Thursday, 28 December 2023

काली साड़ी में इक़बाल बानो “हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे” समूचे हॉल में बिजली दौड़ने लगी सुनने वालों के रोंगटे खड़े होना शुरू हुए

साल 1985, जब पाकिस्तान में जनरल ज़िया उल हक़ की तानाशाही चरम पर थी, उन्होंने एक फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी, फैज़ साहब से जनरल ज़िया नाराज़गी जगजाहिर थी।

 

उनकी नज़्में- ग़ज़लें पाकिस्तान के रेडियो, टीवी पर प्रसारित नहीं होती थीं, ऐसे में पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने विरोध दर्ज कराते हुए लाहौर के लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में काले रंग की साड़ी पहन कर फ़ैज़ साहब की ये नज़्म गाई।

पाकिस्तान में एक दौर था जब जनरल जिया उल हक ने देश में तख्तापलट कर दिया। उस दौर में जनरल पाकिस्तान का इस्लामीकरण कर रहे थे, इस कारण उन्होंने देश में साड़ियों पर बैन लगा दिया था।

जनरल का मानना था कि साड़ियां एक हिंदू लिबाज, ऐसे में मुस्लिम औरतों को इससे दूर रहना चाहिए। पाकिस्तान में साड़ी को लेकर विवाद बेहद गर्म था। लेकिन इकबाल बानो बेहद जिद्दी थी

जब पाकिस्तान में साड़ी पहनने पर पाबंदी लगी तब फ़ैज़ साहब की ये नज़्म खूब गायी गई...

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिस का वादा है

जो लौह--अज़ल में लिख्खा है

जब ज़ुल्म--सितम के कोह--गिराँ

रूई की तरह उड़ जाएँगे

 

साल 1979 में लिखी गई थी ये नज्म-

इस नज्म को फैज अहमद फैज ने 1979 में लिखा था। हालांकि कि इस नज्म के पीछे की कहानी 2 साल पहले साल 1977 से शुरू होती है। भारत में इमरजेंसी का खत्म हुई थी, लोग इंदिरा गांधी से बेहद नाराज थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में लोकतंत्र की एक बार फिर से वापसी हुई थी।

वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में आर्मी नें लोकतंत्र खत्म करके अपनी हुकूमत स्थापित की थी। इस घटने के बाद फैज अहमद फैज बेहद दुखी हुए थे, इस घटना के विरोध में ही उन्होंनेहम देखेंनज्म लिखी थी। यह नज्म इस दौर में जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का परचम बनी थी। अपने विद्रोही शब्दों के कारण इस नज्म पर बैन लगा दिया गया था, मगर बैन के कारण नज्म और चर्चा में गई।

रोहतक के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी दसेक साल की उस दुबली मुस्लिम लड़की की एक सबसे पक्की हिन्दू सहेली थी.

 

इकबाल बानो का जन्म 27 अगस्त, 1935 को दिल्ली में हुआ था. उनके वालिद मूलतः रोहतक के रुबाबदार ज़मींदार थे जिनके पास अच्छी-खासी ज़मींदारी थी. कहते हैं, घर में खुला माहौल था. उन्होंने बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खान की शागिर्दी में कर दिया. उस्ताद ने उनके हुनर को बखूबी तराशा. उनको दादरा और ठुमरी की ज़बरदस्त ट्रेनिंग दी गयी. बताते चलें कि दिल्ली घराना इस मुल्क के सबसे पुराने घरानों में से एक है.

 

उस्ताद की संगत में जल्द ही उसने दादरा और ठुमरी जैसी शास्त्रीय विधाओं में प्रवीणता हासिल कर ली. पार्टीशन के 4-5 साल तक वह दिल्ली में गाना सीखती रही. 

17 की हुईं तो उम्र में उनसे काफी बड़े एक पाकिस्तानी जमींदार को उनसे इश्क हो गया.

