Friday, 26 June 2020

Daulat Beg Oldi: दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी, भारत की शान,चीन के आंखों की किरकिरी


इतना सब हो रहा है, लेकिन आज भी बहुत लोग ऐसे हैं, जो दौलत बेग ओल्डी के बारे में जानते नहीं। आखिर ऐसे क्या कारण हैं, जो चीन को यही एक जगह मिली अपने राष्ट्र का झंडा गाड़ने के लिये।

Daulat Beg Oldi कभी मध्य एशिया से व्यापार गतिविधियों का मुख्य पड़ाव रहा।अब चीन से तनाव के कारण चर्चा में है। इसे सिल्क रूट का मुख्य पड़ाव भी कहा जाता था। दौलत बेग ओल्डी में 5065 मीटर (16,614 फीट) की ऊंचाई पर एक हवाई पट्टी भी बनाई है, जो दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी है।

दुनिया का सबसे ऊंची हवाई पट्टी और सैन्य शिविर के कारण डीबीओ पूरे लद्दाख में भारत की आन-बान और शान का प्रतीक है। भारतीय सेनाओं की बढ़ती ताकत और इस क्षेत्र के सामरिक, कूटनीतिक महत्व के कारण चीन यहां पर साजिशें बुनता रहता है।


दौलत बेग ओल्दी (Daulat beg Oldi), भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य के लद्दाख़ प्रदेश में स्थित एक स्थान है।यहाँ भारत की एक सैनिक चौकी है । यह ऐतिहासिक रूप से भारत और पूर्वी तुर्किस्तान के बीच के व्यापारिक मार्ग पर एक पड़ाव हुआ करता था। इस से ठीक दक्षिण में पूर्व से पश्चिम बहने वाली चिपचप नदी गुज़रती है। दौलत बेग ओल्दी के नाम का परिवर्णी (ऐक्रोनिम) बनाकर इसे कभी-कभी डी॰बी॰ओ॰ भी कहा जाता है।

क्या है दौलत बेग ओल्डी(Daulat beg Oldi),जिसके लिये पगलाया चीन

दौलत बेग की कहानी हम शुरू करेंगे उन शब्दों से जो चीनी सेना के बैनर पर लिखे थे, "आप चीन की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं"। इसी बैनर के साथ चीन ने सरहद से 19 किलोमीटर अंदर घुस कर अपने पांच टेंट लगाये और झंडे गाड़ दिये।

ऐसा इसने इसलिये किया क्योंकि यहां से सीधा रास्ता जाता है चीन के जिनजियांग शहर में यारकंड तक। लद्दाख से शुरू होने वाले इसी रास्ते के जरिये पुरातन काल में दोनों देशों के बीच व्यापार होता था। इस दूरस्थ इलाके में आज भी मोबाइल फोन नहीं चलता। यहां सिर्फ सैटेलाइट फोन के जरिये ही बात की जा सकती है।

स्थान और भौतिक स्थिति

दौलत बेग ओल्डी भारत के सुदूर उत्तर में एक ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र में काराकोरम रेंज के पूर्वी बिंदु के पास है, जो चीनी सीमा से दक्षिण में 8 किमी और अक्साई चिन लाइन के उत्तर-पश्चिम में चीन और भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण के 9 किमी उत्तर में स्थित है।

दौलत बेग ओल्डी लद्दाख की वो ऐतिहासिक जगह है, जहां पर भारतीय सेना का मिलिट्री बेस है। यहां पर चिपचप नदी भी बहती है। कराकोरम रेंज में स्थित दौलत बेग इस इलाके का सबसे ठंडा इलाका है, जहां से चीन सीमा यानी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल सिर्फ 8 किलोमीटर की दूरी पर है।

