Tuesday, 11 July 2023

दो गज जमीन: एक आदमी को कितनी जमीन चाहिए? विशव के महान कहानी कार लियो टॉल्स्टॉय की एक कहानी

दो गज जमीन: एक आदमी को कितनी जमीन चाहिए? विशव के महान कहानी कार लियो टॉल्स्टॉय की एक कहानी

एक बार रूस में दो बहनें रहती थीं. बड़ी बहन की शादी शहर में रहने वाले एक अमीर व्यापारी से हुई थी जबकि छोटी बहन की शादी गाँव में रहने वाले एक किसान से हुई थी.

 

एक बार बड़ी बहन अपनी छोटी बहन से मिलने उसके गाँव आई.

फुर्सत के पलों में जब दोनों बहनें बतियाने बैठीं तो बड़ी बहिन अपनी अमीरी की शेखी बघारते हुए कहने लगी - "शहर में हम बड़े ठाठ से रहते हैं. बड़ा सा घर, बाग़ बगीचे, सुन्दर नए नए फैशन के कपड़े, खाने को ढेरों नए नए स्वाद वाली वस्तुएं, तमाशे, थिएटर, घूमने को बहुत सारी जगहें! सच में बहुत आनंद आता है!! मैं तो कहती हूँ हमारा जीवन तुम्हारे इस गाँव के जीवन से बहुत बेहतर है."

 

गाँव में रहने वाली छोटी बहन को बड़ी बहन की बात चुभ गई.

वह भी अपने ग्रामीण जीवन की तारीफ करते हुए बोली - "ये सच है कि गाँव का जीवन उतना सुन्दर और स्वच्छ नहीं है जितना आपका शहर में है. हमें कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ती है लेकिन हमारा जीवन शांत और सुरक्षित है.

 

जमीन हमें हमेशा खाने को पर्याप्त दे देती है जबकि शहर में अमीर से गरीब होने में वक़्त नहीं लगता है. तुम्हारे पति को जुए और शराब की लत लग सकती है. उसे कोई प्रेमिका मिल सकती है. लेकिन गाँव में ऐसा कोई प्रलोभन नहीं है. मेरे पति मेहनतकश इंसान हैं और बुरी चीज़ों से दूर हैं."

छोटी बहन का पति, जिसका नाम पखोम था, वहीं पास ही में ओसारे में लेटा हुआ था और दोनों बहनों की बातें सुन रहा था.

 

वह अपनी पत्नी की बात सुनकर सोचने लगा कि उसकी पत्नी कुछ गलत नहीं कह रही है. गाँव का जीवन सचमुच शहर की तुलना में बेहतर है लेकिन उसके पास बस एक ही कमी है और वह है जमीन. अगर उसके पास थोड़ी और जमीन होती तो उसका जीवन और भी सुख शान्ति से भरा होता.

 

फिर एक दिन उसने सुना कि उसके इलाके का जमींदार अपनी जमीन किसानों को बेच रहा है.

खुद उसका पडोसी पचास एकड़ जमीन का सौदा करके आया था. पखोम ने अपनी पत्नी से कहा - "देखो हमारा पडोसी जमींदार से जमीन खरीद रहा है. हमें भी कुछ जमीन खरीदनी चाहिए."

 

अब उसने जमीन के लिए पैसों का इंतजाम शुरू किया. कुछ पैसे अपने साले से उधार लिए. अपने बेटे को दूसरे किसानों के यहाँ काम पर लगाकर वहां से पेशगी रुपये लिए और पच्चीस एकड़ जमीन का टुकड़ा खरीदने में कामयाब रहा जिसपर भोजपत्र के पेड़ों का एक छोटा सा झुरमुट था.

 

अब पखोम बहुत खुश था. इस बार उसके यहाँ भरपूर फसल हुई जिससे उसने अपना सारा कर्जा चुका दिया.

