हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन ”Momin
Khan Momin” का ताल्लुक़ एक कश्मीरी घराने से था। इनका असल नाम मोहम्मद मोमिन था। इनके दादा हकीम मदार ख़ाँ शाह आलम के ज़माने में दिल्ली आए और शाही हकीमों में शामिल हो गए। मोमिन दिल्ली के कूचा चेलान में
1801 ई॰ में पैदा हुए।
इनके दादा को बादशाह की तरफ़ से एक जागीर मिली थी जो नवाब फ़ैज़ ख़ान ने ज़ब्त करके एक हज़ार रुपये सालाना पेंशन मुक़र्रर कर दी थी। ये पेंशन इनके ख़ानदान में जारी रही।
मोमिन ख़ाँ की ज़िंदगी और शायरी पर दो चीज़ों ने बहुत गहरा असर डाला। एक इनकी रंगीन मिज़ाजी और दूसरी इनकी धार्मिकता।
लेकिन इनकी ज़िंदगी का सबसे दिलचस्प हिस्सा इनके प्रेम प्रसंगों से ही है। मुहब्बत ज़िंदगी का तक़ाज़ा बन कर बार-बार इनके दिलोदिमाग़ पर छाती रही। इनकी शायरी पढ़ कर महसूस होता है कि शायर किसी ख़्याली नहीं बल्कि एक जीती-जागती महबूबा के इश्क़ में गिरफ़्तार है।
इनके कुल्लियात में छः मसनवीयाँ मिलती हैं और हर मसनवी किसी प्रेम प्रसंग का वर्णन है।
मोमिन की महबूबाओं में से सिर्फ़ एक का नाम मालूम हो सका। ये थीं उम्मत-उल-फ़ातिमा जिनका तख़ल्लुस
“साहिब ज” था। मौसूफ़ा पूरब की पेशेवर तवाएफ़ थीं जो ईलाज के लिए दिल्ली आई थीं। मोमिन हकीम थे लेकिन उनकी नब्ज़ देखते ही ख़ुद उनके बीमार हो गए। कई प्रेम प्रसंग मोमिन के अस्थिर स्वभाव का भी पता देते हैं।
यह
एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है कि यदि किसी भी युग में अनेक महान लेखक हुए हों तो आम जनता की चेतना में केवल एक या दो नाम ही होंगे।
एलिज़ाबेथन इंग्लैंड में नाटककारों की कोई कमी नहीं थी लेकिन क्या आप शेक्सपियर के अलावा किसी और के बारे में सोच सकते हैं? 19वीं शताब्दी में रूसी साहित्य का विकास हुआ लेकिन अब केवल टॉल्स्टॉय और, शायद, दोस्तोयेव्स्की ही पंजीकृत हैं।
इसी तरह, 19वीं सदी के मध्य में दिल्ली में निपुण कवियों की एक पूरी शृंखला थी, लेकिन उन सभी पर मिर्ज़ा ग़ालिब की छाया पड़ी.
