हम लोगों का ध्यान अपनी सोने की अंगूठी की ओर, जिस पर मीने के काम में ‘श्याम’ लिखा था, आकर्षित करते हुए देवेन्द्र ने कहा,“मेरे मित्र श्यामनाथ ने यह अंगूठी मुझे प्रेज़ेंट की. जिस समय उसने यह अंगूठी प्रेज़ेंट की थी उसने कहा था कि मैं इसे सदा पहने रहूं, जिससे कि वह सदा मेरे ध्यान में रहे.”
परमेश्वरी ने कुछ देर तक उस अंगूठी की ओर देखा, इसके बाद वह मुस्कुराया,“प्रेज़ेंट्स की बात उठी है तो मैं आप लोगों को एक विचित्र मज़ेदार और सच्ची कहानी सुना सकता हूं. यक़ीन करना या न करना आप लोगों का काम है, मुझे कोई मतलब नहीं है. मैं तो केवल यह जानता हूं कि यह बात सच है क्योंकि इस कहानी में मेरा भी हाथ है. अगर आप लोगों को कोई जल्दी न हो तो सुनाऊं.”
चाय तैयार हो रही थी, हम सब लोगों ने एक स्वर में कहा,“जल्दी कैसी? सुनाओ.”
परमेश्वर ने आरम्भ किया:
दो साल पहले की बात है. अपनी कम्पनी का ब्रांच-मैनेजर होकर मैं दिल्ली गया था. मेरे बंगले के बगल में एक कॉटेज थी, जिसमें एक महिला रहती थीं: उनका नाम श्रीमती शशिबाला देवी था. वे ग्रेजुएट थीं और किसी गर्ल्स-स्कूल में प्रधान अध्यापिका थीं. सन्ध्या के समय जब मैं टहलने के लिए जाया करता था तो श्रीमती शशिबाला देवी प्रायः टहलती हुई दिखाई देती थीं. हम लोग एक-दूसरे को देखते थे, पर परिचय न होने के कारण बातचीत न हो पाती थी.
एक दिन मैं टहलने के लिए नज़दीक के पार्क में गया. वहां जाकर देखा कि श्रीमती शशिबाला देवी एक फव्वारे के पास खड़ी हैं. उन्होंने भी मुझे देखा और वैसे ही वे वहां से चल दीं. श्रीमती शशिबाला देवी मन्थर गति से टहलती हुई आगे-आगे चल रही थीं और मैं उनके पीछे क़रीब दस गज के फ़ासले पर.
Bhagvati Charan Verma---Khanikar |
वे
बीच-बीच में मुड़कर पीछे भी देख लिया करती थीं. एकाएक उनका रूमाल गिर पड़ा, या यों कहिए कि एकाएक उन्होंने अपना रूमाल गिरा दिया, तो अनुचित न होगा क्योंकि मैंने उन्हें रूमाल गिराते स्पष्ट देखा था. रूमाल गिराकर वे आगे बढ़ गईं.
जनाब! मेरा कर्त्तव्य था कि मैं रूमाल उठाकर उन्हें वापस दूं. और मैंने किया भी ऐसा ही. मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा,“इस कृपा के लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूं.”
मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा,“धन्यवाद की क्या आवश्यकता? यह तो मेरा कर्त्तव्य था.”
शशिबाला देवी ने मेरी ओर तीव्र दृष्टि से देखा,“क्या आप यहीं कहीं रहते हैं? देखा तो मैंने आपको कई बार है.”
“जी हां, आपके बराबरवाले बंगले में ठहरा हुआ हूं. अभी हाल में ही आया हूं.”
“अच्छा! तो आप मेरे पड़ोसी हैं, और यों कहना चाहिए कि निकटतम पड़ोसी हैं.” कुछ चुप रहकर उन्होंने कहा,“यह तो बड़े मज़े की बात है. इतना निकट रहते हुए भी हम लोगों में अभी तक परिचय नहीं हुआ?”
मैंने ज़रा लज्जित होते हुए कहा,“एक-आध बार इरादा तो हुआ कि अपने पड़ोसियों के परिचय प्राप्त कर लूं, और परिचय प्राप्त भी किए, पर आप स्त्री हैं इसलिए आपके यहां आने का साहस न हुआ.”
शशिबाला देवी खिलखिलाकर हंस पड़ीं,“अच्छा तो आप स्त्रियों से इतना अधिक डरते हैं! लेकिन स्त्रियों से डरने का कारण तो मेरी समझ में नहीं आता. अब अगर आप अपने भय के भूत को भगा सकें तो कभी मेरे यहां आइए. आप से सच कहती हूं कि स्त्री बड़ी निर्बल होती हैं और साथ ही बड़ा कोमल. उससे डरना तो बड़ी भारी भूल है!”