अब उसके घर में शान्ति और ख़ुशी का माहौल था. लेकिन ये माहौल ज्यादा दिन नहीं टिक सका. अक्सर पड़ोसियों की गायें उसके खेतों में जाती थीं और फसलों को नुक्सान पहुंचाती थीं. उसने किसानों से अपने मवेशियों को रोकने के लिए कहा लेकिन ज्यादातर ने सुना-अनसुना कर दिया.

एक दिन वह जुर्माना भरने के लिए अपने दो पड़ोसियों को अदालत में खींच ले गया. नतीजा ये हुआ कि पडोसी नाराज हो गए.

 

एक दिन सुबह पखोम ने पाया कि किसी नाराज़ पडोसी ने उसके प्यारे भोजपत्र के पेड़ों को काट डाला है. इस घटना ने उसे बहुत दुखी कर दिया. उसका शक़ अपने एक पडोसी साइमन पर गया और वह उसके खिलाफ अदालत में पहुँच गया. लेकिन उसके पास कोई पुख्ता सबूत नहीं था इसलिए जजों ने साइमन को छोड़ दिया.

इससे पखोम को इतना गुस्सा आया कि वह जजों को ही भला बुरा कहने लगा. कुल मिलाकर पखोम के लिए गाँव में रहना काफी अप्रिय और दूभर हो गया.

 

एक रोज, एक यात्री किसान ने रात बिताने के लिए पखोम के घर में जगह मांगी. पखोम ने उसका स्वागत किया. रात्रि-भोजन के दौरान किसान ने पखोम से कहा - "मैं लोअर वोल्गा से आया हूँ. वहाँ बहुत अच्छी जमीन है और सस्ती भी. मेरे गाँव के बहुत से लोग वहीं जाकर बस गए हैं और अमीर हो गए हैं. "

 

किसान की बात सुनकर पखोम ने सोचा कि मैं यहाँ गरीबी में क्यों रहूं. क्यों वोल्गा में बसकर मैं भी अपनी स्थिति बेहतर कर लूं. और उसने एक बार वोल्गा जाकर वस्तुस्थिति का पता लगाने का निश्चय कर लिया.

 

अगले पतझड़ में पखोम वोल्गा में था. उसके घर रुकने वाले अजनबी किसान ने जैसा बताया था, वहाँ सब वैसा ही था. बहुत अच्छी और सस्ती जमीन थी.

 

पखोम ख़ुशी ख़ुशी घर लौटा. आकर अपनी सारी जमीन और संपत्ति बेचीं और बसंत ऋतु के आते आते अपने परिवार को लेकर हमेशा के लिए वोल्गा चला गया.

 

वोल्गा के किसानों की पंचायत ने पखोम का जोरदार स्वागत किया. जितने पैसे वह लाया था उतने में उसे पहले के मुकाबले पांच गुना अधिक जमीन मिल गयी. अर्थात अब वह 125 एकड़ जमीन का मालिक बन गया था. उसने वहीं अपना घर बनाया, बैल खरीदे और खेती करना शुरू कर दिया.

सबकुछ पहले के मुकाबले अच्छा चल रहा था लेकिन कुछ ही समय बाद पखोम एक बार फिर से खुद को असंतुष्ट अनुभव करने लगा.

 

बात दरअसल यह थी कि पखोम के खेत इकट्ठे नहीं थे वे दूर दूर फैले हुए थे. उसे एक खेत से दूसरे खेत जाने में कठिनाई होती थी. उसने दूसरे अमीर किसानों को देखा था जिनके खेत इकट्ठे थे और वे अपने खेतों के बीच मकान बनाकर आराम से रहते थे और खेती करते थे.

 

उसने सोचा कि अगर मैं भी ऐसी ही इकट्ठी जमीन खरीद सकूँ और उसमें अपना मकान बनाकर रह सकूँ तो जीवन में चैन आये. संयोग से उसे एक किसान मिल गया जो अपनी बारह सौ एकड़ जमीन एक हजार रूबल में बेचने को तैयार था. पखोम ने उस किसान से जमीन की बात कर ली और रुपयों का इंतजाम भी कर लिया .