हालाँकि कुछ तब बहुत अधिक लोकप्रिय थे और उनमें से मोमिन ख़ाँ मोमिन के
केवल एक
शेर ने ही उन्हें (मिर्ज़ा ग़ालिब) को मंत्रमुग्ध कर दिया।
उर्दू शायरी के समर्पित पारखी ही उस दौर को याद करेंगे जब शायरी के बादशाह बहादुर शाह 'जफर' थे, जिनका उदास लेकिन दार्शनिक दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक शायरी को प्रभावित करता है। लीजिए:
"ना थी हाल की जब हम अपनी ख़ूबसूरत रहे औरों के एब-ओ-हुनर/पढ़ी अपनी बुराई पर जो नज़र तो अलगाव में को बुरा ना रहा"।
वहां जफर के प्रतिभाशाली काव्य गुरु शेख मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक थे, जिनके निराशावादी
"अब तो घबरा के ये कहते हैं के मर जाएंगे/मर के भी चैन ना पाया तो किधर जाएंगे",
साथ ही उत्कृष्ट गजल -
"ली हयात आए"
भी थे। क़ज़ा ले चले चले/ना अपनी ख़ुशी आए, ना अपनी ख़ुशी चले"
–
कहा जाता है मिर्ज़ा ग़ालिब ने 'मोमिन' के शेर 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नही होता' पर अपना पूरा दीवान देने की बात कही थी।
किन्वदंती है कि मोमिन का एक शेर, संक्षिप्त लेकिन अर्थ की कई परतें से भरा हुआ, गालिब को इतना प्रभाव दिया कि उन्होनें बदले में उन्हें 250 से अधिक जटिल शब्दों वाली गजलों का अपना पूरा दीवान देने की पेशाकश की। हाँ, तुम मेरे पास होते हो गोया/जब कोई दूसरा नहीं होता। सच है लेकिन यह रेखांकित करता है कि सार्थक कविता का कितना महत्व है।
हक़ीम मोमिन ख़ान 'मोमिन' मुग़ल काल के अंतिम दौर के शाइर थे। वह मिर्ज़ा ग़ालिब व ज़ौक़ के समकलीन थे और बहादुर शाह ज़फ़र के मुशायरों में भाग लेने लालक़िले जाया करते थे। वह अत्यंत भावुक और संवेदनशील शायर थे। आमतौर पर उनकी पूरी शायरी शृंगार रस से भरी हुई है।
इश्क़ और मुहब्बत से सम्बद्ध नज़्मों और ग़ज़लों में उन्होंने बहुत ही नाज़ुक व मधुर भाषा का इस्तेमाल किया है। उनके कई शे'र आज भी वक़्त-ज़रूरत मुहावरे के रूप म एं बोले जाते हैं। वह मुशायरों में तरन्नुम के साथ अपनी रचनाएँ पढ़ते थे। उनके स्वर में गज़ब का लोच था। रचनाओं में विलक्षण उपमाएँ व अलंकार पिरोकार वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे।
सच तो यह है कि मोमिन ख़ान 'मोमिन’
अपने
समकालीनों में शृंगार रस के महारथी शायर थे। इस मामले में आज के दौर में भी उनका कोई सानी नहीं। मोमिन उच्चकोटि के शायर तो थे ही आला दर्ज़े के हक़ीम, ज्योतिष और शतरंज के खिलाड़ी भी थे।
आईये पढ़ें इनकी कुछ सबसे मशहूर 10 रचनाएँ...
(1) असर उस को ज़रा नहीं होता
असर
उस
को
ज़रा
नहीं
होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता
बेवफ़ा कहने की शिकायत है
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता
ज़िक्र-ए-अग़्यार से हुआ मा'लूम
हर्फ़-ए-नासेह बुरा नहीं होता
किस को है ज़ौक़-ए-तल्ख़-कामी लेक
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
उस ने क्या जाने क्या किया ले कर
दिल किसी काम का नहीं होता
इम्तिहाँ कीजिए मिरा जब तक
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता
एक दुश्मन कि चर्ख़ है न रहे
तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता
आह तूल-ए-अमल है रोज़-फ़ुज़ूँ
गरचे इक मुद्दआ नहीं होता
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
रहम कर ख़स्म-ए-जान-ए-ग़ैर न हो
सब का दिल एक सा नहीं होता
दामन उस का जो है दराज़ तो हो
दस्त-ए-आशिक़ रसा नहीं होता
चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तर-ए-'मोमिन'
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता
(2) वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही या'नी वा'दा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेशतर वो करम कि था मिरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो
हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई कि तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना तुम्हें याद हो कि न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का कि किया इक आप ने वा'दा था
सो निबाहने का तो ज़िक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो
कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो बिगड़ना वस्ल की रात का वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिनते थे आश्ना जिसे आप कहते थे बा-वफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन'-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो
(3) आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो
आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो
है बुल-हवसों पर भी सितम नाज़ तो देखो
उस बुत के लिए मैं हवस-ए-हूर से गुज़रा
इस इश्क़-ए-ख़ुश-अंजाम का आग़ाज़ तो देखो
चश्मक मिरी वहशत पे है क्या हज़रत-ए-नासेह
तर्ज़-ए-निगह-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ तो देखो
अरबाब-ए-हवस हार के भी जान पे खेले
कम-तालई-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ तो देखो
मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो
बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो
महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शो'ला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो
दें पाकी-ए-दामन की गवाही मिरे आँसू
उस यूसुफ़-ए-बेदर्द का ए'जाज़ तो देखो
जन्नत में भी 'मोमिन' न मिला हाए बुतों से
जौर-ए-अजल-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो देखो
(4) रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह
आता नहीं है वो तो किसी ढब से दाव में
बनती नहीं है मिलने की उस के कोई तरह
तश्बीह किस से दूँ कि तरह-दार की मिरे
सब से निराली वज़्अ' है सब से नई तरह
मर चुक कहीं कि तू ग़म-ए-हिज्राँ से छूट जाए
कहते तो हैं भले की व-लेकिन बुरी तरह
ने ताब हिज्र में है न आराम वस्ल में
कम-बख़्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह
लगती हैं गालियाँ भी तिरे मुँह से क्या भली
क़ुर्बान तेरे फिर मुझे कह ले उसी तरह
पामाल हम न होते फ़क़त जौर-ए-चर्ख़ से
आई हमारी जान पे आफ़त कई तरह
ने जाए वाँ बने है ने बिन जाए चैन है
क्या कीजिए हमें तो है मुश्किल सभी तरह
माशूक़ और भी हैं बता दे जहान में
करता है कौन ज़ुल्म किसी पर तिरी तरह
हूँ जाँ-ब-लब बुतान-ए-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहाँ में जीते हैं 'मोमिन' इसी तरह
(5) ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम
हँसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुँह देख देख रोते हैं किस बेकसी से हम
हम से न बोलो तुम इसे क्या कहते हैं भला
इंसाफ़ कीजे पूछते हैं आप ही से हम
बे-ज़ार जान से जो न होते तो माँगते
शाहिद शिकायतों पे तिरी मुद्दई से हम
उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूम-ए-शौक़
आज और ज़ोर करते हैं बे-ताक़ती से हम
साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम
बे-रोए मिस्ल-ए-अब्र न निकला ग़ुबार-ए-दिल
कहते थे उन को बर्क़-ए-तबस्सुम हँसी से हम
इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूँ कर निकाले जाते न उस की गली से हम
क्या गुल खिलेगा देखिए है फ़स्ल-ए-गुल तो दूर
और सू-ए-दश्त भागते हैं कुछ अभी से हम
मुँह देखने से पहले भी किस दिन वो साफ़ था
बे-वजह क्यूँ ग़ुबार रखें आरसी से हम
है छेड़ इख़्तिलात भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोएँ न क्यूँ गुदगुदी से हम
वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुँह ढाँकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम
क्या दिल को ले गया कोई बेगाना-आश्ना
क्यूँ अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
ले नाम आरज़ू का तो दिल को निकाल लें
'मोमिन' न हों जो रब्त रखें बिदअती से हम
(6) मुझे चुप लगी मुद्दआ कहते-कहते
मुझे चुप लगी मुद्दआ कहते-कहते
रुके हैं वह क्या जाने क्या कहते-कहते
ज़बाँ गुँग है इश्क़ में गोश में कर है
बुरा सुनते-सुनते भला कहते-कहते
शबे-हिज्र में क्या हुजूमे-बला है
ज़बाँ थक गयी मरहबा कहते-कहते
गिला-हरज़हगर्दी का बेजा न थ कुछ
वह क्यों मुस्कुराये बजा कहते-कहते
सद्-अफ़सोस जाती रही वस्ल की शब
ज़रा ठहर ऐ बेवफ़ा कहते-कहते
चले तुम कहाँ मैंने तो दम लिया है
फ़साना-दिले-ज़ार का कहते-कहते
बुरा हो तेरा मरहमे-राज़ तूने
किया उनको रुसवा बुरा कहते-कहते
सितमहाये-गरदूँ मुफ़स्सल न पूछो
कि सर फिर गया माजरा कहते-कहते
(7) सब्रे-वहशत असर न हो जाए
सब्रे-वहशत असर न हो जाए
कहीं सहरा भी घर न हो जाए
हिज्रे-परदानशीं में मरते हैं
ज़िन्दगी परदा-दर न हो जाए
कसरते-सिजदा से वह नक़्शे-क़दम4
कहीं पामाल-सर न हो जाए
मेरे तग़य्युरे-रंग को मत देख
तुझको अपनी नज़र न हो जाए
मेरे आँसू न पोंछना देखो
कहीं दामान-तर न हो जाए
बात नासेह से करते डरता हूँ
कि फ़ुग़ाँ बे-असर न हो जाए
ऐ क़यामत न आइयो जब तक
वह मेरी गोर न हो जाए
मनअ-ए-ज़ुल्म है तग़ाफ़ुले-यार
बख़्त-बद को ख़बर न हो जाए
ग़ैर से बेहिजाब मिलते हो
शबे-आशिक़ सहर न हो जाए
ऐ दिल, आहिस्ता आह-ताबे-शिकन
देख टुकड़े जिगर न हो जाए
(8) तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिजराँ होंगे
एक हम हैं कि हुए ऎसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे
हम निकालेंगे सुन ऐ मौज-ए-सबा बल तेरा
उसकी ज़ुल्फ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे
फिर बहार आई वही दश्त नवरदी होगी
फिर वही पाँव वही खार-ए-मुग़ीलाँ होंगे
मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िन्दगी के लिए शर्मिन्दा-ए-एहसाँ होंगे?
उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे
(9) दिन भी दराज़ रात भी क्यों है फ़िराके-यार में
दिन भी दराज़ रात भी क्यों है फ़िराक़े-यार में
काहे से फ़र्क़ आ गया गर्दिशे-रोज़गार में
ख़ाक में वह तपिश नहीं ख़ार में वह ख़लिश नहीं
क्यों न हमें ज़्यादा हो जोशे-जुनूँ बहार में
मर् है इन्तिहा-ए-इश्क़ याँ रही इब्तिदा-ए-शौक़
ज़िन्दगी अपनी हो गयी रंजिशे बार-बार में
ख़ाक उड़ायी गुल ने यह किसके जुनूने-इश्क़ में
आये हैं कुछ अटी हुई बादे-सबा ग़ुबार में
ध्यान में 'मोमिन' आ गयी बहसे-जब्रओ-इख़्तियार
क़ाबू-ए-यार में हैं हम, वह नहीं इख़्तियार में
(10) नावाक अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जनन होंगे
नावाक अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जनन होंगे
निम-बिस्मिल की बेजान होंगे
तब-ए-नज़ारा नहीं आइना क्या देखेंगे दूं
और बन जायेंगे तसवीर जो हेयरन होंगे
तू कहां जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-आदम मैं शब-ए-हिजरान होंगे
फिर बहार ऐ वही दश्त-ए-नवार्दी होगी
फिर वही पाँव वही ख़ार-ए-मुग़लान होंगे
नासिहा दिल मैं तू इतना तो समझ अपने के हम
लाख नादान हुए क्या तुझ से भी नादान होंगे
एक हम हैं के हुए ऐसे पशेमन के बस
एक वो है के जिन्हे चाह के अरमान होंगे
मिन्नत-ए-हज़रत-ए-इसा ना उठेंगे कभी
जिंदगी होगी शर्मिंदा-ए-एहसान
उमर से सारी कटी इश्क़-ए-बुतां मैं "मोमिन"
अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुस्लिम होंगे
The End
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