Rahi Masoom Raza (1 सितम्बर 1927--15 मार्च 1992) एएमयू के उर्दू लेक्चरार, मजाज़ के बाद सबसे ज़्यादा मास अपीलिंग पर्सनालिटी, 'हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद' जैसी दिलफरेब ग़ज़ल कहने वाले, 1 सितम्बर 1927 को उत्तरप्रदेश के गाज़ीपुर के गंगौली में जन्में.
यह हैं सैयद मासूम रज़ा आब्दी उर्फ राही मासूम रज़ा (Rahi Masoom Raza). शुरूआती तालीम गाज़ीपुर में हुई.वहाँ की आबोहवा ने उनकी रगों में हिंदुस्तानी तहजीब, लहू की मानिंद भर दी जो वक़्त के साथ-साथ गाढ़ी और गहरी होती गई। वह रिवायती ज़मींदार खानदान के फ़रज़ंद थे लेकिन मिज़ाज बचपन से ही समतावादी पाया। जवानी के दिनों में रज़ा वामपंथी हो गए।
धारावाहिक
महाभारत और चंद्रकांता में विभिन्न किरदारों के मुंह से निकले संवाद आज भी लोगों के
जेहन में तरोताजा हैं। ये संवाद प्रख्यात लेखक व शायर डा. राही मासूम रजा ने लिखे।
नई पीढ़ी शायद इस बात से अंजान हो कि
वह न केवल एएमयू में पढ़े बल्कि पढ़ाया भी।महाभारत व चंद्रकांता सीरियल के कई दृश्य
यहीं लिखे गए। ‘लम्हें ‘में बेस्ट डायलाग के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।
10 साल की उम्र में टीबी हो गई। घर में रहते
हुए तमाम किताबों का अध्ययन किया। इससे लेखन में रूझान हो गया।
लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय
धपक
के चलते आदमी पर आप तरस खाते हैं. हंस देते हैं. दरगुज़र करते या टीवी पर पैर से लिखते/पेंटिंग
करते देख ताली बजाते हैं. शायद ही कभी सुना हो किसी की लंगड़ाई चाल को भी लड़कियां अदा
कह के दीवानी हो जाएं.
मजाज़ के बाद राही अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के
सबसे लोकप्रिय शख़्सियत थे, ख़ासकर ख़्वातीनों के बीच। उनकी जो हल्की सी लंगड़ाहट थी,
उसमें भी बहुत सी लड़कियाँ हुस्न तलाश कर लिया करती थीं।" "वहीं पर उनकी
मुलाक़ात नय्यरा से हुई जिनसे उन्होंने शादी की। राही साहब कुछ मामलों में बहुत 'नॉन-कंप्रोमाइज़िंग'
थे। उर्दू विभाग में उनके कुछ लोगों के साथ मतभेद थे, जिसकी वजह से उन्हें अलीगढ़ छोड़ना
पड़ा।"
१९६८
से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के
लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था।
एएमयू के उर्दू लेक्चरार, मजाज़ के बाद सबसे ज़्यादा
मास अपीलिंग पर्सनालिटी, 'हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद' जैसी दिलफरेब
ग़ज़ल कहने वाले, सैयद मासूम रज़ा आब्दी उर्फ राही मासूम रज़ा (Rahi
Masoom Raza) की शुरूआती तालीम गाज़ीपुर में हुई.
