक शुक्ला
की हालत बहुत खराब रहती थी, मैंने उन्हें गर्म पानी की थैली देकर आराम से लिटा दिया।
उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें झलक आई थीं, उन्हें पोंछ दिया। वे आँखें बन्द करके चुपचाप
लेट गईं।
मन में अनेकानेक प्रश्न चक्कर
काट रहे थे और रह-रहकर जूली का हँसता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा था। फादर उसके साथ
क्या करेंगे? यह प्रश्न मेरे दिमाग को बुरी तरह मथ रहा था। मैंने दूर से फादर को देखा
है। ऊपर से नीचे तक सफ ेद लबादा पहने वह कभी-कभी चर्च जाते हुए दीख जाया करते थे। इतनी
दूर से चेहरा तो दिखाई नहीं देता था, पर चाल-ढाल से बड़ी भव्य मूर्ति लगते थे।
मन श्रद्धा से भर उठे, ऐसे।
फादर में कौन सी शक्ति है जो आत्मा की शुद्धि कर देती है, यही बात मेरी समझ में नहीं
आ रही थी। अगले दिन जूली नहीं आई। मैंने सिस्टर ऐनी से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने
धीरे-से अंगुली मुँह पर रखकर चुप रहने का आदेश कर दिया।
मैंने देखा कि लूसी और मेरी
इस घटना से काफी सन्तुष्ट-सी नज़र आ रही थीं। कल से उनके खिजलाहट भरे चेहरों पर हल्के
से सन्तोष की झलक नज़र आ रही थीं। दो दिन और इसी प्रकार बीत गए, तीसरे दिन मैं कुछ
जल्दी ही कमरे से रवाना होने लगी तो सरीन ने पूछा “अरे, अभी से चल दी!”
“कुछ
कॉपियाँ देखनी हैं, यहाँ लेकर नहीं आई, अब स्टाफ -रूम में बैठकर ही देख लूँगी। आज नम्बर
देने ही हैं।”और मैं चल पड़ी। यों हमारे
कमरों और कॉलेज के बीच में भी एक छोटा-सा फाटक था, पर वह अक्सर बन्द ही रहा करता था
सो मेन गेट से ही जाना पड़ता था।
जैसे ही मैं कॉलेज के फाटक
में घुसी, मैंने देखा जूली चर्च का मैदान पार कर नीची नज़रें किए धीरे-धीरे कॉलेज की
तरफ आ रही है। एक बार इच्छा हुई कि दौड़कर उसके पास पहुँच जाऊँ, पर जाने क्यों पैर
बढ़े ही नहीं। मैं जहाँ-की-तहाँ खड़ी रही। वह मेरे पास आई, पर बिना आँख उठाए, बिना
एक भी शब्द बोले वैसी ही शिथिल चाल से गुज़र गई।
मैं अवाक्-सी उसका मुँह देखती
रही। दो दिन में ही क्या हो गया इस जूली को? मै नहीं जानती, फादर ने उसके ऊपर जादू
का डंडा घुमाया या उसे जन्तर मन्तर का पानी पिलाया, पर जूली हँसना भूल गई। इसकी सारी
शोखी, सारी हँसी, सारी मस्ती जैसे किसी ने सोख ली हो। उस दिन किसी ने जूली से बात नहीं
की, शायद मदर का ऐसा ही आदेश था।
पर जूली के इस नए रूप ने
मेरे मन में विचित्रा-सा भय भर दिया। लगता था जैसे जूली नहीं, उसकी ज़िंदा लाश घूम
रही है। सिस्टर ऐनी ने इतना जरूर कहा कि फादर ने उसकी आत्मा को पवित्रा कर दिया, उसकी
आत्मा के विकार मिट गए; पर मुझे लगता था जैसे जूली की आत्मा ही मिट गई थी, मर गई थी।
अपने कमरे पर आकर मैंने मिसेज
शुक्ला को सारी बात बताई तो बिना किसी प्रकार का आश्चर्य प्रकट किए वे बोलीं “मैं तो
पहले ही जानती थी। पता नहीं, कैसी शक्ति है फादर के पास।”रात
