भारत में चाय की लोकप्रियता 1920 से फ़ैलनी शुरू हुई, जब भारत के कई हिस्सों में रेलवे लाइन पहुंची. अंग्रेज़ों ने चाय का काफ़ी प्रचार किया.
उन्होंने मुफ़्त में चाय बांटी और रेलवे स्टेशन भारत की ऐसी शुरुआती जगहें थीं, जहां कोयले के चूल्हे और अल्युमिनियम की केतली में पकी कुल्हड़ वाली चाय बिकनी शुरू हुईं.
आज के समय में चाय दुनिया का दूसरा सबसे ज़्यादा पिया जाने वाला पेय पदार्थ है, पहला दर्जा पानी के पास है. चाय ने दुनिया की राजनीति, इतिहास, भूगोल, बातचीत करने के तरीके तक को बदला है.
समुद्र में फेंकी गईं, 342 चाय की पेटियां |
1773
की बोस्टन टी पार्टी की क्रांति से लेकर
2014 चुनावों में चाय पर चर्चा तक चाय तमाम क्रांतियों और बगावतों की साक्षी रही है. ‘कैमीलिया सिनेंसिस’ वनस्पतिक नाम वाले पौधे की पत्तियों के लिए पूरी दुनिया में दो ही नाम प्रचलित हैं. एक ‘चा’ और दूसरा ‘टी’.
दुनिया भर में बाकी सारे नाम इन्हीं दोनों नामों के बदले हुए रूप हैं. आपके भौगोलिक क्षेत्र में इसे चाय कहा जाएगा या टी यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां तक यह समुद्र के रास्ते पहुंची या ज़मीन के रास्ते.
केतली में पकी कुल्हड़ वाली चाय |
पानी
में गिरी पत्तियां
ईसा से
2732 साल पहले की बात है. चीन में शेन नांग नाम के एक राजा हुए. सर्दियों के महीने में एक बार शेन नांग गरम पानी उबाल रहे थे. तभी कुछ पत्तियां पानी के बर्तन में गिर गई. शेन नांग को भीनी-भीनी सुगंध आई तो उन्होंने कौतूहल वश पानी को पी लिया.
उन्हें पीकर उन्हें इतना अच्छा महसूस हुआ कि आगे खोज के लिए उन्होंने उन पत्तियों का नाम रख दिया, ‘चा’. मेंडेरिन भाषा में इस शब्द का अर्थ खोज़ या तहक़ीक़ात से है.
शेन नांग की कहानी को चीन में चाय की खोज़ के तौर पर देखा जाता है |
ऐतिहासिक रूप ये कहानी कितनी सही है ये कहा नहीं जा सकता.
लेकिन इतना तय है कि चाय की शुरुआत चीन से ही हुई थी. एक और कहानी है जो बोधि धर्म और भारत से जुड़ी हुई है. चीन से चाय सबसे पहले 1610 में डच और पुर्तगालियों के ज़रिए यूरोप पहुंची.
लंदन को चाय का ज़ायक़ा मिला
1658 में ब्रिटेन के अख़बारों में पहली बार चाय का इश्तिहार छपा. तब इसे ‘टे’ नामक ड्रिंक के दौर पर बेचा जाता था.
चाय
की मांग में उछाल आया जब ये पहुंची शाही परिवार तक.
1662 में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय की शादी एक पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुई. राजकुमारी अपने साथ एक खास चीज़ लेकर लंदन पहुंची थी, चीन की चाय. जिसका एक बक्सा वो हमेशा अपने साथ रखती थी. उन्होंने नियम शुरू किया. और ब्रिटेन के शाही दरबार में कुलीन लोगों को चाय पेश की जाने लगी. तब से इसे शाही पेय के रूप में जाने जाना लगा.
लेकिन आने वाले कई सालों तक चाय सिर्फ़ एक स्टेटस सिम्बल बनी रही. चीन से आयात इतना महंगा पड़ता था कि केवल अमीर और उच्च वर्ग के लोग ही चाय को अफ़ॉर्ड कर सकते थे. सबसे निचले स्तर की चाय ख़रीदने के लिए भी एक आम मज़दूर को पूरे महीने की तनख़्वाह लगती.