लेकिन इससे पहले कि सौदा हो पाता, एक अजनबी व्यापारी रात बिताने के लिए पखोम के घर रुकने गया...


रात को बातचीत के दौरान व्यापारी ने बताया - "मैं बहुत दूर बश्किर प्रदेश से आया हूँ. वहाँ के लोग बहुत ही अच्छे और मिलनसार हैं. उनके पास इतनी जमीनें हैं कि उन्होंने मुझे मात्र एक हजार रूबल में बारह हजार एकड़ जमीन बेच दी. इतनी सस्ती जमीन धरती पर शायद ही कहीं मिले. और जमीन भी कैसी, एकदम सोना उगलने वाली उपजाऊ, जिसके बगल में ही नदी बहती है."

 

व्यापारी की बात सुनकर पखोम ने सोचा कि मैं यहाँ बारह सौ एकड़ के लिए एक हजार रूबल क्यों दूँ जब मुझे इतने ही पैसों में दस गुना ज्यादा जमीन मिल सकती है. उसने जमीन का सौदा स्थगित किया और व्यापारी की बातों की सच्चाई पता लगाने के लिए बश्किर देश जाने का निश्चय कर लिया.

 

अपने परिवार को वहीं छोड़ और एक विश्वस्त नौकर को साथ लेकर पखोम बश्किर देश की ओर निकल पड़ा. रास्ते में पड़ने वाले एक शहर से उसने बश्किर वासियों के लिए कुछ उपहार खरीदे और कुछ दिनों में वहाँ पहुँच गया.

 

व्यापारी ने जैसा बताया था, बश्किर को उसने उससे बढ़कर ही पाया. वहाँ के लोग बड़े खुशमिजाज और लापरवाह किस्म के थे. उन्होंने पखोम का बड़े ही दोस्ताना ढंग से स्वागत किया. पखोम ने भी साथ लाये उपहार उन लोगों को बांटे.

 

रात में उन लोगों ने पखोम को एक आरामदायक तम्बू में ठहराया और पूछा- "आप इतनी दूर से आये हैं, बताइये हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?"

 

पखोम ने कहा - "मैं यहाँ आप लोगों से जमीन खरीदना चाहता हूँ. मेरे गाँव की मिटटी खराब हो गई है अब उपजाऊ नहीं रही. और जमीन भी मेरे हिसाब से बहुत कम है."

 

बश्किरों ने कहा - "हम आपको जितनी चाहिए उतनी जमीन दे देंगे लेकिन इसके लिए हमारे सरदार की अनुमति आवश्यक होगी. वो आते ही होंगे, उनसे पूछकर ही हम कोई जवाब दे सकते हैं."

 

तभी सिर पर फर की टोपी पहने एक बुजुर्ग व्यक्ति वहाँ पहुंचा. वही सरदार था. उसने कहा - "अगर आपको जमीन चाहिए तो जितनी चाहिए ले सकते हैं. हमारे पास काफी जमीन है."

 

पखोम ने खुश होते हुए सरदार को धन्यवाद दिया और कीमत के बारे में पूछा. सरदार ने कहा - "हमारी एक ही कीमत है. एक दिन का एक हजार रूबल."

पखोम को कुछ समझ में नहीं आया. उसने पूछा - "एक दिन का एक हजार रूबल? भला दिन का जमीन की कीमत से क्या ताल्लुक?”

 

सरदार ने समझाया - "तुम्हारे पास वो सारी जमीन हो सकती हो जितनी तुम एक दिन में पैदल चलकर घेर सकते हो. उसकी कीमत होगी एक हजार रूबल."

 

इस अजीबोगरीब बात से हैरान पखोम ने कहा - "लेकिन एक दिन में तो मैं जमीन के बहुत बड़े टुकड़े पर घूम सकता हूँ ... तो क्या वो सारी मेरी हो जायेगी."