में सोई तो बड़ी देर तक दिमाग़ में यही सब चक्कर काटता रहा। कभी लूसी और कभी मेरी की
शक्लें आँखों के सामने घूम जातीं।
उन्हें
देखकर लगता था मानो वे अपने से ही लड़ रही हैं, अपने को ही कुतर रही हैं, एक अजीब खिझलाहट
के साथ, एक अजीब आक्रोश के साथ। कॉलेज की बड़ी लड़कियों को हँसी-ठिठोली करते देख उनके
दिलों से बराबर ही सर्द आहें निकल जाया करती थीं। उनके जवान दिलों में उमंगों और अरमानों
की आंधियाँ नहीं मचलती थीं और उनकी आँखों में वह कान्ति और चमक नहीं थी, जो इस उम्र
की खासियत होती है।
ऐसा लगता था इनकी आँखें,
आँखें न होकर दो कब्र हैं जिनमें उनके मासूम दिलों की सारी तमन्नाओं को, सारे अरमानों
को मारकर सदा-सदा के लिए दफ ना दिया हो। पहले ये भी जूली जैसी ही चंचल थीं तो अब जूली
भी हमेशा के लिए ऐसी ही हो जाएगी? और जूली का आज वाला रूप मेरी आँखों के सामने घूम
जाता है। मैंने ज़ोर से तकिए में अपना मुँह छिपा लिया और इन सारे विचारों को दिमाग
से निकालकर सोने की कोशिश करने लगी।
मैं नहीं जानती क्या हुआ,
पर आँख खोली तो देखा मैं पसीने से तर थी और साँस जोर-जोर से ऊपर-नीचे हो रही थी। मिसेज
शुक्ला मुझे पकड़े हुए थीं और बार-बार पूछ रही थीं “क्या सपना देखकर डर गईं?” एक बार
तो भयभीत सी नज़रों से मैं चारों ओर देखती रही, फिर कमरे की परिचित चीज़ों और मिसेज़
शुक्ला को देखकर आश्वस्त सी हुई। “क्या हो गया? क्यों चिल्लाई थीं इतनी ज़ोर से? कोई
सपना देखा था क्या?”
उन्होंने फिर पूछा।
“हाँ! मुझे ऐसा लगा कि एक बड़ी-सी सफेद चिड़िया आकर मुझे अपने पंजे
में दबोचकर उड़े जा रही है और उसके पंजों के बीच मेरा दम घुटा जा रहा है।”
“चलो, थी चिड़िया ही, चिड़ा तो नहीं था, तब कोई बात नहीं। चिड़ियाँ
कहीं नहीं ले जाने की, ले जानेवाले तो चिड़े ही होते हैं।” हँसते हुए उन्होंने कहा!
“चलिए,
आपको मज़ाक सूझ रहा है, यहाँ डर के मारे जान निकल गई। वह दम घुटने की फीलिंग जैसे अभी
भी है।”मैंने पानी पिया और फिर सो
गई।
और फिर वही ढर्रा चल पड़ा।
जब कभी बाहर से कोई सिस्टर या ब्रदर आत्म शुद्धि के लिए फादर के पास आते तो सिस्टर
ऐनी मुझे यह ख़बर सुनाया करती थी। मैं बड़ी उत्सुकता से सारा किस्सा सुनती और विश्वास
से अधिक आश्चर्य करती सिस्टर ऐनी और जेन को मेरा यह अविश्वास करना अच्छा नहीं लगता
था और उसे मिटाने के लिए ही वे और भी जोर-शोर से, घंटों फादर के अलौकिक गुणों का बखान
करतीं। मन्दगति से चलती- फिरती फादर की वह सौम्य मूर्ति मेरे लिए श्रद्धा से अधिक कौतूहल
और भय का विषय बनी रही।
महीने भर बाद एक दिन मदर
ने मुझे बुलाया और बोलीं “मैं चाहती हूँ कि नन्स के लिए भी हिन्दी पढ़ाने की कुछ व्यवस्था
कर दी जाए। अब हिन्दी जानना तो सबके लिए बहुत ज़रूरी हो उठा है क्योंकि मीडियम भी हिन्दी
हो रहा है, नहीं तो सारा स्टाफ हमें दूसरा रखना होगा। क्यों?”
