लखनऊ है तो महज़, गुंबदो मीनार नहीं
सिर्फ़ एक शहर नहीं, कूच और बाज़ार नहीं
इस के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलते हैं
इस की गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं
अवध के नवाबों का इतिहास उनकी बेगमों के बगैर पूरा नहीं होता। इसलिए कि जिस, अपनी तरह की अनूठी, तहजीब के कंधों पर उनकी पालकी ढोई जाती थी, उसमें बेगमें कहीं ज्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं। इस कदर कि उनसे जुड़े अनेक रोचक व रोमांचक और अच्छे व बुरे प्रसंग आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं।
बकौल अकबर इलाहाबादी-अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गये बेगम की नोज पे! इस सिलसिले में सबसे काबिलेगौर बात यह है कि बेगमें किसी खास उम्र, ओहदे, हैसियत, कुल, खानदान, धर्म या वर्ग वगैरह से नहीं आतीं।
उनके बेगम बनने की सबसे बड़ी योग्यता बस इतनी थी कि वे किसी तरह नवाब की निगाहों में चढ़ जाएं। कई नवाबों ने तो दिल आने पर अपनी बेगमों की कनीजों, मुलाजिमों की ब्याहताओं और कई-कई बच्चों की मांओं को भी अपनी बेगम बनाने से गुरेज नहीं किया। इसीलिए बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का प्राय: हर रूप व रंग नजर आता है।
Pari Khana of Nawab Wajid Ali Shah--Now it is Bhatt khande institute of Music (Lucknow) |
नवाबी की शानदार पालकी हमेशा तहज़ीब के कन्धों पर चली है। इस पालकी का परदा कभी किसी ने नहीं उठाया और उसे न उठाना ही ठीक रहा।
दबदबा नवाब बेगम' का
अवध के दर्जन भर नवाबों मे से दूसरे नवाब अबुल मंसूर खाँ उफ़ सफ़दरजंग ही ऐसे थे जिन्होंने सिर्फ़ एक शादी की थी । इस तरह सारी नवाबी में वो अपने आप में अकेली मिसाल कहे जा सकते है। नवाब सफ़्दरजंग की उस इकलौ बीवी का नाम सदरुन्तिसा था और जो नवाब सआदत खाँ बुरहानुल मुल्क की बेटी थी। ससुराल में उन्हें नवाब सफ़दरजहाँ बेगम का खिताब मिला था और फिर वो नवाब बेगम के नाम से मशहूर हुईं ।
नवाब बेगम को अवध की सबसे ख़ूशनसीब और अकेली मिसाल बेगम कहना चाहिए जिसकी तीनों पीढ़ियों ने नवाबी की शान पायी थी | उनके बाप नवाब थे ही फिर उनके शौहर हाकिमे सल्तवत हुए जिनके बाद उनके बेटे तख्तो मसनद पर तशरीफ़ लाए। अपनी ज़िन्दगी के तीनों पहर शानो-शौकत से गुज़ा रने वाली नवाब बेगम बड़ी अक्लमन्द और दानिशमन्द महिला थी ।
जिस वक्त शाहें दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वो अपनी फ़ौज के लश्कर और अपने घायल शौहर को लेकर फ़ैजाबाद से जा रही थी, सुल्तानपुर के पास नवाब सफ़दरजंगः का इन्तक़ाल हो गया | इस तरह रास्ते में सुहाग लुट जाने पर भी इस औरत ने बड़े सब्र और बेहद होशियारी से काम लिया और इस राज को राज ही रखा ।
फ़ैज़ाबाद मे जब अपने महल की ड्योढ़ी में हाथी की पीठ पर कसे सुखपाल में सफ़दरजंग की लाश लेकर उतरी तो उन्होंने पहले अपने बेटे शुजाउद्दौला से सलाह करके फ़ौज और क़िले की कमान मजबूत कर ली तब जाकर महल में से रोने- पीटने की आवाज़ें उठीं। नवाब बेगम अगर अपने सूबे का बन्दोबस्त इस ख़ बसू रती से न संभाल लेतीं तो शहर में बग़ावत हो जाती और तख्त हाथ-बेहाथ हो जाता। ये सन् १७५४ की बात थी ।
जब नवाब सफ़दरजंग नहीं रहे तो उनके बेटे शुजाउद्दौला ने तख्ते अवध की' मसनद सँभाली । नवाब बेगम बड़ी जेहनमन्द थी लेकिन अक्सर ग़रीबों और दुखियों की मदद के मौक़े पर मासूम हो जाया करती थीं। उनकी एक लौंडी के पास ख़ज़ाने की चाबियाँ रहती थीं।
Nawab Safdar Jung |
उस नेकबख्त को जब कभी रुपये-पैसों की ज़रूरत होती तो वो बेगम से सिक्कों को धूप दिखाने की बात करती---“मलिकए आलिया, हर चीज को रखे-रखे सील खा जाती है तो फिर सिक्के भी सदमा ज़रूर उठाएँगे, इसलिए बेहतर है कि उन्हें वक्त-वकत पर धूप दिखा दी जाए !
