Thursday, 5 October 2023

देवदास:अन्तिम दृश्य-अपने कारुणिक अंत में पारो के द्वार पर जाता है, उसे उम्मीद है कि मृत्यु के बाद ही उसकी आत्मा पारो से एकाकार हो सकेगी।कौन कमबख्त बर्दाश्त करने को पीता है, मैं तो पीता हूं के बस सांस ले सकू”

कौन कमबख्त बर्दाश्त करने को पीता है?' मैं तो पीता हूं के बस सांस ले साकू

फ़िल्म: देवदास

रिलीज़ का वर्ष: 1955

वक्ता: देवदास (दिलीप कुमार)

बातचीत: चंद्रमुखी (वैजयंती माला)

संवाद लेखक: राजिंदर सिंह बेदी

 

बिमल रॉय द्वारा निर्देशित, देवदास में कुमार ने शराब के नशे में डूबे एक नामचीन प्रेमी नायक की भूमिका निभाई।

उनका उदास संवादकौन कमबख्त बर्दाश्त करने को पीता है?' मैं तो पीता हूं के बस सांस ले साकू”,का सेट उसकी पीड़ा को प्रदर्शित करने के लिए एक स्वर है और आने वालेकई अभिनेताओं के लिए एक टेम्पलेट है।

1955 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म ने कुमार को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलाया और इसे उनके सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से एक माना जाता है।

होश से कहदो, कभी होश ना आने पाये...

देवदास के पिता मृत्यु शय्या पर हैं। वह चंद्रमुखी से मिलने जाता है जो एक वेश्या है। उसने शराब पीना भी शुरू कर दिया है. ऐसी ही एक रात, वह नशे में धुत था। चंद्रमुखी उसे रोकने की कोशिश करती है। वह कहती है

"और मत पियो देवदास"

"क्यो.एन?" देवदास पूछता है

"कुछ ही दिन हुए पीना शुरू किये। इतनी ज्यादा बर्दाश्त ना कर सकोगे"

कौन बर्बाद करता है जो बर्बाद करने के लिए पीता है। मैं तो पीता हूं। के...बस सात साल ले सकूं...और...ऐसी जगह से उठ कर जाने की ताकत नहीं।

एन है ना...तभी तो यहां. पड़ा रहता हूं....बस...देखता रहता हूं तुम्हारे मुंह की तरफ...तो भी मैं बिल्कुल बेहोश नहीं होता... कुछ होश रह ही जाता है...होश से कह दो...कभी होश आने पाए...

चंद्रमुखी कहती हैं, ''यहां, ऐसे लोग भी आते हैं। देवदास, जो शराब को छूटे भी नहीं।''

देवदास: छोटे भी नहीं? मेरे पास बंदूक हो तो मैं उन्हें गोली से उड़ा दूं। वो लोग मुझसे भी बड़ी पापी हैं। चंद्रमुखी। पहले तो मैं शराब पीना छोड़ दूंगा,नहीं और अगर छोड़ दिया तो फिर यहांकभी नहीं आऊंगा, कभी नहीं आऊंगा. मेरा तो इलाज है. लेकिन उन लोगो का क्या होगा...जो पीते भी नहीं और फिर भी यहांएन आते हैं।

 

यदि आप वीडियो देखते हैं, तो इन बेहतरीन पंक्तियों को भी देखें...

"मत छू...हाथ मत लगाओ मुझे चंद्रमुखी...अब भी कुछ होश बाकी है"

"पल भर में, सब कुछ ख़त्म हो गया। वो शादी के रास्ते पे चल दी और मैं, बर्बादी के रास्ते पर"

बाबूजी ने कहा गांव छोड़ दो... सबने कहा पारो को छोड़ दो... पारो ने कहा शराब छोड़ दो... आज तुमने कह दिया हवेली छोड़ दो... एक दिन आएगा जब वो कहेंगे, दुनिया ही छोड़ दो.”

होश से कहदो, कभी होश ना आने पाये...अगर मुझे मालूम होता कि मेरे यहां आने से मैं कुछ खो दूंगा, इस तरह लुट जाऊंगा तो मैं यहां कभी नहीं आता...

 

तुम मेरी कौन होती हो चंद्रमुखी जो मेरी इतनी सेवा कर रही हो..”

देखो ना मैं पार्वती को कितना चाहता हूं, और वो भी मुझे कितना चाहती थी, लेकिन समाज ने नहीं चाहा...”

 

तुम दोनों में कितना फर्क है, पर फिर भी कितनी एक सी हो, एक बड़ी खुद्दार और चंचल, दूसरी शांत और गंभीर, वो कुछ भी नहीं सह सकती, तुम सब कुछ सह गुजरती हो, उसकी कितनी इज्जत है, और तुम कितनी बदनाम हो, उससे सभी प्यार करते हैं, और तुमसे नफ़रत, लेकिन मैं तुमसे नफ़रत नहीं करता चंद्रमुखी, कर ही नहीं सकता...

 

चुन्नी बाबू: क्या खबर है?