“तो
आप सिस्टर्स के लिए भी एक क्लास खोल दीजिए, बहुत ही जल्दी सीख लेंगी। यों बोल तो सभी
लेती हैं, लिखना- पढ़ना भी आ जाएगा।”
“इसीलिए
तो तुम्हें बुलाया है। शुक्ला तो बीमारी से उठने के बाद काफी कमज़ोर हो गई है, सो मैं
उस पर यह बोझ डालना ठीक नहीं समझती। तुम शाम को एक घंटा चर्च में आकर सिस्टर्स को हिन्दी
पढ़ाने का काम ले लो, उसके लिए तुम्हें अलग से पे किया जाएगा।”
चर्च में जाकर पढ़ाना होगा, यह बात सुनते ही एक बार मेरे सामने
फादर का चेहरा घूम गया। उनको और दूसरी नन्स को और अधिक निकट से जानने की लालासा को
एक राह मिल रही थीं मैं बोल पड़ी “मुझे कोई ऐतराज नहीं, मैं बड़ी खुशी से यह काम करूँगी।”
“तब
पहली तारीख से शुरू कर दो!”
मदर के पास से लौटी तो देखा,
सरीन और शुक्ला चाय पर बैठीं मेरा इन्तज़ार कर रही है। मैंने आकर उन्हें सारी बात बताई
तो सरीन हँसकर बोली “चलो, तुम तो सपने में भी फादर को देखा करती थीं।”
अब
पास से देखना। बहुत कौतूहल है ना फादर को लेकर तुम्हारे मन में।
“फादर
अपने कॉटेज में ही रहते हैं या चर्च जाते हैं? सिस्टर्स के कमरों की तरफ तो वे शायद
कभी जाते नहीं, तुम देखोगी क्या?” शुक्ला ने कहा।
“अरे,
कभी चर्च में आते-जाते ही दीख जाया करेंगे।”
सरीन
बोली। फिर एकाएक प्रसंग बदलकर कहा “क्यों शुक्ला, आजकल तुमने एक नई बात मार्क की या
नहीं?”
“क्या?”
मिसेज़ शुक्ला ने पूछा।
“लूसी
में कोई चेंज नज़र नहीं आता? आजकल उसके चेहरे पर पहले जैसी मुर्दनी नहीं छाई रहती।
वह अनिमा है ना थर्ड इयर की, उसका भाई आजकल अक्सर कॉलेज में आया करता है, कभी कोई बहाना
लेकर तो कभी कोई बहाना लेकर। विजिटर्स को अटैंड करने का काम लूसी पर ही है। मैं कई
दिनांें से नोटिस कर रही हूँ कि जिस दिन वह आता है, लूसी का मूड बड़ा अच्छा रहता है।
“ख़्याल
नहीं किया, अब देखेंगे।” शुक्ला
ने कहा।
पता नहीं, मिसेज़ शुक्ला
ने ख़्याल किया या नहीं, पर मैंने इस चीज़ को अच्छी तरह से मार्क किया कि अनिमा का
भाई सप्ताह में दो बार आ ही जाता है और काफी देर तक वह उसके पास बैठती है। उसके जाने
के बाद भी लूसी का मूड इतना अच्छा रहता है कि कोई हल्का-फुल्का मज़ाक भी कर लो तो बुरा
नहीं मानती। पर जाने क्यों लूसी का यह नया रूप देखकर मेरा मन भर उठता। दो महीने पहले
की हँसती, थिरकती जूली की तस्वीर आँखों के सामने नाच जाती और मैं सिहर उठती।
पहली तारीख की शाम को मैं चर्च गई। इसके पहले मैंने कभी चर्च
की सरहद में पाँव नहीं रखा था। कॉलेज के दाहिनी ओर वाला लंबा मैदान पार करने पर एक
नाला पड़ता था, वही चर्च और कॉलेज की विभाजक रेखा थी।
उसे पार करके ही चर्च का
मैदान आरम्भ होता था। चर्च के पीछे रैवरेंड फादर और मदर के लिए दो छोटी सुन्दर कॉटेजेज़
बनी हुई थीं और बाईं ओर सिस्टर्स के लिए एक कतार में कमरे बने हुए थे। कमरों के सामने
लम्बा-सा बरामदा था। जाकर देखा कि क्लास के लिए उसी बरामदे में व्यवस्था की गई है।
मैं पढ़ाने लगी। चर्च, कॉलेज और हमारे कमरों के सामने कोई तीन फीट ऊँची लम्बी सी दीवार
थी, यों सबके प्रवेश द्वार अलग-अलग थे, पर चर्च से कॉलेज जाने के लिए सब लोग नाला पार
करके ही जाया करते थे।
पढ़ाने बैठी तो फाटक की ओर
ही मेरा मुँह था और अनायास ही यहाँ भी मेरी नज़रें सामने जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों
से टकराईं। जबर्दस्ती अपनी नज़रों को उस ओर से हटाकर मैंने पढ़ाना आरम्भ किया।
चर्च में सिस्टर्स को पढ़ाते-पढ़ाते
मुझे क़रीब एक महीना हो गया था। रोज़ की तरह उस दिन भी जब मैं जाने लगी तो शुक्ला बोलीं
“आज जरा जल्दी आ सके तो अच्छा हो रत्ना! बाज़ार चलेंगे। सरीन से कहा तो बोली कि उसे
ज़रूरी नोट्स तैयार करने हैं, अकेले जाते मुझे अच्छा नहीं लगता, तुम आ जाना!”