फिर क्या था, फ़ैजाबाद के महल की छत पर चाँदी-सोने के सिक्के बिछा दिए जाते और उसके बाद वो बाँदी रुपयों के तोड़े (ग्रतती की अलग-अलग थैलियाँ) लगाती तो कुछ ज़रूर ही कम निकलते और इस पर उस कनीज़ का जवाब ये होता कि हर चीज़ धूप पाकर कुछ न कुछ सूख जाती है तो इनमे से कुछ रुपये अगर धूप में ख़ूशक हो गये तो क्या अजब नवाब बेग्रम सब समझ्ते हुए भी इस बात का कुछ बुरा नही मानती थीं, सिर्फ़ हेंसकर टाल देती थीं ।
सन् १७६४ में शुजाउद्दोला को बक्सर की लड़ाई में मीर क़ासिम की तरफ़ से लड़ने जाना था। इस मुक़ाबले में अंग्रेजों से मोर्चा लेना कोई आसान बात नहीं थी लेकिन नवाब बेगम की नवाबी का क्या कहना! उन्होंने अपने बेटे की होसला अफ़ज़ाई की।
उन्होंने पहले भी अपने शौहर के जमाने में फ़र्ख्बाद की ज़मीं के लिए अपने खर्चे से ११ लाख ४ हज़ार अर्शाफ़ियाँ दी थीं। शुजाउद्दौला अपनी माँ का बहुत अधिक आदर करते थे । बिहार की तरफ़ जंग के लिए रवाना होते समय नवाब जिस्म पर हथियार बाँधकर अपनी माँ की ड्थोढ़ी में इजाजत माँगने के लिए तशरीफ़ लाए।
महल की दहलीज़ में सर पर बगुले के पंखों का-साः 'रुपहले सित का ताज पहने माँ खड़ी थीं। नवाब बेगम ने बेटे के बाजू पर इमाम जामिन बाँधने के बाद ख शबूदार गिलौरियों से मह॒कते हुए सुर्ख होंठों से अपने बेटे का माथा चूमा और बड़े तम्कनत से कहा, “जाओ बेठा, हजरत अली तुम्हारे निगहबान होंगे।
Battle of Buxar |
मेरे लाल, चुन-चुन कर गोरे दुश्मनों को मारता, गिन-गिनकर उन बिदेशी अंग्रेजों को ख़त्म कर देना मगर खदा के वास्ते मेरी पीनस उठाने के लिए बारह फ़िरंगी ज़रूर बचा लेना ।”
हुआ ये कि बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों ने बुरी तरह शिकस्त दी, यही क्या “कम हुआ कि आखिरी लड़ाई के एक दिन पहले नवाब को एक लँगडी हथिनी पर बिठा कर भगा दिया गया था | खैर, जान बच गईं, मगर लेने के देने तो पड ही गए ।अंग्रेज़ सरकार ने नवाब शुजाउदौला से ५० लाख रुपये तावाने जग वसूल किया ।
इस हरजाने में फ़ैजाबाद का खज़ाना लूट लिया । २० लाख की रकम तो 'शुजाउद्दौला की ब्याहता बीवी बहु बेगम ने अपने जेवर उतार कर पूरी की, यहाँ तक कि अपनी सुहाग की नथ' तक उतारकर नवाब के आगे रख दी थी और इसी से शुजाउद्दौला जिंदगी-भर बहू बेगम के एहसानमन्द रहे ।
Nawab Shuja ud daula |
बाक़ी भुगतान के लिए नवाब को इलाहाबाद का इलाक़ा और चुनारगढ़ का क़िला कम्पनी सर- कार के हवाले करना पड़ा और फिर तो कम्पनी सरकार का पाँव अवध सल्तनत में ऐसा पड़ा कि अंगद का पाँव बन गया ।
नवाब बेगम ने जो सख्त बात अंग्रेजों के खिलाफ़ कही थी वो हवा के पर लगाकर अंग्रेज हाकिमों के कात तक जा पहुँची और फ़ैजाबाद की बेगमों से उनकी “दिलशिकनी हो गई। इसी बात का बदला वारेन हेस्टिग्ज ने लिया और आसफ़ुद्दौला पर दबाव डालकर उसने नवाब बेगम और बहू बेगम से जबरदस्ती