बानो जब 17 साल की हुईं तो उनका पाकिस्तान के सूबे मुल्तान के एक ज़मींदार से निकाह हो गया. मेहर की रस्म में उनके वालिद ने बानो को ताजिंदगी गाने देने का अहद लिया उनके शोहर से. शोहर ने भी इस अहद को बाकमाल खूब निभाया. 1955 के आते-आते इकबाल बानो शोहरत की बुलंदी पर थीं. उर्दू फिल्में जैसे गुमनाम, क़त्ल, इश्क--लैला और नागिन में उनके गए नगमे खूब हिट हुए.

 

इक़बाल बानो की गायकी का सफ़र उनकी जिन्दगी जैसा ही हैरतअंगेज रहा.

कौन सोच सकता था दादरा और ठुमरी जैसी कोमल चीजें गाते-गाते वह दुबली लड़की उर्दू-फारसी की गजलें गाने लगेगी और भारत-पाकिस्तान से आगे ईरान-अफगानिस्तान तक अपनी आवाज का झंडा गाड़ देगी. उसकी आवाज में एक ठहराव था और गायकी में शास्त्रीयता को बरतने की तमीज.

फिर 1977 का साल उसके मुल्क में अपने साथ जिया उल हक जैसा क्रूर तानाशाह लेकर आया. धार्मिक कट्टरता के पक्षधर इस निरंकुश फ़ौजी शासक ने तय करना शुरू किया कि क्या रहेगा और क्या नहीं. इस क्रम में सबसे पहले उसने अपने विरोधियों को कुचलना शुरू किया.

 

कला-संगीत-कविता जैसी चीजों को गहरा दचका भी इस दौर में लगा. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को मुल्कबदर कर दिया गया. हबीब जालिब को जेल भेज दिया गया. उस्ताद मेहदी हसन का एक अल्बम बैन हुआ. शायरों-कलाकारों को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगे.

करीब बारह साल के उस दौर की ऐसे माहौल में इक़बाल बानो ने विद्रोह और इन्कलाब के शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को गाना शुरू किया. सन 1981 में जब उन्होंने पहली बार फ़ैज़ को गाया, निर्वासित फ़ैज़ बेरूत में रह रहे थे और उनकी शायरी प्रतिबंधित थी.

 

उसके बाद जमाने ने इक़बाल बानो का जो रूप देखा उसकी खुद उन्हें कल्पना नहीं रही होगी. बीस साल पहले उनकी आवाज कोमल, तीखी और सुन्दर हुआ करती थीअनुभव और संघर्ष के ताप ने अब उसे किसी पुराने दरख्त के तने जैसा मजबूत, दरदरा और पायेदार बना दिया था. अचानक सारा मुल्क विधवा हुई इस प्रौढ़ औरत की तरफ उम्मीद से देखने लगा था. 

 

गुप्त महफ़िलें जमाई जातीं. प्रतिबंधित कविताएं गाई जातीं. स्कूल-युनिवर्सिटियों में पर्चे बांटे जाते. इक़बाल बानो हर जगह होतीं.

 

फिर 1986 की 13 फरवरी को लाहौर के अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडीटोरियम में वह तारीखी महफ़िल सजी.

 

तयशुदा दिन स्टेडियम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे- हुक्मरानों ने इकबाल बानो को रोकने के लिए और उन्होंने इसकी मुखालफ़त के लिए. शाम का वक़्त था. तकरीबन पचास हज़ार सामईन (दर्शक) इस वाक़ये के गवाह बनने के लिए हाज़िर हो गए.

उस रोज़ काली साड़ी पहने इकबाल बानो निहायत खूबसूरत लग रही थीं.