इसके अलावा सियाचिन के ग्लेशियर है जहां भारत के मिलिट्री बेस हैं। यहां से दक्षिण की ओर मुर्गो है, जहां बाल्टी समुदाय के लोग रहते हैं। असल में यही यहां के स्थानीय निवासी हैं, जो याक और एप्रीकॉट पर अपना जीवन बसर कर रहे हैं। यहां का तापमान जाड़े में -30 डिग्री तक रहता है। यहां बर्फ गिरना आम बात है। पुराने जमाने में यहीं से व्यापार होता था, लेकिन 1962 की भारत-चीन जंग के बाद इस रास्ते को बंद कर दिया।
भारत सरकार ने पहली बार 2001 में लेह से अपने गंतव्य तक दौलत बेग ओल्डी में एक मोटर-योग्य सड़क बनाने की योजना की घोषणा की। यह सड़क 2019 में बनकर तैयार हुई। 255 किलोमीटर की दूरी पर दरबूक-श्योक-डीबीओ रोड 4,000-5,000 मीटर (13,000-16,000 फीट) की ऊंचाई पर है। यात्रा का समय छह घंटे बताया गया है।सर्दियों में तापमान -55 C जितना कम रहता है।

दौलत बेग ओल्डी का  मुगल युग (व्युत्पत्ति); मिर्जा मोहम्मद हैदर द्वारा लिखे ग्रंथ तारीख- ए- रशीदी

दौलत बेग ओल्डी का शाब्दिक अर्थ है "वह स्थान जहाँ महान और अमीर व्यक्ति की मृत्यु हुई"।"दौलत बेग ओल्दी" तुर्की भाषा का एक अल्फाज़ है जिसका मतलब होता वह जगह जहां एक महान जंगज़ू की मौत हुई। ये जंगज़ू था सुल्तान सईद खान जिनकी मौत कश्मीर फ़तह कर वापसी के दौरान इसी लद्दाख़ चोटी पर 1533 में हुई थी।कहते हैं कि उसे अपने ख़ज़ाने के साथ यहीं दफ़ना दिया गया है लेकिन आजतक कोई उसकी क़ब्र नहीं ढूंढ पाया है।

मुग़ल बादशाह बाबर के देहांत के बाद 1531 में सुल्तान सईद खान ने कश्मीर का रुख किया। 8600 मीटर ऊंची काराकोरम चोटी पर करते हुए बल्टिस्तान पहुचा बल्टिस्तान फ़तह करने के बाद अपने कमांडर मिर्ज़ा हैदर को कश्मीर भेजा और ख़ुद वापसी का रुख किया सन 1533 में वापसी के वक़्त फिर से काराकोरम की ऊंची चोटी को पार करना पड़ा चढाई के दौरान सुल्तान बीमार पड़ गया और वहीं उनकी मौत हो गई। सुल्तान के मौत के बाद उनका कमांडर हैदर मुग़ल बादशाह हुमायूं की सेना में शामिल हो गया। जहां उसने तारिख-ए-रशीदी लिखा था।

पूर्वी लद्दाख का दौलत बेग ओल्डी का पहला विस्तृत उल्लेख मिर्जा मोहम्मद हैदर द्वारा लिखे ग्रंथ तारीख ए राशिद में मिलता है। मिर्जा हैदर यारकंद के तत्कालीन सुल्तान सैयद खान का चचेरा भाई था। सैयद सुल्तान खान ने 1530 में तिब्बत और कश्मीर को जीतने की मुहिम शुरू की।



मोहम्मद हैदर ने लिखा है कि 1531 में सर्दियों के समाप्त होते ही वह सुल्तान खान के साथ मुहिम पर निकला। कारकोरम दर्रे को पार करते हुए डीबीओ में सुल्तान बीमार हो गया। सुल्तान चंद दिनों में ठीक हो गया। सुल्तान ने हैदर को कश्मीर फतह के लिए भेजा और खुद बाल्टिस्तान पर चढ़ाई के लिए निकला। बाल्टिस्तान में बड़ी संख्या में लोग मारे गए।

दूसरी तरफ कश्मीर की तरफ बढ़ते हुए द्रास के राजा को हैदर ने हराया। इसके बाद वह श्रीनगर पहुंचा और श्रीनगर के राजा ने उसकी अधीनता स्वीकारते हुए उसे अपना मेहमान भी बनाया। 1533 में वह वापस लौटा और वसंत के मौसम में लद्दाख के आगे वह फिर सुल्तान सैयद खान से मिला।

