हर शहर की अपनी कहानी होती है। लेकिन जूनागढ़ एक नगीना ऐसा है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। जूनागढ़ आजादी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पन्ना है।
ये कहानी उस रियासत की है, जहां का नवाब लोगों को छोड़कर अपने परिवार सहित पाकिस्तान भाग गया। जूनागढ़ पश्चिम भारत के सौराष्ट्र इलाके का एक बड़ा राज्य था. वहां के नवाब महावत खान की रियाया का ज़्यादातर हिस्सा हिंदुओं का था.
जूनागढ़ गुजराती भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है पुराना किला. आजाद हिंदुस्तान से पहले ये एक रियासत हुआ करती थी, जिसके नवाब का नाम था महाबत खान. 15 अगस्त 1947 को भारत की आजादी के बाद जो सबसे बड़ा काम था, वो था रियासतों का एकीकरण. इसका जिम्मा उठाया था उस वक्त के गृहमंत्री सरदार पटेल ने.
जूनागढ़ के भारत में विलय की कहानी
कहानी उस वक्त की जब देश आजाद हो चुका था।और ब्रिटिश भारत छोड़ रहे थे। उस समय देश में 562 रजवाड़े थे।इनमें से सिर्फ़ तीन को छोड़कर सभी ने भारत में विलय का फ़ैसला कर लिया था।लेकिन सारी मुश्किल तीन रजवाड़ों को लेकर थी।
जूनागढ़ की पूरी कहानी में जूनागढ़ के नवाब की कहानी काफी दिलचल्प है।नवाब मुहम्मद महतब खांजी ने 15 दिसंबर को पाकिस्तान में शामिल होने का प्रस्ताव दिया था और 24 अक्टूबर को वो अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए।कराची में जाकर उन्होंने अल्पकालीन सरकार भी बनाई।नवाब महाबत खान को मालूम था कि अगर भारत के साथ ऐसा करते हैं तो तब कहीं ना कहीं इनको बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
यही कारण था कि जैसे ही नवाब साहब ने उन कागजों पर हस्ताक्षर किये थे जो पाकिस्तान को जूनागढ़ की कमान सौंप रहे थे इसके तुरंत बाद ही नवाब साहब भारत को छोड़कर पाकिस्तान भाग गये थे।
भारत से भागने के लिए नवाब साहब के लिए पाकिस्तान से पानी का जहाज भेजा गया था।जूनागढ की जनता के साथ नवाब साहब ने जो धोखा किया था उसकी जिम्मेदार इनकी एक बेगम बताई जाती हैं. जिसका नाम भोपाल बेगम था।जिससे नवाब बहुत प्यार करते थे और इसी के कहने पर पाकिस्तान में शामिल हुए थे।
नवाब के कुत्तों से प्रेम को अभी भी याद किया जाता है। नवाब के पास लगभग 2,000 कुत्ते थे, जिनसे वो बहुत प्यार करते थे। उस वक्त उसके कुत्तों पर 800 से लेकर 1000 रुपये महीने तक का खर्च था।जब वो पाकिस्तान गए तो अपने साथ अपने कुत्तों को भी ले गए। विडंबना देखिए कि उनकी मौत भी रेबीज से हुई। नवाब की मौत 17 नवंबर, 1959 को कराची में हुई।
उसकी बनवाई इमारत आज भी कराची में मौजूद है।खबरें हैं कि आज नवाब के परिवार की हालत पाकिस्तान में काफी बुरी है। उन्हें सरकार की ओर से पेंशन में महज 16 हजार रुपए मिलते हैं, जो किसी चपरासी के वेतन से भी कम है। कराची में रह रही उनकी तीसरी पीढ़ी आज भी नवाब के उस फैसले पर अफसोस करती है।
पाकिस्तान को वतन बनाकर बहुत पछताए थे जूनागढ़ के नवाब
पाकिस्तान के कराची शहर में नवाब महाबत खान के जो तीसरे वंशज रह रहे हैं, उनका नाम है नवाब मुहम्मद जहांगीर खान. कुछ समय पहले उन्होंने पाकिस्तान में कहा कि अगर उन्हें पता होता कि पाकिस्तान जाने के बाद उनका मान सम्मान खत्म हो जाएगा तो वे कभी भारत छा़ेड़कर नहीं आते.
नवाब अपनी संपत्ति जूनागढ़ में छा़ेडकर पाकिस्तान चले आए थे. यहां तक कि उन्होंने अपनी जूनाग़ढ की संपत्ति के बदले में पाकिस्तान में संपत्ति भी नहीं मांगी, तब भी पाकिस्तान में उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है.