"करोड़ों रुपया वसूल लिया ।
आसफ़ुद्दौला ने, लखनऊ से अपने ख़ास नायब मुर्तेज़ा खाँ उफ़ मुख्तारुहौला को इन सास-बहू से रुपया ऐंठने के लिए फ़ौज समेत फ़ैज़ाबाद भेज दिया। मुख्तारुहौला ने अपनी चालों से बहू बेगम से तो लाखों रुपये वसूल लिए ।
लेकिन जब नवाब की दादी हज़रत पर हाथ साफ़ करने चला तो दादी ने अपने इलाक़े के सारे ज़मींदार और राजाओं को अपने महल के क़रीब इकट्ठा करके उनकी मौजूदगी में कहा--“मुल्क़ अवध मेरे बाप--प्रथम नवाब का है, ये आसफ़ुद्दौला के बाप का नहीं!”
बात बिलकुल सच और सही थी--अवध का सुबा दिल्ली दरवार की तरफ़ से प्रथम नवाब सआदत खाँ बुरहानुल मुल्क को दिया गया था जो उत्तके बाप थे, फिर ये मसनद उनके हक़ से ही उनके शौहर को मिली जो बाद में उनके बेटे 'शुजाउद्दोला यानी आसफ़ुद्दीला के बाप को मिली।
Nawab Asif ud daula |
और तो और, जब नवाब आसफ़्दौला ने अपनी दादी के महल की तरफ़ अपनी बदनीयत फ़ौजों का मुँह मोड़ा तो नवाब बेगम घोड़े की रकाब में पैर रखने को तैयार हो चुकी थीं और उनकी फ़ौज का रिसालदार जवाहर अली ख़ाँ ख्वाजासरा नक्क़ारा बजाने को था"
और इसमें कोई शक नही कि सारे सिपाही और रियाया उनकी ही तरफ़दारी करते जिससे नवाब को मुंह की खानी पड़ती लेकिन बीच में हमले हो गये ।
बहु बेगम की आँख से आँसू बह निकले । आसफ़ुद्दौला नवाब बेगम का इकलौता बेटा था । बेवा बहू की ममता-भरी इस फ़रियाद पर नवाब बेगम को अपना इरादा बदल देना पड़ा।
Tomb (Maqbara) Bahu Begam---Gulab Badi --Faizabad |
४ जून, १७६६ को नमाज़ पढ़ते वक्त नवाब बेगम का इन्तक़ाल हुआ और, फिर फ़ैजाबाद में गुलाब बाड़ी में ही उनको उनके बेटे के पहलू में दफ़्ना दिया गया।
दिल्ली दरबार की दौलत बहू बेगम --नवाब बेगम की बहू अर्थात् शुजाउद्दौला की पटरानी उमत-उल- ज़हरा था
दिल्ली के वज़ीर ख़ानदान की यह लड़की सन् १७४५ में नवाब: शुजाउद्दौला को ब्याही गई थी । यह शादी दिल्ली में दारा शिकोह के महल मे हुई थी। इस बिन बाप की लड़की को शहनशाहे दिल्ली ने अपनी मुँहबोली-बेटी बता- कर इसे अवध के नवाब से ब्याहा था और उस शादी में लाखों रुपये ख़्चें किये थे ।
ससुराल में उमत-उल-ज़हरा को जनाब आलिया बहू बेगम साहिबा का खिताब मिला। बहू बेगम का रुतबा बेगमाते अवध की क़तार में सबसे ऊँचा माना जाता है । इन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी बड़ी शानो-शौकत और तम्कनत से गुज़ारी । उनकी हुक्म रानी से फ़ैजाबाद क्या लखनऊ के महल भी थरथराते थे। और तो: और, उनके शौहर नवाब शुजाउद्दौला भी इनके मायके की दौलत से दबते थे ।
चूँकि शुजाउद्दौला बड़े रसिक स्वभाव के आदमी थे, इसलिए उनकी औरत परस्ती पर रोक लगाना बहू बेगम के बस के बाहर की बात थी । हाँ, इनका दबदबा: इतना जरूर था कि शुजाउहौला अगर एक रात भी इनके महल के बाहर गुज़ारना चाहते, तो उसके लिए अच्छा-ख़ासा हरजाना वसूल करती थीं।
