‘जासूसी दुनिया’: इब्ने सफी :तकिये के नीचे का साहित्य लेखक जिसे पढ़ने के लिए लोगों ने उर्दू सीखी.
इब्ने सफी: जिनके उपन्यास पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी ब्लैक में बिका करते थे.
अंग्रेजी की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी इब्ने सफी को भारतीय उपमहाद्वीप का अकेला मौलिक लेखक मानती थीं.
भारत की आज़ादी के बाद की शुरुआती दो पीढ़ियों के लिए इब्ने सफ़ी एक नाम से कहीं बढ़ कर हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में जासूसी उपन्यास लिखने के मामले वे सबसे मूल एवं ओरिजिनल हैं. उन्हें भारत और सरहद पार पाकिस्तान में वही शोहरत हासिल हुई जो यूरोप में अगाथा क्रिस्टी और अर्ल स्टेनली गार्डनर के हिस्से आई.
साहित्य में वो दौर महफिलों का था, कॉफी हाउस से लेकर कई साहित्यिक ठीहों पर साहित्यकारों का जमावड़ा हुआ करता था। जहां साहित्य की विभिन्न विधाओं और प्रवृत्तियों पर बहसें हुआ करती थीं, एक दूसरे की रचनाओं पर बातें होती थीं, रचनाओं की स्वस्थ आलोचना होती थी।
कई साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में इन साहित्यिक ठीहों पर होनेवाले दिलचस्प किस्सों को लिखा है। ऐसा ही एक बेहद दिलचस्प वाकया है एक साहित्यिक महफिल का जिसमें राही मासूम रजा, इब्ने सफी, इब्ने सईद और प्रकाशक अब्बास हुसैनी के अलावा कई और साहित्यकार बैठे थे।
चर्चा देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता की शुरू हो गई। अचानक राही मासूम रजा ने एक ऐसी बात कह दी कि वहां थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स प्रसंगों के तड़का के जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है।
इब्ने सफी, रजा की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहे थे। दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी। सफी लगातार राही मासूम रजा का प्रतिवाद कर रहे थे। अचानक राही मासूम रजा ने अपने खास अंदाज में इब्ने सफी को चुनौती देते हुए कहा कि वो बगैर सेक्स प्रसंग के जासूसी उपन्यास लिखकर देख लें कि उसका क्या हश्र होता है।
सफी ने रजा की इस चुनौती को स्वीकार किया और बगैर किसी सेक्स प्रसंग के एक जासूसी उपन्यास लिखा। जिसे प्रकाशक अब्बास हुसैनी ने अपने प्रकाशन निकहत पॉकेट बुक से प्रकाशित किया। वो उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ और उसने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया।
उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ 1952 में आया था और कहते हैं कि इस पहले उपन्यास के साथ ही उन्होंने तमाम आम-ओ-खास पाठकों को अपनी लेखनी का कायल बना लिया था. इसके बाद फिर उनके उपन्यासों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो आगे कई सालों तक उनका हर उपन्यास पिछले से ज्यादा बिका. इब्ने सफी अकेले लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में चंद्रकांता संतति से होड़ ली थी.
इब्ने सफी के उपन्यास प्रकाशित करने के पहले अब्बास हुसैनी दो पत्रिकाएं निकालते थे ‘जासूसी दुनिया’ और ‘रूमानी दुनिया।
‘जासूसी दुनिया’ में इब्ने सफी साहब और ‘रूमानी दुनिया’ में राही मासूम रजा लिखा करते थे। कहा तो ये भी जाता है कि जब जरूरत होती थी तो राही मासूम रजा भी नाम बदलकर जासूसी कहानियां लिखा करते थे।
इब्ने सफी की रचनाओं का संसार जितना रहस्यमय था उतना ही हैरतंगेज भी था. यहां जासूसी कथाओं के साथ साइंस फिक्शन की शुरुआत भी मिलती है. इन कहानियों में कुछ ऐसे कल्पित मनुष्य हैं जो जेब्रा की तरह धारीदार हैं, और जिनमें हाथियों से ज्यादा बल है.
