1920
के आसपास पटना शहर की सारी रंगीनी चौक पर होती थी. इसे शहर का दिल कहा जाता था. यहां की सड़कों के दोनों किनारों पर गुड़हट्टा से लेकर चमडोरिया मोहल्ले तक तवायफों के कोठे अटे पड़े थे.
ये असल कहानी करीब 100 साल पुरानी है. तब दूसरे बड़े शहरों की तरह पटना में भी तवायफों की महफिलें आम थीं. उनके एक से एक अलग रंग के किस्से भी.
पटना में एक तवायफ तन्नो बाई को एक पुजारी से प्यार हो गया. वह आलीशान जिंदगी गुजारती थीं. बड़ी सजावट वाली एक इमारत में रहती थीं. उनकी आवाज का एक जादू एक वैष्णव मंदिर के पुजारी पर ऐसा चला कि हर जुबान पर उनके किस्से सालों साल बने रहे. जानते हैं क्या था ये किस्सा और क्या हुआ इस प्यार का अंजाम.
गुड़हट्टा के इसी इलाके की एक तवायफ तन्नो बाई ने मुजरे की रानी उपनाम अर्जित किया. तन्नो बाई असाधारण रूप से सुंदर थी. अमीरों और रईसों की महफ़िलों की जान. वह बुद्धिमान, सौम्य स्वभाव वाली और नृत्य में अत्यंत कुशल थी. उन्होंने गायन की कच्ची और पक्की दोनों विधाओं में महारत हासिल कर ली थी. उनकी प्रसिद्धि से संगीत के कई पारखी उनके कोठे में आ गए. ये कोठा आलीशान इमारत थी, जो झूमरों और फ़ारसी कालीनों से सजी थी.
पुजारी जी कर्मकांडी लेकिन संगीत के प्रेमी
चौक की कचौड़ी गली में एक छोटा सा वैष्णव मंदिर था जिसके पुजारी धरीक्षण तिवारी इलाके में बेहद प्रतिष्ठित थे. शहर के अमीर और शक्तिशाली लोग अक्सर उसकी मेजबानी करते थे. गोरे और सुगठित काया वाले.
भागलपुरी टसर कुर्ता और सादी सफेद धोती पहनते थे. कंधे पर चमकीले रंग का तौलिया रखते थे. बहुत कर्मकांडी. छुआछूत मानने वाले. लेकिन संगीत के जबरदस्त प्रेमी. आवाज़ बहुत अच्छी थी. रागों को जानते थे.
और जब पहली बार तन्नो को सुना तो मंत्रमुग्ध हो गए
धरीक्षण तिवारी दीवान मोहल्ले में एक रईस की शादी में शामिल हुए. वहां उन्होंने पहली बार तन्नो बाई के प्रदर्शन का जादू और आकर्षण देखा. एकदम मंत्रमुग्ध हो गए.
सुधबुध खोकर उनके गानों के जादू में खो गए. वैसे उन्हें मालूम था कि वह पुजारी हैं, ब्राह्मण हैं और उनके सामने एक तवायफ़ गा रही है. जब भी वह गाने के बीच में रुकती थीं तो तिवारी जी इसकी तारीफ में अपना सिर हिलाने से खुद को नहीं रोक पाते थे.
तन्नो बाई ने अपने इस मुरीद को देखा. तौला. उसकी ओर मुखातिब हुईं. पूरी रात वैसे ही गाती रहीं. धरीक्षण तिवारी हर धुन, हर राग पर सिर हिलाकर मंत्रमुग्ध होते रहे. हालांकि मुंह से एक शब्द नहीं बोला.
इस दिन के बाद धरीक्षण तिवारी की जिंदगी में सब कुछ बदल गया.
उसे हर उस मुजरे के बारे में पता होता, जहां तन्नो बाई प्रस्तुति देने वाली होतीं. बिना चूके वह वहां पहुंच जाते. तन्नो उन्हें पहचानने लगीं. तिवारीजी को देखकर उनका उत्साह बढ़ जाता. शालीनता से वह पुजारीजी को सलाम करतीं. सबसे आगे बैठने की व्यवस्था करतीं. धरीक्षण तिवारी को तब ऐसा लगता कि मानो वह उन्हीं के लिए गा रही हों.