बहू बेगम की शर्ते थी कि जो रात उनके महल के बाहर गुजारी जाय उसकी क़ीमत के ५,००० रुपये सुबह तक उनके सरहाने पहुँचा दिए जाये और ज़ाहिर है कि जुर्माने की इस रक़म से उनकी आमदनी उनकी जागीरो से भी ज़्यादह हो गई थी । जब तक नवाब ने अपने चलन पर क़ाबू किया कि तब तक बहू बेगम सोने के चबूतरे चुनवा चुकी थीं। उनकी ड्योढ़ी का दारोगा बहादुर अली खाँ ख्वाजासरा था जो उनकी जागीर की देखभाल भी करता था।
बहु
बेगम के पाँव में पद्म था। दिल्ली से वो इतना मालो जेवर लेकर आई कि फ़ैजाबाद की महलसरा भर गई थी। बक्सर की लड़ाई का जो ख़र्च अंग्रेजों से नवाब से वसूला था उसके बहुत बडे हिस्से की अदायगी तो उन्होंने की ही थी, अपने एकमात्र पुत्न आसफ़ुदौला की भी उन्होंने वक्त पड़ने पर मदद की । माँ-बेटे में हमेशा अनबन रहती थी।
सिर्फ़ चन्द महीनों के लिए वो हर साल आसफ़ुहौला की राजधानी लखनऊ में आकर रहती थीं। इस ज़माने में वो गोमती के किनारे अपने खास महल सुनहरा बुर्ज में ठहरती थीं। उनको जब आसफ़ुद्दौला पहली बार मनाकर फ़ैजाबाद से लखनऊ लाए थे तो इस ८० मील के फ़ासले में वो रास्ते-रास्ते अशरफ़ियाँ लुटाते आये थे ।
Palace of Nawab Shuja ud daula--(Faizabad) |
बेगम के लखनऊ प्रवास के दिनों में दौलतखाना आसफ़ी से उम्दा खाना बनवाकर सुनहरा बुर्ज भेजा जाता था लेकिन बहू बेगम ने कभी उस सफ़ारी खाते को हाथ नहीं लगाया उसे सिफ़ नौकरों में तक्सीम कर दिया जाता था। ख़ज़ानए अवध से ४०० रुपये रोज्ञ उनके दस्त रख्वान का खर्च बँधा था जो दरबारी मौलवी उन्हें पहुँचाने जाते थे और ये तब जबकि वो सिफ़ दोपहर में हमेशा एक बार खाना खाती थीं।
एक बार इसी बावरचीख़ाने का कुल बकाया हिसाब ८४ हजार रुपये हो गया था जो बाद में फ़ैज्ञाबाद उनके महल पर भेजा गया । एक“बार जब आसफ़ुहौला तंगदस्त थे बहु बेगम ने दो बरस तक उनकी फ़ौज को अपने 'पास से तनख्वाह बाँठी थी और भज़ा ये कि यह कुल दौलत उनकी गृड़िया की शादी के दहेज में से निकली थी जो उन्होंने बचपन में की थी और जिसके दहेज 'की खिचड़ी (सोने की मोहरें और चॉँदी के सिक्के) बकसों में भरे रखे थे ।
Nawab Ghazi Uddin Haider |
सन्
१८१६ में बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के शासन काल में बहू बेगम जल्नत- नशीन हुई। फ़ैज़ाबाद के जवाहर बाग़ में उनके ही ट्रस्ट किए गए लाखों रुपयों से “उनका आलीशान मक़बरा बनवाया गया ।
बेगम शस्सुन्तिसा--एक नादान महल
सास की नवाबी में मिल्कियत और मालिकाने की खशबू थी तो बहू की 'नवाबी में मासूमियत और अनजानेपत का रंग भी कुछ कम न था। नवाब आसफ़ुदौला की पहली शादी दिल्ली के दीवान खानदान के इमामुद्दीन ख़ाँ उर्फ़ इस्तियाज़' उद्दौला की बेटी शम्सुन्तिसा से हुई थी।