पोलियो
के चलते कुछ दिन पढ़ाई छूटी. पिता वकील और चाचा कवि थे।इंटर करके अलीगढ़ आ गये. AMU
Aligarh से उर्दू में एमए और 'तिलिस्म ए होशरुबा' में पीएचडी की. पढ़ते पढ़ते वहीं पढ़ाने
लगे. यह ज़िंदगी के शुरुवाती दिन थे. और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे
अलीगढ़ के बदरबाग में रहते
हुए उन्होंने हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों मे गिना जाने वाला 'आधा गांव' (Aadha gaon) लिखा. टोपी शुक्ला (Topi Shukla), ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी, दिल एक सादा
कागज़, नीम का पेड़ व 1965 के भारत-पाक
युद्ध में शहीद हुए 'वीर अब्दुल हामिद' की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी
ये सभी रचनाएँ हिंदी में थीं। पेड़ जैसे कालजयी कहानियों के रचयिता राही साहब दिल से
भारतीय थे।
राही
मासूम रजा अपनी धुन में रहने वाले और धारा के विपरीत चलने वाले साहित्यकार के तौर पर
जाने जाते हैं। अपने उसूलों के वह इतने पाबंद थे कि एक बार चुनाव में उन्होंने अपने
पिता के ही खिलाफ प्रचार करने का फैसला ले लिया था।
राही मासूम रजा
ने जब पिता के खिलाफ ही किया था प्रचार
अपने
समय के जमीनी कम्युनिस्ट नेता कामरेड पब्बर राम को कम्युनिस्ट पार्टी ने गाजीपुर नगरपालिका
के अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाया था। पब्बर राम बेहद साधारण पृष्ठभूमि से आते थे।
राही और उनके बड़े भाई मूनिस रज़ा दोनों ने कॉमरेड पब्बर राम का प्रचार करने का निर्णय
लिया जबकि, कांग्रेस ने उनके (राही के) पिता बशीर हसन आबिदी को अपना उम्मीदवार घोषित
किया था।
दोनों
भाइयों ने कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए अपने वालिद को समझाया
कि वह लड़ने का फैसला बदल दें। उनके पिता का तर्क था कि उनका कांग्रेस पार्टी से बहुत
पुराना वास्ता है। वह पार्टी के फैसले की नाफरमानी नहीं कर सकते। ऐसे में राही मासूम
रज़ा ने अपने पिता के खिलाफ बगावती तेवर अपनाते हुए कहा, 'हमारी भी मजबूरी है कि हम
आपके खिलाफ पब्बर राम को चुनाव लड़वाएंगे।'
दोनों भाई अपने फैसले पर कायम रहते हुए अपना सामान
उठाकर पार्टी ऑफिस में रहने चले गए। जब चुनाव के नतीजे आए तो सब यह जानकर हैरान रह
गए कि पब्बर राम जैसे आम आदमी ने जिले के सबसे मशहूर वकील को भारी मतों से हरा दिया।
इस घटना का राही की वामपंथी विचारधारा में ठोस यकीन के नजीर तौर पर जिक्र किया जाता
है।
1965
में जब ''''नई उमर की नई फसल'''' की शूटिंग अलीगढ़ में चल रही थी, तब उनकी मुलाकात
निर्माता-निर्देशक आर चंद्रा (अभिनेता भारत भूषण के बड़े भाई) से हुई। वह मुंबई चले
गए।
डॉ. राही मासूम रजा ने लिखे थे महाभारत
के संवाद, बीआर चोपड़ा के पास आया था खत- क्या सभी हिंदू मर गए हैं?
राही
साहब से जब पहली बार निर्देशक बी आर चोपड़ा ने महाभारत धारावाहिक के संवाद लिखने की
पेशकश की थी तब उन्होंने समय की कमी का हवाला देते हुए संवाद लिखने से इंकार कर दिया
था,
90
के दशक में पौराणिक कथा महाभारत को जब टीवी पर उतारा गया था तब उसके निर्माताओं को
इस बात का विश्वास नहीं था कि उनकी यह रचना कालजयी कीर्तिमानों का वह किला तैयार करेगी
जिसे भेदना किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकेगा।
समय' को स्टोरीटेलर बनाकर नये ज़माने के व्यास बन गए राही!
टीवी पर ‘मैं समय हूं’
की गूंज के साथ एक पौराणिक
धारावाहिक के शुरू होते ही उस दौर में गलियां सुनसान हो जाती थीं और अधिकांशतः श्वेत-श्याम
स्क्रीन वाली टीवियों के सामने लोगों का हुजूम महाभारत देखने के लिए उमड़ पड़ता था।
महाभारत की इस लोकप्रियता में अनेक लोगों की मेहनत शामिल थी। इन्हीं मेहनतकशों में
एक थे डॉ. राही मासूम रजा।
मिथोलॉजी है कि वेद व्यास बोलते जाते थे और श्री गणेश लिखते जाते थे.
