Monday, 16 October 2023

“अबाबील” कहानी: ख्वाजा अहमद अब्बास- दरवाजा खोला तो वह मर चुका था. उसकी पायंती चार अबाबीलें सर झुकाए खामोश बैठी थीं.

उसका नाम तो रहीम ख़ाँ था मगर उस जैसा जालिम भी शायद ही कोई हो. गांव भर उसके नाम से कांपता था. आदमी पर तरस खाए जानवर पर. एक दिन रामू लुहार के बच्चे ने उसके बैल की दुम में कांटे बांध दिए थे तो मारते-मारते उसको अधमरा कर दिया. अगले दिन जेलदार की घोड़ी उसके खेत में घुस आई तो लाठी लेकर इतना मारा कि लहूलुहान कर दिया.

 

लोग कहते थे कि कम्बख्त को ख़ुदा का खौफ भी तो नहीं है. मासूम बच्चों और बेजबान जानवरों तक को माफ नहीं करता. ये जरूर जहन्नुम में जलेगा. मगर ये सब उसकी पीठ के पीछे कहा जाता था. सामने किसी की हिम्मत जबान हिलाने की होती थी.

एक दिन बुंदू की जो शामत आई तो उसने कह दिया, “अरे भई रहीम ख़ाँ तू क्यों बच्चों को मारता है?” बस उस गरीब की वो दुर्गत बनाई कि उस दिन से लोगों ने बात भी करनी छोड़ दी कि नामालूम नहीं किस बात पर बिगड़ पड़े? बाज़ का खयाल था कि उसका दिमाग खराब हो गया है, उसको पागलखाने भेजना चाहिए.

 

कोई कहता था, अब के किसी को मारे तो थाने में रिपोर्ट लिखवा दो. मगर किसी की मजाल कि उसके खिलाफ गवाही देकर उससे दुश्मनी मोल लेता.

 

गांव भर ने उससे बात करनी छोड़ दी. मगर उस पर कोई असर हुआ. सुबह-सवेरे वो हल कांधे पर धरे अपने खेत की तरफ जाता दिखाई देता था. रास्ते में किसी से बोलता. खेत में जा कर बैलों से आदमियों की तरह बातें करता. उसने दोनों के नाम रखे हुए थे.

 

एक को कहता था नत्थू, दूसरे को छद्दू. हल चलाते हुए बोलता जाता, “क्यूं बे नत्थू तू सीधा नहीं चलता. ये खेत आज तेरा बाप पूरे करेगा?” औरअबे छद्दू तेरी भी शामत आई है क्या?” और फिर इन गरीबों की शामत ही जाती. सूत की रस्सी की मार. दोनों बैलों की कमर पर जख़्म पड़ गए थे.

 

शाम को घर आता तो वहां अपने बीवी-बच्चों पर गुस्सा उतारता. दाल या साग में नमक है, बीवी को उधेड़ डाला. कोई बच्चा शरारत कर रहा है, उसको उल्टा लटकाकर बैलों वाली रस्सी से मारते-मारते बेहोश कर दिया. गर्ज हर-रोज एक आफत मची रहती थी.

 

आस-पास के झोंपड़े वाले रोज रात को रहीम ख़ाँ की गालियां, उसकी बीवी और बच्चों के मार खाने और रोने की आवाज़ सुनते, मगर बेचारे क्या कर सकते थे. अगर कोई मना करने जाए तो वो भी मार खाए.

 

मार खाते-खाते बीवी गरीब तो अधमरी हो गई थी. चालीस बर्ष की उम्र में साठ साल की मालूम होती थी. बच्चे जब छोटे-छोटे थे तो पिटते रहे. बड़ा जब बारह बर्ष का हुआ तो एक दिन मार खाकर जो भागा तो फिर वापस लौटा.

करीब के गांव में एक रिश्ते का चाचा रहता था. उसने अपने पास रख लिया. बीवी ने एक दिन डरते-डरते कहा, “हलासपुर की तरफ जाओ जरा नूरू को लेते आना.” बस फिर क्या था आग बगूला हो गया- “मैं उस बदमाश को लेने जाऊं. अब वो खुद भी आया तो टांगें चीर कर फेंक दूंगा.”

 

वह बदमाश क्यों मौत के मुंह में वापस आने लगा था. दो साल के बाद छोटा बेटा बुंदू भी भाग गया और भाई के पास रहने लगा. रहीम ख़ाँ को गुस्सा उतारने के लिए फकत बीवी रह गई थी सो वो गरीब इतनी पिट चुकी थी कि अब आदी हो चली थी. मगर एक दिन उसको इतना मारा कि उससे भी रहा गया.

 

और मौक़ा पाकर, जब रहीम ख़ाँ खेत पर गया हुआ था, वह अपने भाई को बुला कर उसके साथ अपनी मां के यहां चली गई. पड़ोसी की औरत से कह गई कि आए तो कह देना कि मैं कुछ रोज़ के लिए अपनी मां के पास रामनगर जा रही हूं.

 

शाम को रहीम ख़ाँ बैलों को लिए वापस आया तो पड़ोसिन ने डरते-डरते बताया कि उसकी बीवी अपनी मां के यहां चंद रोज़ के लिए गयी है. रहीम ख़ाँ ने स्वभाव के विपरीत खामोशी से बात सुनी और बैल बांधने चला गया. उसको यकीन था कि उसकी बीवी अब कभी आएगी.

 

अहाते में बैल बांध कर झोंपड़े के अंदर गया तो एक बिल्ली म्याऊं-म्याऊं कर रही थी. कोई और नजर आया तो उसकी ही दुम पकड़ कर दरवाज़े से बाहर फेंक दिया. चूल्हे को जा कर देखा तो ठंडा पड़ा हुआ था. आग जला कर रोटी कौन डालता. बगैर कुछ खाए-पिए ही पड़ कर सो गया.