सन् १७६६ में फ़ैजाबाद में हुई इस शादी में सिर्फ़ २४ लाख रुपये ख़र्च हुए थे और वो भी उस ज़माने में जब रुपये 'का तीस सेर गेहूँ मिलता था। इस ब्याह में शिरकत करने के लिए दिल्ली के बादशाह शाह आलम और शोलापुरी बेगम भी आई थीं ।
शम्सुन्निसा लखनऊ के दौलतख़ाना शीशमहल में सात परदों में रहने' वाली बेगम थीं।
नवाब से उनकी अधिक बनी नहीं, इसलिए वो महल के कट में बंध कर रह गईं कि उन्हें बाहरी दुनिया की कोई खबर ही' हैक अवध में इतनी भोली और नाद्न थी कि उनके जैसा नादान महल बेगम 'मिलना मुश्किल होगा । उनको ये तक न मालूम था कि गेहूँ दरख्त पर उगता है या ख़ानों से बरामद होता है।
मियाँ दाराब अली खाँ ख़्वाजासरा, जो लखनऊ के एक मुहल्ले सराय माली खाँ में रहता था, बेगम के महल का ड्योढ़ीदार था । सन् १७८४ में आसफ़ुदौला के वक्त में जब मशहूर अकाल पड़ा था तो 'कितने ही किसान और मज़दूर भूखों मरने लगे थे।
ऐसे में गरीब जनता शीश- महल के दौलतख़ाने के बाहर इकट्ठी होकर अपने सख़ीदाता नवाब के नाम की दृहाई देने लगी। रियाया के अनुरोध पर बेगम शम्सुस्तिसा को भी राजवधू होने के नाते महलसराए सुल्तानी के बारजे पर चिलमन तक आना पड़ा। उन्हें मालूम हो चुका था कि जनता को इस वक़्त खाने-पीने की सख्त मुसीबत उठानी पड़ रही है ।
आपने महल के नीचे खड़ी भीड़ का सलाम क़बूल फ़रमाया और फिर बड़े प्यार से पूछा, “क्या तुम लोग खाने को कुछ भी नहीं पाते हो?” आलम ने जवाब दिया, “मालकिन, कुछ भी नहीं ।” ऊपर से फिर सवाल पूछा गया, “अरे क्या, कुछ भी नहीं यानी क्या हलवा-पूरी भी नहीं खा सकते ?
इतना सुनते ही भीड़ दुह्ई दे-देकर रोने लगी और आसफ़ुद्दौला ने बेगम को वहाँ से फ़ौरन रफ़ा-दफ़ा करवा दिया | उसके बाद बड़े इमामबाड़े का नक्शाबनाया जाने लगा और इस तरह २२,००० लोगों की रोज़ी-रोटी का एक अजीब इन्तजाम हुआ।
विधवा होने के बाद अवध के प्रथम बादशाह ग्राजीउद्दीन हैदर के अह॒द में बेगम शम्सुन्निसा परताप गंज की अपनी ही जागीर में रहती थीं। इलाहाबाद में उनका इन्तक़ाल हुआ और फिर उनकी लाश को लखनऊ लाकर दफ्ताया गया।
कुदसियामहल--ख़ाली दामन भरते हाथ
लखनऊ के इलाक़ाए छतर मंजिल में रहनेवाली बेगमों में क़ुदुसिया महल जेसी गरीबपरवर और दिलदार बेगम दूसरी नहीं हुई । बादशाह नसीरुद्दीन हैदर की इस महबूब मलिका की सखावत के डंके सारे शहर में बजते थे। उनके दरे-दौलत से कोई कभी खाली हाथ नहीं लौठता था ।
इस दरियादिली की एक वजह यह भी थी कि बेगम एक मासूली घर की लड़की थी और उन्हें गरीबी का दुख-दर्दे 'मालूम था ।
बेगम को वो दिन याद आ गए जब लड़कपत में उनके मकान में एक नजूमी मीर अनवर अली इत्तके बाप से मिलने आए -थे। बेगम बचपन में बिस्मिल्ला खानम थीं और उन्ही के हाथों मकान के अन्दर से गिलौरियाँ बाहर भेजी गई आीं। जब ड्योढ़ी में आकर उसने मीर साहब की तरफ़ पान के बीड़े बढ़ाए तो पकड़कर लकीरें पढ़ता शुरू कर दिया ।