तो अब यहां स्क्रीन पर कैसे दिखाया जायेगा.
तो
फिर किसको ऋषिमुनि को बिठाया जाये और वो कहानी सुनाये. ये भी अजीब लगेगा. लेकिन राही
साहब ने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा कहानीकार समय है. वक्त ये कहानी सुनायेगा. इसलिए
जब महाराभारत जब शुरू होता है तो मैं समय हूं की जो आवाज आती है, आपने सुना होगा.
जब
ये आवाज शुरू होती थी, तो सड़कें खाली हो जाती थीं. लोग जो थे, वो होटलों में बैठ जाते
थे. उस वक्त सिर्फ एक शो चला करता था, वो था महाभारत. राही साहब ने जिस तेवर से लिखा
है, खूबसूरती से लिखा है, उसके अंदर राइटर का किस तरह से इस्तेमाल किया है. वह देखने
के लिए महाभारत दोबारा देखनी चाहिए.
मुकेश
खन्ना ने अपने इंटरव्यू में एक डायलॉग बोला, उस वक्त के पूरे हालात को, पॉलिटिक्स को,
न सिर्फ बयान कर रहा है, बल्कि एक सीख भी दे रहा है कि गांधारी जी कहती हैं पितामाह
से कहती हैं कि आप ज्यादा जानते हैं.
आप
युधिष्ठिर को क्यों नहीं समझाते, पितामाह कहते हैं कि जब छाया शरीर से लंबी हो जाये,
तो समझ लेना चाहिए कि सूर्यास्त होने वाला है. इसे कहते हैं कुल्हड़ में दरिया भरना.
इतने छोटे से जुमले के अंदर इतनी बड़ी बात पितामाह की जुबान से कहलावा दी.
सरल-सहज
भाषा शैली और कहानियों का यथार्थ चित्रण राही साहब का लेखकीय चरित्र था लेकिन जब उन्हें
महाभारत जैसे पौराणिक और धार्मिक आस्थागत महत्व वाले धारावाहिक का संवाद लिखने का जिम्मा
मिला तब उन्होंने धारावाहिक की मांग के हिसाब से ऐसी भाषा का हाथ पकड़ा जिसे सामान्य
जन के बीच संस्कृतनिष्ठ और थोड़ी कठिन हिंदी के रूप में जाना जाता है।
राही
साहब ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी को भी बेहद ही सरल और सुबोध्य बनाकर महाभारत में प्रस्तुत
किया था, जिसे सारे देश ने न सिर्फ समझा बल्कि उसके कई संवाद लोगों की जुबान पर भी
चढ़ गए थे ।
राही साहब से जब पहली बार निर्देशक बी
आर चोपड़ा ने महाभारत धारावाहिक के संवाद लिखने की पेशकश की थी तब उन्होंने समय की
कमी का हवाला देते हुए संवाद लिखने से इंकार कर दिया था, लेकिन बी.आर. चोपड़ा ने एक
प्रेस कॉन्फ्रेंस में महाभारत के संवाद लेखक के रूप में राही मासूम रजा के नाम की घोषणा
पहले ही कर दी थी।
बी.आर. चोपड़ा द्वारा संवाददाता सम्मेलन में
संवाद लेखक के बतौर राही मासूम रजा का नाम घोषित करने के बाद हिंदू धर्म के स्वयंभू
संरक्षकों के पत्र पर पत्र आने शुरू हो गए थे। वे एक मुसलमान के हिंदू धर्मग्रंथ पर