1678
तक पुर्तगाली चाय के ट्रेड पर वर्चस्व रखते थे. उसके बाद ब्रिटेन भी इस ट्रेड में दाखिल हुआ और उसने चाय इंपोर्ट करना शुरू कर दिया. बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को एशिया और अफ़्रीका में ट्रेड की पर्मिशन मिली. तब चाय EIC
के लिए मुख्य कमॉडिटी हुआ करती थी.
ब्रिटिश काल के दौरान पटना में अफ़ीम की फ़ैक्टरी |
अफ़ीम
के बदले चांदी, चांदी के बदले चाय
जैसे-जैसे चाय की खपत बड़ी. ब्रिटेन में मांग बड़ती गई. लेकिन दिक़्क़त ये थी कि चाय सिर्फ़ चीन में पैदा की जाती थी. पैदा और जगह भी होती थी लेकिन प्रोसेसिंग आदि को ट्रेड सीक्रेट के तौर पर चीन में छुपाकर रखा जाता था.
चीन से चाय आयात के बदले ब्रिटेन को बदले में कुछ देना भी होता था. ब्रिटेन का मुख्य उत्पाद कपास था. जो भारत और अफ़्रीका में पैदा किया जाता था. चीन को कपास से मतलब था नहीं. क्योंकि चीन खुद का कपास उगा सकता था.
उन्हें चाहिए था सिल्वर यानी चांदी. जिसकी ब्रिटेन का पास भी कमी थी. ब्रिटेन के कुलीन परिवारों में चाय की खपत बड़ी तो वो शाही परिवार के पास भागे.
ब्रिटेन के राजा ने ब्रिटिश EIC से कोई रास्ता निकालने को कहा. ब्रिटिश EIC ने नशे की काट नशे से निकाली. उन्होंने भारत में अफ़ीम ख़रीदना शुरू कर दिया. और इन्हें ले जाकर चीन में बेचना शुरू कर दिया. बदले में ली चांदी.
ब्रिटेन से आए चाय के बक्सों को समंदर में फेंकते हुए अमेरिकी क्रांतिकारी |
अफ़ीम
के साथ फ़ायदा था कि जितना बेचो, उतनी मांग बढ़ती जाए.
अफ़ीम के कारोबार ने ब्रिटिश EIC के पास चांदी के ढेर लगा दिए. फिर इसी चांदी को ले जाकर EIC ने चीन से ही चाय ख़रीद ली. करीब 100 साल तक ये कारोबार यूं ही चलता रहा.
चीन
का राजा इससे बहुत परेशान हुआ. काहे कि चीन के लोग नशे के आदि हो रहे थे.
और चाय के कारोबार से जो चांदी आ रही थी. वो भी अफ़ीम के बदले चले जा रही थी. मतलब चीन के लिए सिर्फ़ घाटा ही घाटा. चीन ने इसका क्या जवाब दिया? ये जानने के पहले ग्लोब को आधा चक्कर घुमाकर अमेरिका चलते हैं. जहां क्रांति की आंच में अमेरिकियों ने चाय चढ़ा दी थी.
चाय
पर अमेरिका में हंगामा
क्या हुआ था अमेरिका में. 1770 तक अमेरिका ब्रिटेन का उपनिवेश था. वहां भी लोग चाय के शौक़ीन थे. 1721 में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून बनाया. जिसके तहत केवल ग्रेट ब्रिटेन से ही चाय का निर्यात किया जा सकता था. यानी अमेरिका को चाय चाहिए तो ब्रिटेन ही दे सकता है.
1756
में ब्रिटेन और फ़्रांस के बीच युद्ध छिड़ गया तो ब्रिटेन की माली हालत ख़राब होने लगी. पैसा चाहिए था, जिसका एक ही ज़रिया था, टैक्स. जो लगाया गया सबसे ज़्यादा उपयोग होने वाले उत्पाद पर. यानी चाय पर. इसका सबसे ज़्यादा असर अमेरिका के उपनिवेशों पर पड़ा.
जहां चाय के दाम अचानक बढ़ गए. ब्रिटेन की संसद में अमेरिकियों का तो कोई प्रतिनिधित्व नहीं था. इसलिए विरोध में अमेरिका में एक नारा चला,‘नो टैक्सेशन विदआउट रिप्रेसेंटेशन’. यानी प्रतिनिधित्व नहीं तो टैक्स नहीं.