यहां कुछ ऐसे पक्षी भी हैं जिनकी आंखों में कैमरे फिट हैं. मशीनों से नियंत्रित होनेवाले कृत्रिम तूफ़ान भी यहां आते हैं. इन सब के साथ खास सांचे में ढले चरित्र भी यहीं हैं. किरदारों के मनोविज्ञान पर इब्ने सफी की इतनी मजबूत पकड़ हुआ करती थी कि पाठक के दिलो-दिमाग में खलनायक भी एक खास जगह बना लेते थे.
वर्ष
1950 के करीब नकहत के उपन्यासों की बिक्री घटकर बारह सौ तक पहुंच गई थी। बिक्री बढ़ाने के लिए शुरू की गईं क्रासवर्ल्ड पहेलियों से बिक्री जरूर बढ़ी लेकिन वर्ष
1952 तक आते-आते फिर मंदी आ गई। ऐसे में प्रकाशक अब्बास ने जासूसी नॉवेल छापने का इरादा करते हुए इब्ने सफी को पहला जासूसी नॉवेल लिखने का जिम्मा सौंपा।
पहले उपन्यास ने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। जनवरी 1952 में जासूसी दुनिया का पहला उर्दू नंबर इब्ने सफी का निकला था, जिसका दाम नौ आना था। वर्ष 1958 तक आते-आते जासूसी दुनिया की बिक्री का ग्राफ पचास हजार तक पहुंच गया था।
दरअसल यह अंग्रेजी उपन्यासों का ‘एडॉप्टेशन’होता था जिसमें सेंट्रल आइडिया लेते थे लेकिन किरदार नहीं। शुरुआत में नॉवेल पढ़कर उसका सार उन्हें भेज दिया जाता था, जिसके आधार पर वह उपन्यास लिखते थे।
Ibn-e-Safi |
बावजूद इसके वह एक क्रिएटिव जीनियस थे। इसके तहत एडगर वैलेस, जॉन डिक्शन कार, अर्ल स्टैनले गार्डनर, पीटर शैनी, कार्टर ब्राउन, लेस्ली चार्टेस, आगाथा क्रिस्टी, हेबला केलिस आदि लेखकों की किताबों से आइडिया लिया गया। असरार जेम्स हेडली चेज को भी पढ़ते थे।
वर्तमान उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के नारा गांव में 26 जुलाई 1928 को इब्ने सफ़ी ने जन्म लिया. माँ-बाप का नाम था नुज़ैरा बीबी और सफ़ीउल्लाह. इलाहाबाद से स्कूली पढ़ाई के बाद उन्होंने आगरे से बीए किया और बाद में इस डिग्री को अपने नाम के आगे स्थाई रूप से चिपका लिया– इब्ने सफ़ी,
बीए.
अपने साहित्यिक लेखन की शुरुआत उन्होंने कहानियां लिखने से की. वे सातवीं में पढ़ते थे जब उनकी पहली कहानी ‘नाकाम आरज़ू’ विख्यात उर्दू पत्रिका ‘शाहिद’ में छप गयी. इस घटना को अपने शब्दों में उन्होंने इस तरह बयान किया है:
‘‘फिर एक दिन मैने भी एक कहानी लिख डाली. ये उस वक़्त की बात है जब मैं सातवीं जमात में था. ये अफ़साना मैने हफ़्ता रोज़ा‘शाहिद’ बम्बई में छपने के लिए भेज दिया. जनाब आदिल रशीद इस जरीदे के एडीटर थे. उन्होने मुझे कोई मुअमर (बड़ा) आदमी समझकर कुछ इस तरह मेरा नाम कहानी के साथ शाया किया था – ‘नतीजा-ए-फिक्र, मुसव्विर-ए-जज़्बात हज़रत असरार नारवी.’
कहानी छपते ही मेरी शामत आ गई. घर के बड़ों ने कुछ इस अंदाज़ में मुख़ातिब करना शुरू कर दिया – ‘अबे ओ मुसव्विर-ए-जज़्बात! ज़रा एक गिलास पानी लाना.’