शशिबाला की मीठी हंसी और उसकी वाक्पटुता पर मैं मुग्ध हो गया. वह सुन्दरी न थी, पर वह कुरूपा भी नहीं कही जा सकती थी. उसकी अवस्था लगभग तीस वर्ष की रही होगी. गठा हुआ दोहरा बदन, बड़ी-बड़ी आंखें और गोल चेहरा. मुख कुछ चौड़ा था, माथा नीचा और बाल घने तथा काले और लापरवाही के साथ खींचे गए थे क्योंकि दो-चार अलकें मुख पर झेल रही थीं, जिन्हें वह बराबर संभाल देती थीं. रंग गेहुंआ और क़द मझोला. छपी हुई मलमल की धोती पहने हुए थीं: पैरों में गोटे के काम की चट्टियां थीं.
मैंने शशिबाला की ओर प्रथम बार पूरी दृष्टि से देखा, शशिबाला को मेरी दृष्टि का पता था. वह ज़रा सिमट-सी गई, फिर भी मुस्कुराते हुए उसने कहा,“आप विचित्र मनुष्य दिखाई देते हैं. फिर अब कब आइएगा?”
“कल शाम को आप घर पर ही रहेंगी?”
“अगर आप आइएगा. नहीं तो नित्य के अनुसार घूमने चली जाऊंगी.”
“तो कल शाम को पांच बजे मैं आऊंगा.”
शशिबाला की और मेरी दोस्ती आशा से अधिक बढ़ गई. मैं विवाहित हूं, यह तो आप लोग जानते ही हैं; और साथ ही मेरी पत्नी सुन्दरी भी है. इसलिए यह भी कह सकता हूं कि मेरी दोस्ती आवश्यकता से भी अधिक बढ़ गई. शशिबाला में एक विचित्र प्रकार का आकर्षण था, जो गृहिणी में नहीं मिल सकता. शशिबाला की शिक्षा और उसकी संस्कृति! मैं नित्य ही उसके यहां आने लगा. कभी-कभी रात-रात-भर मैं घर नहीं लौटा.
एक दिन जब सुबह मेरी आंख खुली तो सर में कुछ हल्का-हल्का दर्द हो रहा था. मैं उठकर पलंग पर बैठ गया. वह कमरा शशिबाला का था. पर शशिबाला उस समय कमरे में न थीं, वह बाथरूम में स्नान कर रही थीं. घड़ी देखी, आठ बज रहे थे. अंगड़ाई लेकर उठा, खिड़की खोली. सूर्य का प्रकाश कमरे में आया.
रात को ज़रा अधिक देर तक जगा था-सर में शायद उसी से दर्द हो रहा था. ड्रेसिंग-टेबल में लगे हुए आईने में मैंने अपना मुख देखा, सिर्फ़ आंखें लाल थीं और चेहरा कुछ उतरा हुआ.
एकाएक मेरी दृष्टि ड्रेसिंग-टेबल के कोने में चिपके हुए कागज के टुकड़े पर पड़ गई. उसमें कुछ लिखा हुआ था. उसे पढ़ा, अंगरेजी में लिखा था, ‘प्रकाशचन्द्र’ यह प्रकाशचन्द्र कौन है? मैं इसी पर कुछ सोच रहा था कि मैंने शशिवाला देवी का वेनिटी-बॉक्स देखा. वैसे तो वेनिटी-बॉक्स कई बार ऊपर से देखा है, उस दिन उसे अन्दर से देखने की इच्छा हुई.
पाउडर, क्रीम लिपस्टिक, ब्राउ-पेंसिसल आदि कई चीजें सजी हुई रखी थीं. सबको उलटा-पुलटा. एकाएक वेनिटी-बॉक्स की तह में एक कागज चिपका हुआ दिखलाई दिया जिसमें लिखा था,’सत्यनारायण’. वेनिटी-बाक्स बन्द किया लेकिन प्रकाशचन्द्र और सत्यनारायण-इन दोनों ने मुझे एक अजीब चक्कर में डाल रखा था.
एकाएक मेरी दृष्टि कोने में रखे हुए ग्रामोफोन पर पड़ी. सोचा, एक-आध रिकॉर्ड बजाऊं तो समय कटे. ग्रामोफोन खोला और खोलने के साथ ही चौंककर पीछे हटा.
अन्दर, ऊपरवाले ढकने के कोने में एक कागज चिपका हुआ था जिस पर लिखा था,’ख्यालीराम’. वहां से हटा, हारमोनियम बजाने की इच्छा हुई. धौंकनी में एक कागज था, जिस पर लिखा था,’भूटासिंह.’ चुपके से लौटा, कपड़े पहने; लेकिन जूता पलंग के नीचे चला गया था. उसे उठाने के लिए नीचे झुका-उफ्! पाए में पीछे की ओर एक कागज चिपका हुआ था,“मुहम्मद सिद्दीक.’