चाय
की क़ीमत बड़ी तो अमेरिकियों ने भी नया हल निकाला. वो डच रूट, यानी हॉलेंड से चाय स्मगल करने लगे. मई 1773 में ब्रिटिश संसद ने ‘चाय अधिनियम’ पारित किया. इसके तहत ईस्ट इंडिया कंपनी को चाय के ट्रेड पर मोनोपॉली दे दी गई.
और
कंपनी डायरेक्ट चाय खरीदने-बेचने लगी. ब्रिटिश EIC ही चाय आयात कर अमेरिका भेजती. वहां कुछ चुनिंदा व्यापारियों को हक़ होता कि वो चाय आगे बेचते.
ये पूरा सिस्टम एक मोनोपॉली में तब्दील हो गया. जनता के लिए चाय सस्ती हो गई थी लेकिन व्यापारियों को चाय के ट्रेड में हिस्सा नहीं मिल रहा था. अमेरिकी व्यापारियों को लगा, यदि चाय के ट्रेड में मोनोपॉली शुरू हुई है तो बाकी जगह भी ऐसा ही हो सकता है.
समुद्र में फेंकी गईं, 342 चाय की पेटियां |
नवंबर 1773 में ब्रिटिश EIC का एक जहाज बॉस्टन हार्बर पहुंचा. बॉस्टन की एक लोकल पार्टी ने इसके विरोध में आयोजन बुलाया. जिसमें हजारों अमेरिकियों ने हिस्सा लिया.
पहले तो इन लोगों ने जहाज़ से सामान उतरने ही नहीं दिया. और फिर 16 दिसंबर 1773 को भेष बदल कर माल उतारने के बहाने जहाज पर चढ़ गए.
जहाज में लगभग 2000 चाय की पेटियां मौजूद थीं. इन लोगों ने चाय की 342 पेटियों को समंदर में फेंक दिया. इन पेटियों में 90 हजार पाउंड (45 टन) चाय रखी हुई थी. जिसकी क़ीमत लगभग 10 लाख डॉलर के करीब था.
आगे चलकर ये घटना अमेरिकन क्रांति की जनक साबित हुई. 1774 में अमेरिकन कांग्रेस का गठन किया गया. तमाम मसलों समेत व्यापारियों की मांगों को लेकर एक घोषणा पत्र तैयार किया गया. इसमें ब्रिटिश संसद के तहत लगाये गए कानून को हटाने और उनके अधिकार की भी मांग की गई थी.
कांग्रेस ने ब्रिटिश EIC का बहिष्कार करते हुए आगे व्यापार न करने का फैसला किया. अमेरिका की आज़ादी में बॉस्टन टी पार्टी एक लैंड मार्क मूव मेंट साबित हुआ. जिसकी सारी कहानी चाय के इर्द गिर्द बुनी गई थी.
ओपियम
वॉर्स
1820
तक चीन में भी कुछ यही हालात हो गाए थे. यूं तो चीन ब्रिटेन का उपनिवेश नहीं था. लेकिन ब्रिटेन के साथ उसका व्यापार बहुत बड़ा था. पहले हमने बताया कि किस प्रकार चीन का राजा देश में अफ़ीम की बड़ती खपत से परेशान हो चुका था. लोग नशे में बर्बाद हो रहे थे और देश का धन भी बर्बाद हो रहा था.
1839
में चीन के किंग साम्राज्य ने अफ़ीम के 20 हज़ार बक्से समंदर में बहा दिए. और ब्रिटेन के साथ चाय के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिए. बदले में ब्रिटेन ने युद्ध की घोषणा कर दी. 1839 और
1852 में चीन और पश्चिम के बीच दो युद्ध हुए. जिन्हें ओपियम वॉर्स के नाम से जाना जाता है.
चीन में अफ़ीम के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए हांग राजवंश ने अफ़ीम को नदी में बहा देने का आदेश दिया.
हालांकि इनके पीछे भी चाय की तलब ही थी. ब्रिटेन और चीन के बीच तनातनी के चलते भारत में चाय का कारोबार शुरू हुआ. चीन के साथ दिक्कतें
1820 से ही शुरू हो चुकी थी. इसलिए ब्रिटेन चाहता था किसी तरह चाय का उत्पादन चीन से बाहर ले ज़ाया जाए. लेकिन चाय को उगाने और प्रोसेस के तरीक़ा चीन में छुपाकर रखा जाता था.