“ठीक
है, मैं जल्दी ही चली जाऊँगी। आप तैयार रहिएगा, आते ही चल पड़ेंगे।”
और
मैं चल दी। चर्च के मैदान में पहुँचते ही किसी स्त्राी के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें
सुनकर एक क्षण को मैं स्तब्ध सी खड़ी हो गई, सोचा जाऊँ या नहीं। पर मन का कौतूहल किसी
तरह ठहरने नहीं दे रहा था।
जैसे ही बरामदे में पैर रखा, मैं हैरत में आ गई। एक बहुत ही खूबसूरत
नन हाथ पैर पटक-पटककर बुरी तरह चिल्ला रही थी। सारी सिस्टर्स उसे संभाले हुए थीं, मदर
बड़ी बेचैनी से उसे शान्त करने की कोशिश कर रही थीं, पर वह थी कि चिल्लाए चली जा रही
थी।
तीन-चार सिस्टर्स ने उसे
पकड़ रखा था, उसके बावजूद वह बुरी तरह हाथ-पैर पटक रही थी। उसे मैंने जो पास से देखा
तो लगा कि ऐसा रूप मैंने आज तक नहीं देखा। संगमरमर की तरह सफेद उसका रंग था और मक्खन
की तरह मुलायम देह। चेहरे पर ऐस लावण्य कि उपमा देते न बने! और उस लावण्यमय चेहरे पर
वे दो नीली आँखें, जैसे समुद्र की गहराइयाँ उतर आई हों।
मैं
सच कहती हूँ कि यदि कोई एक बार भी उन नीली आँखें को देख ले तो कम से कम इस ज़िंदगी
में तो वह उन्हें चाहकर भी न भूल पाए। मेरे घुसते ही उसकी नज़र मेरी ओर घूम गई, मुझे
लगा वे नीली आँखें मेरे शरीर को भेदकर मेरे मन को कचोटे डाल रही हैं। और फिर वह एकाएक
चिल्ला उठी “देखो मेरे रूप को...” और वह अपने कपड़ों को बुरी तरह फाड़कर इधर-उधर करने
लगी।
सबने बड़ी मुश्किल से उसे
संभला मदर ने उसके कपड़ों को जल्दी से ठीक-ठाक कर दिया। वे बड़ी ही परेशान नज़र आ रही
थीं। हाथ रुकने पर भी उसकी जीभ चल रही थी “मैं अपनी ज़िंदगी को, अपने इस रूप को चर्च
की दीवारों के बीच नष्ट नहीं होने दूँगी।
मैं ज़िंदा रहना चाहती हूँ,
आदमी की तरह ज़िंदा रहना चाहती हूँं। मैं इस चर्च में घुट-घुटकर नहीं मरूँगी... मैं
भाग जाऊँगी, मैं भाग जाऊँगी...। हम क्यों अच्छे कपड़े नहीं पहनें? हम इन्सान ही है..?
मैं नहीं रहूँगी यहाँ, मैं कभी नहीं रहूँगी। देखो मेरे रूप को...”