मिर्ज़ा मुहम्मद हैदर की तारिख-ए-रशीदी

मिर्ज़ा हैदर दोगलत ने 1540 ई. में कश्मीर पर कब्ज़ा कर हमायूँ के प्रतिनिधि के रूप में शासन किया था। मिर्ज़ा हैदर दोगलत बाबर का मौसेरा भाई था।तारीख़-ए-रशीदी मुग़ल बादशाह हुमायूँ की शाही फ़ौज में कमांडर के पद पर नियुक्त मिर्ज़ा हैदर दोगलत द्वारा रची गई थी।

जॉनसन लाइन के अनुसार अक्साई चिन था जम्मू कश्मीर का हिस्सा

अंग्रेज अधिकारी डब्लयूएच जॉनसन ने चीन और लद्दाख के बीच किसी भी तरह के विवाद से बचने के लिए 1865 में जॉनसन लाइन का प्रस्ताव रखा। उन्होंने अक्साई चिन को पूरी तरह जम्मू कश्मीर का हिस्सा बतया। उस समय चीन का जियांग पर कोई कब्जा नहीं था औ जियांग की सीमा अक्साई चिन के साथ लगती थी।

इसलएि जॉनसन लाइन पर चीन की राय का कोई औचित्य ही नहीं था। करीब 34 साल बाद 1899 में चीन ने जियांग पर कब्जा कर लिया और फिर अक्साई चिन में भी दिलचस्पी दिखानी आरंभ कर दी। उसके बाद ब्रिटिश अधिकारी जॉर्ज मैकेर्टिनी ने नयी सरहद तय की और ब्रिटिश शासन के मुताबिक मैकेर्टिनी रेखा कारकोरम को सीमा मानती थी।

सर क्लॉन मैक्डोनाल्ड की तरफसे यह प्रस्ताव चीन को भेजा गया। चीन ने कोईजवाब नहीं दिया और उसकी चुप्पी को चीन की सहमति मान लिया गया।


साल 1914 में ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र की सामरिक महत्ता को समझा और पूरे क्षेत्र को फिर अपने अधिकार में लेना चाहा। अंग्रेजों ने पूरे क्षेत्र पर अपनी सैन्य ताकत के जरिए कब्जाकर लिया। साल 1947 में देश की आजादी के बाद भारत ने जॉनसन लाइन को चीन के साथ अपनी सीमा मान लिया, लेकिन चीन साजिशें रचता रहा और वह समूचे अक्साई चिन को अपना इलाका बताता रहा। भारत-चीन के बीच 1962 में हुई लड़ाई के दौरान चीन ने मैकेर्टिनी और मैक्डोनाल्ड रेखा को लांघते हुए बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया।

यह इलाका आज भी उसके कब्जे में है। इसके बाद दोनों के बीच सीमा विवाद बढ़ गया और दोनों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा तय हुई। चीन ने सीमा विवाद के पूरी तरह हल होने तक सुझाव दिया कि दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण पर अपने अपने इलाके में 20-20 किलोमीटर पीछे चले जाएं। हर बार चीन छल करता है और वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करता आया है।

Daulat Beg Oldi का महत्व

Daulat Beg Oldi ही वह क्षेत्र है जिससे अक्साई चिन में चीन की हर हरकत पर भारतीय सेनाओं की नजर रहती है। कारकोरम, अक्साई चिन, जियांग, गिलगित बाल्टिस्तान व गुलाम कश्मीर तक चीन के मंसूबों को रोकने और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना के हर दुस्साहस का मुहंतोड़ जवाब देने में Daulat Beg Oldi भारत के लिए तुरुप का पत्ता है।

यह सियाचिन में भी भारतीय सेना के लिए भी एक मजबूत स्तंभ है। यह मध्य एशिया के साथ भारत के जमीनी संपर्क के लिए बहुत अहम है। कारोकोरम की पहाड़ियों के सुदूर पूर्व में स्थित डीओबी अक्साई चिन में भारत-चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा से मात्र आठ किलोमीटर दूर पूर्वोत्तर में है।
The End
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Tuesday, 23 June 2020

Story of Galwan Valley--वो गुलाम रसूल गलवान: जिसकी वजह से घाटी का नाम 'गलवान'पड़ा


सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 1962 के बाद पहली बार इस क्षेत्र में तनाव पैदा हुआ है, और वह भी तब जब LAC को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है और दोनों ही प्रतिद्वंद्वी पक्षों की ओर से स्वीकार किया गया है.