आधारित धारावाहिक के संवाद लेखक होने का विरोध करते हुए लगातार लिख रहे थे कि ‘क्या
सभी हिंदू मर गए हैं, जो चोपड़ा ने एक मुसलमान को इसके संवाद लेखन का काम दे दिया।
बी.आर. चोपड़ा ने ये सारे पत्र राही साहब
के पास भेज दिए। इसके बाद गंगा-जमुनी तहजीब के सशक्त पैरोकार राही साहब ने चोपड़ा साहब
को फोन करके कहा – मैं महाभारत लिखूंगा। मैं गंगा का पुत्र हूं। मुझसे ज़्यादा भारत
की सभ्यता और संस्कृति के बारे में कौन जानता है।’
इस
संबंध में राही साहब ने साल 1990 में इंडिया टुडे पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा
था – ‘मुझे बहुत दुख हुआ। मैं हैरान था कि एक मुसलमान द्वारा पटकथा लेखन को लेकर इतना
हंगामा क्यों किया जा रहा है। क्या मैं एक भारतीय नहीं हूं।’
महाभारत का एक दृश्य है, जिसमें भीष्म पितामह की मां गंगा, नदी
के तट पर कंकर चुन रही हैं। यह उनके पुत्रों की अस्थियां थीं। यह दृश्य डा. रजा ने
कर्बला में शहीद हुए इमाम हुसैन के जीवन से लिया।
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मुहर्रम को इमाम हुसैन शहीद होते हैं, उससे एक दिन पूर्व में उनके ख्वाब में मां फातिमा
पत्थर चुनने हुए दिखाई देती हैं। पूछने पर कहतीं हैं कि मेरे पुत्रों को चोट न लगे
इसलिए ऐसा कर रही हूं।
डा. रजा ने शमशाद मार्केट से मीर अनीस
का मर्सिया मंगाया। इससे दृश्य में जान आ गई। शमशाद मार्केट स्थित अपनी कोठी के बगीचे
में बैठकर सोचते रहते थे। चंद्रकांता के कई एपिसोड व लम्हें फिल्म की स्क्रिप्ट यहीं
लिखी। अलीगढ़ और यहां के लोगों से उनका लगाव कम नहीं हुआ।
अपने
काम के जरिये राही मासूम रजा ऐसा बहुत कुछ कर गए हैं कि उन्हें याद करना आज वक़्त की
जरूरत है
हमेशा
अपने घर के हॉल में तकिए पर लेट कर लिखते. लोग आ रहे. जा रहे. उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं
पड़ता था. एक वक़्त में तीन क्लिप बोर्ड पर बारी बारी लिखते. एक पर रूमानी. दूसरे पर
जासूसी तो तीसरे पर किसी अखबार के लिये मज़मून. क़व्वालियां सुनने की शौक़ीन बीवी की पसंद
बजती रहती. घर आया कोई मेहमान बतियाया करता. और लिखना जारी रहता.
उर्दू
में ग़ज़ल/नज़्म, हिन्दी में उपन्यास के बाद कई बॉलीवुड फिल्मों के लिये स्क्रीनप्ले
और डायलॉग लिखे.'मैं तुलसी तेरे आंगन की', 'मिली' और 'लम्हे' के लिये फिल्मफेयर अवार्ड
भी जीता. लेकिन उन्हें अमर, बहुचर्चित, बहुप्रशंसित बनाया नब्बे के दशक के बीआर चोपड़ा
द्वारा निर्देशित टीवी सीरियल 'महाभारत' ने.