बस दोनों में सलाम, अभिवादन और तारीफ में सिर हिलाने से ज्यादा कुछ नहीं होता था. तन्नो ने उन्हें पान दिया और उन्होंने इसे रख लिया
दोनों एक खास सीमा में रहते थे. करीब 20-25 मुजरे के बाद तन्नो ने पुजारी को पान खिलाने की हिम्मत की. धरीक्षण ने पान को माथे से लगाया. रूमाल में लपेटा. जेब में रख लिया. तन्नो मुस्कुरा दी. उन्हें अहसास हुआ कि धरीक्षण तिवारी उसका दिया हुआ पान नहीं खा सकते. उन्होंने इसे सम्मान की निशानी के तौर पर अपने पास रख लिया था.
महीने और साल बीत गए. एक बार कचौड़ी गली के एक धनी जमींदार ने तन्नो को पांच दिवसीय महफ़िल के लिए आमंत्रित किया. एक हजार चांदी के सिक्कों की अग्रिम राशि दी गई. जब तन्नो पहुंची तो उन्होंने धरीक्षण तिवारी को इधर-उधर देखा. वह कहीं नहीं मिले. हताश होकर उन्होंने अपने तबलची से पूछा. तो उसने कहा, “बाई साहिबा, पिछली पूर्णिमा की रात तिवारी जी का इंतकाल हो गया.
तन्नो स्तब्ध रह गईं. मानो जड़. उनकी आंखें फटी रह गईं. वह जमींदार के पास गईं. बोली, “मुआफ़ करियेगा, ज़मींदार साहब!” आज मैं नहीं गा सकूंगी.” उन्होंने चांदी के सिक्कों की थैली वापस दे दी.
इस घटना के बाद कई दिनों तक तन्नो बाई सदमे में रहीं. उनका हमेशा जीवंत रहने वाला कोठा थका और वीरान दिखने लगा. तन्नो बाई के वंशज तबलची मातादीन लोगों को बताते थे, कैसे वह अपना पूरा दिन अपनी निजी कोठरी में निराशा की स्थिति में रहती थीं.
उन्हें अच्छी-खासी रकम वाले निमंत्रण पर निमंत्रण मिल रहे थे. हर एक को वह अस्वीकार कर रही थीं.स्टाफ हैरान और चिंतित थे.क्योंकि ऐसे तो उन सभी के सामने पैसा और जीवनयापन का संकट आ जाता.
खैर अपने इन्हीं लोगों के लिए और इन्हीं लोगों की फरियाद पर उन्होंने फिर प्रदर्शन करने शुरू किए. उनकी महफ़िल फिर रोशन और जीवंत हो गई. हालांकि उनके चेहरे पर हमेशा वही वीरानी नज़र आती थी.आंखों में दुख. श्रोता उनकी आवाज़ में उनके दिल का दर्द महसूस कर सकते थे.
तन्नो बाई ने कुछ वर्षों तक प्रदर्शन जारी रखा. आखिरकार बंद कर दिया.
अपना सारा समय पूजा करने में बिताने लगीं. 50
की उम्र के आसपास उनका निधन हो गया. उन्हें पटना सिटी में कच्ची दरगाह में दफनाया गया था. कोई संतान नहीं होने के कारण, उन्होंने अपनी सारी संपत्ति एक अनाथालय और एक मदरसे को दे दी थी.
तिवारीजी की पत्नी के लिए वह रहस्य
धरीक्षण तिवारी की मृत्यु के कुछ महीनों बाद, उनकी पत्नी को उनके रूमाल में एक सूखा हुआ पान अच्छी तरह से मोड़कर रखा हुआ मिला. वह हमेशा से उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जानती थीं जो कभी पान नहीं खाता था. यह सूखा हुआ पान हमेशा उनकी विधवा पत्नी के लिए रहस्य ही बना रहा.
The End
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