आइए 1962 पर लौटते हैं जब चीन ने भारत पर अपनी पूर्वी और उत्तरी सीमाओं पर हमला किया. अन्य फैक्टर्स के अलावा इस युद्ध के लिए बड़ी वजह में से एक शिनजियांग और तिब्बत के बीच सड़क का निर्माण था.

यह राजमार्ग आज G219 के रूप में जाना जाता है और इस सड़क का लगभग 179 किमी हिस्सा अक्साई चिन से होकर गुजरता है, जो एक भारतीय क्षेत्र है.भारतीय सहमति के बिना सड़क का निर्माण करने के बाद, चीनी दावा करने लगे कि ये क्षेत्र उन्हीं का है.

1959 तक जो चीनी दावा था, उसकी तुलना में सितंबर 1962 (युद्ध से एक महीने पहले) में वो पूर्वी लद्दाख में और अधिक क्षेत्र पर दावा दिखाने लगा. नवंबर 1962 में युद्ध समाप्त होने के बाद चीनियों ने अपने सितंबर 1962 के दावे लाइन की तुलना में भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया.


लद्दाख के पास स्थित गलवान घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चीन में है. वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी LAC अक्साई चीन को भारत से अलग करती है. अक्साई चीन को विवादित क्षेत्र इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस पर भारत और चीन दोनों ही अपना दावा करते हैं. ये घाटी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख़ तक फैली है. गलवान नदी के पास होने के कारण इस इलाके को गलवान घाटी कहा जाता है.
पूर्वी लद्दाख में चीन और भारत के बीच सैन्य तनाव का केंद्र बनी गलवन घाटी पिछले कई दिनों से चर्चा में है। सवाल ये उठा रहा है कि गलवान वैली कहां है? (Where is Galwan valley) और इस इलाके पर प्रभुत्व को लेकर दोनों देश क्यों इतने उतावले हैं? लद्दाख के पास स्थित गलवान घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चीन में है. वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी LAC अक्साई चीन को भारत से अलग करती है.

अक्साई चीन को विवादित क्षेत्र इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस पर भारत और चीन दोनों ही अपना दावा करते हैं. ये घाटी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख़ तक फैली है. गलवान नदी के पास होने के कारण इस इलाके को गलवान घाटी कहा जाता है.

लगभग 14 हजार फीट की ऊंचाई और माइनस 20 डिग्री तक गिरने वाले तापमान वाली जगह गलवान घाटी में जारी तनाव के बीच हम इसके इतिहास के बारे में जानने की कोशिश करते हैं.
ऐसे पड़ा गलवान घाटी (Galwan Valley) का नाम
गलवां घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले चरवाहे गुलाम रसूल गलवां के नाम पर पड़ा था। सर्वेंट ऑफ साहिब नाम की पुस्तक में गुलाम रसूल ने बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में बताया है।

गुलाम रसूल गलवां का जन्म सन 1878 में हुआ था। गुलाम रसूल को बचपन से ही नई जगहों को खोजने का जुनून था। इसी जुनून की वजह से गुलाम रसूल अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बन गया।
अंग्रेजों को भी लद्दाख का इलाका बहुत पसंद था। ऐसे में गुलाम रसूल ने 1899 में लेह से ट्रैकिंग शुरू की थी और लद्दाख के आसपास कई नए इलाकों तक अपनी पहुंच बनाई। इसी क्रम में गुलाम रसूल गलवां ने अपनी पहुंच गलवां घाटी और गलवां नदी तक बढ़ाई। ऐसे में इस नदी और घाटी का नाम गुलाम रसूल गलवां के नाम पर पड़ा।