वक़्ता-फ़-वक़्ता ‘शाहिद’ वीकली में मेरी कहानियां छपती रहीं. ज़्यादातर रूमानी कहानियां होतीं. मेट्रिक तक पहुंचते-पहुंचते शायरी का चस्का लग गया. ’’
सन 1948 में उन्होंने मित्रों की सलाह पर हास्य व्यंग्य लिखना शुरू किया. अपने साथियों शकील जमाली और अब्बास हुसैनी के साथ उसी साल उन्होंने ‘निकहत’ नाम से एक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से ही शुरू किया. इस रिसाले के लिए उन्होंने तमाम कहानियां, किस्से और पैरोडियाँ लिखे.
उनके सम्पादन में ‘निकहत’ निकल ही रही थी जब 1952 में उन्होंने एकदम नई विधा यानी जासूसी उपन्यास लिखने में हाथ आजमाया और उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ उन्हीं की पत्रिका में शाया हुआ. उन दिनों वे इलाहाबाद के डीएवी स्कूल में अध्यापक हुआ करते थे. यह उपन्यास चल निकला और इब्ने सफ़ी, बीए हमारे उपमहाद्वीप में एक बेहद जाना-पहचाना नाम बन गया.
इब्ने सफ़ी नाम के पीछे कहानी यह है कि इब्न का मायना उर्दू में हुआ बेटा. इस में अपने पिता सफ़ीउल्लाह का नाम जोड़कर उन्होंने अपने लिए नया नाम रचा – इब्ने सफ़ी. पूरा नाम इब्ने सफ़ी, बीए.
सफ़ी ने अपने उपन्यासों में जासूसी उपन्यासों के सभी स्थापित यूरोपीय मानदंडों को शानदार तरीके से साधा और वे पाठकों के दिलों पर राज करने लगे. उनकी किताबें जब भी बाजार में आतीं उन्हें तरीके से गायब कर दिया जाता और ब्लैक में बेचा जाता. हिन्दी, बांग्ला और उर्दू के अलावा ये किताबें तमाम भाषाओं में अनूदित होकर छपा करती थीं.
इब्ने
सफ़ी के इन जासूसी उपन्यासों के पात्र अमरीका, फ़्रांस, इटली, अफ्रीका और न जाने कितने-कितने मुल्कों में दुनिया भर में घूमते थे अलबत्ता खुद वे कभी भी भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर नहीं गए.
जब उनसे पूछा जाता था कि क्या उन्होंने वे सारे देश देख रखे हैं तो उनका मुख़्तसर सा जवाब आता – ‘‘मेरी चारपाई मुझे सब जहानों की सैर करा देती है.’’ हैरानी की बात है कि उन्होंने इन तमाम देशों के तमाम शहरों की एकदम हूबहू डीतेलिंग पेश की है जैसे वे वाकई में हैं या थे.
उनके उपन्यासों में इस कदर सटीक तफसीलें हुआ करती थीं कि पाकिस्तानी खु़फ़िया एजेन्सी आई एस आई ने अपने जासूसों को उनके पास ट्रेनिंग लेने भेजा.
इब्ने सफ़ी 1952 तक इलाहाबाद में रहे लेकिन फिर कुछ ऐसे हालात पैदा हुए कि उन्हें हिंदुस्तान छोड़ पाकिस्तान जाना पड़ा.
वहां वे पहले कुछ बरस लालूखेत में रहे और उसके बाद कराची. कराची में भी उन्होंने ‘जासूसी दुनिया’ के सिलसिले को टूटने नहीं दिया और अपना एक प्रकाशन – असरार पब्लिकेशंस – शुरू कर दिया.
1960
में इब्ने सफ़ी स्कित्जोफ़्रेनिया के शिकार हुए और अगले तीन साल तक उन्हें अपना इलाज कराना पड़ा.