अब तो मैंने कमरे की चीजों को गौर से देखना आरम्भ किया. सबमें एक-एक कागज चिपका हुआ और उस कागज पर एक-एक नाम-जैसे, ‘विलियम डर्बी, ‘पेस्टनजी सोराबजी बागलीवाला,’ ‘रामेन्द्रनाथ चक्रवर्ती’, ‘श्रीकृष्ण रामकृष्ण मेहता’, ‘रामायण टंडन’, ‘रामेश्वर सिंह’ आदि-आदि.
उस निरीक्षण से थककर मैं बैठा ही था कि शशिबाला देवी बाथरूम से निकलीं. मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा,“परमेश्वरी बाबू! आज बड़ी देर से सोकर उठे.”
मैंने सर झुकाए उत्तर दिया,“सोकर उठे हुए तो बड़ी देर हो गई. इस बीच में मैंने एक अनुचित काम कर डाला, मुझे क्षमा करोगी?”
मेरे पास आकर और मेरा हाथ पकड़ते हुए उन्होंने कहा,“मैं तुम्हारी हूं, मुझसे क्यों क्षमा मांगते हो.”
“फिर भी क्षमा मांगना मैं आवश्यक समझता हूं. एक बात पूछूं, सच-सच बतलाओगी?”
“तुमसे झूठ बोलने की मैंने कल्पना तक नहीं की है!”
“नहीं, वचन दो कि सच-सच बतलाओगी!”
मेरे गले में हाथ डालते हुए शशिबाला ने कहा,“मैं वचन देती हूं.”
मैंने कहा,“मैंने तुम्हारे कमरे को प्रथम बार, आज पूरी तरह से देखा है, और वह भी तुम्हारी अनुपस्थिति में. मैं जानता हूं कि मुझे ऐसा न करना चाहिए था, पर उत्सुकता ने मुझ पर विजय पाई. उसने मुझे नीचे गिराया. हां, मैंने तुम्हारे कमरे की सब चीज़ों को देखा, बड़े ध्यान से.
पर एक विचित्र बात है, हरएक चीज़ पर एक कागज चिपका हुआ है जिस पर एक पुरुष का नाम लिखा है. अलग-अलग चीज़ों पर अलग-अलग पुरुषों के नाम लगे हैं. इस रहस्य को लाख प्रयत्न करने पर भी मैं नहीं समझ सका. अब मैं तुमसे ही इस रहस्य को समझना चाहता हूं.”
शशिबाला देवी मुस्कुरा रही थीं, उन्होंने धीरे से कोमल स्वर में कहा,“परमेश्वरी बाबू, यह रहस्य जैसा है वैसा ही रहने दो-उस रहस्य का चुप मुझसे न समझो. तुम इस रहस्य को समझकर दुखी हो जाओगे और बहुत सम्भव है इसे जानकर तुम नाराज़ भी हो जाओ.”
“नहीं, मैं दुखी न होऊंगा और न नाराज़ ही होऊंगा.”
“अच्छा, तुम मुझे वचन दो.”
“मैं वचन देता हूं.’’
शशिबाला कुर्सी पर बैठ गई. “परमेश्वरी बाबू! इस रहस्य में मेरी कमज़ोरी है और साथ ही मेरा हृदय है. ये सब चीज़ें मुझे अपने प्रेमियों से प्रेज़ेंट में मिली हैं. याद रखिएगा कि मैंने प्रत्येक प्रेमी से केवल एक वस्तु ही ली है. अब मेरे पास इतनी अधिक चीज़ें हो गई हैं कि हरएक प्रेमी का नाम याद रखना असम्भव है.
चीज़ें नित्य के व्यवहार की हैं, इसलिए प्रत्येक प्रेमी की वस्तु पर मैंने उसका नाम लिख दिया है. इससे यह होता है कि जब कभी मैं उस वस्तु का व्यवहार करती हूं, उस प्रेमी की स्मृति मेरे हृदय में जाग उठती है. क्या करूं परमेश्वरी बाबू! मेरा हृदय इतना निर्बल है कि मैं अपने प्रेमियों को नहीं भूलना चाहती, नहीं भूलना चाहती.”
“तुम्हारे पास कुल कितनी चीज़ें हैं?” मैंने पूछा.
“सत्तानवे.”
“इतनी अधिक!” आश्चर्य से मैं कह नहीं उठा बल्कि चिल्ला उठा.