उन्होंने माइक संभाला और अपनी खनकदार आवाज़ में फ़रमाया; ‘आदाब!’ स्टेडियम गूंज उठा. चंद सेकंड बाद उन्होंने फिर कहा; ‘देखिये, हम तो फैज़ का कलाम गायेंगे और अगर हमें गिरफ्तार किया जाए तो मय साजिंदों के किया जाए जिससे हम जेल में भी फैज़ को गाकर हुक्मरानों को सुना सकें!’ स्टेडियम सन्न रह गया था. फिर जब तबले बोल उठे, शहनाई गूंज उठी तो बानो गा उठीं – ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे…’

 

पूरा हॉल भर चुकने के बाद भी हॉल के बाहर भीड़ बढ़ती जा रही थी. आयोजकों ने जोखिम उठाते हुए गेट खोल दिए. सीढियों पर, फर्श पर, गलियारों मेंजिसे जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गया. कुछ हजार सुनने वालों के सामने इक़बाल बानो ने फ़ैज़ को गाना शुरू किया:

 

हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है, जो लौह--अज़ल में लिक्खा है

हम देखेंगे

 

इस नज्म के शुरू होते ही समूचे हॉल में बिजली दौड़ने लगी. सुनने वालों के रोंगटे खड़े होना शुरू हुए. दर्द के नश्तरों से बिंधी, इक़बाल बानो की पकी हुई आवाज के तिलिस्म ने धीरे-धीरे हर किसी को अपनी आगोश में लेना शुरू किया. अजब दीवानगी का आलम तारीं होने लगा. लोगों ने बाकायदा लयबद्ध तालियों से इक़बाल बानो का साथ देना शुरू किया.

फिर नज्म का वह हिस्सा आया:

जब ज़ुल्म--सितम के कोह--गरां रुई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल--हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज--ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल--सफ़ा, मरदूद--हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

 

भीड़ तालियाँ बजाने लगी. इन्कलाब और इक़बाल बानो की जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू हो गए. इस शोरोगुल के थामने तक इक़बाल बानो को गाना बंद करना पड़ा. उन्होंने फिर गाना शुरू किया. इस दफ़ा लोग बेकाबू होकर रोने लगे. पाबंदियों की धज्जियां उड़ाकर रख दी गयी थीं.

 

माहौल में गर्मी देखकर पुलिस की हिम्मत नहीं हुई उन्हें गिरफ्तार करने की. इस कदर बेख़ौफ़--ख़तर थीं इकबाल बानो.

 

कई बरसों की रुलाई दबाये बैठा एक मुल्क सांस लेना शुरू कर रहा था.

उस रात अलहमरा आर्ट्स काउंसिल के आयोजकों-मैनेजरों के घर छापे पड़े. पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रोग्राम की सारी रेकॉर्डिंग्स जब्त कर जला दीं. किसी तरह एक प्रति स्मगल होकर दुबई पहुँच गयी. उसके बाद फ़ैज़-इक़बाल बानो की उस जुगलबंदी का नया इतिहास लिखा जाना शुरू हुआ. दुनिया भर के युवा आज भी उसे लिख रहे हैं.

दो बरस बाद जिया उल हक के अपने ही सलाहकार-साथियों ने उस जहाज में आमों की एक पेटी के भीतर बम छिपा दिए थे जिस पर उसे यात्रा करनी थी. ये बम बीच आसमान में फटे. तब से बीते इतने बरसों में जनरल जिया की हेकड़ी का भूसा भर चुका है.

 

1970 में इकबाल बानो के शोहर का इंतकाल हो गया. इसके बाद वे मुल्तान से लाहौर चली आईं और फिर यहीं की होकर रह गयीं.

 

कहते हैं कि फैज़ की नज़्महम देखेंगेको गाकर इकबाल बानो ने इस नज्म को और इस नज़्म ने इकबाल बानो को अमर कर दिया. 1974 में उन्हें पाकिस्तान सरकार नेतगमा-इम्तियाज़से नवाज़ा.

 

फिर ये किस्सा यूं ख़त्म हुआ कि चंद रोज़ वे बीमार रहीं और 21 अप्रैल, 2009 में लाहौर में उनका इंतेकाल हो गया. लेकिन उनके सुनने वालों के लिए इकबाल बानो हमेशा हैं और रहेंगी.

 

पता है 13 फरवरी 1986 की उस रात की कंसर्ट में इक़बाल बानो क्या पहन कर गई थीं?

काले रंग की साड़ी!

The End

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