न मान न सम्मान न किसी गिनती में परिवारअब नवाब के परिवार का हाल ये है कि मौजूदा पाकिस्तान सरकार उन्हें अन्य राज परिवारों के समान न तो मान-सम्मान देती है औऱ न किसी गिनती में गिनती है. खटास इस बात की भी है कि अपने जिस वजीर के उकसावे में आकर वो पाकिस्तान से भागे, उस वजीर भुट्टो का परिवार पाकिस्तान का मुख्य राजनीतिक परिवार बन गया. वैसे जूनागढ़ के भारत में विलय का मामला भी कोई कम चर्चित नहीं रहा है.
20 फरवरी 1948 को वोटिंग हुई. 1 लाख 90 हजार 688 लोगों ने लाल और हरे रंग के बैलेट बॉक्स में अपने वोट डाले. लाल रंग भारत के लिए था, जबकि हरा रंग पाकिस्तान के लिए था. वोटिंग में 91 लोगों ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया, जबकि 1 लाख 9 हजार 688 लोगों ने भारत में रहने के पक्ष में वोट दिया था.
और परिणाम यह हुआ कि नतीजे आने से पहले ही नवाब 24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान भाग गया।
वह इतना भयभीत था कि अपनी एक बेगम को उसके हवाई अड्डे पर समय से न पहुंचने के कारण उसे छोड़कर ,कुत्तों को साथ ले गया गया। उस वक्त उसके कुत्तों पर 800 से लेकर 1000 रुपये महीने तक का खर्च था. वो पाकिस्तान जाते वक्त कुत्तों को अपने साथ ले गया।
महाबत के इस निर्णय की एक बहुत बड़ी वजह उनकी पत्नी भी थी। उनकी पत्नी का नाम भोपाल बेगम था। भोपाल बेगम ऐसा चाहती थी कि जूनागढ़, पाकिस्तान में विलय हो इसलिए उन्होंने इस संदर्भ में लोगों का
धीरूभाई अंबानी जूनागढ़ के ही रहने वाले थे.
उनक बेटे अनिल इस जूनागढ़ से एक और शख्स का गहरा नाता है, वो हैं मुकेश अंबानी. मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के पिता धीरूभाई अंबानी का जन्म भी इसी शहर में हुआ था. कहा जाता है कि धीरूभाई अंबानी इन्हीं गिरनार की पहाड़ियों पर सप्ताह के आखिरी दिनों में आने वाले टूरिस्टों को पकौड़े बेचा करते थे.
जूनागढ़ के दीवान थे‘ “शाहनवाज भुट्टो “ (जुल्फिकार भुट्टो के पिता)
1947 को हिन्दोस्तान के बंटवारे के समय किसी रियासत को देश में मिलाने के लिए सबसे ज्यादा जद्दोजहद हुई तो वह जूनागढ़ रियासत थी. जिसके दीवान ‘शाहनवाज भुट्टो‘ थे. वह कभी नहीं चाहते थे कि जूनागढ़ भारत का हिस्सा बने. हालांकि यह कभी मुमकिन नहीं हुआ और शाहनवाज बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए.
उससे पहले 5 जनवरी 1928 को सिंध प्रांत के एक शहर लरकाना में शाहनवाज भुट्टो की बेगम ने तीसरे और सबसे छोटे बेटे को जन्म दिया, यह बच्चा कोई और नहीं बल्कि जुल्फिकार था.
जूनागढ़ के दीवान शाहनवाज भुट्टो को बदली हुई परिस्थितियों में नवाब की सहमति से आठ नवंबर, 1947 को जूनागढ़ का कब्जा लेने के लिए भारत सरकार को अनुरोध करना पड़ा और इस अनुरोध के हिसाब से नौ नवंबर, 1947 को भारत सरकार ने अपने प्रतिनिधि नीलम बुच के जरिए जूनागढ़ का प्रशासन अपने हाथ में लिया और शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू की। बीस फरवरी 1948 को जूनागढ़ की जनता ने जनमत के माध्यम से भारत के साथ विलय कर दिया।
09 नवंबर भारतीय फौजों ने कब्जा कर लिया
इन्हीं सब परिस्थितियों के बीच 09 नवंबर को भारतीय फौजें जूनागढ़ में प्रवेश कर गईं और उन्हें जूनागढ़ पर कब्जा कर लिया. इस तरह जूनागढ़ आजाद हो गया. हालांकि, पुख्ता मुहर 20 फरवरी 1948 को लगी, जब वहां भारत सरकार ने जनमत संग्रह कराया. कुल 2,01, 457 वोटरों में 1,90,870 ने वोट डाले. पाकिस्तान के पक्ष में केवल 91 वोट पड़े.
The End
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