भारत
में चाय का कारोबार
1823
में रॉबर्ट ब्रूस नाम के एक स्कॉटिश व्यक्ति भारत का दौरा किया. उद्देश्य था आसाम की सिंघपो जनजाति के मुखिया से मिलना. शिंघपो आसाम में चाय उगाया करते थे. रॉबर्ट ब्रूस को अहसास हुआ कि ये चाय चीन की चाय से क़िस्म में अलग है.
रॉबर्ट ब्रूस का 1824 में निधन हो गया. लेकिन उसके भाई चार्ल्स ब्रूस ने ये काम जारी रखा. ब्रूस आसाम से चाय को टेस्ट करने के ब्रिटेन ले गए. आसाम की चाय, चीन की चाय से अलग क़िस्म की है, टेस्टिंग से ये प्रूव करने में लगभग 10 साल का समय लग गया.
ब्रिटिश सरकार इस सब से अलग भारत में चाय उत्पादन के मौक़े तलाश रही थी.
1834 में ब्रिटिश सरकार ने एक ‘टी कमिटी’ बनाई, ताकि भारत में चाय के उत्पादन के लिए प्लान बनाया जा सके.
लेकिन
इस कमिटी ने आसाम की लोकल चाय के बदले, चीन की चाय को बाग़ानों में लगाया. चीन की चाय आसाम के मौसम में नहीं उगाई जा सकती थी. अतः पूरी फसल बर्बाद हुई और टी कमिटी का प्लान फेल हो गया.
मनीराम
दीवान की चाय
इस बीच चार्ल्स ब्रूस अपने काम में लगे रहे. उन्हें साथ मिला मनीराम बरुआ का. बरुआ ने जोरहाट में भारत का पहला चाय बागान लगाया. जो बाद में टोकलोई एक्सपेरिमेंटल स्टेशन नाम से रिसर्च सेंटर बना. मनीराम का जीवन भी कम रोचक नहीं था.
मनीराम बरुआ और चार्ल्स ब्रूस |
केतली में पकी कुल्हड़ वाली चाय |
1837 में मनीराम बरुआ के बाग़ान में 47 बक्से (350 पाउंड) चाय पैदा हई. जो लंदन भेजी गई.
लेकिन लंदन में अभी भी चीन की चाय का बोलबाला था. इसके बाद
1839 ‘आसाम टी कम्पनी’ की स्थापना हुई और मनीराम ‘असम टी कंपनी’ के दीवान बनाए गए. उस वक्त उनकी तनख्वाह 200
रुपये महीना थी. लेकिन कंपनी से कुछ बातों पर मतभेद के चलते उन्होंने
1840 में अपनी नौकरी छोड़ दी.
लंदन में सरकार आसाम टी कम्पनी में इन्वेस्ट करने और उसे व्यापार का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थी. इसलिए आसाम की चाय को बेहतर प्रूव करने के लिए लंदन में आसाम की चाय की पहली बोली लगाए गई. ये बोली 10 जनवरी
1839 लगाई गई थी इसके बाद आसाम की चाय फ़ेमस होती चली गई. आसाम टी कम्पनी को टेड का अधिकार मिला और अगले दस सालों में आसाम में चाय का उत्पादन 15 लाख पाउंड तक पहुंच गया.
आसाम टी कम्पनी आज भी चाय का उत्पादन करती है. कम्पनी के पहले दीवान मनीराम को 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी. आज भारत पूरी दुनिया में चीन के बाद सबसे बड़ा चाय उत्पादक है जिसका 70 फीसदी वो खुद उपभोग करता है.
The End
अस्वीकरण-ब्लॉगर ने यह संक्षिप्त लेख नेट पर उपलब्ध सामग्री और छवियों की सहायता से तैयार किया है। पाठ को रोचक बनाने के लिए इस ब्लॉग पर चित्र पोस्ट किए गए हैं। सामग्री और चित्र मूल लेखकों के कॉपी राइट हैं। इन सामग्रियों का कॉपीराइट संबंधित स्वामियों के पास है। ब्लॉगर मूल लेखकों का आभारी है।
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