 

अगले दिन रहीम ख़ाँ जब सोकर उठा तो दिन चढ़ चुका था. लेकिन आज उसे खेत पर जाने की जल्दी थी. बकरियों का दूध दुहकर पिया और हुक्का भर कर पलंग पर बैठ गया. अब झोंपड़े में धूप भर आई थी. एक कोने में देखा तो जाले लगे हुए थे.

 

सोचा कि लाओ सफाई ही कर डालूं. एक बांस में कपड़ा बांध कर जाले उतार रहा था कि खपरैल में अबाबीलों का एक घोंसला नजर आया. दो अबाबीलें कभी अंदर जाती थीं कभी बाहर आती थीं. पहले उसने इरादा किया कि बांस से घोंसला तोड़ डाले.

 

फिर मालूम नहीं क्या सोचा, घड़ौंची लाकर उस पर चढ़ा और घोंसले में झांककर देखा. अंदर देखा, दो लाल बोटी-से बच्चे चूं-चूं कर रहे थे. और उनके मां-बाप अपनी औलाद की हिफाजत के लिए उसके सर पर मंडरा रहे थे. घोंसले की तरफ उसने हाथ बढ़ाया ही था कि मादा अबाबील अपनी चोंच से उस पर हमलावर हुई.

 

अरी, आंख फोड़ेगी क्या?” उसने अपना खौफनाक कहकहा मारते हुए कहा और घड़ौंची पर से उतर आया. अबाबीलों का घोंसला सलामत रहा.

 

अगले दिन से उसने फिर खेत पर जाना शुरू कर दिया. गांववालों में से अब भी कोई उससे बात करता था. दिन-भर हल चलाता, पानी देता और खेती काटता. लेकिन शाम को सूरज छिपने से कुछ पहले ही घर जाता.

 

हुक्का भर कर पलंग के पास लेटकर अबाबील के घोंसले की तरफ देखता रहता. अब दोनों बच्चे भी उड़ने के काबिल हो गए थे.

 

उसने उन दोनों के नाम अपने बच्चों के नाम पर नूरू और बुंदू रख दिए थे. अब दुनिया में उसके दोस्त ये चार अबाबील ही रह गए थे. लेकिन गांववालों को ये हैरत जरूर थी कि मुद्दत से किसी ने उसको अपने बैलों को मारते देखा था. नत्थू और छिद्दू भी खुश थे. उनकी पीठों पर से घावों के निशान भी लगभग समाप्तप्राय हो गए थे.

रहीम ख़ाँ एक दिन खेत से जरा सवेरे चला रहा था कि चंद बच्चे सड़क पर कंडी खेलते हुए मिले. उसको देखना था कि सब अपने जूते छोड़कर भाग गए. वो कहता ही रहा- “अरे मैं कोई मारता थोड़ा ही हूं.”

 

आसमान पर बादल छाए हुए थे. जल्दी -जल्दी बैलों को हांकता हुआ घर लाया. उनको बांधा ही था कि बादल जोर से गरजा और और बारिश शुरू हो गई.

अंदर कर किवाड़ बंद किए और चिराग जला कर उजाला किया. रोज की तरह बासी रोटी के टुकड़े करके अबाबीलों के घोंसले के करीब एक ताक में डाल दिए. “अरे बुंदू. अरे नूरू.” उसने पुकारा मगर वे निकले. घोंसले में जो झांका तो चारों अपने परों में सिर दिए सहमे बैठे थे.

 

ठीक उसी जगह जहां छत में घोंसला था वहां एक सूराख था और बारिश का पानी टपक रहा था. “अगर कुछ देर ये पानी इस तरह ही आता रहा तो घोंसला तबाह हो जाएगा और अबाबीलें बेचारे बेघर हो जाएंगे”- ये सोच कर उसने किवाड़ खोले और मूसलाधार बारिश में सीढ़ी लगा कर छत पर चढ़ गया.

जब तक मिट्टी डालकर सूराख को बंद करके वह नीचे उतरा तो, पानी से बुरी तरह भीग चुका था. पलंग पर जा कर बैठा तो कई छींकें आईं. मगर उसने परवाह की और गीले कपड़ों को निचोड़ चादर और चादर ओढ़कर सो गया.

 

अगले दिन सुबह को उठा तो पूरे शरीर में दर्द और तेज ज्वर था. कौन हाल पूछता और कौन दवा लाता? दो दिन उसी हालत में पड़ा रहा.

 

जब दो दिन किसी ने उसे खेत पर जाते हुए नहीं देखा तो गांववालो को चिंता हुई. कालू जेलदार और कई किसान शाम को उसके झोंपड़े में देखने आए. झांककर देखा तो पलंग पर पड़ा आप ही आप बातें कर रहा था, “अरे बुंदू. अरे नूरू कहां मर गए? आज तुम्हें कौन खाना देगा.” चंद अबाबीलें कमरे में फड़फड़ा रही थीं.

 

बेचारा पागल हो गया है.” कालू जेलदार ने सिर हिलाकर कहा- “सुबह को अस्पताल वालों को खबर कर देंगे कि इसे पागलखाने भिजवा दें.”

 

अगले दिन सुबह को जब उसके पड़ोसी अस्पताल वालों को लेकर आए और उसके झोंपड़े का दरवाजा खोला तो वह मर चुका था. उसकी पायंती चार अबाबीलें सर झुकाए खामोश बैठी थीं.

The End

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