गलवन समुदाय का इतिहास
कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले एक समुदाय को गलवन बोला जाता है। कुछ स्थानीय समाज शास्त्रियों के मुताबिक इतिहास में घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है।
कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल गलवन का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था।उसे अकासकल की उपाधि दी गई थी।

ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार मिला था।

वर्ष 1925 में गुलाम रसूल की मौत हो गई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्ताना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्नोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह सिंधु नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल श्योक नदी में आकर मिलती है।

भारत-चीन के लिए क्यों अहम है गलवान घाटी, जहां सैनिकों की हुई झड़प
पैंगोंग सो में फिंगर क्षेत्र में सड़क को भारतीय जवानों के गश्त करने के लिहाज से अहम माना जाता है. भारत ने पहले ही तय कर लिया है कि चीनी विरोध की वजह से वह पूर्वी लद्दाख में अपनी किसी सीमावर्ती आधारभूत परियोजना को नहीं रोकेगा.

भारत और चीन के बीच 1950 से चल रहा विवाद
दरअसल, इस क्षेत्र को लेकर भारत और चीन के बीच 1950 से ही विवाद चल रहा है. सबसे अहम बात यह है कि 1962 के बाद पहली बार इस क्षेत्र में तनाव पैदा हुआ है, और वह भी तब जब एलएसी को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है और दोनों देशों की ओर से स्वीकार किया गया है.
1962 में चीन ने भारत पर अपनी पूर्वी और उत्तरी सीमाओं पर हमला किया था. अन्य फैक्टर्स के इस युद्ध के लिए बड़ी वजह शिनजिंयाग और तिब्बत के बीच सड़क का निर्माण था. यह राजमार्ग आज जी-219 के रूप में जाना जाता है. इस सड़क का लगभग 179 किलोमीटर हिस्सा अक्साई चिन से होकर गुजरता है, जो एक भारतीय क्षेत्र है. भारतीय सहमति के बिना सड़क निर्माण करने के बाद, चीन दावा करने लगा कि ये क्षेत्र उसका है.

कहां है ये इलाका और कब से है विवाद
चीन लगातार भारत के इलाके पर अपना अधिकार जताता रहा है. अक्साई चिन का ये इलाका तिब्बती पठार के उत्तर-पश्चिम में है. ये कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे का इलाका है. अगर ऐतिहासिकता में देखा जाए तो ये इलाका भारत को मध्य एशिया से जोड़ने वाले सिल्क रूप का हिस्सा था.

सैंकड़ों सालों तक ये मध्य एशिया और भारत के बीच संस्कृति, बिजनेस और भाषा को जोड़ने का माध्यम रहा है. अक्साई चिन लगभग 5,000 मीटर ऊंचाई पर स्थित एक नमक का मरुस्थल है. इसका क्षेत्रफल 42,685 वर्ग किलोमीटर है. ये इलाका निर्जन है यहां स्थाई बस्तियां नहीं हैं.
1959 तक चीन का जो दावा था, उसकी तुलना में सितंबर 1962 (युद्ध से एक महीने पहले) में वह पूर्वी लद्दाख में और अधिक क्षेत्र पर दावा दिखाने लगा. नवंबर 1962 में युद्ध समाप्त होने के बाद चीनियों ने अपने सितंबर 1962 के दावे लाइन की तुलना में भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया.

 चीन अपने शिनजियांग-तिब्बत राजमार्ग से भारत को यथासंभव दूर रखना चाहता था. यही कारण है कि चीन ने अपनी दावा लाइन को इस तरह तैयार किया कि सभी प्रमुख पहाड़ी दर्रों और क्रेस्टलाइन्स पर उसका कब्जा दिखे.

पर्वत श्रृंखलाओं के बीच आने-जाने के लिए पहाड़ी दर्रों की जरूरत होती है, उन्हें कब्जा करके चीन चाहता था कि भारतीय सेना पश्चिम से पूर्व की ओर कोई बड़ा मूवमेंट न हो सके.

The End
Note—This Blog “Story of GalwanValley--वो गुलाम रसूल गलवान: जिसकी वजह से घाटी का नाम 'गलवान'पड़ा”.has been prepared with the help of reporting of various News papers, TV.Channels reporting and photos available on net. With thanks to all of them