तभी बाहर से सिस्टर ऐनी हड़बड़ाती- सी आई “फादर ने एकदम बुलाया
है, लिए इसे वहीं ले चलिए!” सबने मिलकर उसे जबर्दस्ती उठाया। वह चिल्लाती जा रही थी
“मैं फादर को भी दिखा दूँगी कि ज़िन्दगी क्या होती है, यह सब ढोंग है मैं यहाँ नही
रहूँगी... आधी से अधिक सिस्टर्स उसे उठाकर ले गई।
जो बची थीं, उनमें से इस
घटना के बाद कोई भी इस मूड में नहीं थी कि बैठकर पढ़ती। सो मैं लौट जाने को घूमी तो
देखा कि इस सबसे दूर एक खिड़की के सहारे लूसी खड़ी है। उसके चेहरे पर एक विशेष प्रकार
की चमक आ गई थी, जैसे मन-ही-मन वह इस सारी घटना से बड़ी प्रसन्न हो।
मन में अपार विस्मय, भय और
दुख लेकर मैं लौटी तो शुक्ला बोलीं “लो, तुम तो अभी से लौट आईं, अभी तो तैयार भी नहीं
हुई।”
“आज
क्लास ही नहीं हुई।” और
मैंने सारी बातें उन्हें बताईं। मैं जितनी इस घटना से विचलित हो रही थी, वे उतनी नहीं
हुईं। स्वाभाविक से स्वर में बोलीं “शायद बाहर से कोई सिस्टर आई होगी! क्या बताएँ,
इन बेचारियों की ज़िंदगी पर भी बड़ा तरस आता है।”
रात
भर मेरे दिमाग़ में उस नई सिस्टर का खूबसूरत चेहरा और उसका चीखना- चिल्लाना गूँजता
रहा। वह फादर के पास भेज दी गई है। अब फादर उसका क्या करेंगे, शायद जूली की तरह उसके
हृदय का यह बवंडर भी सदा-सदा के लिए शान्त हो जाएगा और फिर जिन्दगी-भर उसका यह चाँद
को लजाने वाला रूप चर्च की दीवारों के बीच ही घुट-घुटकर नष्ट हो जाएगा और वह अपनी इस
बर्बादी पर एक ठंडी साँस भी नहीं भर सकेगी। दूसरे दिन स्टाफ रूम में घुसते ही सबसे
पहले मेरी नज़र लूसी पर पड़ी।
बिना पूछे ही बड़े उत्साह
से उसने मुझे कल की बात बताई “जानती हो, यह जो नई सिस्टर आई है, इसका नाम एंजिला है।
कहते हैं यह चर्च से भाग गई थी, पर फिर पकड़ ली गई। इसके बाद पागलों जैसा व्यवहार करती
थी, सो इसे फादर के पास भेज दिया। देखा कितनी खू़बसूरत है?” और एक सर्द-सी आह उसके
मुँह से निकल गई।
“अब
क्या होगा? फादर आखिर करते क्या हैं?”
“देखो
क्या होता है? आज तो मदर भी नहीं आईं। कल से वे फादर की कॉटेज़ पर ही हैं। सुनते हैं।
एंजिला काबू में नही आ रही है, उसका पागलपन वैसे ही ही जारी है। हम लोगों को भी उधर
जाने की इजाज़त नहीं है।”
दो दिन तक कॉलेज के वातावरण, विशेषकर स्टाफ-रूम के वातावरण में
एक विचित्रा प्रकार का तनाव आ गया। कोई किसी से कुछ नहीं बोलता। बस मैं, शुक्ला और
सरीन आपस में ही थोड़ा-बहुत बोल लेते थे, बाकी सारी सिस्टर्स तो ऐसे काम कर रही थीं
मानो मौन-व्रत ले रखा हो, जैसे आॅपरेशन रूम में कोई बहुत बड़ा आॅपरेशन हो रहा हो और
बाहर नर्सें व्यस्त, चिंतित-सी, परेशान इधर-उधर घूम रही हों।
उनकी हर बात से ऐसा लग रहा
था जैसे कह रही हों चुप-चुप! शोर मत करो, आॅपरेशन बिगड़ जाएगा! मदर थोड़ी देर के लिए
कॉलेज आतीं और जरूरी काम करके चली जाती थीं।
हाँ लूसी मौका पाकर और एकान्त
देखकर चुपचाप यह ख़बर दे देती थी कि एंजिला किसी प्रकार शान्त नहीं हो रही है, फादर
सबकुछ करके हार गए। यह कहते समय लूसी का मन प्रसन्नता से भर उठता था, मानो फादर की
नाकमयाबी पर उसे परम सन्तोष हो रहा है।
चैथे दिन सवेरे मैं और मिसेज़
शुक्ला घूमने निकले तो देखा, सामने से एंजिला चली आ रही है। मैं देखते ही पहचान गई।
बिल्कुल स्वस्थ, स्वाभाविक गति से वह चल रही थी। पास आते ही मैं पूछ बैठी, “सिस्टर
एंजिला! आप कहाँ जा रही हैं?”