देवदास: खबर बस यही है, कि जिंदा है..

 

मुझे रोको मत धर्मदास, मुझे चलने दो...

मेरा सबका है, मैं ही किसी का नहीं धर्मदास...

क्या कहूं चुन्नी बाबू, मुझे तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता, अब तो यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा लगे...

 

The young generation would remember Devdas as a Shah Rukh Khan film. But, in 1955, Bimal Roy had directed Devdas and Dilip Kumar played the titular role in it. He was amazing in the movie and won the Filmfare Best Actor Award for his performance in it. Forbes included the veteran actor’s performance in Devdas on its list, ‘25 Greatest Acting Performances of Indian Cinema’.

 

फिल्म देवदास का अंतिम सीन

देवदास: अपने कारुणिक अंत में देवदास पारो के द्वार पर जाता है, उसे उम्मीद है कि मृत्यु के बाद ही उसकी आत्मा अपनी पारो से एकाकार हो सकेगी।

गाड़ी जब पंडुआ स्टेशन पर पहुँची, सवेरा हो रहा था। सारी रात बारिश होती रही। देवदास उठकर खड़ा हुआ। धर्मदास नीचे सो रहा था। देवदास ने हल्के हल्के उसके ललाट का स्पर्श किया, शर्म से उसे जगा सका। उसके बाद दरवाज़ा खोलकर धीरे-धीरे गाड़ी से उतर पड़ा।

गाड़ी सोए हुए धर्मदास को लेकर चली गई। थरथराते हुए वह स्टेशन से बाहर आया। वह पार्वती के गाँव हाथीपोता पहुँचाना चाहता था। उसने एक बग्घीवाले से पूछाभैया हाथीपोता ले चलोगे? बरसात में बग्घी उस रास्ते नहीं जा सकेगी कहकर बग्घी वाले उसे बैलगाड़ी से जाने की सलाह देते हैं।

 

एक बैलगाड़ी वाला उसे हाथीपोता ले जाने के लिए तैयार हो जाता है लेकिन वह कहता है कि दो दिन लगेंगे। रास्ता बहुत दुर्गम और बीहड़ था। देवदास अपने मन में विचारने लगा कि क्या वह दो दिन तक जीवित रह सकेगा? लेकिन उसे किसी हाल पार्वती के पास जाना ही पड़ेगा।

उसे अंतिम दिन के लिए पार्वती को दिए वचन को निभाना ही था। चाहे जैसे हो उसे अंतिम दर्शन देना ही था। लेकिन उसे अपने जीवन की लौ बुझती हुई प्रतीत हुई, जिसका उसे डर था।

 

जीवन के शेष क्षणों में एक और स्नेह और आत्मीयता से भरा कोमल मुखड़ा अत्यंत पवित्र सा होकर उसे दिखाई पड़ा, यह मुखड़ा था चन्द्रमुखी का। जिसे पापिन कहकर वह सदा घृणा करता रहा, जो उसके लिए फूटफूटकर कर रोई थी, उसकी याद आते ही उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।

 

शायद बहुत दिनों तक उसे इसकी ख़बर भी मिल सकेगी। रास्ता ठीक नहीं था। कहीं कहीं बरसात का पानी जम गया था, कहीं रास्ता टूट गया था, कीचड़ ही कीचड़ भरा पड़ा था। बैलगाड़ी चली तो कहीं-कहीं उतरकर गाड़ी के पहिये ठेलने की नौबत आई। जैसे भी हो सोलह कोस की दूरी तय करनी थी।

रास्ते में बारिश शुरू हो गई। बीच-बीच में बैलगाड़ी दलदल में फँस जाती तो गाड़ीवान के साथ देवदास भी उसी जर्जर अवस्था में उतरकर गाड़ी को दलदल से निकालने में मदद करता।

 

सारा दिन चलने के बाद अँधियारी रात में बारिश और तेज़ हवा के थपेड़ों से गाड़ी में कराहते, खाँसते ख़ून उगलते हुए देवदास की अंतिम आशा किसी भी हाल प्राण रहते पार्वती की शरण में पहुँच जाना चाहता था।

 

रात बढ़ती जाती है, थोड़ी-थोड़ी देर में देवदास क्षीण और करुण स्वर में गाड़ीवान से "और कितनी दूर है भैया" कहकर पूछता रहता। वह गाड़ीवान से मनुहार करता – "जल्दी पहुँचा दो भैया, तुझे काफ़ी रुपए दूँगा। उसके जेब में सौ रुपये का एक नोट था। उसको दिखाकर बोला, एक सौ रुपये दूँगा, पहुँचा दो।"

दिन भर गाड़ी चलती रही। बारिश होती रही। देवदास रह-रहकर गाड़ीवान से कराहते हुए डूबती आवाज़ में गाँव की दूरी पूछता जाता है। शाम होते-होते देवदास की नाक से लहू टपकने लगा। जी जान से उसने नाक को दबाया, फिर लगा कि दाँत के बगल से भी ज़हरीला लहू निकल रहा है, साँस लेनेछोड़ने में भी कष्ट महसूस हो रहा है। उसने हाँफते हुए पूछा- "और कितनी दूर है भैया?"