 

"बिलकुल ...” सरदार ने कहा. "लेकिन शर्त ये होगी कि जहां से तुम चलना शुरू करोगे, तुम्हें शाम होने से पहले उसी स्थान पर वापस आना होगा. अगर नहीं सके तो तुम्हारे एक हजार रूबल जप्त हो जायेंगे और जमीन भी नहीं मिलेगी."

 

पखोम को लगा कि जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. उसने तुरंत सौदे के लिए हामी भर दी और तय किया कि वह अगली सुबह जमीन पर घूमने के लिए निकलेगा.

 

उस रात पखोम सो नहीं सका. वह हिसाब लगाता रहा कि गर्मी के एक लम्बे दिन वह पचास मील तो चल ही सकता है. फिर वह सोचने लगा कि इतनी बड़ी जमीन में कुछ खराब जमीन भी हो सकती है. ऐसी जमीन को वह बटाई पर दे देगा और अच्छी जमीन पर खुद खेती करेगा. खेती के लिए कितने जोड़ी बैल लगेंगे कितने नौकर रखने होंगे आदि सोचते हुए भोर के ठीक पहले उसकी आँख झपक गई.

 

नींद में उसने सपना देखा. उसने देखा कि बश्किरों का सरदार तम्बू के बाहर बैठा जोर जोर से हंस रहा था. पखोम उसके पास जाकर पूछता है - "आप किस पर हंस रहे हैं?” तभी पखोम को वहाँ एक व्यापारी बैठा दिखाई देता है. वह व्यापारी के पास जाकर पूछता है - "आप यहाँ कब से हैं?” तभी व्यापारी वोल्गा के किसान में बदल जाता है.

 

पखोम इधर - उधर देखता है तो एक लाश पड़ी दिखाई देती है. वो डरते-डरते उस लाश के पास जाता है. देखता है कि ये लाश तो उसी की है. पखोम की. और उसकी आँख खुल जाती है. वह तुरंत खड़ा हुआ और अपने दुःस्वप्न को भूलने की कोशिश करते हुए उसने अपने नौकर और बश्किरों को जगाया और कहा - "चलो, चलते हैं. अब मेरे जमीन पर घूमने का समय हो गया. सूरज जल्द ही उगने वाला है."

 

बश्किर लोग पखोम को लेकर एक पहाड़ी के पास गए. बुजुर्ग सरदार ने कहा - "यह सारी जमीन हमारी है. आप इसमें से जितना बड़ा टुकड़ा चाहें उतना ले सकते हैं. "

 

फिर उसने अपनी फर की टोपी उतार कर जमीन पर रख दी और बोला - "यह आपका निशान है. आपको यहाँ से चलना आरम्भ करना है और शाम होने तक यहीं वापस आना है. जितनी जमीन पर आप चलेंगे वो जमीन आपकी होगी. याद रखिये, यदि आप सूर्यास्त तक इस जगह पर वापस नहीं लौटे तो आप सौदा खो देंगे." 

पखोम ने अपना पैसा टोपी में रख दिया और जैसे ही सूरज की पहली किरण दिखाई दी, पूरब दिशा की ओर चल पड़ा. उसके कंधे पर एक फावड़ा था जमीन पर अपने घूमने के निशान बनाने के लिए. वह चलता रहा, चलता रहा और जगह जगह पर निशान बनाता रहा.

 

जितना जितना पखोम आगे बढ़ता जाता था, जमीन और और सुन्दर और अच्छी दिखाई देती जाती थी. पखोम ने सोचा कि अभी लौटने के लिए बहुत जल्दी है. अभी मैं और भी आगे तक जाकर अच्छी अच्छी जमीन अपने लिए सुरक्षित कर सकता हूँ. और वह और भी तेजी से आगे बढ़ने लगा.