राही साहब
के घर का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था
कुछ
ही दिनों में राही की गिनती बंबई के चोटी के पटकथा लेखकों में होने लगी। राही के बेटे,
जो कि खुद एक बड़े सिनेमा फ़ोटोग्राफ़र हैं, बताते हैं, "जहाँ वो रहते थे, वहाँ
हमारा छोटा भाई अब रहता है बैंड-स्टैंड में। वो ढाई कमरे का फ़्लैट था। उनकी एक ख़ास
बात थी कि उसका दरवाज़ा 24 घंटे खुला रहता था।
दोपहर में दस्तर-ख़्वान बिछता था। जो आए 10 हों
या 15 लोग, उन्हें हमेशा खाना खिलाया जाता था।" "बरकत इतनी होती थी कि खाना
कभी कम नहीं पड़ता था। पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट के मेरे बहुत से क्लास-मेट जैसे नसीरउद्दीन
शाह और ओम पुरी का जब भी अच्छा खाना खाने का जी चाहता था, वो बहाना बना कर मेरे घर
आ जाते थे।
राही
बहुत जल्दी उठने वालों में से थे। वो दिन में कई प्याले चाय पीते थे- बिना दूध और शक्कर
की।" "कमाल की बात थी कि उन्होंने कभी होटल जा कर नहीं लिखा। दूसरे लेखकों
के लिए हमेशा लिखने के लिए होटल का कमरा बुक कराया जाता था और शराब वगैरह का इंतेज़ाम
रहता था।
लेकिन
उन्होंने हमेशा अपने घर में ही लिखा। वो हॉल में तकिए पर लेट कर लिखते थे और एक साथ
चार-पांच स्क्रिप्ट्स पर काम किया करते थे।" "लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं,
उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। हमारी अम्मा को कव्वालियाँ सुनने का बहुत शौक था।
वो भी चलती रहती थीं। लेकिन इससे राही साहब का ध्यान कभी भंग नहीं होता था।"
राही साहब
ने मुंबई में फ़िल्म लेखन की सारी बुलंदियों को छुआ, लेकिन बहुत अधिक पैसा नहीं कमा
पाए।
फ़िल्म
इंस्टिट्यूट का कोई बंदा उनसे फ़िल्म लिखवाने जाता था तो वो उससे कोई पैसा नहीं लेते
थे, क्योंकि मैं उस इंस्टिट्यूट में पढ़ता था। उनको मिठाई का बहुत शौक था।"
"कोई उनके लिए एक किलो कलाकंद ले आया तो उसके लिए पूरी की पूरी फ़िल्म लिख दी।
कोई पान का बीड़ा लाया तो उसके लिए भी फ़िल्म लिख दी।"
राही साहब सफ़ेद शेरवानी और काला चश्मा
पहना करते थे,
राही साहब जब वो बाहर जाते थे तो हमेशा शेरवानी और अलीगढ़ी पाजामा पहनते थे। उनकी शेरवानी कभी रंगीन नहीं होती थी। हमेशा वो क्रीम कलर की शेरवानी पहना करते थे। चश्मा हमेशा वो काला पहनते थे, हाँलाकि उनकी आँखों में कोई समस्या नहीं थी। शेरवानी भी ऐसी खुली रहती थी. उसके बटन नहीं लगाते थे. उसके अंदर से उ्यका चिकन का कुर्ता झलझल करता दिखाई देता था. उनका पानदान साथ होता था.
'आधा गांव' में आई गालियों के लिये राही दो टूक कहते
हैं, 'गालियां मुझे भी अच्छी नहीं लगती. लेकिन लोग सड़कों पर गालियां बकते हैं. अगर
आपने कभी गाली सुनी ही ना हो तो आप इस उपन्यास को ना पढ़िये. मैं आपको शर्मिंदा करना
नहीं चाहता.'
देशभक्ति
और क्या होती है भला? नाम देखकर देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांटने वालों से राही ने पहले
ही कह दिया था-
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझको क़त्ल करो
और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे में जिसमें
तुलसी की रामायण से सरगोशी करके
कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूं
मेरा भी एक संदेसा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझको क़त्ल करो और मेरे
घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी नस नस में गंगा
का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर कर
महादेव के मुंह पर फेंको
और उस जोगी से यह कह दो-
महादेव!
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह मलेच्छ तुर्कों के बदन में
गाढ़ा गरम लहू बन-बनकर दौड़ रही है
राही
मासूम रज़ा का निधन 15 मार्च, 1992 को मुंबई में हुआ। राही जैसे लेखक कभी भुलाये नहीं
जा सकते। उनकी रचनायें हमारी उस गंगा-यमुना संस्कृति की प्रतीक हैं जो वास्तविक हिन्दुस्तान
की परिचायक है।
The End
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