इसीं बीच घर के बड़े लोग चुके थे। हाथ देख चुकने के बाद मीरसाहब ने बड़े अदब से बिस्मिल्ला ख़ानम को आदाब बजाया और इतना ही कहा, “बेटी, खूदा जब आपको मलिकाः का मतेबा दे तो इस ग़रीब को न भूल जाइयेगा!” घरवाले उसे बेसिर-पैर की' बात समझकर मज़ाक़ उड़ा बैठे थे मगर अब तो सच क़्दसियामहल की निगाहों मे मुस्करा रहा था|
फिर क़्द्सियामहल ने बड़ी इज्जत से उस बूढ़े ज्योतिषी मीर अनवर अली को महल में बुलवाया और दस' हज़ार की थैली नजर देकर उन्हे सलाम अता किया। क़दसियामहल की इस परोपकारी दास्तान का कोई अन्त नही है ।
हर रोज़ सुबह सवेरे जब उनके महल “कोठी दर्शन विलास' के दारोग्रा क्रादिर अली खाँ साहब ५०० रुपये बेगम की तरफ़ से फ़क़नीरों और गरीबों में बाँट दिया करते थे तब बेगम साहिबा दस्तरख्वान पर नाश्ते के लिए बैठती थीं ।
शाही खजाने की तरफ़ से उनके बावर्चीखाने का खर्च १४०० रुपये रोज़ बाँधा गया था और उसमें से भी एक बड़ा हिस्सा मोहताजों को खिला दिया जाता था । लखनऊ का एक नामी रंगरेज, जो क़ुदसियामहल के दुपट्टे रंगता था, एक दिन महल के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया।
उसने अपनी बेटी की शादी के लिए दरख्वास्त की । ज़रूरत पूछने पर उस बेचारे ने सिफ़े चार सौ रुपयों की फ़रमाइश की । इस बात पर क़ुद्सियामहुल को बेहद रंज और अफ़सोस हुआ और हुक्म दिया कि आज से दर्शन विलास” की ड्योढ़ी पर सूरत मत दिखाना । इधर रंगरेज़ के होश गुम हो गए कि आख़िर मुझ ग़रीब से ऐसी कौनसी ख़ता हो गई ।
बाद में जाहिर हुआ, बेगम इस बात पर नाराज़ हो गई हैं कि इस क़दर कम रक़म के लिए हमारे आगे दामन क्यूँ फैलाया गया और क्या ये हमारी तौहीन नहीं है जबकि इतनी छोटी जरूरत तो शहर का कोई मामुली आदमी भी रफ़ा कर सकता हैं। फिर उसे महल से कई हज़ार रुपये बेटी की शादी के लिए देकर बिदा किया गया।
एक दिन एक नौशा अपनी नयी ब्याही दुल्हन लिए उनकी महलसरा के पास से गुजरा | बरात में रोशन चौकी थी, बाजे भी बज रहे थे | सब कुछ था मगर ग़रीब की बेटी थी, इसलिए दहेज कुछ भी नहीं था । जब महल की कनीज़ों ने बेगम को कुल हाल बताया तो आपने फ़रमाया---हमारे महल में दुल्हन को दो घड़ी के लिए रोक लिया जाए।”
अब क्या था, चोबदार और खिदमतगार इधर- उधर दौड़ रहे थे । कहारों ने दुल्हन की पालकी कोठी “दर्शन विलास' की दहलीज़ में लाकर रख दी । ख़ादिमाएँ दुल्हुत को गोद मे उठा लाई और दीवानखाने में लाकर बिठा दिया जहाँ क्ुद्सियामहल मसनदनशीत थीं । चन्द इशारों में दुल्हन को जड़ाऊ जेवरों से लाद दिया गया और नौशे को तमाम नज़रें दिला दी गईं ।
जब कोठी “दर्शन विलास” से निकलकर दूल्हा और दुल्हन आगे बढ़े तो बश्रात. का कायापलट हो चुका था क्योंकि वो गरीब अब मालामाल हो चुके थे। नवाब क़ुद्सियामहल ने बादशाह की एक बात दिल में लग जाने पर संखिया चाट कर अपनी जान दे दी। ये २१ अगस्त, १८३४ की बात है। उन्हें लखनऊ स्थित इरादतनगर कबला में दफ़्त कर दिया गया ।