1963 में वे पूरी तरह ठीक हो कर घर वापस आये तो ‘जासूसी दुनिया’ ने इस खबर को यूँ छापा:
‘‘जासूसी दुनिया के लाखों क़ारईन (पाठकों) के लिए – अज़ीम मुसनिफ़ इब्ने सफ़ी ख़ुदा के फ़ज़लो-करम से अब बिल्कुल सेहतमंद हैं और मुआलजा (डाक्टरों) की हिदायत के मुताबिक़ सिर्फ चंद दिनो के लिए मुकमिल आराम फ़रमा रहे हैं. इसके बाद वह बहुत जल्द अपना नया शाहकार
‘डेढ़ मतवाले’ पेश करेंगे. मुहतरम इब्ने सफ़ी के इस नए, लाफ़ानी और तहलकाख़ेज़ शाहकार के लिए तैयार रहिए.’’
जब ‘डेढ़ मतवाले’ प्रकाशित हुआ तो इलाहाबाद में एक बहुत बड़े समारोह में इसका विमोचन तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने किया. अगले सोलह बरस तक वे लगातार लिखते रहे लेकिन सितम्बर
1979 को पता चला उन्हें पैनक्रियाटिक कैंसर हो गया है.
ठीक अपने 52वें जन्मदिन यानी 26 जुलाई 1980 के दिन इब्ने सफ़ी ने अपनी आख़िरी साँसें लीं.
अपने आख़िरी वक़्त में भी वे अपने उपन्यास ‘आख़िरी आदमी’ पर काम कर रहे थे जो अधूरा ही रह गया.
दुनिया को अलविदा कहने के बावजूद इब्ने सफी के पाठक हमेशा यही मानते रहे कि अपने किरदारों हमीद, फरीदी और इमरान जैसे किसी किरदार और किस्से की खोज में कहीं गुम हो गए हैं। तीन दशकों बाद हार्पर कॉलिस पब्लिशर्स इंडिया ने उनके पंद्रह उपन्यासों का पहला सेट बाजार में उतारा जिसे हाथोंहाथ लिया गया।
इधर इब्ने सफ़ी को बहुत सालों बाद फिर से खोजे जाने की जरूरत महसूस हो रही है. उनके उपन्यासों को नए कलेवर में छापा जा रहा है, उनकी किताबें ऑनलाइन बिक रही हैं और उन पर जलसे करवाए जा रहे हैं. साल 2007 में भारतीय साहित्य अकादमी ने इब्ने सफ़ी के काम को सेलीब्रेट करते हुए एक बड़ा आयोजन किया था.
इब्ने सफ़ी ने अपने लेखन से लाखों-लाख लोगों को लम्बे समय तक गुदगुदाया है, रोमांचित किया है और एक मीठे नोस्टाल्जिया से तर किया है.
बॉलीवुड हिंदी सिनेमा पर इब्न- ए-सफी के जासूसी नोवेल्स का प्रभाव.
बॉलीवुड पटकथा लेखक और गीतकार जावेद अख्तर इब्न-ए-सफ़ी के उर्दू उपन्यासों से बहुत प्रेरित थे, जिन्हें वह बचपन में पढ़कर बड़े हुए थे ।
Mogambo from Film Mr. India |
उन्होंने इब्न-ए-सफी के उपन्यासों को आकर्षक यादगार नामों वाले उनके आकर्षक पात्रों के लिए भी याद किया. बॉलीवुड स्क्रिप्ट ने बाद में इब्न-ए-सफी की कुछ कथा तकनीकों का इस्तेमाल किया, जैसे पात्रों को आकर्षक नाम देना, उनकी कथानक की समझ और बोलने की शैली।
Gabbar Singh--Film Sholey |
अख्तर ने कहा कि इब्न-ए-सफी के उपन्यासों ने उन्हें जीवन से बड़े चरित्रों का महत्व सिखाया, जिन्होंने फिल्म शोले (1975) में गब्बर सिंह और मिस्टर इंडिया (1987) में मोगैम्बो जैसे प्रसिद्ध बॉलीवुड पात्रों को प्रेरित किया।
The
End
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