Wednesday, 28 July 2021

Jungli Booti (जंगली बूटी): A Silent Love Story by Amrita Pritam--- मैंने तो सिर्फ चाय पी थी...

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिल्कुल नई बीवी है। एक तो नई इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पतिदुहाजूहुआ।


जू का मतलब अगरजूनहो तो इसका मतलब निकलादूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नई हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नई है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।

 

पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी कीकिरियाकरने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरिया वाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था।

Amrita Pritam--Writter of "Jungli Booti"

 

किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आंसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, इस पर साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है—‘‘उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।’’ 

 

इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी... फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गांव से नहीं लौटेगा।

 

मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछे वाली कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गये थे।

 

सो अंगूरी शहर गयी थी। चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या औरतों से भी घूँघट उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी के झाँझरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँझर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन के अधिकरतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।

 

‘‘यह क्या पहना है, अंगूरी?’’

‘‘यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।’’

‘‘और यह उँगलियों में ?’’

 

‘‘यह तो बिछुआ है।’’

‘‘और यह बाहों में ?’’

‘‘यह तो पछेला है।’’

‘‘और माथे पर ?’’

‘‘आलीबन्द कहते हैं इसे।’’

‘‘आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना ?’’

 

‘‘तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूंगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।’’

 

इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।

 

पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है।

 

चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।

 

‘‘क्या पढ़ती हो बीबीजी ?’’ एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी।

 

‘‘तुम पढ़ोगी ?’’

‘‘मेरे को पढ़ना नहीं आता।’’

‘‘सीख लो।’’

‘‘ना।’’

‘‘क्यों ?’’

Amrita Pritam

‘‘औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।’’

‘‘औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता ?’’

‘‘ना, मर्द को नहीं लगता?’’

‘‘यह तुम्हें किसने कहा है?”

 

‘‘मैं जानती हूँ।’’

"फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा?’’

‘‘सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गांव की औरत को पाप लगता है।’’

 

मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी जिन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था।

 

वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का मांस गुथा हुआ था। कहते हैंऔरत आटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का मांस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का मांस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता।

 

सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का मांस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो।...मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर... वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था

 

ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहींवह इस लोई को ढककर रखने वाला कठवत है। इस तुलना से मुझे खुद ही हंसी गई। पर मैंने अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।

 

माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘अंगूरी, तुम्हारे गांव में शादी कैसे होती है ?’’

 

‘‘लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।’’

‘‘कैसे पूजती है पाँव?’’

‘‘लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।’’

‘‘यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिये। लड़की ने कैसे पूजे ?’’

‘‘लड़की की तरफ़ से तो पूजे।’’

‘‘पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं?’’

‘‘लड़कियाँ नहीं देखतीं।’’

‘‘लड़कियाँ अपने होने वाला ख़ाविन्द को नहीं देखतीं।’’

‘‘ना’’

 

‘‘कोई भी लड़की नहीं देखती?’’

‘‘ना’’

पहले तो अंगूरी नेनाकर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, ‘‘जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।’’

‘‘तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं?’’

‘‘कोई-कोई’’

 

‘‘जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता?’’ मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।

 

‘‘पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।’’ अंगूरी ने जल्दी से कहा।

‘‘अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं ?’’

‘‘जे तो...बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।’’

‘‘कोई क्या खिला देता है उसको?’’

 

‘‘एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डाल कर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’’

‘‘सच?’’

‘‘मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’

 

‘‘किसे देखा था ?’’

‘‘मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।’’

‘‘यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलाई थी ?’’



‘‘बरफी में डालकर खिलाई थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।’’

 

‘‘ये तो चीज़ें हुईं ! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलाई थी!’’

‘‘नहीं खिलाई थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी?’’

‘‘प्रेम तो यों भी हो जाता है।’’

‘‘नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है ?’’

‘‘तूने वह जंगली बूटी देखी है?’’

 

‘‘मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।’’

 

‘‘तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाई। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली?’’

‘‘अपना किया पाएगी’’

 

‘‘किया पाएगी’’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह याद गया या तरस गया, दुखे मन से कहने लगी, ‘‘बावरी हो गई थी बेचारी! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।’’

‘‘क्या गाती थी?’’

 

‘‘पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।’’बात गाने से रोने पर पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ पूछा।

 

और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनाई दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँझरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, ‘‘क्या बात है, अंगूरी ?’’

 

अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे से बोली "मुझे पढना सीखा दो बीबी जी"... और चुपचाप फिर मेरी आँखों में देखने लगी...

लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली...

 

"क्यूँ अब तुम्हे पाप नहीं लगेगा, अंगूरी"... यह दोपहर की बात थी शाम को जब मैं बाहर आई तो वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी और उसके होंठो पर गीत था पर बिलकुल सिसकी जैसा...मेरी मुंदरी में लागो नगीन्वा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावा ..अंगूरी ने मेरे पैरों की आहट सुन ली और चुप हो गयी...

 

"तुम तो बहुत मीठा गाती हो... आगे सुनाओ गा कर"

अंगूरी ने आपने कांपते आंसू वही पलकों में रोक लिए और उदास लफ़्ज़ों में बोली "मुझे गाना नहीं आता है"

 

"आता तो है"

"यह तो मेरी सखी गाती थी उसी से सुना था"

"अच्छा मुझे भी सुनाओ पूरा"

 

"ऐसे ही गिनती है बरस की... चार महीने ठंडी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा"... और उसने बारह महीने का हिसाब ऐसे गिना दिया जैसे वह अपनी उँगलियों पर कुछ गिन रही हो...

"अंगूरी?"

 

और वह एक टक मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी... मन मैं आया की पूछूँ की कहीं तुमने जंगली बूटी तो नहीं खा ली है... पर पूछा की "तुमने रोटी खाई?"

 

"अभी नहीं"

"सवेरे बनाई थी? चाय पी तुने?"

"चाय? आज तो दूध ही नहीं लिया"

"क्यों नहीं लिया दूध?"

"दूध तो वह रामतारा..."

 

वह हमारे मोहल्ले का चौकीदार था, पहले वह हमसे चाय ले कर पीता था पर जब से अंगूरी आई थी वह सवेरे कहीं से दूध ले आता था, अंगूरी के चूल्हे पर गर्म कर के चाय बनाता और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा तीनो मिल कर चाय पीते... और तभी याद आया की रामतारा तो तीन दिन से अपने गांव गया हुआ है।

 

मुझे दुखी हुई हंसी आई और कहा कि क्या तूने तीन दिन से चाय नही पी है?

"ना"

"और रोटी भी नहीं खायी है "

अंगूरी से कुछ बोला गया... बस आँखों में उदासी भरे वही खड़ी रही...

 

मेरी आँखों के सामने रामतारे की आकृति घूम गयी... बड़े फुर्तीले हाथ पांव, अच्छा बोलने, पहनने का सलीका था।

"अंगूरी... कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तूने?"

 

अंगूरी के आंसू बह निकले और गीले अक्षरों से बोली मैंने तो सिर्फ चाय पी थी... कसम लगे कभी उसके हाथ से पान खाया, मिठाई... सिर्फ चाय... जाने उसने चाय में ही... और अंगूरी की बाकी आवाज़ आंसुओ में डूब गयी।

The End

 Disclaimer–Blogger has prepared this short story with help of materials and images available on net. Images on this story are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners. Blogger is thankful to original writers.


















































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