मलिका
किश्वर साहिबा--परदे से परदेस तक
अवध के चौथे बादशाह सुरैयाजाहु अमजद अली शाह की खास महल नवाब ताजआरा बेगम कालपी के नवाब हसीमुद्दीत खाँ की बेटी थीं और मलिका किश्वर उनका खिताब था। नवाबी दौर में मलिका किश्वर जैसी शमंदार और सलीक़ामन्द बेगम का जवाब नहीं मिलता है । मिर्जा क़ैसर जमां वाजिद अली शाह उन्हीं की सन््तान थे ।
मलिका किश्वर के बारे में मशहूर है कि सुबह सोकर उठने पर जब वो ठण्डे' और गुनगुने पानी के हौज़ पर उतरती थी तो वहाँ उन्हें वही बूढ़ी ख़ादिमाएँ नह- लाती थीं जो उन्हें क्वॉरेपन से नहलाती आई थीं ।
उन ख़ादिमाओं के अलावा किसी भी औरत ने उन्हें चेहरे और हाथों के अलावा नही देखा था। अवध के इतिहास में सिर्फ़ मलिका किश्वर ही थी जिन्होंने ख्वाजासराओं (नपुंसकों) की खिदमत को कभी पसन्द नहीं किया इसलिए उनके महल में कनीज़ों के अलावा और किसी का गुजर नहीं था। उनकी ड्योढ़ी के बरामदों में पिस्तौल बाँधकर कुछ तातारी औरतें टहलती रहती थी और सदर दरवाजे पर करौलीबन्द पहरे- दार तुकिनें तेनात रहती थीं ।
मलिका किश्वर की शानो-शौकत का ये आलम था कि वो लखनऊ में ही अलग-अलग मौसम में अलग-अलग स्थानों पर रहती थीं। जाड़े में छतरमंज़िल, गर्मियों में चौलक्खी कोठी और बरसात मे हवेली बाग़ द्वारकादास उनके निवास- स्थान हुआ करते थे ।
अगर कभी चमन में घूमने निकलती थीं तो सौ-दो सौ खादिमाएँ उनके पीछे चलती थीं। सवेरे उनके दस्तरख्वान पर पच्चीस तरह की बेहतरीन जायकेदार तश्तरियाँ के लिए चुनी जाती थीं मगर मलिका किश्वर उनमें से पाँच लुक्मे खाकर, चाँदी के गिलास में मोतियों का शरबत पीकर उठ जाती थीं।
उसके बाद वो तोशहख़ाने (ड्राइंगरूम) में तशरीफ़ लाती थीं जहाँ दरपर्दा बैठकर चिलमन के उस पार बैठे मौलवी साहब से कलामेपाक सुनती थीं ।
दोपहर के खाने पर जब वो बादशाह के साथ बैठती थीं तो महल के सदर फ़ाटक पर सारे शहर को इस बात की इत्तिला देने के लिए एक तोप दागी जाती थी और बराबर शहनाई बजती रहती थी और एक बार जो पोशाक जिस्म छू लेती थी उसे दुबारा पहनने का तो कोई सवाल ही नहीं था। वह कपड़े बाँदियों और ख़वासों में बाँठ दिए जाते थे । मगर उससे पहले' उन पर बना हुआ सच्चाः पद गंगा-जमुती काम उधेड़ दिया जाता था।
इसके
साथ ही सिलाई की बखिया भी उधेड़ दी जाती थी ताकि उनके जिस्म की रूपरेखा कभी आँकी न जा सके । बेगम चढ़ती रात जब अपनी झुवाबगाह में जातीं तो अक्सर क्रिस्सागो औरतों का एक झुण्ड कोनिश बजाकर फ़शे पर बठ जाता था।
वो क्रिस्सा कहने वालियाँ मलिका के मूड के मुताबिक कहानियाँ सुनाती थी। मलिका किश्वर को जेवरात में जवाहराती गहने ज़्यादा पसन्द थे । बेवा हो जाने के बाद भी उन्होंने सिर्फ़ सुहाग की नथ से ही परहेज़ किया वरना बाक़ी जेवर अक्सर उनके जिस्म की जीनत बन जाया करते थे ।
