किस्सा नवाब वाजिदअली शाह (1847-1856) के वक्त का है। वह गद्दी पर बैठे तो उनके पुरखों द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी से की गई वह संधि पुरानी पड़ चुकी थी।
जिसके तहत कंपनी तो लखनऊ में गोमती पार मडियांव में उनकी सल्तनत की रक्षा के लिए उनके ही खर्चे पर विशाल सेना रखती थी, लेकिन नवाब अपने रौब-रुतबे के लिए नाममात्र की सेना ही रख सकते थे।
वाजिदअली शाह जल्दी ही समझ गए कि उन्हें कंपनी के बढ़ते दबदबे से निजात पानी है तो इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि वह इस संधि के उल्लंघन और कंपनी के अफसरों की नाराजगी की कीमत पर भी नवाबी सेना को कम से कम इतनी मजबूत कर लें कि वह कंपनी की सेना से बीस नहीं तो उन्नीस भी न हो।
ताकि कभी सल्तनत पर कंपनी की नीयत बद हो तो उसे औकात में रखा जा सके या सबक सिखाया जा सके।
इसी सोच के तहत उन्होंने अल्मास बाग के उत्तर मूसाबाग से थोड़ा पहले, आजकल की हरदोई रोड पर बालकगंज के पास स्थित वीराने में, अपनी सेना की नादिरी पलटन की कवायद के लिए बड़ा मैदान विकसित करने को कहा।
साथ ही उन्होंने मुस्लिम सैनिकों के नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद तामीर करने का हुक्म दिया। मगर उनके वजीरेआला ने पहले तो अपनी पुरानी आदत के अनुसार उसको ज्यादा तवज्जो नहीं दी, फिर काम शुरू कराने को लेकर ‘आज कल- आज कल’ करते रहे।
इससे चिढ़े नवाब ने एक सुबह उन्हें बुलाकर कह दिया कि कल वह उक्त मैदान और मस्जिद का मुआयना करने मौके पर जाएंगे, तो उनके हाथ-पांव फूल गए। फिर वैसा ही हड़कंप मचा, जैसा आजकल के सत्ताधीशों के दौरों के वक्त मचता है।
वजीरेआला ने सल्तनत के कार्यकुशल अफसरों और खादिमों को फौरन जरूरत भर लखौरी ईटों के साथ ईंटनवीसों, राजमिस्त्रियों सहित मजदूरों के इंतजाम में लगा दिया ताकि जैसे भी बन पड़े, नवाब के मुआयने से पहले मैदान का समतलीकरण पूरा कर मस्जिद तामीर कर दी जाए। ऐसा न कर पाने पर उन्हें सजा देने की धमकी भी दी।
मरते क्या न करते। अफसरों और खादिमों ने अपना फर्ज भरपूर निभाया। इससे शाम ढलते-ढलते मस्जिद तो खड़ी कर ही दी गई, उसकी दीवारों पर पलस्तर भी चढ़ा दिया गया।
फिर भी पोताई, जिसे कलई कहा जाता था, बाकी रह गई। तब दीवारें सुर्खी-चूने से जोड़ी जाती थीं और पलस्तर के बाद कलई के लिए उनके सूखने का इंतजार किया जाता था।
लेकिन इंतजार का वक्त कहां था? इसलिए अफसरों ने मस्जिद की दीवारें सुखाने के लिए उसके अंदर-बाहर भरपूर कोयला फुंकवाया। जहां उससे भी बात नहीं बनी, अंगीठियों के जोर से उन्हें सुखा दिया। फिर क्या था, भोर के पंछी मस्जिद की कलई के बाद ही बोले।
सूरज की पहली किरण ने मस्जिद को उजले चूने में नहाई हुई तो देखा ही, उस वीराने से गुजरने वाले शहरियों को यह सोचकर अचरज से दांतों तले उंगलियां दबाते और डरते भी देखा कि अभी कल तक तो न यह मैदान ऐसा था, न ही मस्जिद थी! फिर क्या था, जंगल की आग की तरह बात फैल गई कि जिन्नात ने किसी मंसूबे के तहत रातो रात वहां मस्जिद तामीर कर डाली है। आदमी की तो इतनी औकात नहीं।
तय वक्त पर नवाब साहब आए, पलटन की सलामी ली और मस्जिद का मुआयना कर लौट गए। इसके बावजूद लोगों के दिलोदिमाग में जिन्नों द्वारा मस्जिद बनाने की बात ही छाई रही। बाद में कंपनी के अफसरों ने सल्तनत हड़प ली और नवाब को दूसरे मुआयने का मौका ही नहीं दिया तो यह बात और गहरे बैठ गई।
वे उसे खुलकर जिन्नात की मस्जिद कहने और हर जुमेरात मुरादें व तमन्नाएं लेकर वहां जाने लगे। वे मस्जिद की दीवारों पर कोयले से अपनी मुरादें लिखते और मन्नतों के धागे बांधकर वापस लौटते। कहते, ‘घर कौन-सा बसा कि जो वीरां न हो गया, गुल कौन-सा हंसा जो परीशां न हो गया!’
The End
No comments:
Post a Comment