“हां, इतनी अधिक!” शशिबाला देवी का स्वर गम्भीर हो गया. “परमेश्वरी बाबू, इतनी अधिक! मेरा विवाह नहीं हुआ, आप जानते हैं पर आप यह न समझिएगा कि मेरी विवाह करने की कभी इच्छा ही न थी. मैं सच कहती हूं कि एक समय मेरी विवाह करने की प्रबल इच्छा थी. प्रत्येक व्यक्ति जो मेरे जीवन में आया भविष्य के सुख-स्वप्न पैदा करता आया, प्रत्येक व्यक्ति को मैंने भावी पति के रूप में देखा.
पर क्या हुआ? वह व्यक्ति मुझे प्रेज़ेंट दे सकता था, पर अपनी न बना सकता था. धीरे-धीरे मैं इसकी अभ्यस्त हो गई. एक रहस्यमय जीवन धीरे-धीरे मेरे वास्ते एक खेल हो गया. सोचती हूं कि उन दिनों मैं कितनी भोली थी जब विवाह के लिए लालायित रहती थी, जब पत्रों में मैंने अपने विवाह के लिए विज्ञापन तक निकलवाए.
पर हरएक आदमी ग़लती करता है, मैंने भी ग़लती की. अब बन्धन की कोई आवश्यकता नहीं है. जीवन एक खेल है, जिसका सबसे सुन्दर हृदय का खेल, नहीं भोग-विलास का खेल है और खुलकर खेलना ही हमारा कर्त्तव्य है. परमेश्वरी बाबू, यह मेरी स्मृति की कहानी है और मेरी स्मृति के रूप को तो आपने देखा ही है.”
“साधारण मनुष्यों के लिए यह ठीक हो सकता है,” कुछ हिचकिचाते हुए मैंने कहा.
“साधारण मनुष्यों के लिए ही क्यों? आपका नम्बर अट्ठानवेवां होगा,”
खिलखिलाकर हंसते हुए शशिबाला ने उत्तर दिया.
उस समय मैं न जाने क्यों दार्शनिक बन गया. जनाब! मेरे जीवन में वैसे तो दर्शन में और मुझमें उतना ही फ़ासला है जितना ज़मीन और आसमान में, पर शशिबाला की कहानी सुनकर मैं वास्तव में दार्शनिक बन गया.
मैने कहा,“हां, जीवन एक खेल है और तब तक जब तक हम खेल सकते हैं. अशक्त होने पर वही जीवन हमारे सामने एक भयानक और कुरूप समस्या बनकर खड़ा हो जाता है. तुम वर्तमान की सोच रही हो, मैं भविष्य की सोच रहा हूं, दस वर्ष बाद की सोच रहा हूं.
उस समय तुम्हारे मुख पर झुर्रियां पड़ जाएंगी, लोग तुम्हारे साथ खेलने की कल्पना तक न कर सकेंगे. और फिर-फिर से स्मृतियां तुम्हें सुखी बनाने के स्थान में तुम्हें काटने को दौड़ेंगी. तुम्हारे आगे-पीछे कोई है नहीं, अपने बनाव-सिंगार के कारण, तुम कुछ बचा भी न सकती होगी.
तब इस खेल के खत्म हो जाने के बाद बुढ़ापा, दुर्बलता, भूख, बीमारी और-और गत-जीवन का पश्चात्ताप बाकी रह जाएगा. इसलिए मैं तुम्हें वह चीज प्रेज़ेंट करूंगा जो उन दिनों तुम्हारे काम आवे. तुम्हारा संग्रह बहुमूल्य है, मैं वचन देता हूं कि मैं दस वर्ष बाद तुम्हारे संग्रह को पांच हज़ार रुपए में ख़रीद लूंगा. इस प्रकार ये अभिशापित स्मृति-चिह्न उस समय तुम्हारे सामने से हट जावेंगे जब तुम राम का भजन करोगी और भगवान के सामने जाने की तैयारी करोगी. साथ ही पांच हज़ार रुपए से तुम बुढ़ापे के कष्टों को भी कम कर सकोगी?”
मैंने परमेश्वरी से कहा,”और उसने तुम्हें नौकर द्वारा अपने कमरे से निकलवा नहीं दिया?”
परमेश्वरी हंस पड़ा,“नहीं.” उसने कुछ देर तक सोचा, फिर उसने कहा,“तुमने जो कुछ कहा उसमें मैं सब बातें ठीक नहीं मानती, पर इतना अवश्य मानती हूं कि मैंने अपने बुढ़ापे के लिए कोई इन्तज़ाम नहीं किया. इसलिए मैं तुम्हारे हाथ यह सब बेच दूंगी. कांट्रेक्ट साइन कर दो.” और मैंने कांट्रेक्ट साइन कर दिया. अभी दो वर्ष तो हुए ही हैं. परसों ही उसका पत्र आया है, जिसमें उसने लिखा है कि इस समय तक उसके पास एक सौ तेरह चीज़ें हो गई हैं.”
The
End
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