मलिका किश्वर के बारे में यह् बात भी मशहूर है कि उन्होंने विना सख्त जरूरत के कभी' अपने दरे-दौलत से बाहर क़दम नहीं रखा था ।लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि अपने बेटे वाजिद अली शाह का तख्त-ओ-ताज वापस माँगने के लिए उन्हें एक दिन महारानी विक्टोरिया के पास लन्दन तक जाना पड़ेगा ।
उसी असफल यात्रा की वापसी के दौरान मलिका किश्वर का देहान्त २१ फरवरी १८५७ को हो गया । पेरिस में मरने वाली अवध की इस मलिका को पेरिस, (फ्रांस) की मिट्टी नसीब हुई।
Begum Hazrat Mahal: 1857 के संग्राम में सेना का नेतृत्व करने वाली पहली महिला,
'महक परी' से बनीं 'बेगम हजरतमहल '
बेगम हजरत महल
1820 ई. में अवध प्रांत के फैज़ाबाद जिले के एक छोटे से गांव में बेहद गरीब परिवार में जन्मी थीं। बचपन में उन्हें सब मुहम्मदी खातून (मोहम्मद खानम) कहकर पुकारते थे। बेगम हजरत महल की परिवार की दयनीय हालत इतनी खराब थी कि उनके माता-पिता उनका पेट भी नहीं पाल सकते थे। जिसके कारण उन्हें राजशाही घरानों में डांस करने पर मजबूर होना पड़ा।
Begum Hazrat Mahal |
वहां पर उन्हें शाही हरम के परी समूह में शामिल कर लिया गया, जिसके बाद वे ‘महक परी’ के रूप में पहचानी जाने लगी। एक बार जब नवाब वाजिद अली शाह ने उन्हें देखा तो वे उनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गए और उन्हें अपने शाही हरम में शामिल कर लिया और उन्हें अपनी बेगम बना लिया। इसके बाद उन्होंने बिरजिस कादर नाम के पुत्र को जन्म दिया। फिर उन्हें ‘हजरतमहल महल’ की उपाधि दी गई।
Begum Hazrat Mahal |
नवाब
वाजिद अली शाह के बंदी बनने के बाद संभाली गद्दी
काफी संघर्षों भरा जीवन जीने के बाद नवाब की बेगम बनने पर उनके जिंदगी में खुशहाली आई, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई। सन् 1856 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध राज्य पर कब्जा कर लिया और ताजदार-ए-अवध नवाब वाजिद अली शाह को बंदी बना लिया।
Nawab Wajid Ali Shah |
जिसके बाद बेगम हजरतमहल महल ने अपने नाबालिक बेटे बिरजिस कदर को राज गद्दी पर बैठाकर अवध राज्य की सत्ता संभाली। 7 जुलाई,
1857 ई. से उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ रणभूमि में उतर गई। वे एक कुशल रणनीतिकार थी, जिनके अंदर एक सैन्य एवं युद्ध कौशल समेत कई गुण विद्यमान थे। उन्होंने अंग्रेजों के चंगुल से अपने राज्य को बचाने के लिए अंग्रेजी सेना से वीरता के साथ डटकर मुकाबला किया था।
अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह की 365 बेगमें बतायी जाती हैं
लेकिन चूंकि तब तक नवाबी शान-व-शौकत का अन्त हो चुका था इसलिए उनकी चर्चा बहुत प्रासंगिक नहीं है। हां,
1857 के संग्राम में अंग्रेजों को नाकों चने चबवा देने वाली उनकी बेगम हजरतमहल को इतिहास कभी नहीं भुला सकता।
The End
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