 

सूरज सिर पर झुलसा रहा था और वह पसीने से तरबतर था. उसने पीछे मुड़कर देखा तो वह पहाड़ी, जहां से वह चला था, उसे मिटटी के एक ढेले के समान छोटी सी दिखाई दी. वह मुड़ा ताकि अपनी जमीन को चौकोर कर सके. भूख लगने लगी थी. उसने जल्दी जल्दी थोडा सा खाया और फिर से चल दिया. अब उसका शरीर बुरी तरह थक चुका था लेकिन वह आराम करने की बिलकुल नहीं सोच रहा था.

 

अब उसे अपनी जमीन की तीसरी भुजा चलकर बनानी थी. लेकिन उसने देखा कि पहली दो भुजाएं वह कुछ ज्यादा ही लम्बी बना चूका है. अब उसे तीसरी भुजा छोटी बनानी होगी नहीं तो वह समय पर वापस नहीं पहुँच पायेगा.

 

अब सूर्यास्त का समय नजदीक रहा था. उसने अपनी चाल तेज कर दी. कुछ दूर तेज चलने के बाद उसने दौड़ना शुरू कर दिया क्योंकि सूर्य बड़ी तेजी से अस्ताचल की ओर जा रहा था. पखोम को घबराहट सी होने लगी. वह जल्दी से चौथी भुजा की ओर मुड़ा. अब उसके और शुरूआती बिंदु के बीच करीब पंद्रह मील की दूरी थी. उसने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया. सीधे पहाड़ी की ओर.

 

अब वो बेतहाशा दौड़ रहा था. टोपी अभी भी बहुत दूर थी और वो बहुत थक गया था. उसके पैरों में बहुत दर्द हो रहा था और वे छालों और खरोंचों से भर गए थे.

 

"मुझे और जल्दी करनी चाहिए", उसने खुद से कहा, "मुझे इतनी दूर नहीं जाना चाहिए था अगर मैं समय पर नहीं पहुंचा तो मैं जमीन और पैसे दोनों खो दूंगा." और एक आखिरी प्रयास के रूप में उसने अपनी पूरी शक्ति दौड़ने में झोंक दी.

 

अब उसे लगने लगा कि वह समय पर नहीं पहुँच पायेगा. उसे इतनी दूर नहीं जाना चाहिए था. फिर भी वह पूरी शक्ति से दौड़ा जा रहा था. वह पहाड़ी की तलहटी में पहुँच चुका था. सूरज अस्ताचलगामी हो रहा था. टोपी अभी भी दिखाई नहीं दे रही थी.

 

अब उसे रोना आने लगा था. उसे लगा कि वह पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है. उसके हाथ से जमीन भी गई और पैसे भी. सहसा उसे बश्किरों की पुकारें सुनाई देने लगीं. वे टोपी के पास खड़े हाथ लहरा रहे थे और उसे प्रोत्साहित कर रहे थे.

 

पहाड़ी की छोटी पर सूरज अभी भी पूरी तरह से डूबा नहीं था. उसने एक बार फिर जोर लगाया. अपनी आखिरी ताक़त के साथ. उसने बुजुर्ग सरदार को देखा. वो हंस रहा था. और वो गिर पड़ा. फिर उठ सका. लेकिन उसका हाथ टोपी तक पहुँचने में कामयाब रहा.

 

बश्किर लोग जोर से चिल्लाये - "तुमने अच्छा किया ... तुमने बहुत सारी जमीन जीत ली है." लेकिन पखोम को कुछ भी सुनाई नहीं दिया.

पखोम का नौकर दौड़ा दौड़ा आया और उसने मालिक को उठाना चाहा लेकिन वह उठ सका. उसके मुंह से खून निकल रहा था. वह मर चुका था....

 

नौकर ने फावड़ा लिया और अपने मालिक के लिए कब्र खोदी. कुल दो गज जमीन उसके लिए काफी हुई.

The End








 
























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