 

The entire sequence from the time he gets off the train and takes the cart to reach Manikpur, is breathlessly poignant. When he says, “Arre bhai Yeh raasta kyat kabhi khatam nahi hoga,” you pray the distance gets covered quickly so that the lover can reach his beloved’s doorstep only to die in front of her.

गाड़ीवान बोला, "बस दो कोस और। रात के दस बजे तक पहुँच जाऊँगा। देवदास ने बड़ी मुश्किल से रास्ते की तरफ़ देखते हुए कहा, "भगवान"! गाड़ीवान ने पूछा, "ऐसा क्यों कर रहे हैं बाबूजी?"

 

देवदास इसका जवाब दे सका। गाड़ी चलने लगी, और रात दस की बजाए बारह बजे हाथीपोता के ज़मींदार भुवन चौधरी की हवेली के सामने चौतरा वाली पीपल के नीचे गाड़ी जा लगी। गाड़ीवान ने आवाज़ दी "बाबूजी उतरो।" कोई आवाज़ नहीं।

 

फिर पुकारा, फिर कोई जवाब नहीं। उसे डर लगा। उसने मुँह के पास लालटेन ले जाकर पूछा, "सो गए, क्या बाबूजी?" देवदास देख रहा था। होंठ हिलाकर कुछ बोला। क्या बोला, समझ में नहीं आया। गाड़ीवान ने फिर पुकारा- "बाबूजी।" देवदास ने हाथ उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा सका।

 

आँखों से सिर्फ आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ीं। गाड़ीवान ने अपनी अक़्ल लगाई। पीपल के चौंतरे उसने पुआल का बिछावन लगाया, और बड़ी मुश्किल से देवदास को गाड़ी पर से उतारकर उस पर सुला दिया। बाहर कोई था। ज़मींदार का सारी हवेली सोयी पड़ी थी।

देवदास ने किसी तरह से सौ रुपये वाला नोट निकालकर दिया। लालटेन की रोशनी में गाड़ीवान ने देखा कि बाबू ताक रहे हैं, पर बोल नहीं पाते। रात भर गाड़ीवान लालटेन की रोशनी में देवदास के पाँव के पास बैठा रहा।

 

सुबह होते ही उजाले में ज़मींदार के घर से लोग बाहर निकले और पीपल के चौतरे पर पहुँचे तो देखा कि एक भला आदमी जिसके बदन पर कीमती ऊनी चादर, पाँव में कीचड़ से सने महँगे जूते, उँगली में नीले नग की अंगूठी, धारण किए हुए दम तोड़ रहा था।

 

डॉक्टर, ज़मींदार, उनका बेटा महेंद्र और गाँव वाले सभी इकट्ठा हो कर उस बेबस, बेज़ुबान, मरणासन्न व्यक्ति को घेरे खड़े हो जाते हैं। सबके मुँह से आह निकलती है। भीड़ में से कोई दया करके मुँह में बूँद भर पानी डाल देता है।

 

देवदास ने एक बार उसकी ओर करुणा दृष्टि से देखा और आँखें मूँद लीं। कुछ देर और ज़िंदा था, फिर सब कुछ ख़त्म। इस तरह देवदास पार्वती के चौखट पर ही दम तोड़ देता है, वह पार्वती तक पहुँचकर भी उसे नहीं देख पाता। यह उसकी नियति थी।

 

लाश की शिनाख़्त की जाती है, पुलिस की जाँच-पड़ताल करके उसे ताल सोनापुर का देवदास घोषित कर देती है। महेंद्र और भुवन बाबू दोनों वहाँ मौजूद थे। महेंद्र कहता है कि यह छोटी माँ के मैके का है। वह अपनी माँ पार्वती को बुलाना चाहता है किन्तु भुवन बाबू उसे फटकार कर रोक देते हैं।

 

ब्राह्मण लाश थी, फिर भी गाँव के किसी ने छूना नहीं चाहा। देवदास की लावारिस लाश को गाँव के डोम उठाकर ले गए और किसी सूखे पोखर के किनारे अधजला डाल दिया। 

कौए, गिद्ध, सियार लाश को नोच-नोचकर छीना झपटी करने लगे। यही देवदास का करुण और दुर्भाग्यपूर्ण अंत था। एक हारे हुए प्रेमी का अंत। हवेली में पार्वती अपनी नौकरानी से, हवेली के द्वार पर ताल सोनापुर के देवदास नामक व्यक्ति की मृत्यु की ख़बर सुनती है तो वह बेतहाशा दौड़ती हुई हवेली के बाहर दौड़ती हुई मूर्छित होकर गिर पड़ती है।

 

मूर्छा टूटने पर वह उन्माद की अवस्था में सिर्फ़ इतना पूछती है कि "रात में वे आए थे ? सारी रात.... "

The End

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