एक क्षण को एंजिला रूकी मुझे
पहचानने का प्रयास-सा करते हुए बोली “मुझे कोई नहीं रोक सकता, जहाँ मेरा मन होगा, मैं
जाऊँगी।
मैंने तुम्हारे फादर ...” फिर सहसा ओंठ चबाकर बात तोड़कर वह बोली “अब वे कभी
ऐसी फालतू की बातें नहीं करेंगे।” और एक बार अपनी नीली आँखों से उसने भरपूर नज़र
मेरे चेहरे पर डाली, सिर को हल्का-सा झटका दिया और एक ओर चली गई। मैं अवाक्- सी उसकी
ओर देखती रही।
“यही
है एंजिला?” शुक्ला ने पूछा
“हाँ,
पर यह तो जा रही है, किसी ने इसे रोका नहीं?”
“फादर
का जादू-मंतर इस पर चला नहीं दीखता है। बड़ी खूबसूरत है। आँखें तो गजब की है, बस देखने
लायक!”
पर मिसेज शुक्ला की बातें
मेरे कानों में ही नहीं पहँचु रही थी। मैं कभी दूर जाती एंजिला को और कभी मौन, शान्त
खड़ी चर्च की इमारत को देख रही थी। मेरा मन हो रहा था कि दौड़कर चर्च पहुँच जाऊँ और
लूसी को बुलाकर सारी बातेन पूछ लूँ।
लौटते समय भी मैंने चर्च
के मैदानों पर नज़र दौड़ाई, पर वहाँ सभी कुछ शान्त था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। बड़ी
मुश्किल से उस दिन दस बजे मैं एक तरफ दौड़ पड़ी और स्टाफरूम से लूसी को घसीटकर पीछे
लाॅन में चली गई। लूसी स्वयं सब कुछ बताने के लिए बैठी थीं।
लानॅ
में पहुँचते ही बोले “एंजिला चली गई फादर कुछ नहीं कर सके। उनकी खुद की तबीयत बड़ी
खराब हो रही है। मदर उनकी देखभाल कर रही हैं। सवेरे तो हम लोग भी वहाँ गए थे। कमरे
में तो नहीं जाने दिया हमें, पर बाहर से फादर को देखा था।
फादर हम सब पर भी बड़ा रोब
जमाया करते थे, एंजिला ने उनका नशा डाउन कर दिया। एंजिला को सुधार नही सके, अपनी इस
असफलता का ग़म उन्हें बुरी तरह साल रहा है, आत्मग्लानि से बार-बार उनकी आँखों में आँसू
आ रहे हैं, मदर बड़ी परेशान और दुखी हैं, उन्हें बहुत तसल्ली दे रही हैं बार-बार ईसा
मसीह से उनकी शान्ति के लिए प्रार्थना भी कर रही हैं।”
और
एक बड़ी ही व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट उसके होठों पर फैल गई।
इसके
तीसरे दिन ही रात में सबसे आँख बचाकर, चर्च की छोटी-छोटी दीवारों को फांद कर कब और
कैसे लूसी भाग गई, कोई जान ही नहीं पाया।
बड़ी विचित्रा स्थिति थी
उस समय वहाँ की। एंजिला फादर की उस अलौकिक शक्ति को जैसे चुनौती देकर चली गई, जिसके
बल पर उन्होंने कितने ही पतितों की आत्मा शुद्ध की थी।
फादर इस असफलता पर आत्म-ग्लानि के मारे मेरे जा रहे थे। मदर
बेहद परेशान थीं। कभी फादर के पास, कभी कॉलेज तो कभी चर्च में दौड़ती फिर रही थीं।
तभी लूसी भाग गई। एक तो चर्च जैसी पवित्रा जगह, फिर लड़कियों का कॉलेज, क्या असर पड़ेगा
इस घटना का लड़कियों पर!
दो
दिन बाद ही चर्च और कॉलेज के चारों ओर की दीवारें ऊँची उठने लगीं और देखते-ही-देखते
चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवार खिंच गईं।
The End